मेरी जनहित याचिका - 6 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मेरी जनहित याचिका - 6

मेरी जनहित याचिका

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 6

मैंने शंपा जी के घर के पास ही मकान लेना तय किया था। इस लिए ब्रोकर को वही जगह बताई। तीसरे दिन उस एरिया में उसने कई मकान दिखाए। उन्हीं में से एक मैंने ले लिया। वह कुल मिला कर छोटा सा एक अपॉर्टमेंट था। आने-जाने के टाइम को लेकर वहां कोई बंदिश नहीं थी। लैंडलॉर्ड कहीं बाहर रहता था। और मैंने वन बी. एच. के, फ्लैट लिया था। फ्लैट में ताला लगा कर जब घर पहुंचा तो मंडली को मैंने बताया। पूरा झूठ बताया कि मेरे फादर एक दो महीने के लिए आ रहे हैं। इस लिए मैं शिफ़्ट हो रहा हूं। यहां एक और व्यक्ति के लिए स्पेस नहीं है, इस लिए जा रहा हूं। अचानक ही यह जान कर मंडली बोली।

‘अरे बोलते तो हम में से एक दो लोग कुछ दिन कहीं और शिफ़्ट हो जाते। ऐसे अचानक छोड़ने की ज़रूरत क्या है?’ मंडली को मेरा घर छोड़ना नहीं अखरा था। अचानक यूं छोड़ना अखरा था। लेकिन मैंने तय कर लिया तो शिफ़्ट भी कर गया। मैं अपने नए ठिकाने पर मंडली को बुलाना नहीं चाहता था। सच यह था कि मंडली से अब संपर्क ही नहीं रखना चाहता था। कम से कम बात की। और एड्रेस वगैरह भी नहीं बताया। उनमें से किसी ने पूछा भी नहीं। हालांकि यह फैसला लेना मेरे लिए थोड़ा कठिन था। क्यों कि इस मंडली ने कई मौकों पर मेरी बड़ी मदद की थी। और मैं यह भी जानता था कि मंडली मेरे इस आचरण पर मुझे एहसानफरामोश ज़रूर कहेगी। लेकिन हतप्रभ कर देने वाली रेव पार्टी ने मेरा मन ऐसा तोड़ा, ऐसा विरक्त हुआ कि मैं चाहता तो भी अपना फैसला नहीं बदल सकता था।

शंपा! शंपा के करीब घर लेने का मेरा मकसद एक ही था कि इतने दिन बीत जाने के बाद भी मैं उन्हें अपने दिमाग में बराबर बसा हुआ पा रहा था। मुझे लगता जैसे वह मुझे खींच रही हैं। उनका रूखा, तेज़-तर्रार व्यवहार ना जाने क्यों मुझे सम्मोहित कर रहा था। प्रोफे़सर द्वारा मना करने के बावजूद मैं उन्हें भुला नहीं पा रहा था। इसलिए मैं मिलने के रास्ते ढूंढ़ने लगा। जिस रास्ते से वह निकलतीं जानबूझ कर उसी रास्ते पर जाता। मुझे यह तरीका स्कूली लड़कों वाला बचकाना सा लगा। लेकिन सफल हुआ और कई मुलाक़ातें र्हुइं।

मैं उन्हें बहुत आदर के साथ नमस्कार करता। वह जवाब हालांकि बेरूखेपन ही से देतीं। कुछ और रास्ता निकालने की सोच ही रहा था कि एक दिन अचानक ही वह फिर मिल गईं। इस बार उन्होंने पूछ ही लिया कि ‘इधर कोई काम करते हैं जो आपका बराबर आना-जाना रहता है।’ मतलब साफ था कि वो मुझे पहले भी देख चुकीं थीं। सिरा छोर मुझे दिख गया तो मैंने पकड़ने में देरी नहीं की। मैंने छूटते ही बता दिया कि मैं यहीं पास में रहता हूं। जिस कंपनी में काम करता हूं वह भी यहां से करीब है। वह अब भी बेरूखी ही शो करती रहीं लेकिन मैं बोलता रहा।

मैंने कहा मैं अपनी जॉब से सैटिसफाइड नहीं हूं। किसी कॉलेज में जॉब के लिए ट्राई कर रहा हूं लेकिन मेरी तैयारी ठीक नहीं है। इत्तेफाक से आप मिल गईं हैं तो मैं.....मैं यह रिक्वेस्ट करना चाह रहा हूं कि आप मुझे मेरे सब्जेक्ट पर कुछ ऐसी तैयारी करा दें जिससे मैं इंटरव्यू वगैरह क्लीयर कर सकूं। मेरी इस बात पर वह कुछ देर मुझे देखती रहीं। फिर बोलीं ‘मैं आपकी क्या तैयारी कराऊंगी। डॉक्टरेट आपने की है मैंने नहीं।’ उनकी यह बात मुझे चाबुक सी लगी। लेकिन मैं किसी भी सूरत में अवसर चूकना नहीं चाहता था। तो तुरंत अपनी झेंप छिपाते हुए बोला मैंने डॉक्टरेट कैसे की है यह आप मुझसे ज़्यादा जानती हैं। हां क्योंकि आप के पास इन सब चीजों को फेस करने का एक शॉर्प विज़न है। आप तरीका जानती हैं। थोड़ा सा गाइड कर देंगी तो मुझे सक्सेज मिल जाएगी।

