“पिता जी सूर्या जीजी के लिए नहीं रोये थे”
कड़कड़ाती सर्दी भरी रात का लगभग दस बजा होगा, पिता जी अभी इलाहाबाद से लौटे नहीं थे । माँ हमेशा की तरह उनके इंतज़ार में जाग रही थीं । अलाव सामने रखकर रज़ाई में बैठी - बैठी वीर भैया का स्वेटर बुन रही थीं । अचानक याद आया कि तुलसी को ओढ़नी ओढ़ाना तो भूल ही गईं । तुलसी की ओढ़नी वो स्वयं ही धोतीं, सुखातीं और ओढ़ातीं, हटातीं, किसी को उसे छूने की इजाजत नहीं थी । पाला एक ही रात में उसकी नरम - नरम पत्तियों को झुलसा डालेगा यह सोचकर ओढ़नी लेकर माँ चौरे की तरफ चलीं ही थीं कि शेरा कोई आहट पाकर तेज़ – तेज़ भौंकता हुआ सदर दरवाजे की तरफ दौड़ा, जो आँगन के पार जाकर खुलता था । माँ ने जल्दी से तुलसी को ओढ़नी ओढ़ाई और शेरा के पीछे सदर दरवाजे की तरफ मुड़ीं कि बाहर से वीर भैया को संबोधित करते पिता जी की रौबीली आवाज़ सुनाई दी,
” वीरेंद्र प्रताप जी दरवाजा खोलिए ।"
माँ बतातीं थीं कि वीर भैया को पिता जी जब भी आवाज़ लगाते इतने ही सम्मान के साथ लगाते, बल्कि वीर भैया ही नहीं वो जिस भी बच्चे को पुकारते इतने ही सम्मान के साथ पुकारते, कहते कि कल इन बच्चों में से न जाने कौन देश का महान नागरिक बन जाए । खैर, गहरी नींद में सोये डेढ़ बरस के वीर प्रताप सिंह के कानों पर तो जूं भी नहीं रेंगी पर हाँ शेरा के साथ माँ अवश्य दरवाजे पर पहुँच गईं थीं । ड्योढ़ी पर लगे ज़ीरो वाट के बल्ब की मरियल पीली रोशनी में भी पिता जी की आंखों में खुशी की जगमगाहट स्पष्ट दीख रही थी । माँ ने सोचा पिता जी इलाहाबाद वाली ज़मीन का केस जीत गए । परंतु नहीं , माजरा कुछ और ही था, पिता जी अपनी छह फुट दो इंच की ऊँचाई के साथ खुद को कंबल में लपेटे हुए एक तरफ से झुके हुए से घर में दाखिल हुए । माँ समझ गईं कि इस बार फिर किसी को उठा लाये । पिछले बरस लगभग इन्हीं दिनो, इस देसी वंश के शेरा को भी तो अपने ओवरकोट की जेब में रखकर ले आए थे । माँ के यह पूछने पर कि “ये देसी पिल्ला कहाँ से उठा लाए ?”
अपनी तुरत बुद्धि का प्रयोग कर तुरंत उसका नामकरण कर वो बड़े गर्वीले अंदाज़ में बोले थे कि,
“यह कोई देसी पिल्ला नहीं शेरा है शेरा ।“
उन्होने बताया कि बंसी कहता था कि उसकी माँ उसे और उसके तीन बहन भाइयों को जन्म देने के बाद कड़कड़ाती ठंड सह नहीं पाई थी और उन्हें पिता जी जैसे नरम दिल इंसानों पर भरोसा कर, निश्चिंत हो कर इस संसार से कूच कर गई थी । इसी तरह उसके सारे सहोदर भी उस सर्दी से सामञ्जस्य नहीं बैठा पाने के कारण माँ के साथ निकल पड़े थे, पर शेरा तो रहा शेरा । मौत से जद्दोजहद कर उस पर विजय हासिल कर लेने की उसकी यह विशेषता पिताजी को भा गई थी बस । और उसके आगे का जीवन उन्होने अपने संरक्षण में ले लिया था ।
तेईस बरस की छोटी सी वयस में ही माँ स्वयं दो बच्चों, गौरांगी जीजी और वीर भैया की माँ बन गईं थीं । पिता जी की लाड़ली इकलौती बहन, हमारी चंद्र कुँवर बुआ की बेटी हमारी सूर्या जीजी भी हमारे घर रहकर ही पल बढ़ रहीं थीं अतः वो भी हमारी प्यारी माँ की ही ज़िम्मेदारी थीं । वो बड़ी थीं तो माँ की थोड़ी बहुत मदद भी करा देतीं गृहस्थी के कामों में । अपने दोनों बच्चों के हिस्से से ही नन्हें से शेरा को भी खूब समय देना पड़ा था माँ को । अब कौन आ गया ? वे यही देखने पिता जी के पीछे - पीछे चलीं । अबकी बार पिता जी के कंबल में छिपी हुई थी घोड़ी की तीस बत्तीस किलो की, हष्ट - पुष्ट नवजात सी ही, झक सफ़ेद बच्ची । शेरा की तरह वह कोई सड़क पर पड़ी लावारिस बच्ची नहीं थी, किसी साधारण सी घोड़ी की । उसे तो खरीदकर लाए थे वो सोरों के मेले से । इलाहाबाद से लौटते समय उन्हें बदायूं जाना था किसी काम से अतः कोई अच्छी नस्ल का घोड़ा देखने सोरों भी जा पहुंचे थे । वहाँ अपनी माँ के साथ खड़ी घोड़ी की इस नन्ही सी बच्ची से दृष्टि हटी ही नहीं थी उनकी, उसकी चंचलता और मासूमियत भरी सुंदरता बस भा गई थी उन्हें तो । बाद में बताते थे कि उसकी असली कीमत से भी कहीं ज़्यादा कीमत अदा की थी उन्होने उसकी, तब कहीं उसकी माँ के मालिक ने लाने दिया था उस दुधमुंही को ।
माँ ने राहत की सांस ली चलो इसे संभालना तो साईस चाचा की ज़िम्मेदारी होगी ,परंतु पिता जी के विचार से इतनी नन्ही सी वो बच्ची साईस चाचा के ऊपर कैसे छोड़ी जा सकती थी । अतः गौरा जीजी, वीर भैया सूर्या जीजी और शेरा के साथ उसके खाने पीने की ज़िम्मेदारी भी हमारी ममतामई माँ पर ही आन पड़ी । पर माँ की व्यस्तता भरी दिनचर्या में जल्दी - जल्दी दिया गया दूध या दूसरी चीज़ें वो सूँघती भी तो नहीं थी । अपनी माँ का हावका मारता उसे और वो बेहद उदास दिखने लगती । माँ पिता जी से उसकी शिकायत तो नहीं करतीं हाँ पिता जी को उनकी गलती का ऐहसास ज़रूर करातीं । इतनी नन्ही सी बच्ची को उसकी माँ से अलग कर देने की गलती का ऐहसास ।
