ठग लाइफ - 4 Pritpal Kaur द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ठग लाइफ - 4

ठग लाइफ

प्रितपाल कौर

झटका चार

जून के पहले इतवार का तपता वह दिन सविता के जीवन में एक नया मोड़ ले कर आया. पहले तो वह बदहवास हो कर चिल्लाने लगी. फिर देखा कि घर में कोई उस पर ध्यान नहीं दे रहा तो फूट-फूट कर रो पडी. जसमीत ने जब माँ को चिल्लाते देखा तो फ़ौरन दादी के पास लपकी और उसकी गोद में दुबक गयी.

जल्दी ही सविता को समझ आ गया कि ये सब निहाल और उसके परिवार की मिली-भगत से हुआ था. वे जानते थे निहाल के जर्मनी जाने के बारे में. अब सविता को अपनी फिक्र सताने लगी. उसकी सास ने अगले दिन सुबह ही उसके कमरे में आ कर उसके हाथ पर दो लाख रुपये रख दिए थे. साथ ही उसके जेवरों का डिब्बा भी जिसमें वे जेवर भी थे जो सास ने बहू को पहनने के लिए दिए थे.

फिर कुछ देर उसके पास चुपचाप बैठी रही थी. शायद उन शब्दों को तलाश करती हुयी जो अब उस बहु को कहने थे जो उसकी मर्जी के बिना इस परिवार में शामिल हुयी थी. जिसे कभी भी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया गया था. जिस मर्द के साथ रिश्ते में जुडी वह इस घर की सदस्य थी वह मर्द भी बिना बताये उसे त्याग कर विदेश चला गया था.

सास की आँखों में नमी देख कर सविता को कुछ राहत मिली थी. लग रहा था कि सविता के दुख से वह भी दुखी हैं. आखिर तो वो भी एक औरत ही थी. लेकिन यहाँ मामला उसके अपने बेटे से जुड़ा था. सो सविता को उम्मीद जगी भी थी और नहीं भी. वह सिसक रही थी. रात भर वह सो नहीं पायी थी. रोते और सोचते सुबह हो गयी थी. सास का इस वक़्त पास आ कर बैठना उसे बहुत भला लग रहा था. दिल में एक झूठी सी उम्मीद जगने लगी थी.

एक बार फिर शिद्दत से उसे अपनी माँ की याद आयी. उस माँ की जो कभी उसकी माँ नहीं बन पायी. फिर माँ की माँ, नानी की याद आयी. जिसने माँ का फ़र्ज़ निभाया था लेकिन जल्दी ही अपनी ही ज़िन्दगी से रुखसत हो गयी थी. सविता की ज़िन्दगी को मझधार में छोड़ कर. सविता आज फिर यही सोच रही थी कि आखिर इस सब में उसका कसूर क्या था?

तभी वह वर्तमान में लौट आयी थी. सास कह रही थी, “बेटा, तेरा हमारे साथ इतना ही वास्ता था. तेरा खाबिन्द तो चला गया अब तू हमारे साथ किस नाते से रहेगी? जसमीत मेरा खून है इसकी फिक्र मत करना. तू अपनी ज़िंदगी जी. यहाँ ये जगह तेरे सपनों से छोटी है. तेरे माफिक नहीं है. तेरे सपनों का बोझ मेरा बेटा भी नहीं उठा पाया. हम सबसे दूर चला गया.”

इतना कह कर बिना सविता की प्रतिक्रिया का इंतजार किये वह सोती हुयी जसमीत को गोद में उठा कर ले गयी थी. सविता समझ गयी थी कि आज का दिन उस घर में उसका आख़िरी दिन था. जिस तरह अचानक घर वालों को चौंका कर वह इस घर में आयी थी उसी तरह बिना किसी लाग लपेट के बेआबरू हो कर सविता का उस घर से जाना हुआ था.

