मेरी जनहित याचिका - 5 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मेरी जनहित याचिका - 5

मेरी जनहित याचिका

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 5

प्रोफ़ेसर साहब की बात मुझे सही लगी। शंपा जी की कहानी जानने के बाद मेरे मन में उनके लिए सम्मान भाव उत्पन्न हो गया। मैंने कहा कि मैं उनके पास किसी ऐसी-वैसी भावना के साथ जाना भी नहीं चाहता। मैं थीसिस मिलने के बाद उनसे मिलते रहना चाहूंगा। एक मित्र के नाते। यदि वह चाहेंगी तो नहीं तो नहीं।

शंपा जी ने अपना वादा पूरा किया। तीन महीना पूरा होते ही थीसिस दे दी। इस बीच उन्होंने तीन बार मुझे बुलाया। एक बार थीसिस पढ़ने को दी। पहुंचने पर बड़े प्रश्न किए। जिनके उत्तर मेरे पास नहीं थे। दूसरी बार जब थीसिस दी तो जोर देकर कहा कि ‘पूरा दो-तीन बार ध्यान से पढ़ कर, डीपली समझ लीजिए। यह आपके काम आएगा।’ तीसरी बार जब उन्होंने फाइनली डमी दी तो उस दिन भी उनका व्यवहार ऐसा था कि थीसिस मिलने के बाद मैं उनसे फिर मिलने की हिम्मत नहीं कर सका। शंपा जी की हिम्मत, मेहनत, शॅार्पनेस को सैल्यूट कर मैं चला आया। मित्रता की वहां कोई उम्मीद, कोई चांस नहीं था। वह अपनी दुनिया में अकेले रहना पसंद करती थीं। इस लिए मैंने उनसे आगे मिलने-जुलने का प्रयास करना उचित नहीं समझा।

थीसिस को सम्मिट करने के बाद प्रोफे़सर साहब के अतिरिक्त प्रयासों के चलते मुझे जल्दी ही डॉक्टरेट मिल गई। जिसके बाद जश्न भी मना। लेकिन मेरे मन में बार-बार यही आ रहा था कि दोस्तों की जिद पर यह जश्न मना रहा हूं। वास्तव में मुझे यह भी नहीं मनाना चाहिए था। क्यों कि इसकी वास्तविक हक़दार तो शंपा जी हैं। जितनी उच्चस्तरीय थीसिस उन्होंने लिखी है वह मैं किसी भी स्थिति में नहीं लिख सकता। कटपेस्ट के जरिए भी नहीं। शंपा जी की थीसिस पढ़ने वाला कोई भी यही कहेगा कि रिसर्चर ने बड़ी गंभीरता से रिसर्च की है। और बेहतरीन लेखक भी है।

इसके बाद मैंने प्रोफ़ेसर साहब से अगले स्टेप किसी कॉलेज, युनिवर्सिटी में जॉब के लिए कहा। कि जैसे भी हो जल्दी से जल्दी मुझे कहीं एंगेज कराएं। उन्होंने फिर अपनी पुरानी स्टाइल में जवाब दिया। ‘परेशान होने की ज़रूरत नहीं।’ इस जवाब से मुझे थोड़ी खीझ हुई। मैं लखनऊ पापा के पास भी जाकर बताना चाहता था कि उनकी इच्छा पूरी होने में बस एक स्टेप बाकी है। डॉक्टरेट मिले हुए एक हफ्ता हो गया था। लेकिन मैंने अभी उन्हें बताया तक नहीं था। ना जाने मैं कैसी मनःस्थिति में था कि ना पापा को कुछ बताने का उत्साह था। ना वहां जाने का। जब कि घर गए करीब साल भर होने जा रहा था। मन अजीब सा उचाट हो रहा था। अपनी इस स्थिति से निकलने के लिए मुझे लगा कि घर का चक्कर लगा आना ही बेहतर है।

मगर जिस दिन जाने के लिए रिजर्वेशन मिला प्रोफे़सर ने एक दिन पहले उसी दिन अपने गृह प्रवेश की सूचना दी। कहा हर हाल में तुम्हें आना है। ऐसा नहीं था कि वह मुझे बहुत चाहते थे इस लिए इतना जोर दे रहे थे। असली मकसद तो काम-धाम में ज़्यादा से ज़्यादा मदद लेना था। मुझे रुकना ही था क्योंकि मेरी डोर अभी भी उन्हीं के हाथों में थी।

प्रोफ़ेसर ने इसका पूरा फायदा उठाया। मैं नौकर की तरह उस दिन जुटा रहा। जब देर रात घर पहुंचा तो थकान के मारे बदन टूटा जा रहा था। सारे साथी घर से गायब थे। कोई सूचना नहीं थी। मैं खा-पीकर तो आया ही था। दो पैग व्हिस्की पी कर सो गया। मगर आधे घंटे बाद ही दर्द से नींद खुल गई। टेस्टीकल में बहुत तेज़ दर्द शुरू हो गया था।

ऐसा पहली बार हो रहा था। क्यों हो रहा है समझ नहीं पा रहा था। इधर-उधर टहलता कि शायद कम हो जाए। लेकिन वह बढ़ता गया। कुछ ही देर में असह्य हो गया। कुछ समझ में नहीं आया तो दोस्तों को फ़ोन मिलाया। कुछ के स्विच ऑफ थे। संयोग से जेवियर, और विपुल से बात हुई। दोनों आधे घंटे में आकर हॉस्पिटल ले गए। वहां एडमिट कर लिया गया। इंजेक्शन दवाओं से आराम मिला तो मैं सो गया। अगले दिन कई जांचों के बाद पता चला इनफे़क्शन है। फिर शाम तक मुझे रिलीव तो कर दिया गया मगर ट्रीटमेंट करीब दो महीने चला।