पिता जी उसकी सूनी - सूनी अबोध आँखों को देखते और वो खुद भी दुखी हो उठते । वाकई उन्हें अपराध बोध होता कि इस नन्ही सी बच्ची को इसकी माँ से अलग करके शायद ठीक नहीं किया था उन्होने । इसी अपराध बोध से पीछा छुड़ाने के लिए उन्होने उसे खिलाने - पिलाने का काम अपने ही हाथों मे ले लिया । ज़रूरी से ज़रूरी काम भी छोड़कर वे देर तक उसे पुचकारते रहते । पहले पहल तो वह उनके पास भी नहीं आती, जैसे अपनी माँ से अलग किए जाने का विरोध जता रही हो उनसे । पर पिता जी उसे खुश करने का कोई तरीका बाकी बचा न रहने देते । वे कभी उसे गले लगाते और वह ठुनक कर दूर भाग जाती , कभी उसकी पीठ सहलाते और वह कूद कर दूर हो जाती , कभी उसके नन्हें - नन्हें कत्थई खुरों पर अपनी उँगलियाँ फेरते और वह पिता जी के हाथ पर अपनी नन्ही सी लात जड़ देती, और पिता जी मुस्कुरा कर रह जाते । कभी पिता जी उसकी पलकों को हौले से बंद करने खोलने का खेल खेलते, और वह रूठ कर कभी इधर मुंह फेरती कभी उधर । पिता जी उसके इन बाल सुलभ नखरों पर मुस्कुरा उठते । और माँ से कहते ,
“प्राणी देखो बिलकुल गौरा की तरह नखरीली है ये बच्ची तो ।“
माँ को बेतहाशा प्रेम करने वाले पिता जी उन्हें “प्राणी” ही पुकारते थे। इस प्राणी का अर्थ वह यह बताते कि जिसमें किसी के प्राण बसते हैं वह उसका प्राणी होता है । पिता जी द्वारा प्राणी पुकारी जाने वाली माँ उस बच्ची की तुलना गौरा जीजी से करने पर हंसतीं और कहतीं,
“ अब तो हद ही कर दी आपने , इस जानवर को अपनी बच्ची से ही तोलने लगे, ऐसा भी क्या पशु प्रेम ।“
जब किसी भी तरह वह नन्ही खुश न होती तो पिता जी गर्दन के नीचे उसे देर तक प्यार से सहलाते । इस पर वह वाकई खुश होने लगी, धीरे - धीरे अपनी मुलायम गर्दन उनके मजबूत कंधे पर रखने लगी, और उनके कान के पास अपने नथुने ले जाकर उन्हें सूँघती । यूं भी इस तरह जी जान से किया गया प्रेम किसी से हारा ही कब जो पिता जी उस नन्ही सी बच्ची से हार जाते । भरत मिलाप के समय दो भाइयों के प्रेम ने चित्रकूट के पत्थर पिघला दिये थे तो इस नन्ही का कोमल हृदय कैसे न पिघल जाता पिता जी के दुलार भरे अथक प्रयासों से । उसके हृदय की पिघलन से पिता जी को जैसे उनके परिश्रम के बदले ढेर सा पारिश्रमिक मिलने लगा । उस वक्त उनके चेहरे से फूटी पड़ रही नेह भरी सफलता की खुशी का अंदाज़ा लगाना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं होता जब वह अपनी गर्दन पिता जी के बलिष्ठ कंधे पर हौले से रख देती । अपने इस दुलार के दौरान वे सूर्या जीजी, गौरा जीजी और वीर भैया को भी उसके पास बैठा लेते जैसे अपने दोनों बच्चों और प्यारी भांजी सूर्या को भी उस नन्ही सी बच्ची से प्रेम करना सिखा रहे होते । माँ अक्सर उलाहना देतीं कि,
“जिसके खुद के बच्चे हों उसे मैंने इस तरह टूटकर जानवरों से प्रेम करते कभी नहीं देखा, जैसे आप करते हैं।“ इसपर पिता जी कहते,
“देखो प्राणी रिश्ते दो ही तरह से बनते हैं या तो कोई अपना खून हो या अपने खून की तरह किसी से प्यार हो जाए, जब इसकी माँ का मालिक इसकी कीमत हद से ज़्यादा मांगने लगा तो एक बार तो मैं इसे छोड़ ही आया था । पर लौट कर आते हुए मन ने प्रश्न किया कि उस प्यार की भी कोई कीमत हो सकती है क्या, जो इस बच्ची से मुझे हो गया था, एक ही नज़र में । फिर कोई तो संस्कार भी रहा ही होगा, समझ लो पिछले जन्म का रिश्ता जैसा कुछ, जो इसे देखते ही मुझे इससे इतना प्यार हो गया कि मैं इसे लाए बगैर सोरों से आ ही नहीं सका । “
अगले - पिछले किसी भी जन्म को न मानने वाले पिता जी के मुंह से यह बात सुनकर पिता जी द्वारा प्राणी पुकारी जाने वाली हमारी माँ, कुछ दबी सी मुस्कान मुस्कुराईं । पिता जी ने देखा और उनकी इस मुस्कुराहट का अर्थ समझकर खुद भी उनकी आँखों में देख कर मुस्कुरा ही दिये बस । माँ उसके लिए पिता जी का अनोखा प्रेम जान गईं । और पति की प्रिय का ख्याल रखते - रखते खुद भी उससे बेहद प्रेम करने लगीं । सुरैया धीरे - धीरे पिता जी की खुशबू पहचानने लगी, उनके आने की प्रतीक्षा करने लगी, उनकी आवाज़ सुनते ही अपने नरम - नरम गुलाबी कान हिलाने लगती, उन्हें सूंघने के लिए अपनी नन्ही सी नाक के नथुने फैलाने और सिकोड़ने लगती, अपने खूँटे से बंधी वह अपनी सूत की पतली सी मुलायम रस्सी को खींच कर पिता जी की तरफ आने के लिए व्याकुल हो उठती । यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इस तरह धीरे धीरे पिता जी उसकी शैशव में बिछड़ी हुई माँ बन गए, और वह उसी गति से अपनी बायोलोजिकल माँ को भूल गई ।