सविता के ससुर ने उसकी दिल्ली की टिकेट बनवा कर रखी थी. दो लाख रुपयों की गड्डी के ऊपर रख कर वही टिकेट उसकी सास उसे दे गयी थी. दिन भर वह अपने कमरे में रही, अपना जो भी सामान पैक कर सकती थी किया. बीच में दो एक बार जसमीत को देखना चाहा तो पता लगा कि वह अपनी दादी के साथ रिश्तेदारी में चली गयी थी. वह समझ गयी कि घर छोड़ने से पहले उसके नसीब में नन्ही मासूम बेटी का मुंह देखना भी नहीं था.

सविता का दिल बैठा जा रहा था लेकिन इस वक़्त बैठ कर रोने धोने का वक़्त उस के पास नहीं था. शाम तक सामान पैक हो गया था. जसमीत या उसकी दादी का कोई पता नहीं था. ससुर अपने लिविंग रूम के सोफे पर बैठे हमेशा की तरह अखबार पढ़ रहे थे. अब तक भूखी हो आयी सविता ने रसोई में जा कर खुद के लिए आलू की सब्जी और परांठे बनाए थे. दो वहीं बैठ कर खाए और चार पैक कर के सब्जी के साथ रख लिए.

एक बार मन किया ससुर के लिए भी कुछ बना दे, लेकिन जिस तरह उसे बेदखल कर के घर से निकाल दिया गया था और बच्ची को लगभग गायब ही कर दिया गया था. उसका मन ही नहीं किया किसी के लिए कुछ करने को.

एक बार दिल में ये ख्याल भी आया कि पुलिस थाने चली जाए. कानून सविता के हक में था, लेकिन फिर समझ आ गया कि वहां भी सब बंदोबस्त कर लिया गया होगा अब तक. सविता की बात कोई सुनेगा तक नहीं. एक तो शहर ससुराल वालों का, दूसरे दबदबे वाले अमीर लोग. तीसरे इस वक़्त शहर का एस.पी. जरनैल सिंह मधोक सविता के ससुर भान सिंह के बड़े भाई का बेटा था. याने निहाल सिंह का फर्स्ट कजिन.

सो चुपचाप आ कर लिविंग रूम में खडी हो गयी अपनी टोकरी और हैंडबैग के साथ. ससुर ने घड़ी की तरफ देखा, उठे और ड्राईवर को बुलवा कर सविता का सामान गाडी में रखवा दिया. ड्राईवर उसे स्टेशन तक छोड़ गया था. बच्ची जसमीत शायद तब भी दादी के साथ बाहर ही थी.

अगली सुबह नयी दिल्ली स्टेशन पर उतर कर सविता ने बजाय अपनी मामी या मासी के घर जाने के पहाड़गंज के एक होटल में एक सस्ता सा कमरा किराये पर लिया और मुंह हाथ धो कर कमरे को ताला लगा कर बाहर निकल आयी.

दो लाख रुपये उसके हैंडबैग में रखे थे. ये पैसे उसे बेहद संभाल कर खर्च करने थे. उसकी आगे की ज़िंदगी का दारोमदार इन्हीं दो लाख रुपयों पर टिका था. जो उसे काफी कम लग रहे थे. लेकिन अब सविता के पास कोई और चारा ही नहीं था सिवाय इस ज़िंदगी को निभाने के जो इस वक़्त उसकी झोली में आन गिरी थी.

सुबह के नौ बजने वाले थे. उसे भूख लग आयी थी. होटल से बाहर आ कर उसने एक छोटी सी चाय की दूकान का रुख किया. आमलेट और चार टोस्ट के साथ एक कप कड़क चाय उसके भीतर गयी तो उसे कुछ होश आया. वह बैठ कर सोचने लगी कि उसे अब आगे क्या करना है.