मुझसे डॉक्टर ने कई बातें पूछीं। लेकिन मैं सेक्सुअल रिलेशनशिप पर सही नहीं बता सका। ट्रीटमेंट का शुरुआती एक हफ्ता बहुत कष्टदायक रहा। मैं ट्रीटमेंट पूरा होने के करीब ढाई महीने बाद जब घर पहुंचा तो वहां पापा की तबियत काफी खराब चल रही थी। उनकी हालत बता रही थी कि उनकी देखभाल जैसे-तैसे बस हो रही है। लेकिन मैं उन्हें अपने साथ अपने घर लाने की नहीं सोच सका। क्यों कि मैं उनकी अकेले क्या सेवा कर पाता। तो भाभी के यहां ही जो सेवा कर सकता था वो की। वह जल्दी ही ठीक भी हो गए।

तब मैंने उन्हें बताया कि मुझे डॉक्टरेट अवॉर्ड हो गई। सब ठीक रहा तो जल्दी ही कहीं टीचिंग जॉब मिल जाएगी। पापा बहुत खुश हुए। बोले ‘अब जल्दी करो बेटा, उमर बीतती जा रही है। तुम्हारी शादी वगैरह हो जाए तो मुझे भी शांति मिले।’

उनकी हालत देखते हुए मैं चुप रहा। इतना ही कहना ठीक समझा कि पहले आप ठीक हो जाइए फिर देखा जाएगा। मेरे मन में उनकी बात पर तुरंत ही यह बात आई कि क्या शादी करना। ना उम्र रही। ना उत्साह। बल्कि अब तो इस नाम से ही शरीर में झुरझुरी सी छूटने लगती है। दहेज एक्ट के उस दंश को इतने साल हो गए लेकिन टीस ज्यों की त्यों बनी हुई है। जब तक दिल्ली में रहता हूं तब तक दिमाग थोड़ा ठीक रहता है। यहां घर आते ही हर वक्त मां का बिलखता चेहरा आंखों के सामने घूमता रहता है। आखिरी समय में उनकी दर्दनाक मौत। पिता की हालत। घर का बिखराव। सारे भाइयों का अलग-अलग रहना। यह सब दिमाग को झिंझोड़ते रहते हैं। मंझले भइया तो अब किसी से मिलना भी पसंद नहीं करते।

अपनी अनु तक उनकी दुनिया सिमट गई है। इतने दिन हो गए हैं आए हुए लेकिन एक बार भी वह पापा को देखने यहां नजर नहीं आए। बड़े भाई का परिवार भी बेगानों सा व्यवहार करता है। मैं इस तरह की बातों से इतना परेशान हुआ कि जल्दी ही दिल्ली वापसी का प्रोग्राम बना लिया। यह भी सोचा कि प्रोफ़ेसर से बोलूं कि मेरा इंतजाम दिल्ली में ही करें। यहां मैं रह ही नहीं पाऊंगा।

वहां की आपाधापी में यह सब कम से कम हमेशा मेरा लहू नहीं पीते। जब खाली होता हूं, अकेला होता हूं तभी पीते हैं। पापा को शाम को बताया कि मैं कल रात को जा रहा हूं। उम्मीद है जल्दी ही जॉब मिल जाएगी। उन्होंने और रुकने को कहा लेकिन मैंने असमर्थता जता दी। इससे उनके चेहरे पर आई उदासी देखकर मेरा हृदय फटने सा लगा। मैं हट गया वहां से।

अगले दिन मैं मंझले भइया के पास गया कि जाने से पहले उनसे मिलता चलूं। कितने महीने हो गए उनसे मिले हुए। फ़ोन पर बात हुए ही छः सात महीने हो रहे हैं। अनु को भी देख लूंगा। दोनों में पहले जैसे मधुर संबंध चल रहे हैं कि नहीं। उनके संबंधों का मधुर होना ज़रूरी है नहीं तो भइया टूट जाएंगे। मंझली मेरी भाभी ही थी। लेकिन तब भी उसकी एक गलत हरकत के कारण इतने दिनों बाद भी मेरा यह हाल है। इनकी तो पत्नी थीं। एक बच्चा है। जो अब भी बड़ी भाभी के यहां ही पल रहा है। बेचारा दुनिया में मां के होते हुए भी कैसे बिन मां के जी रहा है। मासूम मिलते ही कैसे चिपट गया था। पापा का हाल पूछा था तो बेचारा बताते-बताते कितना उदास हो गया था कि पापा कई-कई दिन बाद थोड़ी देर को आते हैं।

बड़ी मम्मी सबको प्यार करती हैं। मगर उसे थोड़ा कम करती हैं। मेरी मम्मी कब आएंगी, पापा ये बता नहीं रहे। बस एक आंटी को ले आते हैं। कहते हैं यही मम्मी हैं। वे मुझे बेवकूफ बनाते हैं। मेरी मम्मी को कहीं खो दिया है। आप उनसे कहिए ना कि मेरी मम्मी ला दें। उसकी बातें आंसुओं से भरी बड़ी-बड़ी आंखें, हिचकियों ने मुझे भी रूला दिया। मैंने देखा कि वह बड़ा हो गया है लेकिन इसके बावजूद छोटे बच्चों सी बातें कर रहा था। मन में मंझली के लिए कई अपशब्द निकल गए। कि तेरी जैसी पत्थर दिल औरत शायद ही कोई हो। और मूर्ख भी। बल्कि पागल भी। जो धन के लालच में अपने हाथों ही अपनी खुशहाल ज़िंदगी में आग लगा ले। स्वार्थी इतनी कि बच्चे को भी बिना हिचक फेंक दिया।