उस नन्ही सी बच्ची के लिए उसके आने के अगले दिन से ही बकरी का दूध लगा दिया गया था । ताकि उसकी हड्डियाँ चौड़ी और मजबूत हो सकें ।शुरू में वह बिलकुल भी दूध न पीती, पिता जी पहले उसे ठीक से दूध न पिला पाने पर साईस चाचा को डांटते फिर खुद ही नन्ही सी नाल लाए और अपने ही हाथों से उसे दूध पिलाते । वह पीती कम, गिराती ज़्यादा । उसके दूध गिरा देने पर भी पिता जी उस पर ज़रा सा भी न खीझते , बल्कि मुलायम कपड़े से उसका गुलाबी, नरम मुंह साफ करते । कहते एक दिन ये खूब सारा दूध पिएगी और मांग - मांग कर पिएगी । तब देखना बकरी का दूध पीकर इसका दो सौ पाँच हड्डियों का ढांचा चार सौ दस हड्डियों के ढांचे जैसा दिखेगा ।
पिता जी के अथक प्रयासों और विलक्षण लाड़ प्यार को पाकर वह जल्दी ही खाना - पीना सीख गई । बकरी का दूध , बेसन के लड्डू और चने का दाना उसकी खास पसंद बन गए थे । वह दिन दूनी रात चौगुनी सी बढ्ने लगी । माँ, अंगूरी बाई के साथ मिलकर मनों लड्डू बनवातीं , वो दिनों में चट कर जाती । सामान्यतः उसका खाना - पीना माँ की देख रेख में, घर के आंगन में वरांडे के सामने बने तुलसी के चौरे के पास ही होता । क्योंकि वरांडे के पार ही स्टोररूम था जिसमें उसका खाना यानि लड्डू और दाना रखा होता । जब खूँटे से बंधी नहीं होती तब भी वह संतोषी समझदार बच्ची तुलसी के चौरे के पास ही खड़ी खाना आने की प्रतीक्षा करती । पर जब कभी पिता जी उसके लिए लड्डू लेने स्टोर में जाते तो वह अपनी चौरे वाली सीमा भूल जाती और अंदर वरांडे में घुसकर उनके हाथ से लगभग छीन ही लेती लड्डू । उसे खाती और खुश होकर अगले दोनों पैर उठाकर प्यार से हिनहिनाती और अपनी धीरे - धीरे बड़ी होती गर्दन को उठाकर अपना मुंह उनके कंधे पर रख देती । अब जितने पिता जी खुश होते उतनी ही वह भी होती, इस खुशी के दौरान उसकी आँखें हीरों सी चमकतीं।
फिल्मी गायिका सुरैया की आवाज़ के फैन पिता जी कहते कि,
“सुरैया से किसी भी तरह तो कम सुरीला नहीं है उसका हिनहिनाना ।“ अतः नाम भी रखा गया “सुरैया”। वो भी जल्दी ही अपना सुरीला नाम पहचानने लगी । पिता जी दूर ही से उसका नाम पुकारते
"सुरैया......."
वो तुरंत से पहले उनकी तरफ भाग खड़ी होती । और अगले दोनों पैर उठाकर खुशी में सराबोर हो हिनहिनाती । पिता जी उसे देखकर फूले नहीं समाते।
पिता जी की लाड़ली वो झक सफ़ेद, सुरीली सुरइया, शुक्ल पक्ष के चाँद सी दिनों - दिन बढ़ती चली । पैलोमीनो नस्ल की होने की वजह से बेहद सुंदर और गुणों की खान तो थी ही वो। सहनशील इतनी कि बड़ी और कड़ी परीक्षाओं को भी कुछ नहीं के बराबर मानती । तेज़ - तर्रारी में भी किसी मुश्टैन्ग किस्म के घोड़े से उन्नीस तो नहीं थी । घोड़ों की जिस भी प्रतियोगिता में चली जाती, दूसरों के लिए प्रतियोगिता दूसरे स्थान से ही प्रारम्भ होती और उन्हें उसी में संतोष भी करना पड़ता । प्रतियोगिताओं में उसके द्वारा जीते हुए अनेक उपहार हमारे घर की शोभा बढ़ाते और उसका लाड़ प्यार और मान ।
उस जमाने में पैट्रोल, डीजल से चलने वाले वाहनों का चलन आज के जैसा नहीं था । धनाढ्यों की भी पहली पसंद अच्छी किस्म के घोड़े ही हुआ करते थे । पिता जी की जीप भी कभी - कभार ही निकलती । चार - पाँच घोड़े उनके अस्तबल की शान हुआ करते थे । सुरैया हमारे घर आने वाली पहली घोड़ी थी । पिता जी अक्सर आश्चर्य करते कि जब लगभग तीन सौ प्रजातियों के घोड़े पैंतालीस से पचपन मिलियन वर्षों पूर्व ही अस्तित्व में आ गए थे तो फिर इंसान ने उन्हें पालतू पशु में परिवर्तित करने में चार हज़ार बी सी तक आने का लंबा समय व्यर्थ ही क्यों गंवाया । सचमुच बड़ी शान की सवारी है । न प्रदूषण, न हरी भरी वसुंधरा को कोई हानि ग्लानि । इंसान से जुड़ाव भी पूरी तरह भावनात्मक। पिता जी और सुरैया जैसा तो नहीं पर फिर भी मोटर गाड़ियों और इंसान से बेहतर ।