जून का महीना था. दिल्ली की गर्मी अपने शबाब पर थी. पसीने से हाल बेहाल था. पंखा कुछ ख़ास राहत नहीं दे पा रहा था सविता को. ऐसे में इस होटल में तो वह ज्यादा दिन क्या एक दिन भी पूरा नहीं काट पायेगी. साथ ही इतना कैश लेकर यूँ सड़कों पर घूमना और सस्ते होटल में रहना जान जोखिम में डालने वाली बात थी.

इसके अलावा खूबसूरत जवान सविता यूँ इस तरह अकेली बैठ कर नाश्ता करती हुयी आस-पास के अजीब से दीखते लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बनी हुयी थी. सविता झुंझला उठी. कौन कहता है दिल्ली अब मॉडर्न हो गया है? आज भी देश की राजधानी के इस मॉडर्न इलाके में अकेली औरत कही चैन से बैठ कर खा नहीं सकती. वह सोच में पड़ गयी कि अब क्या किया जाए?

मामी या मौसी के घर उसका स्वागत तो दूर खदेड़ दिया जाना तय था. जब से शादी की थी सिवाय दो बार उसके पिता के आने के, किसी ने भी उसकी कोई खोज-खबर नहीं ली थी. जो यह बात बताने के लिए काफी थी कि उन लोगों के लिए सविता अब भूली हुयी कहानी हो चुकी थी. वैसे भी सविता जनम से ही सब के लिए एक अनचाहा बोझ रही थी.

आज उसे लग रहा था कि अगर वह मर भी जाए तो शायद कोई एक आंसू तक नहीं बहायेगा. आज उसने खुद को जितना अकेला महसूस किया उतना पहले कभी नहीं किया था. उसका दिल किया यहीं इस चीकट मेज़ पर जहाँ से होटल का छोटू खाली प्लेट और कप उठा कर ले जा चुका था और दो बार गन्दा सा कपडा भी मार गया था इस उम्मीद में कि वह कुछ और आर्डर करेगी; सर रख कर वह जी भर कर रोये.

लेकिन ऐसी विलासिता के लिए वक़्त और जगह दोनों ही सही नहीं थे. वह उठ खडी हुयी. काउंटर पर जा कर अपने पैसे अदा किये जो छोटू ने उसके मेनू के साथ ही चिल्ला-चिल्ला कर मालिक को बताये थे और बाहर गर्मी में तपती सुबह में क़दम रखे.

दस बजने वाले थे. संसद मार्ग के स्टेट बैंक में सविता का खाता है, पासबुक उसके बैग में रखी है. सविता का अगला ख्याल था कि बैंक जा कर पहले इन दो लाख रुपयों को जमा करवा दिया जाए. फिर आगे देखा जाये कि क्या करना है.

उसके कुछ दोस्त दिल्ली में भी हैं, लेकिन कौन इस वक़्त यहाँ होगा और उनमें से भी कौन उसकी कुछ मदद करना चाहेगा, यही सब वह सोच रही थी. रोहित जुनेजा और मिलिंद पांडे दोनों ही दिल्ली के थे. लेकिन जून के तपते महीने में विदेश में छुटियाँ मना रहे होंगें. कल जब उसने उनको फ़ोन करने की कोशिश की थी तो उन दोनों के फ़ोन ऑफ थे. दिल्ली के लोग जून में इस शहर में नहीं रहते. पहाड़ों पर या विदेश निकल जाते हैं. यहाँ तो छोटे शहरों से छुट्टियाँ मनाने वाले आते हैं या फिर कोई सविता जैसा किस्मत का मारा.

सविता को खुद के लिए ये शब्द इस्तेमाल करते हुए हंसी छूट गयी. वह अक्सर कहा करती थी कि हम अपनी किस्मत खुद ही बनाते और बिगाड़ते हैं. लेकिन अगले ही पल उसे लगता कि खुद उसकी किस्मत को बिगाड़ने में किसका हाथ है? खुद उसका? या उसके पैदा होने के वक़्त रहे नक्षत्रों का? या फिर उसकी जनम कुंडली बनाने वाले पंडित का?