बच्चे की स्थिति उसकी बड़ी मम्मी, पापा और उनके बच्चों की उसके प्रति उपेक्षा की सारी कहानी कह रहे थे। मैंने यह तय कर लिया कि जब मंझले भइया से मिलूंगा तो बच्चे के बारे में उनसे जरूर कहूंगा कि उसे अपने पास ही रखें। मां का ना सही उसे बाप का प्यार तो मिलता रहेगा। ये उसका अधिकार है। अगर उसे यह नहीं दे सकते तो पैदा ही क्यों किया? बड़ों की गलती की सजा वह क्यों भुगते? इन्हीं सारी बातों से भरा मैं दिल्ली वापसी वाले दिन मंझले भइया के घर पहुंचा।

शाम के सात बज रहे थे। कॉलबेल बजाई तो गेट अनु ने खोला। मैंने नमस्ते किया तो उन्होंने भी मुस्कुराते हुए जवाब दिया। बोलीं ‘आइए बड़े दिन बाद आए।’ मैंने कहा हां बस ऐसे ही टाइम नहीं मिल सका। अनु की हालत खास तौर से उनका पूरी तरह निकला हुआ पेट इस बात की स्पष्ट सूचना दे रहा था कि वे प्रिग्नेंट हैं। आठवें या नवें महीने का शुरुआती समय होगा।

उन्होंने ढीली-ढाली एक्स एल साइज की कुर्ती, वैसा ही ढीला-ट्राऊजर पहन रखा था। अजीब बेतुकी सी लग रही थीं। चेहरे की रंगत बता रही थी कि भइया ने खाने-पीने देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हम ड्रॉइंगरूम में बैठे। बैठते ही उन्होंने एक नाम पुकारा तो एक अधेड़ सी महिला आई। जिसे देखते ही अनु ने नाश्ते के लिए कह दिया। वह ड्रॉइंगरूम के दरवाजे से ही लौट गई। नौकरानी को हुक्म देने के बाद वह मुझसे मुखातिब हुईं, बोलीं ‘भइया इस बार बड़े लंबे गैप के बाद आए।’ मैंने कहा हां, इस बार काफी टाइम हो गया। कुछ काम एक के बाद एक ऐसे आते गए कि टाइम नहीं मिल पाया।

अनु के चेहरे की तरफ मेरी नजर जैसे ही जाती तो मुझे लगता जैसे सामने मंझली बैठी है। वही पुराने दिन एक दम सामने आ गए जब मंझली पहली बार प्रिग्नेंट हुई थी। तब मंझली कितनी शालीनता संकोच से सामने आती थी। हम लोगों से नजर झुका कर ही बात करती थी। अपने को कपडे़ में हर तरफ से ऐसे ढकने की कोशिश करती कि जैसे कोई ऐसे कॉम्प्टीशन में आगे निकलने की जी-तोड़ कोशिश कर रहा हो जिसमें कौन सबसे ज़्यादा शरीर को ढक सकता है। मां जब आराम करने को कहती थी तब भी संकोच करती कि सास, जिठानी काम करें और वह आराम। बार-बार काम में लग जातीं तो मां को भगाना पड़ता था। लेकिन वही मंझली बच्चे के जन्म के बाद ऐसा बदली कि परिवार ही नष्ट हो गया।

अपनी ही ज़िंदगी में आग लगा ली। मायके में भी वह हरकत की कि इज़्जत के नाम पर मां ने आत्महत्या कर ली। बड़ी भाभी ने उनके इस काम को बड़े चटखारे लेकर बताया कि मंझली डायवोर्स के बाद अपने से करीब चार-पांच साल छोटे दूर के रिश्ते के एक भतीजे के साथ भाग गई। मैं अब तक नहीं समझ पाया कि उनके दिमाग में कैसे क्या बदल गया कि वह ऐसे बदल र्गइं। किसने उनका ब्रेनवॉश कर दिया था।

अनु बराबर मुझसे बात किए जा रही थीं लेकिन मैं बेमन से उनकी बातों का सूक्ष्म सा जवाब देता। मेरा दिमाग पूरी तरह से मंझली में उलझ गया था। चाय-नाश्ता जो आया वह भी करने का मन नहीं किया। अनु के बहुत कहने पर बीच-बीच में थोड़ा बहुत ले लेता। अनु बार-बार ऐसी बातें करतीं कि मैं उन पर ध्यान दूं। उनके होने वाले बच्चे के बारे में बात करूं। लेकिन मैं कर नहीं पा रहा था। उपर से एक उलझन यह भी शुरू हो गई कि इन लोगों ने शादी की रस्म पूरी की या नहीं। या ये लोग भी विश्व प्रसिद्ध टेनिस खिलाड़ियों स्टेफीग्राफ, आंद्रेआगासी की तरह कई बच्चे होने के बाद शादी की रस्म पूरी करेंगे। मेरा मन ऊब रहा था ।

अनु ,मंझली को लेकर उलझन इतनी बढ़ रही थी कि घुटन महसूस करने लगा। मैं वहां से जल्दी से जल्दी चल देना चाहता था। भाई से मिलने की इच्छा भी कमज़ोर होती जा रही थी। मगर वह भी आ गए। उनके व्यवहार से मेरा मन टूट गया। वो ऐसे मिले जैसे कोई अनचाहे दोस्त के आने पर मिलता है। इसलिए मैंने भी जल्दी से बिदा ली। चलते-चलते अनु और भइया दोनों को उनके होने वाले बच्चे के लिए शुभकामनाएं एवं बधाई दी। शादी हुई कि नहीं इस चक्कर में मैंने अनु के तन पर शादी के सुहाग के चिह्न कई बार ढूंढ़े लेकिन वह नहीं दिखे। तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने निकलते-निकलते कह दिया।