सुरैया का ध्यान न रखने पर पुराने साईस चाचा भी पिता जी से अकसर डांट खा जाते । गौरा जीजी या वीर भैया भी उसके साथ कोई अन्याय नहीं कर सकते थे । तर्क था, वो तुम दोनों से छोटी है । चार साढ़े चार बरस तक उसका पालन पोषण व प्रशिक्षण बड़े ढंग से किया गया । पिता जी अक्सर उसका मुंह खोलकर उसके दाँत गिनते उसके आगे के बारह और पीछे के चौबीस के चौबीस दाँत, उसके गुलाबी मुंह में बगलों की श्वेत अनुशासित पंक्तियों से दिखाई देते । लगभग साढ़े तीन सौ किलो की, पैंसठ इंच ऊंची सौन्दर्य से भरी नवयौवना सी श्वेतवर्णा सुरैया , जिधर से निकल जाती हर दृष्टि उसकी ओर उठ जाती ।भाव चाहे प्रशंसा, ईर्ष्या या कोई और होता हो । पिता जी की पसंद थी आखिर, जिन्हें हर बात में विशिष्टता चाहिए होती । उसके बड़ी होने पर भी पिता जी ने उसकी लगाम अपने सिवा किसी को भी कभी नहीं सौंपी । उसे भी पिता जी के सिवा किसी और को सवारी देना कभी नहीं भाया ।
सुरैया के चर्चे दूर दराज़ तक फैल गए । जैसे वो कोई साधारण घोड़ी न होकर राणाप्रताप के चेतक की सहोदर हो । निःसन्देह वो अद्वीतीय थी । जब अपनी तीव्रतम गति से दौड़ती तो घर से पचास किलोमीटर दूर धामपुर घंटे भर में पहुंचा देती, पिता जी हैरत में रह जाते । परंतु अब वह घर में सबसे छोटी तो नहीं रही थी । उससे छोटे चौधरी धीरेन्द्र प्रताप सिंह यानी मेरे धीर भैया का जन्म हो चुका था । परंतु पिता जी का लाड़ - प्यार उसके प्रति रत्ती भर भी तो कम नहीं हुआ । उनके लाड़- प्यार में बिगड़ी वो, बेचारे साईस चाचा को तो कभी भी दो लात जड़ देती । अगर खूँटे से खुल गई तो जब तक अम्मा या पिता जी की आवाज़ उसके कानों में न पड़े उसका किसी के हाथ आना लगभग असंभव था । भागते रहने के लिए चाहे उसे अस्तबल का लोहे वाला गेट ही क्यों न फाँदना पड़ता । पिता जी की अनुपस्थिति में साईस चाचा माँ को ही पुकारते उसे पकड़ने के लिए। माँ उसे पुकारतीं तो उनकी अवज्ञा वो कभी न कर पाती और झट से बेसन के लड्डू के लालच में उछलती हुई माँ के पीछे - पीछे घर के भीतर, अपनी स्वनिर्मित सीमा, तुलसी के चौरे तक चली आती । माँ उसके लिए लड्डू लेने स्टोर रूम में जातीं और वो हिनहिनाती हुई, वहीं तुलसी के चौरे के पास किसी समझदार अनुशासित पर चंचल बच्चे की तरह कुदकती हुई उनकी प्रतीक्षा करती ।
नटखट धीर भैया चार या पाँच बरस के रहे होंगे कि बैठी हुई सुरैया की पीठ पर जा चढ़े और उसे खड़ी हो जाने के लिए तिक - तिक करने लगे । छोटे मालिक के आदेश पर वो आज्ञाकारिणी तुरंत उठ खड़ी हुई । उसके खड़े होते ही अनाड़ी सवार, धीर भैया उसके नीचे आ गिरे । उसका बायाँ पैर उनके ठीक पेट के ऊपर हवा में ही था कि संयोगवश माँ सामने आ गईं और ज़ोर से चिल्लाईं ,
” सुरैया पाँव नीचे मत रख, पाँव मत रख सुरैया ।“
न जाने कैसे समझी वो चतुर, पाँव ऊपर ही किए खड़ी रही तब तक, जब तक माँ ने भैया को उसके नीचे से खींच नहीं लिया । पिता जी ने उसकी इस समझदारी पर उसके लिए मन भर बेसन के लड्डू उसी दिन बनवाए । निःसन्देह उसने समझदारी भी गजब की ही दिखाई थी । माँ तो उस दिन के बाद धीर भैया का जीवन उसी की देन मानती रहीं । और समझ गईं कि उसके लिए पिता जी का अनन्य प्रेम निरर्थक तो नहीं था । यूं भी पिता जी के हर फैसले पर माँ पूर्ण विश्वास करतीं ही थीं । परंतु इस घटना ने पिता जी के सुरैया से उनके अपने बच्चों जैसे लाड़ प्यार पर सार्थक होने की मुहर लगा दी थी । और उस दिन से माँ भी उसे सूर्या जीजी, गौरा जीजी, वीर और धीर भैया के साथ ही गिनतीं । बहरहाल, कहने की ज़रूरत नहीं कि वो हमारे घर का हम में से ही एक सदस्य बन गई थी ।
पिता जी की प्यारी इकलौती बहन, हमारी चन्द्र कुँवर बुआ की बेटी सूर्यबाला जीजी हमारे ही घर रहकर पलीं बढ़ीं थीं जैसा कि मैंने बताया ही । वो गौरा जीजी से भी इतनी बड़ी थीं कि अब उनके ब्याह का समय हो आया था। पिता जी ने सूर्या जीजी का रिश्ता अपनी ही पसंद के एक जमींदार और खानदानी घराने में तय किया था । सब खुश थे । पिता जी बड़ी खुशी - खुशी जीजी के ब्याह के उपहार जुटा रहे थे । एक से बढ़कर एक फर्नीचर, बर्तन, बिस्तर, कीमती कपड़े, नायाब गहने, वगैहरा - वगैहरा और लड़के के लिए मोटर साइकिल, क्यों कि नई उमर के लड़के ने बातों - बातों में अपनी पसंद की सवारी बता दी थी । सगाई के दिन लड़के के ताऊ जी ने घोड़ी की फरमाइश कर दी, पिता जी सहर्ष घोड़ी देने को राज़ी हो गए । परंतु नहीं, इस मांग को पूरी करने में "सहर्ष" जैसी कोई बात नहीं थी क्यों कि घोड़ी पुष्कर या सोरों के मेले से थोड़े ही आनी थी । घोड़ी तो वही चाहिए थी जिसका नाम था “सुरैया” । क्यों कि सुरैया के अनोखे किस्से लड़के के ताऊ जी ने खूब सुन रखे थे विशेषकर वह घटना जब सुरैया पिता जी को अपनी कमर पर बैठाए, अपनी तीव्रतम गति से कच्चे रास्ते पर दौड़ रही थी कि अचानक पिताजी का संतुलन बिगड़ गया और वो गिरकर अचेत हो गए पहले तो वह पिता जी को उठाने का प्रयास करती रही