बैंक में सविता डिपाजिट काउंटर पर खडी थी और सामने टेलर को अपने नोट गिनते हुए देख रही थी. कम उम्र का दुबला पतला सा युवक काउंटिंग मशीन में डाल कर नोट तीन बार गिन चुका था और अब उन पर रबर बैंड लगाने से पहले उनकी जांच कर रहा था.

सविता का दिल किया अपनी आदत के मुताबिक कोई बात उससे करे जैसे कि नोट मैंने घर पर नहीं बनाये हैं बैंक से ही आये हैं वगैरह वगरेह. लेकिन दिल बेतरह बुझा हुआ था. उसकी ज़िंदगी ने पिछले तीन दिनों में भयंकर मोड़ लिए थे.

इतवार की सुबह तक सविता एक खाते-पीते संपन्न परिवार की बहू थी, अपने भरे-पूरे घर में अपनी बच्ची के साथ सोकर उठी थी. दोपहर में निहाल सिंह ने बर्लिन से फ़ोन किया था और अगले ही पल सविता एक परित्यक्ता हो गयी थी.

आज बुधवार की सुबह ग्यारह बजे सविता दिल्ली में संसद मार्ग पर एक बैंक में अकेली खडी थी. उसके खाते में दो लाख तीस हज़ार रुपये थे. बैग में कुछ हीरे और सोने के गहने और दो सूटकेस पहाड़ गंज के एक सस्ते होटल में रखे थे. कुल मिलाकर आज सविता की बस इतनी सी हैसियत रह गयी थी.

वॉलेट में पांच हज़ार रुपये और एक क्रेडिट कार्ड था जो निहाल के कार्ड का ऐड-ऑन था और शायद अब तक डीएक्टिवेट भी हो चुका था. उसकी बेटी उससे एक हज़ार किलोमीटर दूर पटना में थी जो शायद माँ को याद कर के थोडा बहुत रोई होगी और जिसे दादा दादी ने बहला कर आइस क्रीम खिला दी होगी.

वो बेटी जिसे शायद ज़िंदगी में दोबारा वह देख भी नहीं पायेगी. लेकिन इस वक़्त सविता के सामने एक बहुत बड़ी समस्या मुंह बाए खडी थी वह थी कि अब वो जाये कहाँ? पहाड़ गंज के उस होटल में वह रात सो तो सकती थी, सुबह उठ कर नहा भी सकती थी लेकिन उस अँधेरे दमघोटू कमरे में सविता दिन नहीं बिता सकती थी.

ये शहर, जहाँ उसने बचपन के दिन गुज़ारे थे. रिश्तेदारों के घरों में मेहमान बाज़ी करते हुए परवरिश पायी थी, ये शहर जहाँ उसकी नानी का घर था जो अब मामी का हो गया था, अब उसके लिए अजनबी था. उसके सबसे बड़े दोनों रिश्तों का क़त्ल हो गया था और वह ठीक से दो आंसू भी नहीं बहा पाई थी. यहाँ इस वक़्त बैंक में तो किसी तरह की भावुकता की कोई गुन्जायिश भी नहीं थी.

एक बार दिल किया कि मामी के घर चली ही जाये. एक बार घर आयी हुयी सविता को वे धक्का दे कर तो बाहर नहीं निकाल पायेगी. लेकिन अगले ही पल दिमाग में वे बातें आ गयीं जो पापा पिछली बार आ कर कह गए थे.

जसमीत के होने पर जब सविता के पापा औपचारिकता निभाने पटना आये थे तब सविता ने दबे स्वर में कहा था, "पापा, मम्मी ने अभी तक मुझे माफ़ नहीं किया. अब तो मैं बड़ी भी हो गयी हूँ. अब उन पर भारी नहीं हूँ. और अब तो मेरा भी बच्चा हो गया है. वे भी आ जाती तो कितना अच्छा लगता. ससुराल में मेरी भी कुछ इज्ज़त हो जाती."

