अपनी अपनी मरीचिका - 13 Bhagwan Atlani द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अपनी अपनी मरीचिका - 13

अपनी अपनी मरीचिका

(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)

भगवान अटलानी

(13)

23 अप्रैल, 1953

आज तृतीय वर्ष एम.बी.बी.एस. की परीक्षाएँ समाप्त हुई हैं। लिखित परीक्षाएँ, और प्रायोगिक परीक्षाएँ सभी अच्छी हुई हैं। मुझे विश्वास है कि इस वर्ष कक्षा में स्थिति और भी सुधरनी चाहिए। तेज रफ्तार से दौड़ता समय इस वर्ष घटनाओं के जाल में फँसाकर मुझे पढाई से विरक्त और विमुख करने पर पूरी तरह आमादा था। यदि उद्‌देश्य की मशाल बहुत ज्वलनशील नहीं होती तो इस बात की पूरी संभावना थी कि मैं इस जाल में फँस जाता। कॉलेज की विभिन्न गतिविधियाँ मेरी प्राप्य नहीं हैं। कॉलेज में मैंने पढने के लिए प्रवेश लिया है। जीवन में सफल डॉक्टर बनने के लिए अध्ययन के अलावा कोई रास्ता नहीं है। महासचिव मैं एक वर्ष के लिए हूँ। डॉक्टर मुझे जीवनपयर्ंत रहना है। राजनीति को धंधा बनाने का मेरा कोई इरादा नहीं है, डॉक्टर के रूप में मुझे आजीविका अर्जित करनी है। ये बातें अगर मस्तिष्क में स्पष्ट नहीं होतीं तो समय का प्रवाह कभी रैगिंग के विरोध के बहाने और कभी छात्रसंघ के महासचिव के बहाने मुझे कहीं दूर ले जाकर फेंक देता। इतनी दूर जहाँ से अपने उद्‌देश्य को छू पाना भी मेरे लिए संभव नहीं रह जाता।

अध्ययन मेरी दृष्टि में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, फिर भी आस्थाओं के कारण जो दायित्व मैंने स्वीकार किए, उनका निर्वाह करने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। रात-भर जागकर मैंने अगर पढाई की तो दिन-भर भाग-दौड़ करके महासचिव के रूप में समस्याएँ भी सुलझाईं। केवल समस्याएँ सुलझाईं हों, इतना ही नहीं हुआ। बल्कि वही काम करने का प्रयत्न हुआ जिनका स्थायी महत्त्व हो सकता है, जो स्वस्थ वातावरण के निर्माण में सहायक हो सकते हैं। फिर प्रचलित रीति के विपरीत पूरी कोशिश हुई कि हिंसा, तोड़-फोड़, मार-पीट किए बिना ही समस्याओं का समाधान कर लिया जाए। कक्षा में विषय पर बातचीत में मेरी तैयारी देखकर जहाँ मेरे साथी और सहपाठी ताज्जुब करते थे कि मैं न जाने कब पढाई करता हूँ, वहीं महासचिव के रूप में हर जगह मुझे उपस्थित देखकर सारा कॉलेज मेरी सक्रियता का प्रशंसक था। जिन मूल्यों की स्थापना की इच्छा छात्रसंघ के महासचिव के रूप में मेरी थी, उनकी न मैंने कभी घोषणा की और न उनका कभी ढिंढोरा पीटा। मगर जो लोग अंतर समझ पाते हैं, अंतर्धारा को पहचान पाते हैं, उनसे कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। जब छात्र अनुशासन हीनता और अराजकता का पर्याय बनते जा रहे हों, एक व्यक्ति अपने ढंग से उन्हें नियंत्रित कर ले तो यह घटना आज के दौर का आश्चर्य महसूस होती है। नियंत्रण कर पाने में सक्षम व्यक्ति अनुशासन हीनता और अराजकता का पक्षधर न हो, हिंसक तरीकों से काम करने में विश्वास न करता हो तो आश्चर्य और भी बढ़ जाता है।

इस साल भागमभाग, व्यस्तता और घटनाचक्र की तेज रफ्तार ने यदि मुझे सबसे अधिक परेशान किया तो उसका एकमात्र कारण था वार्ड में जाने के लिए निर्धारित समय में अन्य झंझटों का खड़ा हो जाना। मेरी कोशिश होती थी कि इस समय विशेष में कोई दूसरा काम न करूं। कोई काम आ पड़ता है तो उसे कुछ देर के लिए टाल दूं। फिर भी कई समस्याएँ अनचाहे ढंग से उसी समयावधि में खड़ी हो जाती थीं। छात्रसंघ की पूरी कार्यकारिणी होती है। कक्षा प्रतिनिधि के रूप में प्रीफेक्ट होते हैं। प्रत्येक छात्रावास में छात्रों की एक समिति होती है। इसके बावजूद महासचिव को ही हर एक छोटी-बड़ी समस्या सुलझानी पड़ती है। एकाधिकारवादी प्रवृत्ति के कारण वषोर्ं से बिगड़े ढर्रे का यह परिणाम है। प्रारंभ में मैंने प्रयत्न किया था कि समस्याएँ उसी छात्र के पास जाएँ, जिसे इस काम के लिए चुना गया है। मगर महसूस हुआ कि छात्र सोचते हैं, मैं समस्याओं का सामना करने से कतराता हूँ। यह प्रयत्न भी किया कि अन्य छात्र नेता आगे बढकर समस्याओं को स्वयं ही हाथ में ले लें। छात्रों को इससे अवमानना का असंतोष होता था। मजबूर होकर हर जगह महासचिव के भागने की परंपरा मुझे भी ढोनी पड़ी। यह परंपरा प्रकृति के अनुकूल न होते हुए भी मुझे अखरती नहीं यदि वार्ड के लिए निर्धारित समय में मुझे छोड़ दिया जाता। फिर भी किसी तरह निभ गई। कभी समस्या उठ खड़ी हुई। जाना पड़ा। आधा घंटा देर से ही सही, घंटा-भर निकल जाने के बाद ही सही, मैं वापस वार्ड में पहुँचने की चेष्टा करता रहा और उस चेष्टा में सफल भी होता रहा।

अस्पताल अपने आपमें एक अलग दुनिया है। प्रिंसिपल, फैकल्टी डीन, प्रोफेसर, रीडर, लैक्चरर, पैथालॉजिस्ट, रेडियोलॉजिस्ट, कंपाउंडर, नर्स, टेक्नीशियन, रेडियोग्राफर, वार्ड ब्वाय, स्वीपर की ऊपर से कदम-ब-कदम नीचे उतरती सीढियाँ। सीनियर रजिस्ट्रार, हाउस सर्जन, इंटर्न, विद्यार्थी डॉक्टर, विद्यार्थी कंपाउंडर, विद्यार्थी नर्स के कंधों पर पचास रुपए से एक सौ रुपए प्रतिमाह के स्टाइफँड की नींव पर खड़ी अस्पताल की व्यवस्था। अस्पताल की प्रशासनिक व्यवस्था के कर्णधार सुपरिटेंडेंट ओर डिप्टी सुपरिटेंडेंट। अस्पताल की बिजली व्यवस्था के लिए इंजीनियर, मैकेनिकों व टेक्नोशियनों का अमला। अस्पताल भवन और फर्नीचर के रख-रखाव के लिए पी ० डब्लयू ० डी ० वालों की फौज। लिफ्ट, इंक्वायरी, लांड्री, दर्जी, टेलीफोन ऑपरेटर, रसोइए, चौकीदार, क्या नहीं है यहाँ जो अलग दुनिया मानने की दृष्टि से हिचकिचाहट पैदा करे? सब पुर्जे महत्त्वपूर्ण हैं। फिर भी किसी के बिना काम नहीं रुकता। विदेश जाना है, टीके लगवाकर प्रमाण-पत्र यहाँ से लेना पड़ेगा। ऑपरेशन कराना है, तेज रोशनियों के घेरे में एनेस्थीटिस्ट के निर्देशानुसार दस तक की गिनती पूरी करने से पहले ही बेहोशी में डूबते हुए, सर्जन के चाकू के नीचे यहीं आना पड़ेगा। ऑपरेशन या किसी अन्य कारण से ब्लड ट्रांसफ्यूजन होना है, खून के लिए ब्लड बैक यहीं मिलेगा। ठीक होकर अस्पताल से घर जा रहे हैं, मंदिर में प्रसाद चढाना है, हनुमानजी का एक मंदिर अस्पताल में इसी उद्‌देश्य से बनवाया गया है। विद्यार्थी डॉक्टर अस्पताल की दुनिया में आज के लिए चाहे महत्त्वहीन हों किंतु कल के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। क्रमशः हाउस सर्जन, रजिस्ट्रार, लैक्चरार, रीडर, प्रोफेसर और यूनिट हैड की देखरेख में अस्पताल की विशाल प्रयोगशाला में उपलब्ध जीवित उपकरणों से विद्यार्थी डॉक्टर प्रयोग करता है। निरीक्षण, परीक्षण, विश्लेषण करता हुआ वह मरीजों का इलाज करने की स्थिति में पहुँचता है। बाहरी दुनिया की तरह अस्पताल की दुनिया में भी सीखता वही है जो सीखना चाहता है। विद्यार्थी चाहेगा तो उसे रास्ता दिखा दिया जाएगा, किंतु रास्ते पर चलने की ललक उसे ही पैदा करनी होगी अपने आपमें। इस सच्चाई की जानकारी वार्ड पोस्टिंग के प्रारंभिक दिनों में ही मुझे बखूबी हो गई थी। इसलिए क्लीनिक कक्षा में जो कुछ पढाया गया, उसके अनुसार मरीजों में लक्षण तलाश करना, लक्षणों से निदान तक पहुंचना, समान लगने वाले लक्षणों की बारीकियों को पहचानकर गलत निदान से बचना और इलाज के लिए दवाओं का चयन करके सचमुच दी जा रही दवाओं के साथ फार्मेकालॉजी के अनुसार मिलान करना, अस्पताल में काम की यह प्रक्रिया मैंने अपने लिए तय कर ली थी। इंट्रामस्क्यूलर इंजेक्शन तो भुजाओं या नितंबों की मांसपेशियों में लगाना सीखने में कोई कठिनाई वाली बात नहीं थी। किंतु इंट्रावीनस इंजेक्शन या ड्रिप के लिए नस तलाश करने का काम अभ्यास सम्मत था। चीरा लगाना, टाँके लगाना, आर्टीफीशियल रेस्पीरेशन देना, इमरजेंसी में दवाओं व सुइयों का चयन करना, ड्रेसिंग करना, ब्लड प्रेशर देखना, स्टेथेस्कोप के विविध प्रयोग समझना तभी संभव था जब ये काम करने का अवसर मिले।