फिर असफल होने पर वह अपनी तीव्रतम गति से घर की तरफ दौड़ी और लोहे वाले बड़े फाटक के बाहर आकर ज़ोर - ज़ोर से हिनहिनाने लगी जब किसी ने नहीं सुना तो अपना सिर फाटक में मारने लगी साईस चाचा ने देखा तो बुरी तरह घबरा गए । फाटक खोला तो उन्हें अपने मुंह से उनका अंगोछा खींचने लगी । साईस चाचा समझ गए कि पिता जी के साथ कुछ दुर्घटना तो घटी है जो सुरैया इस तरह घबराई हुई अकेली लौटी है । माँ को कुछ भी बताए बगैर साईस चाचा, बंसी काका को जीप से अपने पीछे - पीछे आने के लिए बोलकर सुरैया पर सवार हो गए । उस दिन सुरैया जिस गति से दौड़ी साईस चाचा के लिए वह सदा अवर्णनीय ही रहा । उसने साईस चाचा को पिताजी के पास लाके छोड़ा और ज़ोर से हिनहिनाई । पिता जी अभी तक बेहोश ही थे । बंसी काका मोहन ड्राइवर के साथ जीप लेकर पहुँच गए थे सुरैया के पीछे - पीछे । उन्होने पिताजी को जीप मे लेटाया और अस्पताल ले गए । साईस काका के लाख चाहने पर भी सुरैया घर की तरफ नहीं मुड़ी थी वह तो बस जीप के पीछे - पीछे पिता जी के साथ अस्पताल ही गई थी और देर तक हिनहिनाती रही । साईस चाचा ने बड़ी मुश्किलों से उसे पानी भर पिलाया था। जब पिताजी होश में आकर अस्पताल से बाहर लौटे तो बाहर खड़ी सुरैया उन्हें सूघ - सूंघ कर अपना मुंह उनके कंधे के पास ले जा रही थी , पिता जी ने देखा कि उसके माथे से भी खून टपक रहा था । साईस चाचा ने फिर हल्की सी डाट खाई उसका ध्यान न रखने की । पिता जी ने पहले उसकी पट्टी कराई फिर जीप में घर लौटे।
पिता जी उनकी इस मांग पर स्तब्ध और निःशब्द रह गए, जैसे कोई कुठाराघात हो गया था । दूसरी दो - दो घोड़ियाँ उन्हें देने को कहकर मोल भाव सा करने लगे । आशावाद के पक्षधर पिताजी के तमाम मान - मनव्वल, ना – नुकर, अड़ियल रुख अपना कर देख लेने के बाद भी लड़के के ताऊ जी नहीं माने । प्रिय भांजी सूर्यबाला, ससुरालियों की नाराजगी के साथ ससुराल में पहला कदम रखेगी सोचकर पिता जी ने अपनी आवाज़ नरम कर ली । अपने व्यवहार के उलट कृपया, कृपा करके आदि कौन - कौन से नरम शब्दों का प्रयोग नहीं किया । जीजा जी के घर में जबसे उनके पिता नहीं रहे थे तबसे उनके इन मुच्छड़ ताऊ जी की ही चलती थी, जिन्हें लड़के वाले होने का घमंड मूंछें ऊपर रखने को उकसा रहा था । अंततः, मरे मन से ही सही पर एक ही विवाह में घर के दो सदस्य देना निश्चित हुआ । प्यारी बेटी सूर्यबाला के साथ ही विदाई थी घर की लाड़ली सुरैया की भी ।
जीजी के विवाह का प्रतीक्षित उत्साह, सुरैया के अनायास होने वाले विछोह से पनपी कड़वाहट के गहरे कुंड में डूब गया था कहीं । पिता जी की नींद उचटे व्यवहार की हो गई थी, माँ दुखी थीं । सूर्या जीजी, गौरा जीजी, वीर और धीर भैया सबके सब उदास थे । मैं तो खैर पैदा ही सुरैया के चले जाने के बाद गुमी हुई खुशी को ढूंढते उदास माहौल में हुई थी । इसीलिए मेरे नामकरण में सबसे छोटी दावत दी गई थी और मेरी जन्मकुंडली तो आज तक पूरी नहीं हो सकी ।
उदासी में ही सही, पर सूर्या जीजी का विवाह ठीक से सम्पन्न हो गया । विदाई के समय लड़के के ताऊ जी को वधू ले जाने की अपेक्षा सुरैया को ले जाने में ज्यादा दिलचस्पी थी। आखिर साईस चाचा उसे अस्तबल से ले आए और उसकी विदाई के लिए लाई गई नई लगाम लड़के के मुच्छड़ ताऊ जी को सौंप दी। वो पशु पुत्री लड़की और लड़के वालों का भेद समझ पाने मे सर्वथा असमर्थ थी । उस चंचला ने पल भर में स्वयं को उनसे छुड़ा लिया । साईस चाचा ने फिर से उसकी लगाम उन्हें थमा दी ।
माँ, जीजी की विदाई पर उन्हें कुछ पैसे देने के लिए घर में आईं । उन्हें घर के भीतर जाती देखकर एक बार फिर वो खुद को छुड़ा कर उनके साथ भागी और इस बार वह तुलसी के चौरे के पास आकर भी रुकी नहीं जहां तक आकर वह हमेशा रुक जाती थी बल्कि अपनी सीमा के आगे बढ़कर माँ के पीछे - पीछे वरांडा पार कर माँ के कमरे तक जा पहुंची, जैसे कह रही हो,
"माँ मुझे नहीं जाना तुम्हें छोड़कर, यहीं छुपा दो न मुझे कहीं घर ही में ।"
साईस चाचा फिर उसे पकड़ कर ले गए लड़के के मुच्छड़ ताऊ जी के पास । उसने फिर से खुद को छुड़ाया और विदाई के लिए खड़े लोगों की भीड़ के बीच से गुजरती हुई पिता जी के पास आ गई और बड़ी दृढ़ता से अपनी गर्दन उसने पिता जी के कंधे पर रख दी जैसा कि वह अक्सर ज़िद करते वक्त रखती ।
“ठाकुर साहब ये बेज़ुबान पशु है इसकी ओर देखिये ये और कहीं रह ही नहीं सकेगी हमारे सिवा ।“