भइया शादी कर ली बताया तक नहीं। मेरे यह कहते ही दोनों चौंके। करीब-करीब एक साथ ही बोले ‘शादी!’ उनके इस तरह चौंकने पर मैं सशंक्ति हुआ। मैंने कहा अरे भइया इसमें इतना चौंकना क्या। आप लोगों ने शादी कर ली। बेटा होने जा रहा है। मेरे इतना कहते ही अनु बोली ‘अरे भइया आप भी। साथ जीने के लिए ज़रूरी नहीं कि कुछ रस्में, परंपराएं पूरी ही की जाएं। हमारे मन साफ हों। एक दूसरे के लिए चाहत होे, सम्मान हो। बस इसके अलावा और किस बात की जरूरत है। मुझे नहीं लगता कि इसके अलावा भी और कुछ ऐसा है जिसके बिना दो लोग साथ नहीं रह सकते।’ मुझे लगा कि अनु ने मुझे निरुत्तर कर दिया।

मैं एकटक उन्हें देखता रह गया। क्या बोलूं कुछ समझ नहीं पा रहा था, तभी भइया ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा ‘क्या समीर तुम भी कैसी बात करते हो। आओ चलें।’ मैंने देखा अनु मुस्कुरा रही हैं। मैंने उन्हें एक बार फिर नमस्कार किया और भइया ने कंधे पर हाथ रखे-रखे ही कहा ‘समीर मुझे शादी की रस्मों, शादी नाम से नफरत हो गई है। शादी करो तो डॉवरी एक्ट का निरंकुश खूनी पंजा अपने और परिवार के सभी लोगों के गले में डालो। जीवन हमेशा इस डर में बीते कि लड़की इस एक्ट का हथियार ना चला दे। जिस तरह से अपना घर बरबाद हुआ है उससे तो सच बताऊं अब मुझे सिंदूर, बिंदी, पायल, बिछिया जैसी सुहाग की प्रतीक चीजों से भी घृणा हो गई है। इनकी छाया से भी मैं दूर रहना चाहता हूं। इसीलिए अनुप्रिया से मैंने अपनी बातें पहले ही बता दीं। संयोग से वह भी इन परंपराओं से दूर रहती है। इसीलिए हम दोनों इतना आगे इस तरह बढ़े।’

मैंने कहा लेकिन भइया जिस तरह से आप रह रहे हैं वह लिवइन है और लिवइन के लिए भी कई कानून बन चुके हैं। करीब-करीब विवाहित पत्नी जैसे अधिकार उन्हें भी हैं। फिर यह जरूरी नहीं कि एक ने गलती की तो सब करेंगे। ऐसे तो मुझे लगता है ठीक नहीं है। इस तरह तो शादी के बिना दुनिया ही चरमरा जाएगी। फिर हम हिंदुस्तान में हैं वेस्टर्न कंट्रीज या यूरोप में नहीं। शादी तो वहां भी लोग कर ही रहे हैं।

‘देखो समीर जो भी हो मैं कम से कम इस जीवन में तो निर्णय बदलने वाला नहीं। ठीक है कि लिवइन के भी बहुत से नियम कानून हैं। लेकिन अभी दहेज एक्ट जैसा अंधा निरंकुश, एक पक्षीय एक्ट नहीं है। जो दूसरे पक्ष की सुने ही ना। यह एक पूरा परिवार तहस-नहस कर देता है। यह एक्ट सीधे-सीधे कत्ल करता है तो मैं ऐसे रास्ते जाऊं ही क्यों कि अपनी बरबादी अपनी ही आंखों से देखूं।’ मुझे भी लगा कि भइया की नफरत गलत नहीं है। इस एक्ट में जो भी संशोधन होने चाहिए वे अभी तक नहीं हुए हैं। मैंने फिर भतीजे की बात की कि आप उसे अपने साथ क्यों नहीं रखते। बेचारा अपने पैरेंट्स के लिए कितना उदास रहता है। अपने पैरेंटस अपने होते हैं। चाचा, ताऊ कुछ भी करें बच्चे को वह प्यार नहीं दे सकते जो मां-बाप देते हैं।

मेरी इस बात पर भइया का चेहरा एकदम से बदल गया। अब क्रोध-तनाव की जगह चेहरे पर, भावुकता हावी हो गई। वह क्षण भर चुप रहने के बाद बोले। ‘समीर मैं यह सब जानता हूं। लेकिन कई कारणों से विवश हूं। एक तो उसे देखते ही उस चुड़ैल की याद आ जाती है। दिमाग खराब हो जाता है। नशें फटने लगती हैं। दूसरे मैं यह मानता हूं कि मेरे पास से ज़्यादा अच्छी परवरिश उसकी वहां हो रही है। वह वहां रह भर ही रहा है। सारा खर्च मैं ही उठाता हूं। मैं उसे लाना चाहता हूं। अनुप्रिया से बात भी की थी। वह तैयार भी हो गई थी।

मैं ले आया। मगर वह इतना शैतान है कि अनुप्रिया की नाक में दम कर दिया। उसका सोना, बैठना, आराम करना हराम कर दिया। एक दिन दौड़ता हुआ सीधा उसके पेट से भिड़ गया। उसकी हालत खराब हो गई तो डॉक्टर के यहां ले जाना पड़ा। फिर अनुप्रिया ने कहा तो मैंने उसे डिलीवरी हो जाने तक भइया के यहां वापस भेज दिया।’