प्रत्येक वार्ड का आधारभूत काम रजिस्ट्रार और हाउस सर्जन करते हैं। लैक्चरर, रीडर, प्रोफेसर राउंड लेते समय निर्देश देते हैं। रजिस्ट्रार, हाउस सर्जन के साथ मिलकर निर्देशों का पालन करते हैं। तीन वर्ष की पोस्टग्रेजुएशन स्तर की पढाई के लिए हाउस सर्जन, रजिस्ट्रार और सीनियर रजिस्ट्रार के रूप में प्रतिवर्ष वार्डों में किया गया काम ही उन्हें योग्य डॉक्टर बनाता है। हमारे स्तर पर व्यावहारिक ज्ञान रजिस्ट्रार से अधिक मिलना संभव नहीं है, यह समझने में मुझे अधिक समय नहीं लगा। काम का बोझ रजिस्ट्रार के ऊपर रहता है इसलिए किसी विद्यार्थी को सिखाने के लिए समय खराब करने में उसकी रुचि बिलकुल नहीं होती है। मैंने प्रयत्न किया कि हर एक मरीज की फाइल देखकर मैं उसके बारे में जानकारी ले लूं। जिन मरीजों का काम करना मेरे लिए संभव होता, मैं रजिस्ट्रार को बताकर फाइल के अनुसार कर लेता। खून और पेशाब के नमूने लेकर कॉलेज की प्रयोगशाला में भेजना, एक्स-रे आदि के लिए रिक्वीजीशन बनाकर मरीज को संबंधित विभाग में भिजवाना, निर्देशों के अनुसार मरीजों को दवाइयाँ लिखकर देना, मरीजों की मंगवाई हुई दवाओं की जांच करके बताना कि कौनसी दवा कब और कितनी लेनी है, वार्ड में बड़ों के साथ छोटे-छोटे काम भी इतने होते हें कि अगर मदद करने वाला मिल जाए तो रजिस्ट्रार राहत महसूस करता है। इनके कारण मुझे सीधा फायदा यह होता था कि रजिस्ट्रार जब संभव होता, मुझे समझाता, सिखाता और काम करने के लिए दे देता।

वार्ड में भरती मरीजों को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग में ऐसे मरीज आते हैं जो प्रोफेसर, रीडर या लैक्चरार को घर में दिखाकर फीस देते हैं और अस्पताल में भरती होकर संबंधित डॉक्टर के माध्यम से, उपलब्ध सुविधाओं का लाभ उठाते हैं। जिस डॉक्टर को घर में दिखाकर वे भरती होते हैं, वह डॉक्टर राउंड के समय उनको ज्यादा ध्यानपूर्वक देखता है। दूसरी श्रेणी में आने वाले मरीज पद, परिचय या संबंधों के कारण वार्ड में महत्त्व हासिल कर लेते हैं। इन दोनों श्रेणियों के मरीजों में वरिष्ठ डॉक्टरों में से किसी-न-किसी की रुचि होती है।

इसलिए रजिस्ट्रार और हाउस सर्जन को भी उनका विशेष ध्यान रखना पड़ता है। रात को दो बजे कोई परेशानी हुई। परिचारक ने वार्ड में उपलब्ध रजिस्ट्रार या हाउस सर्जन को बताया। रजिस्ट्रार या हाउस सर्जन ने स्वयं आकर एक बार मरीज को देखा। उससे जरूरी सवाल पूछे। बहुत कम स्थितियों में पूरी तरह निरापद देखकर उसने स्वयं उपचार कर दिया अन्यथा वरिष्ठ डॉक्टर को टेलीफोन किया। हालात बताए और निर्देशानुसार उपचार कर दिया। यह भय रजिस्ट्रार या हाउस सर्जन के मन में ऐसे मरीजों के मामले में हमेशा बना रहता है कि कहीं उसकी स्वनिर्ण्िात उपचार विधि को गलत बताकर डाँट-डपट न हो जाए।

तीसरी श्रेणी के मरीज सबसे ज्यादा जरूरतमंद, सबसे ज्यादा परेशान, सबसे ज्यादा भोले-भाले और सबसे ज्यादा ध्यान देने योग्य होते हैं। किंतु निर्धनता अस्पताल में भी अभिशाप बनकर उनके सिर पर खड़ी रहती है। वरिष्ठ डॉक्टर उनको रस्म अदायगी के तौर पर देखते हैं। उनकी तकलीफ की तरफ न कोई देखता है और न उसे दूर करने की चेष्टा करता है। पलंग या तो मिलता नहीं है, अगर मिलता है तो गरमियों में पंखे से दूर और सरदियों में खिड़की के पास मिलता है। वरिष्ठ डॉक्टरों के लिए उपेक्षित प्राणी होता है, इसलिए रजिस्ट्रार और हाउस सर्जन भी उसकी ओर उतना ही ध्यान देते हैं जितना जरूरी होता है। तीसरे वर्ग में आने वाले मरीजों की संख्या शेष मरीजों से अधिक होती है।

इन मरीजों के साथ होने वाला सौतेला व्यवहार मुझे बहुत परेशान करता है। लोक कल्याणकारी राज्य में अमीर और गरीब के बीच भेद करना उचित है क्या? कानून सम्मत ढंग से कर गरीब भी देता है। अमीर के लिए सरकारी अस्पतालों के अलावा भी इलाज कराने के लिए अनेक स्थान हैं। गरीब खर्च बरदाश्त नहीं कर सकता इसलिए सरकारी अस्पताल में आता है। फिर अमीर को गरीब के हक पर डाका डालने की इजाजत हम क्यों देते हैं? दवा न खरीद पाने के कारण मृत्यु के मुख में जाने को विवश निर्धन मरीज को न देकर निःशुल्क दवाएँ उन्हें दी जाती हैं जो दवाएँ खरीदने में सक्षम हैं। क्यों करते हैं हम ऐसा? गरीब मरीज को जाँच के लिए अस्पताल की प्रयोगशाला की सुविधा हम नहीं देते। किंतु अमीर मरीज को आयकर न देने वाले व्यक्ति के रूप में सत्यापित करके महँगी से महँगी जाँच अस्पताल से निःशुल्क करा देते हैं। केवल इसलिए क्योंकि या तो दस रुपए देकर उसने घर पर दिखा दिया है या वह प्रभावशाली है। स्वकल्याण को क्या परम कल्याण मानने लगे हैं हम लोग?

अस्पताल में प्रतिदिन ये खेल मैं देखता था। मन-ही-मन दुखी होता था। किंतु विरोध करने में स्वयं को अक्षम पाता था। विरोध तो अलग बात है, लैक्चरार, रीडर या प्रोफेसर से मात्र कह सकूं, इस स्थिति में भी नहीं था मैं। सरकार प्राइवेट प्रेक्टिस बंद कर दे तो डॉक्टर, गरीब मरीजों की तरफ ध्यान देने लगेंगे या अवैध तरीकों से वे मरीजों से रुपए लेना शुरू कर देंगे, यह बहस का विषय है। किंतु प्राइवेट प्रेक्टिस बंद करना या न करना भी मेरे हाथ में नहीं था। रजिस्ट्रार और हाउस सर्जन से किसी प्रकार की अपेक्षा रखी नहीं जा सकती थी। समस्याओं से जूझने की मुझे आदत है, इसलिए मैं अलग-अलग पहलुओं से विचार करता रहा। किसी सहपाठी को विचार-मंथन में शामिल करने से कोई लाभ नहीं था। मैं अकेला ही प्रक्रियाओं में से रास्ता निकालने का प्रयास करता रहा। अंततः एक उपाय मुझे सूझा।

प्रत्येक लैक्चरार, रीडर और प्रोफेसर को निर्धारित स्तर के विद्यार्थियों की निर्धारित समय पर क्लिनिक कक्षा लेनी होती है। क्लिनिक कौनसे मरीज की बीमारी को ध्यान में रखते हुए होगी, यह कार्यक्रम रजिस्ट्रार ही तैयार करता है। विशेष रूप से तृतीय और चतुर्थ वर्ष के विद्यार्थियों के मामले में सामान्यतः किसी मरीज विशेष को क्लिनिक के कार्यक्रम में रखने की बात अध्यापक नहीं कहते हैं। जिस मरीज पर क्लिनिक में विस्तार से बातचीत होती है, स्वाभाविक रूप से उसके रोग के लक्षण, निदान, जांच ठीक होने की संभावनाओं, आदि पर अच्छी तैयारी हो जाती है। उस मरीज को अनेक मेडीकल विद्यार्थियों के प्रश्नों का सामना करने की असुविधाजनक स्थिति से जरूर गुजरना पड़ता है किंतु इलाज की दृष्टि से उसके ऊपर अधिक ध्यान चला जाता है।