मैं अपने कॅरियर को सही रास्ते पर बढ़ा सकूंगा। अचानक मेरे दिमाग में आया कि यह पैसे के लिए काम करती हैं तो मैंने साफ-साफ कह दिया कि आपकी जो भी फीस होगी वह मैं दूंगा। फीस की बात आने पर वह थोड़ी देर सोचती रहीं फिर बोलीं ‘आप के प्रोफ़ेसर साहब क्या आपको कुछ नहीं बताते।’ अब मैं फिर फंस गया। लेकिन बात को संभालते हुए कहा एक्चुअली वो समय नहीं निकाल पाते। दूसरे यहां से इतनी दूर हैं कि रोज जॉब के कारण पहुंच पाना मुश्किल हो रहा है। जब मिलते हैं तो बहुत कुछ बताते हैं। आप यहां वॉकिंग डिस्टेंस पर हैं तो मैंने सोचा आप से मदद ले लूं। जितना समय मैं प्रोफ़ेसर साहब के पास जाने में लगाऊंगा उतने समय में आप से बहुत कुछ जान लूंगा।

मैंने शंपा जी के लिए जब कोई रास्ता नहीं छोड़ा तो उन्होंने फीस पर मामला अटका दिया। आखिर मैंने उनके ही हिसाब से इसका भी हल निकाल दिया कि घंटे के हिसाब से पेमेंट दूंगा। टाइम के लिए यह तय हुआ कि जब उनके पास समय होगा तो वह मुझे फ़ोन कर दिया करेंगी। इस तरह उनसे मिलने का रास्ता निकल आया। मैंने प्रोफे़सर को कुछ नहीं बताया। सोचा शंपा जी उन्हें बताएंगी तो देखेंगे। उन्हें भी किसी तरह मैनेज कर लेंगे।

पहली दो-तीन मीटिंग तो इसी में निकल गईं कि मुझे समझना जानना क्या है? और उन्हें समझाना क्या है? ज़्यादातर बातें बस इधर-उधर की हुईं। इस दौरान कॉफी, सिगरेट भी चली। चौथी बार जब मैं पहुंचा तो जिस ब्रांड की सिगरेट वो पीती थीं वही सिगरेट और एक खूबसूरत सा लाइटर ले लिया। मैंने सोचा नाराज ना हो जाएं। लेकिन उन्होंने खुशी-खुशी लिया। यहां तक कि मुंह में सिगरेट लगा कर लाइटर मुझे ही जलाने को कहा।

यह मीटिंग्स अब जल्दी ही बड़े कम अंतराल पर होने लगीं। मुझसे मेरे विषय के बारे में तो कम हां अन्य बातें ज़्यादा होने लगीं। एक महीना पूरा होने पर जब मैंने पेमेंट करने के लिए टोटल किया तो करीब बांसठ घंटे निकल रहे थे। बिल बड़ा लंबा हो गया था। मैं परेशान हो गया कि महीने भर की पूरी कमाई इन्हीं के हवाले हो जाएगी। लेकिन जो तय किया था उस हिसाब से मैं कोई बार्गेनिंग नहीं कर सकता था। तो पेमेंट करने पहुंचा। उन्हें बताया शंपा जी इतने घंटे का इतना बिल हुआ है, आप अपना एकाउंट नंबर बता दें तो पैसा ट्रांसफर कर दूं।

यह कहने पर सिगरेट का एक कश लेकर मुझे देखा फिर खिलखिला कर हंसी। और कहा ‘बहुत इनोसेंट हो तुम। कोई इतनी फीस देता है क्या?’ इसके बाद उन्होंने दस हज़ार रुपए ट्रांसफर करने को कहा। मैंने उन्हें बार-बार थैंक्यू बोला। एक बात जरूर थी। कि मुझे मेरे विषय। और इंटरव्यू को कैसे फेस किया जाता है। इस बारे में उन्होंने बड़ी-बड़ी बातें बर्ताइं। कई बार उनकी बातें सुनकर मन में आता कि यह तो प्रोफे़सर साहब ने भी नहीं बताया।

धीरे-धीरे दो महीने बीत गए। हमारे बीच का रिश्ता एक मेंटर और लर्नर से आगे जाकर क्लोज फ्रेंड में तब्दील हो गया। इस बीच मैं प्रोफे़सर साहब से कई बार मिला। लेकिन उन्होंने शंपा जी को लेकर कोई बात नहीं उठाई। मतलब साफ था कि शंपा जी ने भी उन्हें कुछ नहीं बताया। हमारी मित्रता अब खाने-पीने से आगे बढ़ चुकी थी। मेरे साथ अब वह घूमने भी चलने लगी थीं। बड़ी चीज यह कि वह मुझे फालतू पैसे खर्च करने से सख्त मना करतीं। बीच-बीच में जिद करके खुद भी खर्च करतीं। लेकिन अपनी फीस लेने में रियायत ना करतीं।