भइया की यह बात मुझे बहुत अखरी कि बेटे को अपने से अलग उन्होंने खुद नहीं अनुप्रिया के कहने से किया। जो देखा जाए तो कानूनी या सामाजिक रीत-रिवाज किसी भी दृष्टि से उनकी पत्नी है ही नहीं। रखैल शब्द मुझे बेहद फूहड़ गंदा लगता है तो मैं इसे उनके लिए यूज ही नहीं कर सकता था। तुरंत दिमाग में ऐसा कोई वर्ड नहीं आया कि उनके लिए कौन सा शब्द इस्तेमाल करूं।

लेकिन मंझले भइया की यह बात मुझे सही लगी कि परिवार बनाने के लिए जरूरी नहीं कि एक रस्म कोे निभा कर दहेज एक्ट का एक तरह से फांसी का फंदा गले में डाल लिया जाए। कम से कम तब तक नहीं ही करना चाहिए जब तक कि इस एक्ट की उन खामियों को दूर ना कर दिया जाए, जिनके चलते इसका आसानी से दुरूपयोग हो जाता है। लोग दशकों से करते चले आ रहे हैं। इसमें कम से कम यह व्यवस्था तो की ही जा सकती है कि केस झूठा साबित होने पर वही सजा उसको दी जाएगी जो दूसरे पक्ष को दी गई। ऐसा करने से बहुत हद तक इसका दुरूपयोग रुक सकता है।

लेकिन बेटे को लेकर भइया के रूख उनके निर्णय से मुझे उनके बेटे का भविष्य बहुत अंधकारमय लगने लगा। मुझसे रहा ना गया तो मैंने बोल दिया कि भइया मुझे ध्रुव के भविष्य को लेकर बड़ी चिंता हो रही है। बिन मां के उस बच्चे का क्या होगा? जब कि अभी से वह इतना अकेला पड़ गया है। कारण चाहे जो भी हो। पिता अभी से अपने पास नहीं रख पा रहा है। जब कि वह कितना छोटा, मासूम है। ऐसे बच्चे आगे चल कर बहुत गलत रास्ते पर चले जाते हैं। क्रिमिनल बन जाते हैं। मेरी यह बात भइया को बड़ी नागंवार लगी। मैंने गुस्से की कई रेखाएं उनके चेहरे पर साफ देख ली थीं।

मैंने सोचा कि क्या मैंने इतना गलत कह दिया। वो कुछ देर चुप रह कर बोले ‘चिंता की बात नहीं है। मैं उसे हर वक्त गोद में तो लिए नहीं रह सकता। और अभी अनुप्रिया की हालत को देखते हुए उसे साथ भी नहीं रख सकता। हां उसके भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अब तक जो सोचा है उसके हिसाब से यह मकान मैं उसी के नाम कर दूंगा। लिखाई-पढ़ाई के लिए में जो संभव हो सकेगा करूंगा। बाकी जो संभव होगा वह भी करूंगा’ मैंने सोचा सब कर डालेंगे लेकिन बच्चे कोे साथ नहीं रखेंगे। यह बच्चे के प्रति उनकी उस घटना के कारण उत्पन्न हुई विरक्ति है या नई पार्टनर के साथ का जादू ।

बच्चे का भविष्य क्या सुरक्षित होगा, जब पार्टनर के कहने पर उसे दुत्कार रखा है तो उसके नाम प्रॉपर्टी क्या करेंगे? क्या पढ़ाएंगे-लिखाएंगे? वैसे भी तुम्हारी पार्टनर अनु के लक्षण तो ऐसे दिख रहे हैं कि वह जल्दी ही आप बाप-बेटे की छाया भी आपस में नहीं मिलने देंगी। एक बार मंझली ने जो किया उस बारे में कुछ बात करने का मेरा मन हुआ, लेकिन दिमाग इतना भन्ना उठा था भइया की बातों से कि मैंने वहां से चल देना ही उचित समझा कि कहीं मेरा मुंह ना खुल जाए। मैं कोई सख्त बात ना बोल जाऊं।

मैंने जल्दी से उनके पैर छुए और घर आकर सामान उठाया। जो अजीब मनहूस सा दिख रहा था। और स्टेशन आ गया। ट्रेन दो घंटे लेट थी तो प्लेटफॉर्म पर बैठे-बैठे उसका इंतजार करने लगा। ट्रेन के आने तक मैं घर की हालत सोच-सोच कर परेशान होता रहा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर मेरे मां-बाप, परिवार ने ऐसी कौन सी गलती की थी कि मेरा पूरा परिवार नष्ट हो गया। घर में किसी चीज की कमी नहीं है। लेकिन किसी के चेहरे पर खुशी का एक भी चिह्न नहीं है। आखिर इस बर्बादी का ज़िम्मेदार किसे मानूं। मंझली की नासमझी, लालच हवस को या इस विध्वंसक क़ानून को।

ट्रेन आ गई। उसमें बैठ गया, तब भी बातों की यह आंधी बंद नहीं हुई। आखिर में मंझले भइया की कही बातें ज़्यादा मथ रही थीं। मेरे सामने तीनों और नीचे वाली दो बर्थ पर, एक पूरा परिवार था। शायद दो भाई अपने परिवार के साथ दिल्ली जा रहे थे। एक बच्चा छोटा और एक नौ-दस साल के करीब रहा होगा। उन सब की बातें, सब के चेहरे पर हंसी-खुशी चमक रही थी। बड़ा बच्चा कुछ ज़्यादा ही नट-खट था। बिल्कुल मंझले भइया के बेटे सा लग रहा था। उस परिवार का हंसना-बोलना देख कर मैंने सोचा इससे कहीं ज़्यादा खुश था मेरा परिवार। यह परिवार ट्रेन चलने के बाद जब तक सोया नहीं तब तक मन में यही सब चलता रहा। मैं रात भर सो नहीं सका। जब सुबह होने को हुई तो नींद आने लगी। ट्रेन भी पहुंचने वाली थी। इसलिए मैंने सोचा घर चल कर ही सोऊंगा।