मैं पहले अपनी तरफ से वार्ड में भरती मरीजों की पहुँच और आर्थिक स्थिति का जायजा लेता। रोग की दृष्टि से उसका परीक्षण करके, लक्षणों के अनुसार पुस्तकों में संदर्भ ढूंढ़कर, केस हिस्ट्री लेकर, फाइल देखकर मैं आकलन करता कि रोग किस अवस्था में है? आर्थिक स्थिति और रोग की गंभीरता के आधार पर मैं रजिस्ट्रार से उस केस को क्लिनिक में रखवाने का अनुरोध करता। क्लिनिक में चर्चा से पहले क्योंकि मैंने पूरी तरह तैयारी की होती, इसलिए संभावित-असंभावित सभी प्रकार की शंकाएँ क्लिनिक के माध्यम से दूर हो जाती थीं। मरीज की विस्तृत जांच, उसके विस्तृत परीक्षण का लाभ यह मिलता था कि निदान पर पहुँचकर तुरंत उचित इलाज वाली स्थिति आ जाती थी। निदान की दृष्टि से आवश्यक जांच, एक्सरे, आदि भी अस्पताल से हो जाते थे। इसके बाद बचती थीं दवाएँ। अगर मरीज स्वयं दवाएँ लाने की व्यवस्था कर लेता तो ठीक है वरना रजिस्ट्रार से कहकर महँगी दवाएँ मैं उसे अस्पताल से दिलवा देता था।

कभी-कभी अस्पताल से दवा की व्यवस्था कराना संभव नहीं होता था। मरीज आर्थिक दृष्टि से दवा लाने की हालत में होता नहीं था। क्लिनिक में केस पर विस्तार से बातचीत हो गई। हर तरह की जाँच हो गई। परीक्षण हो गए। असंदिग्ध निदान हो गया। मगर मरीज के पास दवा लाने के लिए पैसे नहीं हैं। यह स्थिति मन को और ज्यादा खराब लगती थी। छात्रसंघ के महासचिव के रूप में दबदबा था ही। कुछ साथियों को लेकर मैं लायन क्लब और रोटरी क्लब के सचिवों से मिला। गरीब और जरूरतमंद मरीजों की व्यथा-कथा उन्हें सुनाई। ये लोग सामाजिक काम प्रचार और प्रदर्शन के लिए अधिक करते हैं, सेवाभाव इनके हृदयों में कम होता है। यह अहसास मुझे था। मैंने उनसे कहा कि मरीजों को दवाएँ देने से आपके क्लब को, आपको प्रचार भी मिल सकता है। जहाँ तक प्रक्रिया को बात है, उसमें हम लोग आपकी सहायता करेंगे। आप अस्पताल के सामने स्थित किसी एक मेडीकल स्टोर को एक निश्चित सीमा में दवाएँ उपलब्ध कराने के लिए कह दीजिए। सीमा आप हमें बता दीजिए। जरूरतमंद मरीजों की जानकारी हम लोगों को रहती ही है। जिसे हम अस्पताल से दवा नहीं दिला पाएँगे ऐसे मरीज को निर्धारित मेडीकल रुटोर पर भेजेंगे। बिल सत्यापित करके हम मेडीकल स्टोर में वापस भेज देंगे। आप उसके आधार पर भुगतान कर दीजिएगा। पहली बार आप लोग स्वयं चलकर अपने हाथों से दवाएं दीजिए। फोटो खिंचवाइए। अखबारों में छपवाइए। बाद में हम आपकी सहायता करते रहेंगे।

दोनों सचिवों ने अपने क्लब के सदस्यों के साथ विचार-विमर्श किया। इस काम में एक-डेढ़ महीना लग गया। किंतु आखिर लायन क्लब ने पिचहत्तर रुपए की प्रतिमाह और रोटरी क्लब ने पचास रुपए की प्रतिमाह दवा देने के लिए दुकानदारों को निर्देश दे दिए। पहली बार क्लब के अध्यक्ष व सचिव सहित कार्यकारिणी ने अस्पताल आकर दवाएँ मरीजों को दीं। दवाएँ देते हुए उनके फोटो खिंचे। प्रचार हुआ। छात्रसंघ की ओर से सराहना करते हुए हमने भी उन्हें पत्र लिखे। मेरे मन की उथल-पुथल को थोड़ी-बहुत राहत मिली। फिलहाल किसी और की तो इस तरह के काम में रुचि थी नहीं। इतना मैं जरूर समझ पाता हूँ कि लायन क्लब और रोटरी क्लब के एक सौ पच्चीस रुपए गरीब मरीजों की इतनी बडी संख्या की दवाओं की जरूरत पूरी नहीं कर सकते। मंथन जारी है। कोई-न-कोई उपाय निकल आना चाहिए। साल-दो-साल भले ही लग जाएँ, किंतु जब तक इस संबंध में कोई स्थायी व्यवस्था नहीं हो जाती, मेरा सोच काम करता रहेगा।

समय की कमी सरकारी अस्पताल में कितनी घातक साबित हो सकती है, इसका एक उदाहरण मैं लाख चाहकर भी अपने मस्तिष्क से निकाल नहीं पा रहा हूँ। ऐसा माना जाता है कि कुछ इंजेक्शन सैंसिटीविटी टैस्ट किए बिना किसी भी स्थिति में नहीं लगाए जाने चाहिएं। पैंसिलीन को इंजेक्ट करने से पहले जरूर टैस्ट कर लेते हैं। किंतु अन्य दवाओं को टैस्ट करने के मामले में लापरवाही या समयाभाव काम कर जाता है। सैंसिटीविटी टैस्ट करेंगे तो पाँच मिनट इंतजार करके असर देखना पड़ेगा। पाँच मिनट इंतजार कौन करे? लगाओ इंजेक्शन, देखा जाएगा। संभवतः यही प्रवृत्ति रही होगी कि एक मरीज को बी-कॉम्पलेक्स का इंजेक्शन बिना सैंसिटीविटी टैस्ट किए लगा दिया कंपाउंडर ने। मैं उस समय पास वाले बिस्तर के मरीज से हिस्ट्री पूछ रहा था। इंजेक्शन लगाकर कंपाउंडर जल्दी-जल्दी दूसरे मरीज की तरफ चला गया था। अचानक मेरा ध्यान गया तो मैंने देखा कि जिस मरीज को इंजेक्शन लगा था उसका चेहरा सफेद झक्क हो गया। पसीना उसकी पेशानी पर छलछला आया। तब तक मुझे नहीं पता था कि कंपाउंडर ने उसे कौन-सा इंजेक्शन लगाया था। रीएक्शन होता है, यह तो मुझे मालूम था किंतु ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए, इसकी जानकारी मुझे नहीं थी।

मैं दौड़कर रजिस्ट्रार के पास गया। उसे बताया कि बैड नं० पाँच के मरीज को कंपाउंडर ने इंजेक्शन लगाया था। लगता है, रीएक्शन हो गया है।

‘‘ओ गॉड, उसे तो बी-कॉम्पलेक्स का इंजेक्शन लगा है।'' हड़बड़ाकर वह उठा और तुरंत मरीज के पास आया।

देखते ही उसे समझ में आ गया कि बी-कॉम्पलेक्स का इंजेक्शन रीएक्ट कर गया है। कंपाउंडर को आवाज लगाकर उसने एविल लाने के लिए कहा। झटपट तीन-चार अलग-अलग तरह के इंजेक्शन एक के बाद एक उसे लगा दिए। थोड़ी देर में उसकी उखड़ी साँसें नियंत्रित होने लगीं तो रजिस्ट्रार ने चैन की सांस ली। अपनी कुरसी पर लौटकर काफी देर तक वह सिर को हाथों में थामकर बैठा रहा। मैंने जानकारी की तो पता लगा कि बी-कॉम्पलेक्स इंजेक्शन के कारण रीएक्शन तो एक हजार में से केवल एक मरीज को होता है, किंतु रीएक्शन एक बार हो गया तो मरीज की तुरंत मृत्यु हो जाने का डर होता है। पैंसिलीन सहित कोई भी दूसरा इंजेक्शन ऐसा नहीं है जिसका रीएक्शन होने के बाद इतनी जल्दी मृत्यु होने की संभावना रहती हो।

इस व्याख्या के बाद समझने में मुझे देर नहीं लगी किं रजिस्ट्रार ने कुरसी पर बैठते ही अपना सिर हाथों में क्यों थाम लिया था? कंपाउंडर को इस बात की जानकारी थी कि बी-कॉम्पलेक्स का इंजेक्शन सैंसिटीविटी टैस्ट करने के बाद ही लगाया जाना चाहिए। उसे यह भी मालूम था कि बी-कॉम्पलेक्स का इंजेक्शन अगर रीएक्ट कर जाए तो परिणाम बहुत भयंकर हो सकता है। फिर क्यों नहीं किया उसने सैंसिटीविटी टैस्ट? लापरवाही? समयाभाव? मरीजों का अज्ञान कि जिसके कारण वे मृत्यु के कारणों का अनुमान नहीं लगा पाते? निर्धनता? ईश्वर की इच्छा मानकर इलाज को चुनौती न देने की मानसिकता? भारतीय सोच कि मरने वाला तो चला गया, अब यह सब किसके लिए किया जाए? सब बातों का थोड़ा-बहुत प्रभाव हो सकता है किंतु सबसे बड़ा कारण है व्यक्तिगत जवाबदेही का अभाव। कहते हैं, अरब देशों में इलाज अस्पताल नहीं करता, डॉक्टर विशेष करता है। गलत इलाज को डॉक्टर की व्यक्तिगत जिम्मेदारी माना जाता है। उसकी गलती से यदि मरीज की मृत्यु हुई है तो डॉक्टर को सजा-ए-मौत भी मिल सकती है। देश का कानून ऐसे डॉक्टर को हत्या का अभियुक्त मान सकता है। यदि पोस्टमार्टम रिपोर्ट या विशेषज्ञों की समिति की रिपोर्ट के आधार पर सिद्ध होता है कि मृत्यु डॉक्टर की गलती से नहीं हुई तो अलग बात है। अन्यथा डॉक्टर के खिलाफ मुकदमा सरकार की तरफ से चलता है। मृत व्यवित के परिजनों को न्यायालय के द्वार खटखटाने की जरूरत नहीं होती। यह प्रक्रिया अपने आप चल पड़ती है। क्या इसी तरह का कोई कानून अपने देश में नहीं बनना चाहिए? अंग्रेजों से पहले, वैद्य को ईश्वर का रूप मानकर अपने देश में उसकी पूजा करते थे। धनवंतरी का उद्‌गम समुद्र-मंथन से माना गया है। ईश्वर स्वरूप वैद्य कोई लापरवाही करेगा और रोगी की जान पर बन आएगी, यह बात सोची भी नहीं जा सकती थी। किंतु अंग्रेजों ने चिकित्सा को पैसे से जोड़कर भी लापरवाही करते रहने का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखा। इंग्लैंड में तो लापरवाही करने पर अदालत उन्हें माफ नहीं करती। फिर भारत में ही यह विशेषाधिकार क्यों था उनके पास? चिकित्सा पद्धति हमने उनसे ली है, इसका अर्थ यह नहीं है कि एलौपैथी के चिकित्सकों को भी अंग्रेजों को इस देश में प्राप्त विशेषाधिकार स्वाभाविक रूप से मिल जाने चाहिएं।