पापा ने कुछ देर खामोश रह कर उसे देखा. फिर जब देखा सविता जवाब के इंतज़ार में है तो बोले थे, "बेटा, तुम्हारी मम्मी तो मुझे भी नहीं आने दे रही थी. जिद कर के आया हूँ. ज़िन्दगी में जो जब मिले उसी से खुश रहना सीखो."

सविता ने बुझे मन से कहा था," पापा, मुझे कब क्या मिला. आप नहीं जानते क्या?"

"बेटा, हम सब अपनी-अपनी ज़िन्दगी जीते हैं. किसी की भी ज़िन्दगी फूलों की सेज नहीं होती."

"हाँ पापा, कोई कोई तो लावारिस होते हैं और किसी किसी की ज़िन्दगी में माँ-बाप हो कर भी नहीं होते. आप ने ज़िन्दगी भर मुझे कोई घर नहीं दिया, अब अगर जो घर मैंने बनाया है उसमें मेरी खुशी बढ़ाने को थोड़ी देर के लिए आप दोनों आ जाते तो मेरे घर की बुनियाद मज़बूत कर देते. इतना तो मेरी माँ कर ही सकती थी. मुझे नौ महीने पेट में भी तो रखा था न? इतना एहसान और कर देतीं."

इसके बाद बाप बेटी में और कोई बात नहीं हुयी थी. सविता बेटी को गोद में उठाये अपने कमरे में आ गयी थी. पापा थोड़ी देर अकेले उसकी ससुराल में बैठ कर चुपचाप बाहर निकले थे और इंतजार कर रही टैक्सी में बैठ कर अपने होटल चले आये थे जहाँ से रात को ट्रेन पकड़ कर वापिस भोपाल चले गए थे.

तीसरे दिन पापा ने फ़ोन किया था और कहा था, "लो, अपनी माँ से बात कर लो."

सविता का मन उछल पड़ा था. तो आखिर मम्मी ने उसकी सुध ले ही ली. वह चहक कर बोली थी, "मम्मी." उसकी आवाज़ में शहद घुल आया था, आँखों में प्यार और उसने गर्व से भर कर पास ही बैठी अपनी सास की तरफ देखा था.

सविता के अंग-अंग में ये भाव था कि देखो मेरी मम्मी ने मुझे भुलाया नहीं. बस थोडा नाराज़ थीं अब मुझे फ़ोन किया है. बात कर रही हैं मुझसे. इसके साथ ही सविता के मन में ये उम्मीद भी जाग गयी थी कि अब मम्मी उससे मिलने भी आयेंगी और उसे अपने घर भी बुलाएंगी. ये सारे सपने और उम्मीदें पल भर में ही बिजली की तेज़ी से उसके अन्दर जन्म ले चुके थे, जिन पर अगले ही पल मम्मी की कठोर आवाज़ ने पानी फेर दिया था.

मम्मी ने बेहद ठन्डे स्वर में कहा था," सविता, मैंने तेरे पापा को इसलिए भेजा था ताकि तुम्हारे घर में तुम्हें ताने ना सुनने पड़े. अब तुम्हें रहना तो वहीं है. यहाँ तो तुम्हारे रहने की जो थोड़ी बहुत उम्मीद थी वो तुमने निहाल सिंह से शादी कर के ख़तम कर दी थी. अब तुम इससे ज्यादा उम्मीद मत रखो. मेरे तुम्हारे घर आने की तो कत्तई नहीं. "

सविता मानो आसमान से आ गिरी थी. फिर भी बचपन से उपेक्षा की शिकार रही सविता ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा था, "मम्मी मैं कभी तो आ सकती हूँ न वहां? एक ही दिन के लिए? कभी मिलने के लिए? ये जसमीत आपकी नाती है. इसको आप से मिलाने के लिए? आपके दामाद को आपसे मिलाने के लिए?"