आधे घंटे बाद ही गाड़ी प्लेटफॉर्म पर रुकी, वह परिवार पहले उतरा, पीछे मैं। उस परिवार को लेने दो तीन लोग आए हुए थे। वह छोटा बच्चा उन्हीं में से एक युवक को अंकिल-अंकिल कहता जाकर चिपक गया उससे। युवक ने भी उसे बड़े प्यार से चिपका लिया। उसे प्यार किया। मुझे लगा जैसे वह युवक मैं हूं और बच्चा मेरा भतीजा। आंखें मेरी एकदम ही छलछर्ला आइं। मैं वहां से चल दिया, वह परिवार भी बाहर के लिए चल दिया। ऑटो कर मैं घर आया। मगर रास्ते में मैंने यह तय कर लिया कि अगर भइया ने अपने बच्चे को अपने पास नहीं रखा तो मैं उनसे कहूंगा कि वह उसे मुझे दे दें। मैं पालूंगा उसे। वो अपने नए परिवार के साथ खुश रहें। मैं अपने भतीजे के साथ उनसे ज़्यादा खुश रहूंगा। अब तक मेरी आंखें नींद के कारण झपकनें लगी थीं। घर पर सारे साथी अपनी-अपनी डेस्टिीनेशन पर जाने को तैयार हो रहे थे। मैं सबसे हाय-हैलो कर सो गया।

घर से आने के बाद मैं कई दिन तक कहीं नहीं गया। दोस्तों ने पूछा बात क्या है जो आने के बाद ऐसे सीरियस बने हुए हो। मैंने सबको एक ही बात बताई कि पापा की तबियत ठीक नहीं रहती। अब दिन पर दिन वह ढलते जा रहे हैं। मेरी बात पूरी होते ही सुहेल बोला। ‘अरे तो यार इसमें टेंशन की क्या बात है। ढलते तो हम सब भी जा रहे हैं। और एक दिन सब ही चले जाएंगे। कोई नई बात तो है नहीं है। जब से आया है टेंशनाइज किया हुआ है।’ सुहेल की यह बात मुझे बहुत बुरी लगी। हम दोनों में बहस शुरू हो गई। कुछ ही देर में बहस ज़्यादा गर्मागर्म हो गई तो सौमित्र ने हम दोनों को अलग किया।

सुहेल की बातों के बाद खुद को यार दोस्तों, दुनिया से बहुत आहत, बहुत अकेला महसूस करने लगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूं? यहां से लखनऊ लौट चलूं। जिस काम के लिए आया था वह तो हो ही गया है। नौकरी वहीं ढूंढ़ता हूं। मगर जब घर के लोगों का व्यवहार, उनकी हालत पर ध्यान जाता तो सोचता आखिर इस मित्र मंडली और घर के लोगों के व्यवहार में क्या फ़र्क़ है। इतने दिन घर पर रुका रहा लेकिन किसी के व्यवहार में अपनत्व जैसा तो कुछ दिखा ही नहीं। फॉर्मेलिटी ज़्यादा दिखी। पापा के व्यवहार में भी वह छः सात साल पहले वाली गहराई कहां थी? तो क्या सचमुच मेरे घर का अस्तित्व खत्म हो चुका है। सब अलग-अलग होकर, अलग-अलग घर बन चुके हैं। और मैं उन घरों के लिए एक बाहरी हूं। हालात तो सब यही बता रहे हैं।

जब बाहरी हो चुका हूं तो क्या मतलब है वहां जाकर रहने का। इस अनजान सी दुनिया में अकेला हूं। तो कहीं भी रह लूं। यहीं बना लूं ठिकाना, अपने ना सही। यहां कहने को कुछ मित्र तो हैं ही। जो जरूरत पड़ने पर कुछ ना कुछ काम तो आ ही जा रहे हैं। इस बिंदू पर चिंतन-मनन करते मुझे कई दिन बीत गए, तब कहीं जाकर मैं यह तय कर पाया कि अब यह दिल्ली ही हमारी है। अब यहीं रहना है। नौकरी का इंतजाम हो जाए तो लखनऊ का घर बेच कर यहीं कहीं ले लेता हूं एक मकान। फिर मंझले और बड़े भइया की राह पर मैं भी अपनी जिंदगी अपने तरह जीता हूं। अपनी अलग दुनिया बनाता हूं।

मैं अब प्रोफ़ेसर साहब के पीछे पड़ गया कि किसी भी तरह किसी भी कॉलेज में मुझे एडजस्ट कराएं। मैं अब पहले से ज़्यादा उनकी सेवा करने लगा। गिगोलो वर्ल्ड से मैं अपने को अलग करने की कोशिश करने लगा। इस लत से अपने को मैं मुक्त करना चाहता था। घर से आने के बाद मैं महीने भर तक किसी मिशन पर नहीं गया। मगर उसके बाद जल्दी ही मन पैसे और फिर उससे भी ज़्यादा किसी महिला के साथ अंतरंग क्षण बिताने के लिए मचलने लगा। यह मचलन रोज-रोज बढ़ती जा रही थी। इस बीच जब मित्र मंडली लौट कर अपने मिशन की बातें बताती तो मन और ज़्यादा मचल उठता। धीरे-धीरे दो महीने हो गया। मैं कहीं नहीं गया। लेकिन एक दिन मित्र मंडली ने मेरा व्रत भंग करा दिया।