अपनी समझ और योग्यता के अनुसार मरीजों, विशेषकर गरीब मरीजों को राहत पहुँचाने की कोशिश अवसर आते ही उन्माद की तरह मेरे ऊपर हावी हो जाती है। कई बार मैं इतनी अधिक रुचि लेने लगता हूँ कि रजिस्ट्रार तथा अन्य लोगों को आशंका होने लगती है। किसी प्रकार का व्यक्तिगत संबंध, किसी प्रकार का आर्थिक लाभ यदि नहीं होता है तो कौन करता है इतना आगे बढ़-चढ़कर मदद? हो सकता है, शरणार्थी शिविर और उसके बाद जो स्थिति मैंने सिंध से आए लोगों की देखी, यह उन्माद उसकी देन हो। हो सकता है, मैंने स्वयं विभाजन के बाद जो कुछ भोगा है, यह जज्बा उसकी उपज हो। किंतु जरूरतमंद की सहायता के लिए जितना आगे बढ जाता हूँ, वह लोगों को चाैंकाता है।

एक घटना मुझे याद आती है! मेरी पोस्टिंग पीडिएट्रिक वार्ड में चल रही थी। दो दिन पहले डीहाइड्ऱेशन के बारे में हमें बताया गया था कि बच्चों में पानी की कमी उलटी, दस्त, कम दूध या पानी पिलाने के कारण कई बार हो जाती है। ग्लूकोज सेलाइन चढाकर डीहाइड्रेशन को दूर करने के उपाय कर लिये जाते हैं। किंतु यदि ग्लूकोज सही समय पर न चढाया गया तो डीहाइड्रेशन का असर मस्तिष्क पर पड़ सकता है। ऐसी स्थिति में शिशु की देखते ही देखते मृत्यु हो सकती है।

हमारी पाँच विद्यार्थियों की टोली ने दस बजे जैसे ही वार्ड में कदम रखा, अपने सात-आठ माह के बच्चे को गोद में लिये फटे-पुराने कपड़े पहने एक ग्रामीण महिला रोती हुई नजर आई। मैं अपने साथियों को लेकर उसके निकट चला गया। पूछा तो उसने जानकारी दी कि लगभग पौन घंटा पहले आउटडोर से पानी की कमी का इलाज करने के लिए भरती करके यहाँ भेजा है। आउटडोर वालों ने जो पर्ची लिखकर दी थी, उसके अनुसार वह दो बोतल ग्लूकोज अपने साथ लेकर आई थी। मगर हर एक की चिरौरी करने के बाद भी कोई सुन नहीं रहा है। सहानुभूति का स्पर्श पाकर वह दहाड़ें मारकर रोने लगी। मैंने इधर-उधर देखा। एडमीशन डे होने के कारण मरीजों की आमद जारी थी। रजिस्ट्रार बुरी तरह व्यस्त था। फिर भी मैं रजिस्ट्रार के पास चला गया, ‘‘बॉस, आउटडोर से एक डीहाइड़े्रशन का केस आया है। मुझे लगता है, बच्चा सीरियस है। आइ ० वी ० ड्रिप अभी नहीं चढी तो वह मर सकता है।''

पीडिएट्रिक्स में हफ्ता-भर पहले ही पोस्टिंग हुई थी। रजिस्ट्रार ने अजीब-सी नजरों से मुझे देखा, ‘‘तुम चलो। मैं अभी आता हूँ।''

मैं लौटकर महिला के पास आ गया। बच्चा गैस्प करने लगा था। माँ जोर-जोर से चिल्लाकर रोने लगी थी। मैं दौड़ता हुआ फिर रजिस्ट्रार के पास गया, ‘‘बॉस, बच्चा गैस्पिंग कर रहा है।''

अब रजिस्ट्रार को लगा कि मामला सचमुच गंभीर है। उठकर वह जल्दी-जल्दी बच्चे के पास आया। बच्चे की स्थिति देखकर उसने एक पल भी गंवाए बिना ड्रिप लगाने के लिए नस तलाश करनी शुरू कर दी। बच्चा शॉक में चला क्या था। नस मिल नहीं रही थी। पैर, कलाई दोनों जगह कई प्रिक लगाने के बाद भी जब नस नहीं मिली तो मैंने सुझाव दिया, ‘‘बॉस विनी सैक्शन कर लेते हैं।''

रजिस्ट्रार को उस स्थिति में इससे बेहतर रास्ता कोई नहीं सूझा होगा। चीरा लगाकर उसने सबक्यूटेनियस टिशू को काट दिया। नस नजर आने लगी। नस में चीरा लगाकर छेद करके उसने नीडल सीधी उसमें डाल दी। पाँव को बाँधने के लिए पैड आदि कुछ भी नहीं थे। हममें से एक ने ऊँचा उठाकर ग्लूकोज की बोतल को पकड़ लिया। मैंने बच्चे के पाँव को सँभाले रखा। ग्लूकोज की रफ्तार तेज थी फिर भी पहली बोतल समाप्त होते-होते तीन घंटे लग गए। इतना समय हम लोग उसी अवस्था में बैठे रहे। ग्लूकोज मिलने के थोड़ी देर बाद बच्चे की गैस्पिंग रुक गई थी। आधी बोतल समाप्त होते-होते उसकी स्थिति भी सुधरने लगी थी।

बच्चे की माँ की आँखों में जो कृतज्ञता थी, उसने श्रम से कई गुना ज्यादा मुआवजा हमें दे दिया था। किंतु बाद में रजिस्ट्रार से रहा नहीं गया। उसने मुझसे पूछ ही लिया, ‘‘इस औरत को तुम जानते थे क्या?''

चिकित्सा व्यवसाय अनिवार्यतः इनसान और उसकी भावनाओं से जुड़़ा हुआ है। इनसान और उसकी भावनाओं के सूक्ष्म तंतुओं का ध्यान रखे बिना कोई भी चिकित्सक कैसे काम कर सकता है, मैं समझने में असमर्थ हूँ। ठीक है कि चिकित्सक की भी मौलिक आवश्यकताएँ होती हैं, उसे भी सामाजिकता का निर्वाह करना पड़ता है, उसे भी परिवार का पालन-पोषण करना होता है, उसमें भी मानवीय कमजोरियाँ होती हैं। किंतु खून के बिना भी शरीर की कल्पना की जा सकती है क्या? शरीर के अपने गुण-अवगुण होते हैं किंतु शरीर में से मांस का टुकड़ा निकाल लिया जाए और रक्त की एक बूंद भी गिरे नहीं, यह संभव है क्या? मानव की पीड़ाओं को देखकर जिसमें करुणा न जागे, मानवीय संवेदनाएँ जिसे छू न सकें, वह चिकित्सक हो सकता है क्या? अपने चारों ओर फैले डॉक्टरों को देखता हूँ तो ये प्रश्न निरर्थक लगते हैं। मैं नहीं जानता कि डॉक्टर बनने के लिए उनका मेडीकल कॉलेज में आना एक संयोग मात्र है या सचेतन ढंग से उन्होंने डॉक्टर बनना चाहा था। यह बात मैं अच्छी तरह जानता हूं कि कम-सेे-कम मैं पर्याप्त सोच-विचार के बाद मेडीकल कॉलेज में आया हूँ। मेरे लिए प्रत्येक पीड़ित, प्रत्येक रोगी मानवता का प्रतिरूप है। प्रत्येक पीड़ित मेरा रिश्तेदार है। रुपया या सामाजिक संबंध उसके साथ मेरा रिश्ता नहीं बनाते। उसके साथ मेरा रिश्ता बनाता है वह व्यवसाय जो मैंने सचेतन रूप से चुना है।

चीफ प्रॉक्टर के पास छात्रसंघ की कार्यकारिणी ने वर्ष-भर के प्रस्तावित कार्यक्रम जब भेजे थे तो उनमें शामिल दो कार्यक्रम उनकी समझ में नहीं आए थे। हमने श्री मन्मथनाथ गुप्त को स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भाषण देने के लिए बुलाने का प्रस्ताव रखा था। दूसरा हमने सोलह मार्च को वर्ष प्रतिपदा के अवसर पर प्रतीक के रूप में विक्रम संवत्‌ के अनुसार नए वर्ष का स्वागत करने का निश्चय किया था। मार्च में परीक्षाओं के कारण बड़ा आयोजन संभव नहीं था, इसलिए प्रिंसिपल की ओर से कॉलेज पोर्च में सरस्वती की प्रतिमा के सम्मुख दीप प्रज्वलित करके औपचारिक रूप से नया साल रेखांकित करने की बात हम लोगों ने सोची थी। ईसवी सन्‌ के नए साल की तरह कॉलेज में, अस्पताल के प्रमुख स्थानों पर तीन-चार बैनर लगवाने का विचार भी हमने किया था। बैनरों पर लिखना था विक्रम संवत्‌ 2010 शुभ हो।