जीवन के हर क्षेत्र को लेकर उनका कंसेप्ट इतना क्लीयर था कि जब उन्हें लगता कि मैं मित्रता की सीमा क्रास कर रहा हूं तो वह बड़ी शालीनता से टोकतीं। ‘इट इज नॉट अ पार्ट ऑफ फ्रेंडशिप,समीर। इट्स अ मैटर ऑफ सेक्स। ओ. के.।’ इतना ही नहीं। मुझे जरा भी एक्साइटेड पातीं तो निसंकोच कहतीं। ‘समीर मैं तुममें अपने लिए सेक्स डिज़ायर देख रही हूं। हम अभी सिर्फ़ एक फ्रेंड हैं।’ यह कह कर वह मुझे एक दम पानी-पानी कर देतीं।

मैं बगलें झांकने लगता। तो कहतीं। ‘जो मन में हो उसे कहने की हिम्मत रखो, मैं नहीं समझ पा रही हूं कि तुम मेरे साथ इतना करीबी रिश्ता क्यों बनाना चाह रहे हो। मैं यह साफ कह दूं कि मैंने अपनी जो दुनिया बना रखी है उसमें मैं कोई परिवर्तन करने को तैयार नहीं हूं। मैं तो यही आश्चर्य में हूं कि मैंने तुमसे फ्रेंडशिप ही कैसे बना ली? मुझे लगता है कि यह बन गई। मैंने बनाया नहीं।

मैं नहीं समझ पा रही कि आखिर तुम मुझसे दस-बारह साल छोटे हो फिर यह रिश्ता मुझसे क्यों बनाना चाह रहे हो? आखिर क्या चाहते हो मुझसे?’ मुझसे वही पुराना घिसा-पिटा डायलॉग ही निकल सका। कि मैं आपको खुश देखना चाहता हूं, रेगिस्तान से दूर हरी-भरी वादियों में ले आना चाहता हूं। इतना कहते ही शंपा जी बेहद गंभीर होकर बोलीं। ‘क्यों? क्यों लाना चाहते हो? क्या रिश्ता है मेरा तुम्हारा?। फिर तुमने ये कैसे तय कर लिया कि मैं रेगिस्तान में हूं।’

मैंने कहा अकेलापन। मैं अकेलेपन को रेगिस्तान में अकेले रहने जैसा मानता हूं। मैं अकेले रह रहा हूं। और खुद को मैं रेगिस्तान में पाता हूं। और आप भी अकेले हैं तो...। मैंने देखा कि मेरीे इस बात का उनके पास कोई जवाब नहीं है। तो आगे भी बड़ी बेबाकी से कह दिया कि आप कहती हैं मन में जो आए उसे कहने की हिम्मत रखनी चाहिए, तो आपकी इस बात से ही हिम्मत कर पा रहा हूं कि मैं चाहता हूं कि आप आज अपनी इस दुनिया से निकल कर एक रात मेरी दुनिया में मेरे घर पर बिताएं। इससे मैंने जो रेगिस्तान की बात की है उसे समझने में और आसानी होगी। मैंने सोचा था कि शायद वो मेरी इस बात पर शॉक्ड होंगी। लेकिन ऐसी कोई प्रतिक्रिया उन्होंने नहीं दी। शांत अपनी कुर्सी से उठीं मेज पर रखी सिगरेट निकाली, जला कर कश लेती हुई कमरे की खिड़की के पास खड़ी हो गईं।

उनकी भाव-भंगिमा बता रही थी कि उनके दिमाग में कोई गहन उथल-पुथल, मंथन चल रहा है। कमरे में असहनीय सन्नाटा छाया हुआ था। मेरी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी कि आखिर शंपा जी का जवाब क्या होगा? इनके अंदर कौन सा तुफान चल रहा है? वह किस रूप में बाहर आएगा? मैंने भी एक सिगरेट सुलगा ली। और जब रहा नहीं गया तो बड़े सशंकित क़दमों से उनके पीछे पहुंचा और डरते हुए उनके कंधे पर हाथ रख कर हल्के से दबा कर कहा। मेरी बात से यदि आपको कष्ट हुआ है तो मुझे बहुत दुख है। मैं फिर कहता हूं कि मेरा... खैर छोड़िए। आप जैसा कहेंगी मैं वैसा ही करूंगा। मेरी तरफ से कोई प्रेशर नहीं है।