सबने कहा इस बार एक नया एक्सपीरियंस तो है ही पैसा भी कई गुना ज़्यादा मिलना है। उन सब की बातों से मैं सशंकित हुआ कि अब तक जो किया अब उससे ज़्यादा क्या हो सकता है? उन सब के और ज़्यादा जोर देने से मैं और ज़्यादा सतर्क हो गया। मैंने पूरी दृढ़ता से कह दिया कि जब तक मुझे पूरी डिटेल नहीं बताई जाएगी तब तक मैं चलने वाला नहीं। उन सब ने कोई और रास्ता ना देख जो कुछ मुझे बताया, उससे मैं असमंजस में पड़ गया कि जाऊं या नहीं। मगर प्रेशर बढ़ता जा रहा था।

मुझे लगा कि बातें डिसक्लोज होने के बाद ये सब मुझे अकेले छोड़ना नहीं चाह रहे हैं। मामला लाइव सेक्स पार्टी या रेव पार्टी का था। जिसके बारे में मैंने मीडिया, नेट पर देखा भर ही था। लेकिन ऐसी स्थिति में शामिल होने के बारे में सोचा भी नहीं था।

मैंने साफ कह दिया कि यह मेरे वश का नहीं है कि मैं लोगों के सामने किसी से सेक्स करूं। चाहे जितना ज़्यादा पैसा मिले मैं नहीं चल सकता। मैं नहीं कर सकता। इतना ही नहीं मैंने उन सबको भी मना किया। कहा एक लिमिट तो होनी ही चाहिए। मगर वह सब ना मानने वाले थे तो ना माने। आखिर मुझे पार्टी में ऐज़ ए. मेंबर शामिल होने के लिए तैयार होना ही पड़ा। जिसके लिए मुझे पैसा मिलना नहीं था। बल्कि एक मोटी रकम देनी थी। सुहेल और जेवियर ने यह पार्टी अरेंज करने वालों से बात करके मुझे शामिल करने की परमीशन ले ली।

वह लोग कई बातों की जांच-पड़ताल करने के बाद मुझे बतौर सदस्य शामिल करने को तैयार हुए। लेकिन शामिल होने की फीस में उन लोगों ने एक पैसे की रियायत नहीं की। जाने के लिए तैयार होने के बाद मैंने सोचा चलो यह भी देख लेंगे कि यह पार्टी कैसे होती है? लोग पैसे की हवस, तन की हवस में किस सीमा तक, कहां तक जा सकते हैं, यह भी देख लेंगे। पार्टी कहां होगी यह मुझे आखिर तक नहीं बताया गया।

मैंने सोचा सब अपनी-अपनी बाइक से चलेंगे। लेकिन तय समय पर हम एक लग्ज़री एसयूवी गाड़ी में चले जा रहे थे। कोई मोबाइल में गेम खेल रहा था। तो कोई किसी से बतियाने में लगा था। गाड़ी किधर जा रही है, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जब गुरुग्राम क्रॉस कर गई तो मुझसे रहा नहीं गया। अपने से आगे वाली सीट पर बैठे सौमित्र से पूछा अरे यार अब तो बता दो कहां चल रहे हैं। तो वह हल्के से हंस कर बोले ‘यार इतना परेशान क्यों हो रहे हो? जहां जा रहे हैं गाड़ी वहीं जा कर रुकेगी। क्यों टेंशन ले रहे हो? मुझे खुद नहीं मालूम है। मुझे कोई टेंशन नहीं है। शायद जेवियर ही कुछ जानता हो।’

सौमित्र ने जिस तरह से बात टाली। उससे मैं समझ गया कि कोई कुछ बताने वाला नहीं है। इसलिए चुप हो गया। जेवियर से भी नहीं पूछा। जानता था कि वह सौमित्र से बड़ा घाघ है। मैं अपने को चंगुल में फंसा हुआ महसूस कर रहा था। गाड़ी जब रेवाड़ी से पहले धारूहेड़ा में एक बड़ी सी कंपनी के कैंपस में रुकी तो मैं कुछ घबड़ाया कि पार्टी और वो भी ऐसी पार्टी और इस कंपनी का क्या कनेक्शन? वह कंपनी होम एप्लायंसेज़ बनाने वाली अच्छी खासी बड़ी कंपनी थी।

ड्राइवर उतर कर अंदर गार्ड के पास गया। दो मिनट बाद एक गार्ड आया और हम सब को लेकर अंदर चला गया। अंदर करीब पूरी कंपनी क्रॉस कर आखिर में एक बड़े हॉल में सब पहुंचे। खूबसूरत हॉल था। हॉल में करीब तीस-पैंतीस लोग थे। जिनमें बहुत से युवकों के साथ-साथ टीन एज लड़कियों से लेकर प्रौढ़ सी दिखती औरतें भी थीं।

हल्का-हल्का बड़ा मादक सा इंडियन-वेस्टर्न फ्यूजन म्यूज़िक चल रहा था। सब के हाथों में सिगरेट, हाथ में जाम थे। पूरे माहौल में अजीब सी स्मेल थी। लाइट कम थी। चारों दिवारों की फुटलाइट जल रही थीं। कुछ फैंसी लाइटें भी जल रही थीं। सब पूरी मस्ती में झूम रहे थे। ड्राइवर अंदर पहुंचा कर वहीं बैठे एक आदमी से कुछ कह कर चला गया। उसके जाते ही दरवाजा बंद हो गया। और दो-तीन स्मार्ट से लोग हाय फ्रेंड कहते हुए आगे आए। ‘कमऑन फ्रेंड आने में बड़ी देर कर दी।’ हालांकि अभी बारह ही बजे थे और ऐसी पार्टियों के लिए यह समय शुरू होने का होता है। हम लोगों को साथ में ऐसे शामिल कर लिया गया जैसे कि ना जाने हम कितने पुराने यार हों। फिर किसी ने म्युजिक तेज़ कर दिया और सब लोग डांस करने लगे।