श्री मन्मथनाथ गुप्त का नाम चीफ प्रॉक्टर ने पहली बार सुना था। मैंने उनके बारे में विस्तार से बताया तो वे इस कार्यक्रम के लिए तैयार हो गए। किंतु वर्ष प्रतिपदा के लिए उनका कहना था कि अलग-अलग संवत्‌ के अनुसार नया साल मनाना उचित नहीं है। एक तर्क उन्होंने यह भी दिया कि भारत सरकार ने शक संवत्‌ को स्वीकार किया है, विक्रम संवत्‌ को नहीं। इसलिए अगर मनाना ही है तो नया साल शक संवत्‌ के अनुसार मनाओ। दासता की मानसिकता और भारतीय संस्कृति के गौरव की पृष्ठभूमि में इस विषय पर मैंने उनसे लंबी बात की। किंतु वे सहमत नहीं हुए। सोलह मार्च को हमने अपने निश्चय के अनुसार विक्रम संवत्‌ का नया साल मनाया, किन्तु दीप प्रिंसिपल की बजाय मैंने प्रज्वलित किया और आयोजन छात्रसंघ की ओर से न करके हमने व्यक्तिगत रूप से किया।

मेडीकल कॉलेज के चीफ प्रॉंक्टर जब भारतीय संस्कृति के स्थान पर अंग्रेजों के उपहारों को ज्यादा महत्त्व देते हैं तो इस देश के बहुसंख्यक सामान्य बुद्धि के लोगों को क्यों दोष दिया जाए? भाषा, वेश-भूषा, आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान सब कुछ तो दासता की कहानी बोलते हैं चिल्ला-चिल्लाकर। आजाद हैं हम किस तरह आखिर? अंग्रेजी को हम अंतरराष्ट्रीय भाषा कहते हैं। हिंदी हमें अंग्रेजी की तुलना में गंवारू लगती है। अंग्रेजों को, उनकी सभ्यता को, उनके देश में बनी सामग्री को हम सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। अपना अतीत और वर्तमान हमें हेय प्रतीत होता है। क्या होगा उनका भविष्य जो अतीत को निकृष्टतम और वर्तमान को निकृष्ट मानते हैं?

महासचिव बनते ही मैंने छात्रावासों के भोजनालयों को चलाने के लिए चुनाव कराए। चुनाव हर एक महासचिव कराता था। इसलिए मैंने अगर चुनाव कराए तो कोई विशेष बात नहीं की। इस बार केवल एक ही अंतर था। हमेशा महासचिव के चहेते लड़के भोजनालय में छात्र-प्रतिनिधि चुने जाते थे। महासचिव और छात्र-प्रतिनिधि मिल-बाँटकर पैसा खा जाते थे। छात्रावास में रहने वाले छात्र समझते थे, फिर भी सबूत न होने के कारण कुछ कह नहीं पाते थे। महासचिव का वरद्‌हस्त होने के कारण छात्र-प्रतिनिधि के खिलाफ आवाज उठाने का साहस करना हर एक छात्र के लिए संभव भी नहीं था।

मैंने केवल एक संशोधन के साथ चुनाव कराए। प्रत्येक माह की अंतिम तारीख को आगामी एक माह के लिए छात्र-प्रतिनिधि चुना जाएगा। अगले माह के लिए यदि फिर उसी प्रतिनिधि को चुनने के लिए छात्रावास में रहने वाले छात्र इच्छुक हों तो ऐसा कर सकते हैं। किंतु चुनाव हर महीने होंगे। इस संशोधन का स्पष्ट अर्थ सब लड़के तुरंत समझ गए। पूरा साल हेरा-फेरी करते चले जाने का अनुबंध अब समाप्त हो गया था। एक महीना काम करो। ईमानदारी से काम करोगे तो अगले महीने फिर चुन लिए जाओगे। हेरा-फेरी करोगे तो एक महीने बाद छुट्‌टी हो जाएगी। जो लड़के छात्रावास के भोजनालय से अवैध लाभ उठाते थे, उन्हें यह संशोधन अच्छा नहीं लगा। किंतु विरोध के लिए केवल एक दलील उनके पास थी। हर महीने चुनावों का झंझट समय की बरबादी है। यह दलील किसी को भी स्वीकार्य नहीं थी। इसलिए कोई ध्यान हम लोगों ने नहीं दिया। इस संशोधन का परिणाम मानना चाहिए कि इस वर्ष प्रति समय भोजन का खर्च पिछले साल की तुलना में औसत दो आने कम आया है। प्रत्येक माह छात्र-प्रतिनिधि के चुनाव के कारण भोजनालय के खर्च में आई कमी से छात्र इतने उत्साहित हैं कि मुझे नहीं लगता, अब कभी पुरानी पद्धति लौट पाएगी।

एक काम और हुआ है इस वर्ष, जिसे मेडीकल कॉलेज के इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा। हमारे कॉलेज में एम ० एस० जनरल सर्जरी और एम ० डी ० मेडीसिन की स्नातकोत्तर डिग्रियों की पढाई तो होती है किंतु अन्य विषयों में ऐसी व्यवस्था नहीं है। चिकित्सा विज्ञान तेजी से प्रगति कर रहा है और यहाँ हम अब भी जनरल सर्जरी और जनरल मेडीसिन में उलझे हुए हैं। निजी स्तर पर लड़कों ने प्रयास किए हैं, किंतु उनकी कोई सुनता नहीं है। जिस विषय में कॉलेज में आधारभूत संरचना उपलब्ध है, स्नातकोत्तर अध्ययन की दृष्टि से आवश्यक ढाँचा है, कॉलेज के अनुरोध पर मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया एक विशेषज्ञ समिति भेजकर उस विषय पर एक जांच रिपोर्ट मंगवाती हैं। मानकों के अनुरूप होने पर विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के आधार पर मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया स्वीकृति देती है। इस स्वीकृति का अर्थ है, अब संबंधित विषय में स्नातकोत्तर अध्ययन की दृष्टि से कॉलेज सक्षम है। कॉलेज, मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया से प्राप्त स्वीकृति विश्वविद्यालय को भेजता है। राज्य सरकार से अनुदान मिलता है, इसलिए विश्वविद्यालय औपचारिक स्वीकृति के लिए प्रस्ताव राज्य सरकार को भेजता है। राज्य सरकार की स्वीकृति मिलने पर संबंधित विषय में स्नातकोत्तर अध्ययन-अध्यापन की अनुमति विश्वविद्यालय दे देता है।

हमारे कॉलेज ने आपथैलमालॉजी में एम ० एस ० की डिग्री के लिए अनुरोध दो साल पहले मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया को भेजा था। पिछले सत्र में मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया का विशेषज्ञ दल आया था। उनकी जाँच के आधार पर पिछले सत्र के अंत में स्वीकृति आ गई थी। मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया की स्वीकृति के अभाव में, संबंधित विषय में संबंधित कॉलेज से प्राप्त डिग्री को अन्य विश्वविद्यालय, अन्य राज्यों और केंद्र सरकार के स्तर पर मान्यता नहीं मिलती है। कॉलेज से विश्वविद्यालय को और विश्वविद्यालय से राज्य सरकार को पत्र भेज दिया गया। राज्य सरकार से स्वीकृति की प्रतीक्षा थी। क्योंकि वहां से स्वीकृति नहीं आ रही थी, इसलिए विश्वविद्यालय कोई निर्णय लेने में अक्षम था। पिछले सत्र में यह माना जा रहा था कि नए सत्र में एम ० एस ० आपथैलमालॉजी की कक्षाएँ शुरू हो जाएँगी। स्नातकोत्तर परीक्षाओं के विषय बढने से अधिक विद्यार्थी उनमें प्रवेश ले पाते। अब अगर एम ० एस० और एम ० डी ० में प्रवेश एम ० बी ० , बी ० एस० साठ प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण करने वालों को मिलता है तो उसके बाद साठ प्रतिशत से कम अंक लाने वाले दो छात्रों को एम ० एस ० आपथैलमालॉजी में प्रवेश मिल सकेगा।

विद्यार्थी, विशेषकर इंटर्नशिप करने वाले विद्यार्थी, बहुत उत्सुक थे। छात्रसंघ के महासचिव का चुनाव जीतते ही कई अंतिम वर्ष के छात्र और इंटर्नशिप करने वाले विद्यार्थी मुझसे मिले। सारी बात की जानकारी मुझे थी। फिर भी उन लोगों से मैंने विस्तार से मामला समझा। कॉलेज के पास आधारभूत ढाँचा है। मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया की स्वीकृति मिल चुकी है। विश्वविद्यालय तैयार है, फिर सरकार क्यों रोककर बैठी है इस प्रस्ताव को? इधर-उधर प्रश्न उछाला। मगर कहीं से संतोषजनक जवाब नहीं मिला। आखिर हमने इस मुद्‌दे को उठाने का निर्णय किया।

सबसे पहले कार्यकारिणी, एक अंतिम वर्ष का छात्र और एक इंटर्न छात्र यह समूह मेरे साथ प्रिंसिपल से मिला। हमने प्रिंसिपल से आग्रह किया कि कॉलेज और विद्यार्थियों के हितों को देखते हुए वे इस मामले को रुचि लेकर निर्णय कराएँ। प्रिंसिपल को राज्य सरकार के स्तर पर हुई कार्रवाई और राज्य सरकार की ओर से स्वीकृति न मिलने के कारणों की जानकारी