पिताजी ने सुरैया को अपने पास रख लेने के अंतिम प्रयास के तहत लड़के के ताऊ जी से विनती सरीखा यह वाक्य कहा । पर ताऊ जी वाकई बेहद अड़ियल और अहंकारी थे । उनकी त्योरीयां चढ़ गईं, उन्होने कंधे पर पड़ा फटका ज़ोर से पीछे फेंका । और बोले ,
“हमने तो ज़िंदगी भर एक से एक बिगड़ैल घोड़े काबू किए हैं इसकी तो औकात ही क्या , आप देना ही नहीं चाहते वो अलग बात है । रहने दीजिये फिर कोई और सामान भी मत दीजिये । आपकी बेटी के लिए भी हम ही जुटा देंगे ज़रूरत भर समान । “
उन्होने इतना कहा और मुंह फुलाकर अपनी सघन मूँछों पर ताव देते हुए तेज़ - तेज़ कदमों से आगे निकल गए । पिता जी को उनके इस अभद्र व्यवहार पर खीझ हो आई । उन्होने साईस चाचा से सुरैया की लगाम उन मुच्छड़ के हाथों सौंपने के लिए कहा । पर सुरैया ने ज़िद स्वरूप अपनी गर्दन फिर से पिता जी के कंधे पर जमा दी थी । ताऊ की बात से खीझे हुए पिता जी ने सुरैया को ज़ोर से डाटा और उसकी गर्दन अपने कंधे से हटा दी । उस मुच्छड़ ताऊ से तो और कुछ कह नहीं सकते थे अतः बेचारी सुरैया पर ही किया गुस्सा । सुरैया बचपन से उनकी बात सुनती, समझती और मानती आई थी । आज्ञाकारिणी ने इस बार कोई विरोध नहीं किया । कान दबाकर, सिर झुकाकर चुपचाप खड़ी हो गई ।
एक बार को तो सूर्या जीजी ने लड़के के ताऊ जी की इस मांग पर उनके यहाँ विवाह करने से यह कहकर इंकार कर दिया था कि,
"अपने प्यारे मामा जी की लाड़ली सुरैया को ज़िद्दन मांगने वालों के यहाँ मैं नहीं जाना चाहती, वो तो और भी न जाने क्या - क्या ज़िद लगा बैठें ।"
तब अपने दिल पर पत्थर रखकर पिता जी ने उन्हें समझाया था,
"सूर्या बेटी, सुरैया मुझे प्यारी है, पर तुझसे प्यारी तो नहीं । जब मैं तेरा ब्याह उस घर में कर रहा हूँ तो सुरैया को उन्हें देने में क्या हर्ज़ है बता । फिर तू तो होगी ही न वहाँ, तू अपना और उसका दोनों का ख्याल रखना बस।"
और जीजी एक ही बार में मान भी गईं थीं । क्योंकि जीजा जी का बड़ा घराना और स्वयं जीजा जी का व्यक्तित्व उन्हें भा जो गया था ।
पिता जी कि डांट खाकर सुरैया ने इस बार अपनी लगाम लड़के के ताऊ जी के हाथों सौंपे जाने का कोई विरोध नहीं किया । परंतु उस निरीह के अन्तःकरण का प्रबल विरोध विवशता की आंच से पिघल , तरल होकर उसकी गहरी काली आँखों से टप – टप टपक पड़ा । वो जाते हुए मुड़ – मुड़ कर कभी पिता जी की तरफ देखती तो कभी माँ की तरफ, कभी दबी हुई आवाज़ में हिनहिनाती । इस आशा के साथ कि वो आएंगे और लड़के के इस संवेदनहीन मुच्छड़ ताऊ से उसकी लगाम अपने ममता भरे हाथों में ले लेंगे और वो हमेशा कि तरह अपने दोनों पैर उठाकर अपनी बालसुलभ खुशी से सराबोर हो खुलकर हिनहिना देगी । परंतु उन दोनों में से कोई भी उसकी इस विदाई पर उससे नज़र मिलाने का साहस नहीं जुटा सका । सुरैया एक बार फिर से पलट कर आई थी उसने अपनी गर्दन पिता जी के कंधे पर रखी । जैसे वह हमेशा रखती थी उससे कुछ अधिक दृढ़ता से और अपने नथुनों को पूर्ण सजग कर उसने पिता जी को उनके कान के पास अपेक्षाकृत कुछ देर तक सूंघा और खुद ही धीरे से पीछे हटी और भारी मन लिए लौट गई । इस बार साईस चाचा भी उसकी लगाम पकड़ते रो पड़े और उसे लड़के के मुच्छड़ ताऊ को उसे सौंप दिया । हवा पर सवार रहने की आदी सुरइया के पाँव ऐसे उठ रहे थे जैसे नाल की जगह किसी ने उसके कत्थई खुरों में चक्की के पाट ठोक दिये हों । पिता जी अपनी विवशता और उसकी आज्ञाकारिता पर फफक – फफक कर रो दिये । दादी के देहावसान पर भी तो कितना रोके रखा था उन्होने खुद को किसी ने कोई एक आँसू भी तो नहीं देखा था उनकी आँख में । लोगों ने उन्हें पहली बार अपनी भावनाओं को यूं स्वतंत्र छोड़ते देखा । सूर्या जीजी जैसी प्यारी बेटी की विदाई पर आँसू छलक आना भी कोई अनहोनी बात तो नहीं थी पर निश्चय ही, उस दिन पिता जी सूर्या जीजी के लिए नहीं रोये थे । सुरैया की ज़िद को हिकारत और पिता जी के आंसुओं को व्यंग्य भरी नज़र से देखते हुए लड़के के ताऊ जी अहंकार भरी मुस्कान मुस्कुराते हुए सीना तानकर सुरैया की लगाम खुद थामे अपनी बड़ी - बड़ी मूँछों पर ताव देते हुए सबसे आगे आगे चल रहे थे । इस बार सुरैया ने मुड़कर नहीं देखा ।
सुरैया जा चुकी थी, पिता जी की लाड़ली सुरैया । वे उदास हो गए थे। कई दिनों तक खाना नहीं खाया था उन्होने ठीक से । जिस दिन सूर्या जीजी को ससुराल से आना था उस दिन की प्रतीक्षा बड़ी ही आशा से करने लगे थे पिता जी कि सूर्या के साथ शायद सुरैया भी आ जाए । जीजी का आना तो हुआ पर सुरैया का नहीं । जीजी ने उल्टा यही बताया कि
“सुरैया की वहाँ बड़ी शिकायत हो रही है । और मामा जी ताऊ जी तो आँगन में खड़े यहाँ तक कह रहे थे कि, जैसी निकम्मी घोड़ी है भांजी भी कहीं वैसी ही न निकले ठाकुर भानु प्रताप सिंह की । “