डांस क्या था उन सब के हाव-भाव जैसे थे उस हिसाब से सबसे सटीक शब्द उसके लिए ‘मैथुनी नृत्य’ ही हो सकता था। कोई किसी को चिपका रहा था तो कोई किसी को। कोई सोफे पर बैठा तो कोई कहीं बैठा मस्ती में हिला-डुला जा रहा था।

मेरे सारे मित्र ऐसे चिपटे जा रहे थे लड़कियों से, उनकी बॉडी लैंग्वेज, उनकी आपसी कैमिस्ट्री ऐसी लग रही थी कि ना जाने वो कितने क्लोज फ्रैंड हैं। पूरी पार्टी में मैं ही एकदम अलग-थलग सा नजर आ रहा था। आगे क्या होगा, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कोई एक घंटा बीतते-बीतते पार्टी चरम पर पहुंचने लगी। कोई नाचता तो कोई कहीं बैठ जाता। फिर नाचने वालों की संख्या कम हो गई। हमारी मित्र मंडली, कुछ लड़कियों का गुत्थम-गुत्था बढ़ता जा रहा था।

इस गुत्थम-गुत्था में इन सब के कपड़े देखते-देखते गायब होने लगे। फिर जल्दी ही वहां जो शुरू हुआ वह मुझे कतई पसंद नहीं आया। इतने लोगों के सामने मित्र मंडली को उन लड़कियों के साथ सेक्स के अजीब-अजीब रूप पेश करते देख कर मैं दंग रह गया। इनके अलावा वहां उपस्थित तमाम अन्य महलिाएं भी इस सेक्स गेम में हाथ साफ कर रही थीं। पुरुष भी। रात भर चली इस लाइव सेक्स पार्टी में लाइव सेक्स का नंगा नाच देखकर मैं हतप्रभ था। मुझे लग रहा था कि हमारा ‘इंडिया’ अब वाकई ‘इंडिया’ हो गया है। भारत या हिंदुस्तान तो अब रहा ही नहीं है। भारत से हज़ारों मील आगे निकल गया है। वह भारत जहां नैतिकता पर बड़े-बड़े ग्रंथ हैं। बड़ी-बड़ी बातें हैं।

अगले दिन जब मंडली वापस घर पहुंची थी तो ऐसी थकी थी। ऐसी खुमारी में थी कि सब जहां जैसे बिस्तर मिला वैसे ही उसी पर पसर गए। सबकी आंखें चेहरे अजीब से सूजे-सूजे हो रहे थे। नींद मुझे भी बड़ी तेज़ आ रही थी। लेकिन मन इतना खराब हो रहा था कि मैंने ब्रश किया। शॉवर वगैरह लेकर तब बिस्तर पर आया। वहां शराब, तरह-तरह के नॉनवेज और पहली बार ड्रग्स भी ली थी। मेरा सिर अब भी पकड़े हुए था। मैंने हैंग ओवर उतारने के लिए एक पैग व्हिस्की ली और सो गया।

मैं जब शाम को सो कर उठा, मेरी मित्र मंडली तब भी सो रही थी। सब ड्रग्स के कारण पस्त थे। मैं तैयार होकर प्रोफ़ेसर साहब के यहां चला गया। मैं अपने को इस पार्टी की धुंध से बाहर निकालना चाहता था। प्रोफ़ेसर के यहां मैंने काफी समय बिताया। उसके बाद एक और दोस्त के पास ग्रेटर कैलास चला गया। उससे बहुत दिन बाद मिला था। वह एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में अच्छी पोजीशन पर था। और बहुत बिजी रहता था।

वह जब मिला तो हाल-चाल के बाद थोड़ा वेट करने को बोला। बाद में वह मिला, तमाम बातें हुईं। और फिर रात उसी के यहां रुकना तय हो गया। नांगलोई में उसके घर में रात को बड़ी देर तक जब वह सो गया तब भी जागता रहा। सोचता रहा कि मुझे इस मंडली से अब जल्दी से जल्दी छुट्टी ले लेनी है। गिगोलो, रेव पार्टी के बाद अब ये सब किंक स्टार बनने की सोच रहे हैं। क्रुएल सेक्स क्लब बीडीएमएस ज्वॉइन कर रहे हैं। इनकी कोई लिमिट है भी क्या? यह सब जिस तरह से आगे बढ़ रहे हैं उससे यह तय है कि एक दिन फंसेंगे जरूर।

इन सब के तो आगे-पीछे इनका परिवार है। लेकिन मेरा परिवार? वह तो कभी एक फ़ोन कर पूछता भी नहीं कि कैसे हो? जब मैं फ़ोन करता हूं तभी बात होती है। वह भी पापा को छोड़कर बाकी सब ऐसे बात करते हैं जैसे ऊब रहे हों। पीछा छुड़ाते हैं। ऐसे में मुझे खुद ही अपने लिए सब करना है। मैं जब उस दोस्त के यहां से अगले दिन निकला तो यह तय कर के निकला कि जैसे भी हो इसी हफ्ते इस मंडली को बॉय करना है। मैंने उसी दिन ब्रोकर से बात कर वन रूम सेट का हर हाल में जल्दी से जल्दी इंतजाम करने को कहा।

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