थी। स्नातकोत्तर कक्षाओं को पढाने के लिए कॉलेज में संबंधित विषय के एक प्रोफेसर, एक रीडर और एक लैक्चरार का होना अनिवार्य था। जबकि हमारे कॉलेज में आपथैलमालॉजी में इस समय केवल एक लैक्चरार ही कार्यरत था। इन नियुक्तियों के बाद वेतन, भत्तों आदि पर होने वाले खर्च को लेकर राज्य सरकार के स्तर पर निर्णय नहीं हो पा रहा था। निर्णय नहीं हो पा रहा था, इसलिए स्वीकृति नहीं मिल रही थी।

मामला जितना लगता था, उससे ज्यादा उलझा हुआ था। यदि दबाव डालकर राज्य सरकार से स्वीकृति ले ली जाती है तब भी एक प्रोफेसर और एक रीडर की नियुक्ति के लिए राज्य सरकार राज्य लोक सेवा आयोग को पत्र लिखेगी। विज्ञापन प्रकाशित होगा। आवेदन-पत्र आएँगे। साक्षात्कार की तारीखें तय होंगी। साक्षात्कार होंगे और तब जाकर कहीं नियुक्तियाँ होंगी। इस प्रक्रिया में लगभग एक वर्ष लग जाएगा। इतना अधिक समय लगे, यह हम लोगों को स्वीकार नहीं था। समय कम लगे, इसका कोई उपाय नजर नहीं आता था। प्रिंसिपल, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग, राज्य सचिवालय और कुछ अध्यापकों से हम लोगों ने सलाह-मशविरा करके एक कार्यनीति बनाई। उसके अनुसार हमने अपने कॉलेज में नियुक्त सभी लैक्चरार, रीडर एवं प्रोफेसर के पदों पर कार्यरत एम ० एस० अध्यापकों के बारे में जानकारी ली कि उनमें से कौन-कौन एम ० एस ० जनरल सर्जरी है? एक प्रोफेसर ऐसे थे जिन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से एम ० एस ० आपथैलमालॉजी में किया था किंतु हमारे कॉलेज में जनरल सर्जरी में प्रोफेसर के रूप में कार्यरत थे।

उसी प्रकार निदेशक, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग के अधीन राज्य में चलने वाले विभिन्न अस्पतालों और डिस्पैंसरियों में कार्यरत डॉक्टरों की शैक्षणिक योग्यता की सूची देखने पर पता लगा कि एक डॉक्टर एम ० एस ० आपथैलमालॉजी है और राज्य के एक अस्पताल में कार्यरत है।

ये दो नाम मिल जाने के बाद स्थितियाँ अपेक्षाकृत आसान हो गईं। समय लेकर हमारा एक शिष्टमंडल राज्य के स्वास्थ्य सचिव से मिला। एम ० एस ० आपथैलमालॉजी को शुरू करने की दृष्टि से उन्होंने कोई कठिनाई नहीं बताई। कहने लगे, ‘‘राज्य लोकसेवा आयोग को नियुक्तियों के लिए जल्दी ही पत्र चला जाएगा। इसके बाद पढाई शुरू हो जाएगी।''

इस उत्तर के लिए हम लोग तैयार थे। राज्य लोक सेवा आयोग के माध्यम से नियुक्तियों में समय लगेगा और हम चाहते थे कि इस समयावधि को घटाने के लिए मेडीकल कॉलेज और एक अन्य अस्पताल में कार्यरत एम० एस ० आपथैलमालॉजी योग्यता प्राप्त दो डॉक्टरों को अस्थायी या एडहॉक नियुक्ति देकर पाठ्‌यक्रम इसी सत्र से शुरू कर दिया जाए। हम लोगों ने अपनी पूरी ताकत लगा दी लेकिन स्वास्थ्य सचिव ने हमारा प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। अगले दिन समय लेकर हमारा शिष्टमंडल स्वास्थ्य मंत्री से मिलने गया। उन्होंने स्वास्थ्य सचिव को बुला लिया। पिछले दिन हुई बातें दोनों ओर से दोहराई गईं। स्वास्थ्य मंत्री चुपचाप स्वास्थ्य सचिव और हम लोगों की दलीलें सुनते रहे। अंत में उन्होंने कहा, ‘‘अस्थायी या एडहॉक नियुक्तियों के बारे में मैं अकेला कोई निर्णय नहीं ले सकता। मुख्य मंत्री महोदय से बातचीत करके मैं जल्दी ही आपकी सूचना दूंगा।''

स्वास्थ्य मंत्री स्पष्ट रूप से हम लोगों को टाल देना चाहते थे। मैंने कहा, ‘‘सर, परसों हमारे कॉलेज के सभी छात्र इसी समय आपकी सेवा में उपस्थित होकर आपका निर्णय सुनेंगे। कृपया हमें निराश मत कीजिएगा।''

स्वास्थ्य मंत्री कुछ कहें इससे पहले मैं उठ खड़ा हुआ। मेरे साथ शेष छात्र भी खड़े हो गए और हम लोग कमरे से बाहर निकल आए। मैं स्वास्थ्य मंत्री को एक प्रकार से धमकी देकर आया था कि यदि परसों इस समय तक आपने हमारी बात नहीं मानी तो मेडीकल कॉलेज के सभी छात्र यहाँ आकर कुछ भी कर सकते हैं। मैंने यह धमकी जान-बूझकर दी थी। एक तो स्वास्थ्य मंत्री टालमटोल की नीति अपना रहे थे। दूसरे यह निर्णय उनके स्तर पर लिया जा सकता था। मुख्य मंत्री का परामर्श या सहमति इसलिए अनावश्यक थी क्योंकि स्वास्थ्य मंत्री अपने अधीन कार्यरत डॉक्टरों को केवल इधर-से-उधर लगा रहे थे और वह भी अधिक-से-अधिक एक वर्ष के लिए। इसलिए उनके ऊपर अधिकाधिक दबाव डालना जरूरी था।

मैं जानता था कि सरकार से उसके सचिवालय में जाकर टकराना आसान नहीं है। किंतु टकराना तो हम भी नहीं चाहते थे। हम चाहते थे सरकार के ऊपर दबाव डालकर एम ० एस ० आपथैलमालॉजी इसी सत्र में शुरू कराना। टकराना, हिंसा, लड़ाई-झगड़ा, तोड़-फोड़ करना यों भी मेरी नीतियों के खिलाफ है। हिंसा मत करो। हिसा का आतंक फैलाओ। लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट मत करो। लड़ाई-झगडे़, मार-पीट की दहशत फैलाओ। आतंक और दहशत से बना दबाव बिना हिंसा और तोड़-फोड़ के अधिकांश काम करा देता है। हिंसा न हो। झगड़ा-फसाद न हो। दबाव बढ़ता चला जाए। इस दृष्टि से जरूरी योजना मेरे दिमाग में थी।

तीसरे दिन सुबह मेडीकल कॉलेज के लगभग पाँच सौ लड़के-लड़कियाँ स्वागत कक्ष के सामने, सचिवालय में जाने के लिए प्रवेश-पत्र प्राप्त करने के लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे। दस बजे से पहले ही हम लोग वहां पहुँच गए थे। प्रवेश-पत्र जारी करने वालों ने स्वास्थ्य मंत्री के पी ० ए ० से टेलीफोन पर पुष्टि करनी चाही कि हम लोगों के कथन के अनुसार क्या स्वास्थ्य मंत्री ने मेडीकल कॉलेज के सभी विद्यार्थियों को मिलने का समय दिया है? पी ० ए ० ने ऐसी किसी स्वीकृति से इनकार कर दिया। परिणामस्वरूप हम लोगों को प्रवेश-पत्र नहीं दिए गए। स्वागत कक्ष में मैंने पी ० ए ० से टेलीफोन पर मंत्रीजी से बात कराने के लिए कहा। उसने बताया कि मंत्रीजी अभी आए नहीं हैं। वे घर से रवाना हो चुके हैं और किसी भी समय कार्यालय आ सकते हैं।

यह सूचना मेरे लिए पर्याप्त थी। सचिवालय में प्रवेश की व्यवस्था सामने के द्वार से भी है और पीछे के द्वार से भी। मंत्रीजी के सचिवालय में प्रवेश की संभावना सामने वाले द्वार से अधिक थी। फिर भी वे पिछले दरवाजे से सचिवालय में चले न जाएँ, इस दृष्टि से लगभग सौ लड़के पिछले दरवाजे पर जाकर खड़े हो गए। शेष छात्र-छात्राओं के साथ मैं सामने वाले दरवाजे पर खड़ा रहा। पुलिस का अच्छा-खासा इंतजाम था। शहर एस ० पी ० स्वयं पुलिस बल का नेतृत्व कर रहे थे। पुलिसवाले बड़ी तादाद में मुख्य द्वार पर खडे़ थे। उन्हें डर था कि हम लोग मंत्रीजी की कार रोककर उनके साथ दुर्व्यवहार कर सकते हैं।

मैं शहर एस ० पी ० को एक तरफ ले गया, ‘‘एस ० पी ० साहब, आप जानते हैं कि मैं हिंसा के खिलाफ हूँ। स्वास्थ्य मंत्री से बात हम करके रहेंगे। आप शक्ति-प्रदर्शन करना चाहें तो आपकी मर्जी की बात है। मगर फिर किसी प्रकार के हादसे की जिम्मेदारी आपकी होगी!''