मैं अपनी बात खुल कर कह नहीं पा रहा था। उनकी तरफ से प्रतिक्रिया में हो रही पल-पल की देरी से मैं यही सोचने लगा कि मेरी बात से उनको कष्ट पहुंचा है। और क्रोध की अधिकता के कारण वह बोल नहीं रही हैं। मुझे लगा कि सॉरी बोल चैप्टर क्लोज किया जाए। उनके कंधे से मैंने हाथ धीरे से वापस हटाना चाहा तो अचानक ही उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठा कर कंधे पर रखे मेरे हाथ को हल्के से दबा दिया। उस स्पर्श में इतना अपनत्व था कि मैं सिहर उठा। मेरा पूरा बदन गनगना उठा। कोई बोल मुंह से ना निकले। फिर उन्होंने एक गहरी सांस ली। मेरे हथेली को अपने हाथ में लिए-लिए पलटी और बोलीं ‘यदि मैं यह कहूं कि तुम खुद को हरी-भरी वादियों में लाने के लिए मुझे माध्यम बना रहे हो तो?’

मैंने कहा नहीं आप ऐसा ना सोचें। हरी-भरी वादियों की कोई अर्थवत्ता तभी है जब कोई अपना भी हो साथ में। हमें लगा कि हम दोनों ही एक दूसरे के लिए अच्छे साथी साबित होंगे। मेरी इस बात पर वह बड़ी देर तक चहलक़दमी करने, सिगरेट पूरी करने के बाद बोलीं ‘ओ.के.,आज रात तुम्हारे साथ, तुम्हारे घर पर बिताऊंगी। देखूंगी कि तुम मेरी रेगिस्तान बनी दुनिया में कितनी हरियाली बिखेर पाते हो।’ शंपा जी की आवाज़ अजीब सी हो रही थी। जैसे वो किसी विशाल एकदम खाली हॉल में बोल रही हों। उनके इस जवाब से मुझे बहुत खुशी हुई।

मैंने दोनों हाथों से उनके कंधे को हल्के से पकड़ कर कहा। थैंक्यू। मैं आपको लेने कितनी देर बाद आ जाऊं। उन्होंने नौ बजे का टाइम दिया। साथ ही यह कहना ना भूलीं कि ‘समीर किसी फॉर्मेलिटी की ज़रूरत नहीं है।’ मैं ओ. के. कह कर घर आ गया। घर की हालत ठीक की। इसमें मुझे अच्छा खासा वक्त लग गया। मेरे पास कुल तीन घंटे थे। फिर भी जितना काम था उस हिसाब से समय कम था। मैंने एक दम आखिर में शंपा जी की पसंद के हिसाब से एक बढ़िया होटल से डिनर, शानदार व्हिस्की, सिगरेट सब लाकर रख दिए। रूम फ्रेशनर पूरे घर में स्प्रे कर दिया। और ठीक नौ बजे शंपा जी के सामने हाजिर हो गया। मुझे डर था कि लेट ना हो जाऊं। लेकिन एग्जेक्ट नौ बजे पहुंच गया था। मुझे देख कर वह मुस्कुराईं।

मैंने कहा मैं लेट तो नहीं हुआ तो वह बोलीं ‘नेवर।’ उनकी आंखें उनका चेहरा देखकर मुझे लगा जैसे वह मेरे जाने के बाद देर तक खूब रोई हैं। लेकिन मैंने कुछ पूछना उचित नहीं समझा।

मैंने सीधे कहा आप तैयार हैं। टाइम हो गया है। मैंने देखा कि उन्हें मैं जैसा छोड़ गया था वह बिलकुल वैसे ही हैं। ऐश ट्रे में सिगरेट के टुकड़े बता रहे थे कि उन्होंने तीन घंटे में आठ-नौ सिगरेट पी डाली है। उन्होंने कहा ‘ठीक है बैठो, बस चेंज कर लूं फिर चलती हूं।’ अस्त-व्यस्त शंपा जी मेरे बैठने का इंतजार किए बिना बाथरूम गईं। हाथ-मुंह धोकर आईं। अलमारी से कुर्ती, जींस निकाली फिर इशारे से ही मुझसे मुंह दूसरी तरफ घुमा लेने को कहा। मैं तुरंत दूसरी तरफ घूम गया। वहां चेंज करने के लिए कोई दूसरा स्पेस नहीं था। वह चेंज करती हुईं बोलीं।

‘तुमने आज यह अचानक ही कह दिया। पहले कभी ऐसा कोई संकेत दिया ही नहीं। मैं अब भी नहीं समझ पा रही हूं कि मुझे चलना चाहिए कि नहीं।’ मैंने तुरंत कहा मैं समझता हूं कि यदि क़दम उठ जाएं तो उन्हें रोकना नहीं चाहिए। हमें कुछ चीजें समय पर छोड़ देनी चाहिए। उसे ही सही गलत तय करते हुए देखते रहना चाहिए। मेरी इस बात पर बोलीं। ‘शायद इस समय मैं यही कर रही हूं। मैं समझने की कोशिश कर रही हूं कि तुम्हारी बातों में क्या था। ऐसी कौन सी एनर्जी है जिसने मुझे मेरी दुनिया से बाहर आकर कुछ और देखने के लिए निकाल लिया।’