लड़के के मुच्छड़ ताऊ की इस बात ने तो तिलमिला ही दिया था पिता जी को पर बेटी उनके घर में देकर ज़ुबान बंद रखना विवशता हो गई थी उनकी । दरअसल सुरैया जीजा जी के मुच्छड़ ताऊ जी से इतनी चिड़ गई कि उसने उन्हें खुद पर सवार होने ही नहीं दिया , वो जबरन बैठे तो इतना बिचली कि वो धड़ाम से नीचे गिरे । पचपन पार की कच्ची पड़ती हड्डियाँ टूटने से तो बच गईं किसी तरह पर पूरा पखवाड़ा पड़े रहे थे वो बिस्तर पर ही । इस तरह सुरैया से उनका आंकड़ा आरंभिक दिनों में ही छत्तीस का बन गया । मुच्छड़ ताऊ की हरकतों से तो यही समझा जा सकता है कि सुरैया ने उन्हें ठीक - ठीक समझा था । इसी बर्ताव के पात्र थे वो, जो सुरैया कर रही थी उनके साथ ।
शायद उस घर में विवाह से सूर्या जीजी का इंकार ही ठीक था । वहाँ सुरैया की तो क्या, खुद उन्हीं की कदर नहीं हुई । जीजी ने बहुत कुछ सहा, पर वो मर्यादित परिवार की , संस्कारों की डोर से बंधी इंसान की बेटी ,आजीवन उस परिवार में रहने का साहस जुटा पाईं, परंतु सुरैया की अपनी विवशता थी, उसकी अपनी सीमा थी । आखिर वह पशु पुत्री, सूर्या जीजी जैसी मर्यादाओं में बंधना कैसे सीख पाती । उसने तो की बस अपने मन की, मुच्छड़ ताऊ ही क्या जीजी की ससुराल के एक भी सदस्य को, एक भी बार, ढंग से सवारी नहीं दी । बेसन के लड्डुओं पर पलने वाली पिताजी की उस लाड़ली ने, उपेक्षा से डाले गए चारे को सूंघा तक नहीं । भले ही उसका दो सौ पाँच हड्डियों का ढांचा सूखकर मात्र सौ हड्डियों का सा ही क्यों न दिखने लगा । उसकी इस अनुशासन हीनता पर, उसके साथ दुगना दुर्व्यवहार हुआ । उसके दाग रहित झक सफ़ेद रंग के नरम – नरम रोएँ जगह – जगह हंटरों की तस्वीर खुद पर उतारे खड़े थे ।
सूर्यबाला जीजी ने जब हड्डियों का पिंजर बनी उस उदास सुरइया को अपनी ससुराल में पहली बार देखा तो वो लगभग दौड़ कर उसके पास गईं थीं, वह भी उनकी तरफ भागी थी । जीजी ने उसे खूब पुचकारा, खूब सहलाया और उसे देखकर बेतहाशा रोईं थीं वे । एक जानवर के कारण रो कर घर में अपशगुन फैलाने के लिए अपनी सासू माँ से खूब लताड़ भी खाई थी उन्होने उस दिन । उस दिन उन्होने जीजा जी से सुरैया का ध्यान न रखने की शिकायत की थी । जिसके उत्तर में जीजा जी ने कहा था कि
“इस घर में किसी भी अनुशासनहीन व्यर्थ के इंसान तक की ज़रूरत नहीं है फिर जानवर की तो बिलकुल नहीं ।“
उसी दिन सूर्या जीजी ने पिता जी को सुरैया को वापस ले जाने का आग्रह भरा पत्र भी लिखा था । पिताजी ने भी अपना अहं त्यागकर जीजा जी के मुच्छड़ ताऊ जी को सुरइया को वापस भेजने का आग्रह भरा, विनम्र पत्र लिखा था । संवेदनाओं, आग्रह, विनती,और विनम्रता से भरे पत्र के उत्तर में एक पत्र ही आया, बेहद रूखा और असभ्यता से भरा, जिसका सबसे भद्दा वाक्य था कि ,
“दहेज में दी हुई चीजें वापस मांग लेने वालों का क्या भरोसा कल अपनी बेटी ही वापस मांग लें ।“
उसके बाद उनके और पिता जी के बीच कोई वार्तालाप नहीं हुआ, न मौखिक, न लिखित ।
पिता जी सुरैया की याद में अधपगलाए से हो गए । उन्हें घोड़ों से जैसे विरक्ति हो गई थी , बल्कि विरक्ति तो उन्हें संसार से ही हो गई थी । गौरा जीजी, वीर, धीर भैया किसी से भी बात न करते । कारोबार - वारोबार किसी में ध्यान न लगता उनका तो । उन्हें रातों में नींद आना लगभग बंद हो गई । माँ को प्रेम में प्राणी यानि जिसमें उनके प्राण बसते हों पुकारने वाले पिता जी उन पर झुँझला - झुँझला पड़ते । उनके भीतर का प्रेम जैसे सुरैया की याद की वीरानी में गर्त हो गया था । माँ से प्रेम के अंतरंग क्षण भी उनके विदग्ध हृदय में भस्म हो गए थे । यह तो माँ ही बताती थीं बाद में । कभी सुरैया के खूँटे तक जाते देर तक उसे देखते रहते । कभी मनो बेसन के लड्डू बनवाते और जीजी की ससुराल रवाना कर देते । एक बार मुच्छड़ ताऊ ने कहला भेजा कि,
“हम कोई गरीब - गुरबे नहीं हैं खाते - पीते लोग हैं, पर इस निकम्मी घोड़ी पर इतना माल ज़ाया नहीं कर सकते।“
और ताऊ जी ने साईस चाचा के सामने ही उन लड्डुओं को खेतों में फिंकवा दिया था । जब साईस चाचा ने आकर यह बताया तो पिता जी एकबारगी बेहद गुस्से से भर गए थे और अपनी राइफल उठाकर चल दिये थे जीजी की ससुराल, वारे न्यारे करने ।वो तो ऐन वक्त पर बुआ ने बड़ी तीखी बात बोल दी थी ,
“ भैया भानू मेरी बेटी की ब्याहता जिंदगी बर्बाद करने जा रहा है , सूर्या की जगह अगर गौरा होती तो भी तू इतना ही गुस्सा करता एक घोड़ी के लिए ?”