फ़ोन के उस तरफ सन्नाटा छा गया था. सविता को लगा कि माँ धीमी आवाज़ में कुछ कह रही है. उसने कान पर फ़ोन को दबा कर लगा लिया. फिर भी ठीक से सुनायी नहीं पड़ा.

वह बोली," मम्मी आवाज़ क्लियर नहीं है आपकी. ज़रा जोर से...... "

अभी उसकी बात बीच में ही थी जब पापा की आवाज़ फिर से फ़ोन पर सुनायी दी, " सविता, तुम्हें कितनी दफा कहा है अपनी माँ को डिस्टर्ब मत किया करो. तुम उन बातों का ज़िक्र क्यूँ करती हो जो हो नहीं सकती. वो बहुत परेशान हो गयी हैं. उन्हें तुम्हारे परिवार में दिलचस्पी नहीं है. मैं फ़ोन रखता हूँ. तुम अपना ख्याल रखना. "

सविता बुझ गयी थी. "अच्छा पापा. थैंक यू फॉर मेकिंग मी टॉक टू माय माँ." उसकी आगे की बात आंसुओं में डूब गयी थी.

तभी पापा ने वो कहा था जो आज तक उसके भीतर वैसा का वैसा उन्हीं शब्दों में और उसी लहजे के साथ सहेज कर रखा हुआ है. अक्सर उसे उठा कर हवा दे कर जिंदा कर लेती है और खुद को याद दिला लेती है कि दुनिया में उसका अब निहाल सिंह और जसमीत ही हैं, और कोई नहीं.

पापा ने कहा था,"और सविता यहाँ अब कभी मत आना. तुम्हारा हिस्सा जो भी बनता है मैं तुम्हारे नाम कर दूंगा. बेहतर यही होगा कि मैं पैसा तुम्हारे नाम कर दूं. प्रॉपर्टी तुम यहा आकर तो देख नहीं सकती. अच्छा बच्चे. ख्याल रखो अपना. " और फ़ोन काट दिया गया था.

आज भी यहाँ सेंट्रल दिल्ली के इस बैंक में टेलर के सामने खडी सविता ने पापा के वही शब्द याद के पिटारे से निकाल कर जिंदा किये और इनमें संशोधन किया कि सविता अब तेरा इस दुनिया में कोई नहीं है. अब कोई भी नहीं है. इसे यदा रख और चलना शुरू कर.

उसके दिल किया वहीं पास रखी कुर्सी पर बैठ जाए और जी भर के रो ले. रिश्तों का मातम मनाना भी तो ज़रूरी होता है. मौत के बाद अगर मातम न हो तो मौत अधूरी ही रह जाती है. इंसान बार बार मर चुके इंसान को याद करता रहता है. उसे मुक्कमल तौर पर मरा हुआ नहीं मान पाता. तिल तिल कर के उसकी याद में जलता रहता है.

सविता ने आज इस जलन से छुटकारा पाना चाहा. एक बार उस ये ख्याल आया भी कि ये एक पब्लिक प्लेस है यहाँ रोना ठीक नहीं होगा लेकिन उसका दिल इतना भरा हुआ था और इस वक़्त वह और कुछ भी करने के लायक नहीं थी.

उसे खुद को इस दुःख से निजात पाने का इस वक़्त सिर्फ यही रास्ता समझ आया. उसकी पासबुक में एंट्री हो चुकी थी. उसने पासबुक ली और कुर्सी की तरफ चल दी. उसकी रुलाई पेट से निकल कर गले तक आ चुकी थी. आँखों में नमी उतर चुकी थी, बरसने को बिलकुल तैयार, मन पर रखा मनो भारी पत्थर मानो दोगुना भारी हो चला था, सांस लेनी मुश्किल हो रही थी. वह किसी तरह खुद को घसीटती सी कुर्सी की तरफ लपकी. दो तीन क़दम ही बढ़ी थी कि उसे एक आवाज सुनायी दी.

"सविता? इज दैट यू सविता ?"

***