मैंने कहा मैं आपको क्या बताऊं। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, शायद यही नियम हम दोनों के बीच भी खुद को साबित कर रहा है। इस पर वह हंसती हुई बोलीं ‘पता नहीं क्या। खैर तुम मुड़ सकते हो।’ मैं फिर से उनकी तरफ मुखातिब हुआ। उन्होंने चेंज कर लिया था। बालों में जल्दी-जल्दी आठ दस कंघी कर पिन लगाया, अपना हैंड बैग लिया, मोबाइल उठाया, बोलीं। ‘चलो! इस यकीन के साथ चल रही हूं कि जैसा तुम कह रहे हो मुझे वैसा ही अनुभव मिलेगा।’ उनकी इस बात पर मैंने इतना ही कहा मेरी कोशिश में कोई कमी नहीं रहेगी।

बाहर आकर बाइक स्टार्ट की, जब वह बैठ गईं तो मैंने उनसे कहा मैंने सोचा कि एक टैक्सी कर लूं। फिर आपकी बात याद आई कि फॉर्मेलिटी ना करने की आपने हिदायत दी है। और आपकी किसी बात को मैं टालने के पक्ष में बिलकुल नहीं रहता। ‘अच्छा किया। मुझे बिलकुल अच्छा ना लगता यदि तुम टैक्सी लाते।’ बाहर का मौसम अच्छा खासा गुलाबी सा हो रहा था। मार्च का दूसरा हफ्ता था। हवा कुछ तेज़ और ठंडी थी। बाइक पर और अच्छी लग रही थी। शंपा जी पीछे बैठी थीं। उनके दोनों हाथ मेरी कमर के गिर्द कसे हुए थे। हम छह-सात मिनट में घर पहुंचे। गाड़ी खड़ी कर उन्हें लेकर ऊपर घर के सामने पहुंचा अंदर दाखिल होने के लिए जब इंटरलॉक खोल रहा था तब वह बोलीं ‘बाहर कितना बढ़िया मौसम है, मन कर रहा है कि थोड़ी देर और घूमें।’ मैंने छूटते ही कहा तो चलूं। तो वह हंसते हुए बोलीं, ‘नहीं-नहीं मैं तो ऐसे ही कह रही थी।’

छह-सात मिनट के रास्ते में मैंने और शंपा जी ने दो चार बातों के अलावा और कोई बात नहीं की थी। अंदर आकर पहले मैंने उन्हें पूरा घर दिखाया और कहा मुझे उम्मीद है कि यहां आप कोई असुविधा महसूस नहीं करेंगी। वह बोलीं ‘बिलकुल नहीं।’ बहुत अच्छा लग रहा है। मुझे ऐसी सादगी में ही जीवन का सौंदर्य दिखता है। वह बॉलकनी में खड़ी होकर बोलीं ‘यहां इस ऊंचाई से बाहर का मौसम अच्छा लग रहा है। हवा रेशम सी फील दे रही है।’ उनकी बॉडी लैंग्वेज़, बातों से मुझे लगा कि वह यहां आकर खुश हुई हैं। मुझे इससे बेहद खुशी हुई। मैंने टी.वी. ऑन कर दिया। तभी उन्होंने फिर सिगरेट सुलगा ली। मुझे भी ऑफर किया।

स्टडी टेबल पर रखी फोटो देखकर बोलीं। ‘यदि मैं गलत नहीं हूं तो यह आपके पैरेंट्स हैं।’ मैंने कहा हां। मां अब नहीं हैं। इस पर बोलीं ‘ओह और पापा?’ मैंने कहा वह लखनऊ में ब्रदर के पास रहते हैं। इसके बाद कुछ और बातें कीं एक गिलास ठंडा पानी पिया और बोलीं ‘समीर मैं सोच रही हूं कुछ देर बॉलकनी में बैठते हैं। अभी तो दस भी नहीं बजा है।’ वास्तव में उन्होंने मेरे मन की बात कह दी थी। मैंने दो कुर्सियां वहीं डालीं। बीच में एक छोटी टेबल भी। वहीं बैठकर हमारी बातें फिर शुरू हुईं।

मैंने देखा शंपा जी मूड में हैं, और ना जाने कितनी बातें कह देना चाहती हैं। अंदर कमरे में मैंने टीवी बंद कर दिया। और म्यूजिक सिस्टम पर शंपा जी की पसंद का सेमी क्लॉसिकल म्यूजिक ऑन कर दिया। जिसकी आवाज़ बॉलकनी में हम तक धीरे-धीरे पहुंच रही थी। शंपा जी रह-रह कर बातें कर रही थीं। मगर इन बातों में वह अपने बारे में कुछ नहीं कह रही थीं। वह पूरे सिस्टम की बात कर रही थीं। उन्हें वर्तमान सिस्टम में बहुत सी खामियां नजर आ रही थीं। उनकी बातें धीरे-धीरे डेफ्थ और ज़्यादा डेफ्थ में जा रही थीं।

