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मांस

भरी गर्मी के दिन थे सूरज आग लेकर सर पर खड़ा था पसीना बूंदों की जगह पानी की धार बनकर बह रहा था कहने को आस- पास पानी  बहुत था पर बदन के नमक वाला पानी ही सूरज को चाहिए था जैसे उसे भी बहुत प्यास लगी हो और जिसे नदी झरने से ज्यादा इन्सानों के शरीर का पानी पीना हो।

हर साल चंद महीने सूरज इतनी ही आग उगल कर अपना गुस्सा ठंडा करता है न जाने किस से चन्द महीने ये रूठकर बैठ जाता है 
ऐसे ही जलती हुई दोपहर में बस अड्डे पर एक बस आकर खड़ी हुई । बस ने भी जलते‌ सूरज के अंगार अपनी छाती पर रख लिए थे आग सी जल रही थी कन्डेक्टर भी बस की पीठ बजा बजा कर सवारी बुला रहा था कि जल्दी जल्दी  आओ बस को भी गर्मी चुभ रही है एक जगह ठहरने जाने पर ।

पास खड़े पानी वाले होकर से पानी के चार -पांच मग लेकर बस पर उड़ेल दिए। फिर भी न तो बस ठंडी हुई न ही उसकी ‌प्यास बुझी ।

खैर कन्डेक्टर तो चिल्लाता रहा डबरा  - ग्वालियर ,सवारी चढ़ती रही ।बस खचाखच भरी थी पर फिर भी न जाने कैसे लोगों को अपने  अन्दर पन्हां देती जा रही थी लोग हथेली सूरज पर रखकर ही बस के अन्दर‌ कदम रख रहे थी कुछ को घबराहट हो रही थी और कुछ को हर दर्द ,पर आदमी जब मजबूर और मजबूत होता तब ऐसे कष्ट  सहन करना आसान सा लगता है

जो उसे बिल्कुल पहाड़ों की तरह मजबूत करता है जिन के बीचों बीच वो जी रहा है  बुन्देलखण्ड के कुछ इलाके सिर्फ पत्थरों का ही रूप है  

उस दिन जब बस में तमाम भीड़ चढ़ चुकी थी सब बस पीछे की ओर धकेल दिए जा रहे थे बस भी जल रही थी या यूं समझ लो उसे भी जलते दिन में प्यास लगी थी अपनी उस प्यास में उसके कंठ में बैठी सवारी जल रही थी 

सबसे पिछली सिट से दो सिट आगे की सीट पर एक औरत बैठी थी जिसके काले बाल जिनके बीचों बीच कुछ सफ़ेद चांदी की तार से थे वो अकेली थी कोई अपना उसके साथ नहीं थी साड़ी का पल्लू बिखरा हुआ था और ब्लाऊज़ कहीं कहीं से जिस्म को आर-पार कर रहा था 

कुछ खोया हुआ था उसने, क्या कोई नहीं जानता पर उसने बीते वक्त को कसकर थामा हुआ था वो खुद ठहरी हुई थी उस वक्त के मोड़ पर ,उस वक्त को अपने ऊपर से गुजर कर जाने नहीं देना चाहती थी
कितनी कमजोर थी वो जिसे अपने होने तक का होश नहीं था 

दुनियाँ उतनी  मनचली और लोगों की कमजोरी का फायदा उठाने वालो‌ से भरी पड़ी है। उस वक्त में उसके साथ भी कुछ ऐसा हो रहा था 
ठस्म ठसी से लदी बस सड़क पर जब भाग रही थी तभी कोई छिछोरा न  अपनी उम्र का ख्याल न वक्त को कसकर थामने वाली औरत का ही का ख्याल था उसके लिए औरत की शक्ल में मांस नोचने को चाहिए था वो भीड़ से हाथों को छुपाकर उसके सीने तक लाता और उसे नोचता।

न जाने कितने मांस के शौकीन हैं शहर में वो तो पता नहीं पर बस में बहुत थे जो अपने आंखों की भूख आंखों भर से पूरी करने लेना चाहते थे

बस खचाखच थी पर उसके लिए कोई बोलने वाला नहीं था शायद सबके पास सिर्फ चटकारे वाली जुबान होती है  ,जो खाते वक्त तो आवाज करती है पर गले से निकलने वाले शब्दों के लिए कोई गूंज नहीं होती।

बस गांव से गुजर रही है रास्ते में लोग हजारों बातें कर रहे हैं 
बस के हर कोने से बिड़ी सिगरेट की महक है कुछ लोग तो देश के हालात लेकर परेशान हैं 
पर वो औरत दीन दुनिया से दूर एकटक बहार की ओर देख रही है 
जैसे किसी को आंखें दिखा रही हो ।
उसके पास में बैठे चच्चा अपने पोते की बात कर रहे थे तो कोई अपनी घरवाली से बस में लडते -भिडते नजर आ रहा था

वो औरत अभी भी लोगों के एक हाथ से दूसरे हाथ तक के बीच तक का ही सफर तय कर रही थी तभी उसने चाकू निकलकर किसी को दिखाया। जो उसने अपनी ‌साडी में छुपा रखा था
थोड़ी देर को सारे हाथ ठहर गए ,सबकी भूख डर में बदल गई।

आगे बैठी सवारी बस के भर्राये हुए इंजन की आवाज़ में डूबे हुए थे पीछे की चंद सीटों के आस पास की भीड़ उस वक्त के साक्षी बन रहे थे जिसमें कोई गहरी नींद से उठकर अपने पुराने वक्त को तेज धार से काटकर आगे निकलने की कोशिश कर रहा था

 तभी ,अचानक से ,उसी वक्त बस में किसी ने  कहा -”चोरनी चोरनी “ 
चोरनी के होने का शोर सुन कन्डक्टर  हड़बड़ाहट  में पूछता है “कौन है?’
कंडक्टर घने जंगल में ड्राइवर से बस रोकने को कहता है औक्र बस रोक दी रोक दी जाती है बाकी सब बातें वहीं दम तोड़  देती है

मांस ढोने वाली औरत के गले में चोरनी  की पट्टी डालकर बस  से नीचे उतार दिया जाता है 

फिर बस  केवल मवेशियों को लेकर दूर सड़क की धूल में ओझल हो जाती है

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