‘‘पुलिसवाले यहां इसलिए नहीं खड़े हैं कि आप लोगों के साथ झगड़ा करें। मंत्रीजी की सुरक्षा सुनिश्चित करना हमारी जिम्मेदारी है।''

‘‘मैं यही कहने के लिए आपको इस तरफ लाया हूँ। हम लोग मंत्रीजी को किसी तरह का नुकसान पहुंचाना नहीं चाहते।''

‘‘फिर यहाँ भीड क्यों लगा रखी है आप लोगों ने?''

‘‘ताकि माँग के प्रति सभी मेडीकल छात्रों की एकजुटता का अहसास उन्हें हो सके। बातचीत भीड़ तो किया नहीं करती। परसों भी हम लोग शिष्टमंडल लेकर उनसे मिलने गए थे। आज भी बात उनसे शिष्टमंडल ही करेगा।''

‘‘आप मुझसे क्या चाहते हैं, यह बताइए।''

‘‘आपसे इतना ही चाहता हूँ कि मेडीकल छात्रों की पंक्ति के बीच में से मंत्रीजी की कार को निकलने दिया जाए।''

‘‘किसी छात्र ने अगर सामने आकर उसे रोकने की कोशिश की तो क्या होगा?''

‘‘मुझ पर विश्वास करिए, ऐसा नहीं होगा। विवास न करना चाहें तो हमारी पंक्ति के साथ आप पुलिसवालों को भी फैला दीजिए। आपके सिपाहियों के हाथों में लाठियाँ हैं। हम लोग निहत्थे हैं।'' मैं मुसकराया।

अशांति की आशंका और मंत्रीजी की सुरक्षा में से एक को चुनने का स्पष्ट संकट उनके सामने था। उन्हें इस संकट से निकालने के लिए मैंने ही कहा, ‘‘इस व्यवस्था के बाद मंत्रीजी की सुरक्षा को यदि कोई खतरा है भी तो वह बहुत कम है। आप सख्ती करेंगे। मजबूरन हमें उग्र होना पड़ेगा। हो सकता है मंत्रीजी की सुरक्षा आपके लिए अधिक मुश्किल काम हो जाए।''

शहर एस ० पी ० निर्णय पर पहुँचते प्रतीत हुए, ‘‘मैं आपकी बात पर भरोसा कर लेता हूँ। मुख्य द्वार के बाहर आप लोग पंक्ति बना लीजिए।''

मैंने संदेश भेजकर पंद्रह-बीस लड़कों को पिछले दरवाजे पर छोड़कर बाकी सबको बुलवा लिया। मुख्य द्वार की सलाखों से शुरू करके एक-दूसरे के हाथ पकड़कर आमने-सामने दो पंक्तियों में हम लोग खड़े हो गए। जितना अधिक-से-अधिक फैलकर खडे़ होना संभव था, हमने उतने हाथ लंबे करके पंक्तियाँ बनाईं। कार बीच में से निकल सके, इस दृष्टि से दोनों पिँक्तयों के बीच में लगभग दस फीट की जगह खाली थी। मुख्य द्वार के अंदर पुलिस वाले खड़े थे। हमारी पंक्तियों से लगभग सटकर एक-एक पुलिसवाला तीन-तीन फीट की दूरी पर खड़ा हो गया। लाठीधारी पुलिस के जवान, लड़के-लड़कियों के हास-परिहास, हँसी-मजाक और व्यंग्यबाण झेलते हुए अपने कर्त्तव्य का पालन कर रहे थे।

स्वागत कक्ष में जाकर मैंने पी ० ए ० से संपर्क किया, ‘‘आपने कहा था कि मंत्रीजी घर से निकल चुके हैं। आधा घंटा हो गया है और वे अभी तक पहुंचे नहीं हैं। आपके पास कोई सूचना तो नहीं है?''

पी० ए ० के पास कोई सूचना नहीं थी। मैंने उनसे कहा, ‘‘शायद आपको नोट कराना मंत्रीजी को याद नहीं रहा है किंतु आज मिलने का समय परसों तय हुआ था। मंत्रीजी आ जाएँ तो कृपया उन्हें बताएँ कि मेडीकल कॉलेज के पाँच सौ छात्र सुबह दस बजे से उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे सबसे मिल सकें तो हम लोगों को ज्यादा अच्छा लगेगा। यह संभव न हो तो दस लड़कों का एक शिष्टमंडल उनके दर्शन करना चाहेगा। उनको यह भी बता दीजिएगा कि जब तक मुलाकात हो नहीं जाती, छात्र वापस नहीं लौटेंगे।''

लगभग एक घंटा और गुजर गया। पंक्ति में खड़े छात्र-छात्राएँ उकताहट और थकान के कारण कसमसाने लगे थे कि मंत्रीजी की कार आ गई। पंक्तिबद्ध, एप्रन पहने, स्टेथेस्कोप लटकाए छात्र-छात्राओं को देखकर यह समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं था कि ये सब मेडीकल कॉलेज के विद्यार्थी हैं। दूर से देखकर ही स्वास्थ्य मंत्री की कार की रफ्तार धीमी हो गई। उन्होंने कार रोकी तो नहीं किंतु धीमी गति से चलती कार मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही खड़ी हो गई। शहर एस ० पी ० मुस्तैदी से कार के निकट गए। मंत्रीजी ने उनसे कुछ पूछा और मुझे बुला लिया। मैं एस ० पी ० के साथ गया तो उन्होंने मुसकराते हुए कहा, ‘‘भाई इतने लोगों को परेशान करने की क्या जरूरत थी? अकेले आते तो आपसे हम बात नहीं करते क्या?''

‘‘आपकी मेहरबानी है, सर। सब लड़के-लड़कियाँ यहाँ इसलिए आए हैं ताकि आपको हमारी उत्सुकता का अहसास हो सके। आप मुनासिब समझें तो तकलीफ करके आशीर्वाद के दो शब्द कहें।''

‘‘यह तो नहीं हो पाएगा। मगर ऐसा करिए, तीन-चार लडकों के साथ आ जाइए।''

‘‘थैंक्यू वेरी मच, सर। जब आपने इतनी कृपा की है तो दस लड़कों से मिलने की इजाजत दें। विद्यार्थियों ने इन लड़कों को मिलकर बातचीत करने के लिए चुना है।''

मंत्रीजी हलका-सा हँसे, ‘‘ठीक है, ले आइए।''

मंत्रीजी की कार निकल गई तो एस ० पी ० के साथ स्वागत कक्ष में जाकर हमने प्रवेश-पत्र बनवाया। जाते ही मंत्रीजी ने अंदर बुलवा लिया। बोले, ‘‘अपनी बात करने का जो तरीका आप लोगों ने चुना, उससे मैं खुश हूँ। मेडीकल कॉलेज के विद्यार्थियों की छवि इससे बिलकुल अलग तरह की है।''

‘‘आप स्वीकार करेंगे सर, कि बिना क्रिया के प्रतिक्रिया नहीं होती है। जिस तरह मुख्य द्वार पर कार रोककर आपने हमसे बात की, क्षमा करें, कितने मंत्री करते हैं?''

मंत्रीजी हँसे। मैंने फिर कहा, ‘‘आप संवेदनशील हैं सर, हमें आपसे बहुत आशाएँ हैं। आपथैलमालॉजी में पी ० जी ० कक्षाएँ शुरू कराके आप हमारा दिल ही नहीं जीतेंगे, राज्य की जनता का भी भला करेंगे।''

‘‘भाई, मुख्य मंत्रीजी स्थाई या एडहॉक नियुक्तियों के पक्ष में नहीं हैं।''

‘‘सर, आप हमारे प्रस्ताव से सहमत हैं या नहीं? आपकी बुद्धिमत्ता पर हमें पूरा भरोसा है। सहमत हुए तो आप मुख्य मंत्रीजी को भी राजी कर लेंगे।''

मंत्रीजी मुसकराए, ‘‘आप बहुत होशियार हैं। मुझे कुछ समय और दीजिए। देखता हूँ, क्या किया जा सकता है?''

‘‘हमें एक आश्वासन दे दीजिए सर, कि पी ० जी ० कक्षाएँ इसी वर्ष चालू हो जाएँगी। फिर हम कतई जल्दी नहीं करेंगे।''

‘‘देखिए, कोई समयबद्ध बात तो मैं कर नहीं सकता। इतना जरूर कहूँ सकता हूँ कि मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूँगा।''

‘‘आप चाहें तो हम लोग मुख्य मंत्रीजी से मिल सकते हैं।''

‘‘आप लोग देखिए, मिलना चाहें तो मिल लीजिए।''

‘‘मेरा मतलब है, यदि इस तरह आपके प्रयत्नों को बल मिलता हो तो हम लोग उनसे मिल सकते हैं।''

‘‘मेरे विचार से कोई फर्क पड़ना नहीं चाहिए।''

‘‘ठीक है सर, हमारा भी यही मानना है कि आप पूरी तरह सक्षम हैं आप चाहेंगे तो पी० जी० कक्षाएँ इसी साल चालू हो जाएँगी। हम तीन दिन बाद आपसे संपर्क कर लें?''