मेरे सामने एक नई शंपा ऊभर कर आ रही थी। एक अलग ही तरह की शंपा का जन्म हो रहा था। मैं अभिभूत हो रहा था। तभी उन्होंने पानी मांगा। तो मैंने पानी के साथ ही व्हिस्की के दो स्माल पैग बनाए। आइस क्यूब डाले और सामने रखते हुए कहा मुझे लगता है ये माहौल को और बेहतर करेंगे। वह बोलीं ‘मैं कहने ही वाली थी।’ फिर एक शिप लेकर बोलीं ‘लगता है मेरी हर चीज़ को तुमने बड़ी बारीकी से रीड किया है। ये मेरा पसंदीदा ब्रांड है।’ मैंने कहा मेरी कोशिश यही है कि जो भी करूं वह बेहतर हो। ‘तुम अपनी कोशिश में अब तक तो सफल हो समीर। आगे के बारे में मैं जानती नहीं।’

इसके बाद शंपा जी की नॉन स्टॉप बातें, सिगरेट चलती रहीं। मुझे लगा कि ऐसे खाने का मजा चला जाएगा। ग्यारह बज गए हैं लेकिन बातें ऐसी थीं कि मेरा भी उठने का मन नहीं कर रहा था। शंपा जी की नजर में देश बड़े गंभीर संकट से गुजर रहा है। वह खोखला हो रहा है। युनिवर्सिटीज, कॉलेज या अन्य जगहों पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो हो रहा है वह वास्तव में साजिश है। आज़ादी के नाम पर विखंडन की प्रक्रिया चलाई जा रही है। वह कहतीं कि यह सब विदेशी फंडिंग, विदेशी साजिश का परिणाम हैं। कुछ लोग इन्हीं के इशारे पर नाच रहे हैं। वह बोलीं ‘जानते हो समीर हमारे समाज की मुख्य समस्या क्या है?’

मैंने कहा ‘नहीं’ तो वह बोलीं ‘आश्चर्य है, तुम्हें मालूम होना चाहिए। खैर बताती हूं। वह है धर्म की अफीम। पहले यह धर्म समाज को दिशा देता था। राजदंड के साथ मिल कर समाज को आगे बढ़ाता था। लेकिन अब धर्म लोगों में अफीम के नशे सा मिल गया है। लोगों को देश, समय से कोई लेना-देना नहीं है। सब अपने स्वार्थ से आगे सोचते ही नहीं। यह अफीम इतनी फैल चुकी है कि देश ही नहीं समीर यह पूरी दुनिया के अस्तित्व के लिए खतरा बन गई है। तमाम देशों में भरे पड़े एटैमिक वेपन इन अफीमचियों के हाथों में कभी भी पड़ सकते हैं। और यह स्थिति बंदर के हाथ में अस्तुरा जैसी होगी। ये पृथ्वी के लिए संकट की घड़ी है। जानते हो समीर हम दोनों इस संकट से मुक्ति की बात करते थे। रास्ता ढूंढनें की कोशिश करते थे। लेकिन क्रूर समय ने उन्हें निगल लिया।

वह दुनिया के बारे में कॉर्ल सागन से आगे सोचते थे। कहते थे। हमारे देश ने दुनिया को वसुधैव कुटुंबकम का सिद्धांत दिया है। मैं इसे और आगे ले जाऊंगा। बड़ी गंभीरता से कहते शंपा, टेक्नोलॉजी जिस तेज़ी से आगे बढ़ रही है उससे हम जल्दी ही अंतरग्रहीय व्यवस्था के युग में प्रवेश कर जाएंगे। और मेरा प्रयास होगा, मेरी कोशिश यही है कि हम वसुधैव कुटुंबकम से आगे ब्रह्मांडम् कुटुंबकम बनाएंगे। दुख नाम की चीज़ इस ब्रह्मांड में नहीं होगी। मगर समीर क्या मालूम था कि उनका सपना सपना ही रहेगा। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मैं धर्म की अफीम से अपने को बचाने में सफल रही हूं। मैं अपने हसबैंड के विचार ‘ब्रह्मांडम् कुटुंबकम’ को इस दुनिया के सामने जल्दी ही लाऊंगी। मैं एक चीज तुम्हें अभी बता देना चाहती हूं कि इसमें मुझे तुम्हारे सहयोग की ज़रूरत पड़ेगी।

तुमसे मैं या यूं कहूं कि किसी से सहयोग लूंगी यह मैंने पिछले दो महीने में तुम्हारे विहैवियर को देखने के बाद सोचा। दूसरे शब्दों में कहें कि तुमने ऐसा कर दिया।’ मैंने कहा कि मैं अपने को लकी मानता हूं कि आपने मुझे इस ज़िम्मेदारी के लायक माना। वह बात आगे बढ़ाएं इसके पहले मैंने कहा कि अगर आपका मूड हो तो बातों के साथ-साथ डिनर भी शुरू करें। गरम-गरम अच्छा लगेगा। हालांकि सभी हॉट-पॉट में हैं। उन्होंने मेरी बात पर मोबाइल उठा कर टाइम देखा फिर बोलीं। ‘ठीक कहते हो। टाइम हो गया है। समीर जब मैं हसबैंड के साथ थी तो भी हम दोनों ऐसे ही बातें करते थे।