पिता जी रुक गए थे वहीं के वहीं , और अपनी गुस्से से लाल हुई आँखों से उनकी ओर देखते हुए बड़े असन्तोष , दुख और क्रोध से मिले जुले भाव में उन्होने चंद्र्कुंवर बुआ से प्रश्न किया था ।
“सुरैया मेरे लिए सिर्फ एक घोड़ी ही है क्या ?”
यूं तो इस प्रश्न का उत्तर बुआ भी जानती ही थीं पर बेटी का भविष्य उन्हें अंजान बनने पर विवश कर रहा था, और कहीं न कहीं तो भाई को भी अपराधी बनने से बचा ही रहा था ।
“अगर सूर्या की जगह गौरा होती तो मैं ये कभी का कर चुका होता जीजी चंदर । “ पिता जी अपनी आवाज़ में दृढ़ता लाकर बोले थे । और वापस अपने कमरे में जाकर लेट गए थे ।
सुरैया को अपने लिए नाकारा जानकार सूर्या जीजी के ससुरालियों ने उसे अपने किसी रिश्तेदार को दे दिया । पर वो वहाँ लंबे समय तक नहीं रह सकी थी वहाँ से चली गई थी, कहाँ ये कोई नहीं जान पाया । सूर्यबाला जीजी तो जीवनभर हमारे घर आती जाती रहीं पर वो मानिनी अपनी मर्ज़ी के खिलाफ एक बार घर से विदा होकर फिर कभी वापस नहीं लौटी । कितना रोष रहा होगा उसके मन में खुद को घर से अलग किए जाने का, या शायद यह जानती थी कि उसके इस तरह लौट आने पर पिता जी को जीजा जी के उस मुच्छड़ ताऊ के आगे शर्मिंदा होना पड़ सकता था ।
जो भी हो, पिता जी उसके वहाँ से भागने पर बहुत खुश हुए थे ।उन्हें कुछ - कुछ आशा सी बंधी थी । एक तो यह कि वह उनके अत्याचारों से बच गई थी दूसरे वह लौटकर घर ज़रुर आ जाएगी यह पिता जी का दृढ़ विश्वास था । पिता जी ने दसियों दिन बेचैनी से उसके घर लौटने की प्रतीक्षा की । जब वह नहीं आई तो पिता जी उसे कई दिनों तक जंगलों - जंगलों, शहरों - शहरों खोजते फिरे । फिर एक दिन लुटे - पिटे से घायल अवस्था में थक हार कर घर लौट आए थे, पूरी तरह निराश होकर । फिर जो उन्हें अवसाद चढ़ा तो बस चढ़ता ही गया । उनका महीनों इलाज कराना पड़ा । कहते है की जब मेरा जन्म हुआ तब पिता जी ठीक होने शुरू हुए क्योंकि मेरे आरंभिक दिनों में उन्होने यही माना कि सुरैया मेरे रूप में ही लौट रही थी वापस । तभी तो पिताजी मुझे बेहद प्यार करते थे । भले ही मैं सुरैया के जाने के बाद गुमी हुई खुशी में क्यों न पैदा हुई थी।
सुरैया के जाने वाले बरस हमारे घर में बड़ी आपदाएँ आईं । चैत में सूर्यबाला जीजी का ब्याह हुआ था , बैसाख में खलिहान में रखे हमारे कटे - कटाए गेहूं पलों में जलकर राख़ हो गए । कौन जाने क्यों, धान की बालियों में दाना नहीं पड़ा । माँ इतनी ज्यादा बीमार हुईं कि लगभग मरकर ही ज़िंदा हुईं । हम इलाहाबाद वाली ज़मीन का मुकदमा हार गए । और भी ना जाने क्या - क्या हमारे छोटे – बड़े अनेक नुक्सान हुए ।
यूं तो मेरा जन्म ही सुरैया के जाने के बाद हुआ था, सो मैंने उसे कभी देखा तो नहीं पर रोज़ पिताजी से कहानियाँ सुनने के मेरे शौक ने , बल्कि लत ने सुरइया से मेरा परिचय कराया और खूब कराया । रामायण, महाभारत आदि अनेक पौराणिक कहानियाँ सुनाने के बाद पिता जी रोज़ मुझसे सुरैया की कोई चुनिन्दा स्मृति सांझा करते और फिर बड़े मलाल से कहते,
"वैसे तो घोड़ों की आयु पच्चीस से तीस बरस ही होती है परंतु अगर सुरैया मेरे पास रह गई होती तो मैं यकीनन ये दिखा पाता कि अच्छी देख भाल के साथ वो ज़्यादा भी जी सकते हैं ।"
यह कहते हुए उनकी मोटी - मोटी आँखों में लगभग रोज़ ही आँसू तिर जाते जिन्हें वो मुझसे छिपा लेने का भरसक प्रयास करते । अक्सर छुपा भी लेते पर कभी - कभी उदण्ड होकर वो आँखों से बाहर दौड़ पड़ते और उनकी छोटी सी बेटी के सामने उन्हें कमजोर दिल का साबित कर देते । पिता जी की लाड़ली सुरैया का दर्द अक्सर उनके साथ - साथ मेरी आंखों से भी रिस पड़ता । और मुझे भी सच ही लगता कि सुरैया मेरे रूप में ही लौट कर आ गई थी घर । इस तरह सुरैया से मेरी घनिष्ठता भी कमोबेश उतनी ही हो गई थी जितनी पिता जी की अपनी । आज जब मैं बड़ी हो गई हूँ तब पूरी तरह समझ सकती हूँ कि कितने प्यार से पाला होगा पिताजी ने सुरैया को और कुछ बात तो उसमें भी विशेष रही ज़रूर होगी, जो मात्र दस - बारह बरस के साथ को पिता जी मरते दम तक भुला नहीं पाये ।शायद यही होता है असली प्रेम जो किसी इंसान या जानवर का भेद नहीं करता ।
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