‘‘ठीक है, ऐसा कर लीजिए।''

मंत्रीजी का जवाब वही था जो उन्होंने दो दिन पहले दिया था। बाहर आकर हमने विस्तृत रिपोर्ट दी। सब लोग असंतुष्ट थे। फिलहाल तीन दिन मंत्री के उत्तर के लिए प्रतीक्षा करनी थी। कॉलेज लौटकर मैं चीफ प्रॉक्टर से मिला। उन्हें सारी स्थिति बताई। सहयोग माँगते हुए उनसे मैंने अनुरोध किया कि वे प्रिंसिपल के माध्यम से स्वास्थ्य मंत्री तक एक खबर पहुंचाएं, ‘‘यदि तीन दिनों में आपने निर्णय नहीं किया तो छात्र आंदोलनात्मक कार्यवाही करेंगे। आंदोलन में हिसा, तोड़-फोड़, हड़ताल, मार-पीट कुछ भी होने का डर है।''

हमारी माँग पूरी हो, इसमें प्रिंसिपल की भी रुचि थी। उसी दिन यह खबर स्वास्थ्य मंत्री तक पहुँच गई। तीसरे दिन स्वास्थ्य मंत्री अचानक एक दिन के लिए दौरे पर चले गए। अगले दिन लौटे। हम लोग मिले। बातचीत हुई। किंतु परिणाम वही रहा, टालमटोल। उस दिन मैं स्वास्थ्य मंत्री से कह आया, ‘‘लगता है, हम लोग शांति की भाषा अभी समझते नहीं हैं। जो भाषा आपको समझ में आती है, अब हम उसी में बात करेंगे। भविष्य में आपसे बात करने नहीं आएँगे। आना चाहें तो आपका हम स्वागत करेंगे।''

अगले दिन से कॉलेज में अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू हो गई। दो दिन बाद रेजीडेंट डॉक्टर हड़ताल में शामिल हो गए। अस्पताल की सेवाएँ चरमरा गईं। जुलूस, नारेबाजी, तोड़-फोड़, पुलिस के साथ मार-पीट सब कुछ हुआ। शहर बंद कराया गया। नौ दिन तेज तूफान के हालात रहे। दसवें दिन स्वास्थ्य मंत्री का बातचीत के लिए संदेश आया। हम लोगों ने बातचीत करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। हमने कहलवाया, ‘‘पी ० जी० कक्षाएँ शुरू करने के आदेश जब तक नहीं आएँगे, हड़ताल जारी रहेगी।''

ग्यारहवें दिन सूचना आई कि राज्य लोक सेवा आयोग जब तक चयन करे, तब तक एडहॉक नियुक्तियाँ करके आपथैलमालॉजी में स्नातकोत्तर कक्षाएँ प्रारंभ करने के आदेश हो गए हैं। लड़ाई लंबी चली। संघर्ष तीखा हुआ। वरीयताओं के खिलाफ हड़ताल, हिंसा, मार-पीट, तोड़-फोड़ में लिप्त होना पड़ा, किंतु जो उपलब्धि हमें मिली उसकी हर एक ने खुलकर प्रशंसा की। प्रिंसिपल ने अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए आयोजित विदाई समारोह में मेरे लिए जो शब्द कहे, उन्हें मैं चरम मानता हूँ, ‘‘मैं ऐसे कई अवसरोंं के बारे में जानता हूँ जब हिंसा और अराजकता को टाला नहीं जा सकता था। इस साल मेडीकल कॉलेज के छात्रों ने आपस में एक बार भी सिर-फुटौवल नहीं की। इस साल कुछ ऐसे काम हुए हैं जो वक्त के सफों पर लंबे समय तक कायम रहेंगे। छात्रसंघ के इस साल के महासचिव के रचनात्मक सोच पर मेडीकल कॉलेज की आने वाली पीढियां फख्र करती रहेंगी।''

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विवाह के बाद डायरी-लेखक ने मीनू का जिक्र इतना कम किया है कि भ्रम होता है, कहीं डायरी-लेखक ने उसे भुला तो नहीं दिया। मीनू के बारे में जो विचार उसके रहे हैं, उनको देखते हुए यह मानने को जी नहीं चाहता कि डायरी-लेखक ने मीनू को कभी याद किया ही नहीं होगा। वर्ष-भर कॉलेज की गतिविधियों और पढाई में वह इतना व्यस्त रहा है कि किसी और बात का ध्यान रखने की उसे फुरसत नहीं मिली शायद। मीनू की शादी हो जाने के बाद उसके बारे में विशेष जानकारी उसे मिलती भी नहीं होगी। याद का झोंका आया और निकल गया तो डायरी में उसके लिए कोई जगह नहीं होती। झोंका आया। तीर की तरह चुभा, नाजुक हथेलियों के स्पर्श की तरह उसने गुदगुदाया, लू के थपेडों की तरह झुलसा गया या दिसंबर की रात की तरह सिहरन भर गया तो डायरी में जगह मिलती है उसे। डायरी-लेखक के मन में मीनू के प्रति जो भावनाएँ रही हैं, उनमें लड़के-लड़की वाला आकर्षण भी लगता है, नहीं था। प्रिय पात्र यदि शारीरिक दृष्टि से उत्तेजित करता है तो उसका बिछोह चैन से बैठने नहीं देता। अनेक व्यस्तताओं के बावजूद याद दामन नहीं छोडती और अथक थकान के बावजूद नींद पास नहीं आती। ऐसा कुछ होता तो कॉलेज की मशगूलियों पर लिखने की बजाय डायरी-लेखक उन भावनाओं को डायरी में उतारता।

यादों में से इस तरह धक्के देकर निकालने का एक अर्थ और भी निकलता है। कुछ सुनना नहीं, कुछ सोचना नहीं, कुछ बोलना नहीं, इच्छाशक्ति का अधिकतम प्रयोग करके स्मृतियों को दूर रखना, कठिन जरूर है किंतु जल्दी ही यादों के दंश से मुक्ति पा लेता है इस तरह व्यक्ति। मित्र भाव से ही सही, डायरी-लेखक ने मीनू को जितना सराहा है, उसके बाद एकाएक यादों की फुनगियों से तोड़कर फेंक देना, किसी भावप्रवण व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। विवाह के बाद, विशेष रूप से मीनू के झुकाव की जानकारी मिलने के बाद डायरी-लेखक सोच-विचारकर मित्रता संरक्षण के नतीजे पर पहुँचकर किसी दूसरी दुनिया में चला गया है, ऐसा मानना उचित नहीं होगा। आरंभ में यादों के तूफान उठे होंगे। डायरी-लेखक ने बलपूर्वक उन्हें दरगुजर करते हुए अपना ध्यान दूसरी तरफ लगाया होगा। तभी एक समय ऐसी स्थिति बनी होगी जब मीनू की यादों ने उसके सोच पर दस्तक देना बंद किया होगा।

क्या ऐसा मानना चाहिए कि डायरी-लेखक के मन में मीनू के प्रति आज भी आकर्षण है? यह प्रश्न इस अर्थ में शायद अप्रासंगिक है कि डायरी-लेखक ने स्वयं को मीनू से काट लेने का संकल्प किया है। कभी मीनू से मिलना नहीं। कभी मीनू के हाल-चाल पूछना नहीं। कभी मीनू के दुःख-सुख के बारे में सोचना नहीं। कैसा आकर्षण, कैसा विकर्षण? मीनू दुनिया की अरबों औरतों की तरह एक औरत है उसके लिए। इससे ज्यादा नहीं। डायरी-लेखक ने मान लिया कि मीनू की चर्चा भी उसके वैवाहिक जीवन के लिए संकट का कारण बन सकती है। इस मान्यता के अनुसार उसने मीनू से स्वयं को पूरी तरह काट दिया। उसके सुख-दुःख की जानकारी तक नहीं रखी। वया डायरी-लेखक के इस रवैये को सराहा जा सकता है? कोई यह दावा कैसे कर सकता है कि उसके मरते ही अमुक आदमी का जीवन खुशियों से भर जाएगा? दुनिया में हजारों गम होते हैं। एक गम को घटा देने से बाकी बचे गमों का अस्तित्व कैसे समाप्त किया जा सकता है?

मैंने जीवन-भर कबाड़ बेचा है और कबाड़ खरीदा है। मैं इनसान की जिंदगी की बारीकियों को न समझूं, यह स्वीकार किया जा सकता है। मगर डायरी-लेखक मेडीकल कॉलेज में पढ़ता है। योग्य है। मेधावी है। योग्यता छात्रवृत्ति उसे मिलती है। कॉलेज-भर का चहेता है। न जाने कितने लड़के-लड़कियों, मरीजों, परिचारकों, अध्यापकों और दूसरे लोगों से उसका मिलना-जुलना होता है। इनसान की जिंदगी का सच यह है कि शादी कें बाद ज्यादा कुछ गलत हो जाता है। मीनू की जिंदगी में शादी के बाद सब ठीक है, इसे डायरी-लेखक की खुशफहमी के अलावा क्या कहा जा सकता है?

डायरी-लेखक में लगन है। समस्याओं का सामना करने और धीरज रखकर उन्हें सुलझाने की उसमें कुव्वत है। सिद्धांतप्रिय है। निर्माण की बात सोचता है, विध्वंस की नहीं। मीनू के विवाह के बारे में डायरी-लेखक का सरलीकृत सोच अनुभव की कमी का परिचायक है। लड़कियों से मित्रता वह करता नहीं है, इसलिए लड़कियों के कारण पैदा होने वाली गुत्थियां उसके जीवन में कभी आई नहीं हैं। ले-देकर मीनू से उसके आत्मिक संबंध बने तो उसकी भी शादी हो गई। लड़कियों को, विवाह को, विवाह के बाद खड़ी होने वाली पेचीदगियों को दूर से देखकर या कल्पना करके नहीं समझा जा सकता। जब तक पानी में न उतरा जाए, तब तक तैरना नहीं आ सकता। पानी में उतरने के बाद चाहे बहुत कम लोग डूबते हों किंतु कोई डूब नहीं सकता, यह कहना गलत होगा। डायरी-लेखक पानी में कभी उतरा नहीं। डूबने और तैरने का अंतर उसके लिए किताबी है। यह अनुमान वह कैसे लगा सकता है कि विवाह के बाद भी जिंदगी अकल्पित हादसों की शिकार हो सकती है? मीनू की खुशी चाहते-चाहते डायरी-लेखक मीनू की खोज-खबर लेना भूल गया।

चपेट में मुझ जैसा कबाड़ी नहीं, डायरी-लेखक जैसा प्रबुद्ध व्यक्ति आ गया है इस बार!

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