मैं ज़्यादा बात करती थी। हम दोनों जी-तोड़ मेहनत करते थे। खाना-पीना बस ऐसे ही हो जाता था। ब्रेड, दूध, अंडा, या मौसमी फल वगैरह। बाद में जैसे-जैसे इंकम बढ़ी वैसे-वैसे खाने-पीने का सिस्टम बदला। महीने में तीन चार दिन होटल में खाने लगे। वो किचेन में ज़्यादा समय देना पसंद नहीं करते थे।’ मैंने कहा तो क्या वो किसी एक्टिीविस्ट की तरह किसी बड़े अभियान की योजना बना रहे थे। बॉलकनी से जब मैं शंपा जी को लेकर खाने की टेबल की तरफ बढ़ा तभी यह पूछ लिया। उस वक्त मैं उनको कमर के पास पकड़े हुए चल रहा था। फिर चेयर खींच कर बैठाया। दूसरी तरफ आकर मैंने टेबल पर रखे कई हॉट-पॉट एक-एक कर खोलने शुरू किए। यह सारे हॉट-पॉट मैं आनन-फानन में यह प्रोग्राम निश्चित होने के बाद ही खरीद कर ले आया था। जिससे शंपा जी को गरम-गरम डिनर करा सकूं।

एकदम नए इतने हॉट-पॉट देखकर उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने कह ही दिया ‘लगता है कि तुमने बहुत पैसे खर्च किए हैं।’ मैंने कहा ऐसा कुछ नहीं है। बस कोशिश यह की कि सब कुछ अच्छा हो। ‘हां मैं समझ रही हूं कि तुम सफल हो। लेकिन इतने सारे पॉट में तुमने क्या-क्या रखा हुआ है?’ मैंने कहा मैंने हर वह चीज लाने की कोशिश की हैं जिन्हें खा कर अच्छा लगे।

मेरी इस बात पर वह हल्की मुस्कुराहट के साथ मुझे देखती रहीं फिर बोलीं ‘मैं नहीं समझ पा रही हूं कि तुम मेरे लिए क्यों इतना परेशान हो।’ क्रैब डिश उनकी प्लेट में डालते हुए कहा लीजिए पहले इसे टेस्ट कीजिए। क्रैब का एक पीस मुंह में डालते हुई बोलीं ‘आज सालों बाद क्रैब खा रही हूं। यह तो बहुत टेस्टी है। तुम भी लो’ मैंने कहा हां बिल्कुल। मैं इस बार उनके तुम शब्द पर अटक गया था। उन्होंने घर आने के कुछ देर बाद से ही तुम बोलना शुरू किया था।

वह बहुत प्यार से टेस्ट ले-ले कर क्रैब खा रही थीं। मैंने भी शुरू करते हुए इसके बाद प्लेटों में लॉब्स्टर, प्रॉन, सीफूड सलाद, नॉन बटर, टूना फिश आदि निकालता गया। हर डिश वह पूरा स्वाद लेकर खाती जा रही थीं। और मेरी पसंद की तारीफ करते नहीं थक रहीं थीं। क्रैब, नॉन के अलावा वह बाकी सारी चीजें पहली बार खा रही थीं। सलाद और प्रॉन की तारीफ करते वह थक नहीं रही थीं।

हां जब डिनर शुरू हुआ तो मैंने उन्हें पहला पीस अपने हाथों से खिलाया था। और वह मुस्कुरा रही थीं। डिनर के साथ हमारी बातें बराबर चल रही थीं। वह बोलीं ‘लगता है तुमने थीम बेस डिनर अरेंज किया है। एक नॉन को छोड़ कर बाकी सब सी फूड हैं।’ मैंने कहा ऐसा कोई प्लान तो नहीं था। लेकिन होटल मेनू देखा तो यही सब मुझे पसंद आया। मैंने सोचा रोज की चीजों से कुछ अलग होना चाहिए। उनके पूछने पर जब होटल का नाम बताया तो वह चौंकती हुई बोलीं ‘अरे यह तो फाइव स्टार है। तुमने तो बहुत ज़्यादा पैसे खर्च कर दिए।’

मैंने कहा खुशी की कोई कीमत नहीं होती है। तो वह बोलीं ‘शायद तुम्हीं सही हो।’ करीब घंटे भर में हमने डिनर खत्म किया। मगर हमारी बातें नहीं खत्म हुईं। शिंक में शंपा जी के हाथ भी मैंने अपने हाथों से धोए। वह मना करती रहीं लेकिन मैं नहीं माना। मैंने देखा तब वह एक शर्म या अजीब सी संकोच में सिकुड़ सी रही थीं। हाथ धोकर उन्हें तौलिए से पोंछ कर मैंने कहा अभी स्वीट् तो बाकी है, बिना उसके तो डिनर अधूरा है। वह बोलीं ‘पहले ही बहुत खा चुकी हूं, अब और कुछ लेने की इच्छा नहीं है।’ लेकिन मैं स्वीट डिश प्लेट में निकाल कर बॉलकनी में आ गया। वह पहले ही बॉलकनी में आ गईं थीं। हवा तेज़ थी। ठंडी भी। वह रेलिंग पकड़े खड़ी रहीं।

मैं भी उनकी बगल में उन्हीं की तरह खड़ा हो गया। वह दूर आसमान में देखती हुईं बोलीं ‘समीर इस शानदार डिनर के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। उनके जाने के बाद सोचा ही नहीं था कि कभी ऐसे, इस माहौल में ऐसा डिनर करूंगी।’ मैंने कहा शंपा जी मैं सोचता हूं कि अब हमारे बीच धन्यवाद आदि जैसी किसी औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है। मेरी इस बात पर वह हंसी और एक हाथ मेरे कंधे पर रख दिया। फिर क्षण भर बाद बोलीं। ‘समीर मुझे पूरा विश्वास है कि हम दोनों साथ-साथ लंबा सफर तय करने वाले हैं।’

मुझे लगा जैसे उन्होंने मेरे मन की बात कह दी। मैं उनकी तरफ मुड़ा और बोला मैं इस बात को काफी समय से महसूस कर रहा हूं। अच्छा हुआ आपने कह कर स्पष्ट कर दिया। करीब पंद्रह मिनट हम दोनों यूं ही खड़े बातें करते रहे। फिर मुझे लगा वह आलस्य महसूस कर रहीं हैं। घड़ी पर नज़र डाली तो करीब डेढ़ बज रहे थे। मैंने कहा आइए आराम करिए, मुझे लगता है आप थक गईं हैं।

मैंने देखा खाने के दौरान जो तीन पैग व्ह्स्किी उन्होंने ली थी उसका असर खूब हो रहा है। और वह असर उनकी बातों पर दिख रहा है। मेरी बात सुनकर बोलीं ‘हां समीर मैं आराम करना चाह रही हूं। ले चलो मुझे।’ मैंने प्यार से उनका हाथ पकड़ कर कहा आइए। मगर अगले ही पल उन्होंने चौंका दिया। जो हाथ मैंने पकड़ा था उसे छुड़ाया फिर दोनों हाथ बच्चे की तरह ऐसे आगे कर दिए जैसे वह गोद लेने के लिए कहता है। उनके चेहरे पर बच्चों की सी मासूमियत और शरारत दोनों दिख रही थी।

मैं भी मुस्कुराए बिना ना रह सका। और फिर उन्हें गोद में उठाने में देरी नहीं की। थोड़ा झुक कर दोनों हाथों से उन्हें ऊपर उठा लिया। उनका चेहरा मेरे चेहरे के एकदम सामने था। उठाने के बाद मैं कुछ देर उनकी आंखों को पढ़ने की कोशिश करता खड़ा रहा। वह भी मेरी ही आंखों में देखे जा रही थीं। फिर अचानक ही मेरे होंठों को चूम लिया। मैंने करंट सा महसूस किया। कुछ समझूँ तभी उनके होंठ फिर मेरे होठों से सट गए। मैं उन्हें ऐसे ही लिए-लिए बेड के पास आकर खड़ा हो गया। तब उन्होंने अपने होठों को अलग किया, और नीचे उतारने का संकेत भी। मैंने उतार दिया। तभी वह बोलीं ‘समीर तुमने इन कुछ घंटों में ही मेरा ऐसा ख़्याल रखा है कि लगता है जैसे मुझ पर पड़ी बरसों-बरस की अकेलेपन की मोटी चादर बाहर चल रही फागुनी बय़ार कहीं दूर उड़ा ले गई है। और अपने नर्म मखमली स्पर्श से मुझमें बरसों से गहरे भीतर तक समाई दुख-वेदना को छू मंतर कर रही है।’

मैं उनकी बात पर केवल मुस्कुरा कर रह गया। तभी उन्होंने कमरे में दोनों तरफ पड़े बेड की तरफ देखते हुए कहा ‘लेकिन तुमने अब भी बीच में इतनी चौड़ी दरार क्यों बना रखी है। लाइक ए रिफ्ट वैली। समीर मैं और मेरे हसबैंड इस खांई को ही खत्म करना चाहते थे। हर किसी के बीच से खांई खत्म कर देना चाहते थे। लेकिन जितनी कोशिश की वह उतनी ही हर तरफ और ज़्यादा बढ़ती रही।

अब देखो यहां सिर्फ़ हम तुम हैं। तुमने मुझे एक रात अपने यहां बिताने के लिए बुलाया है। लेकिन यहां भी इतनी चौड़ी, सात फीट चौड़ी खांई बनी हुई है। समीर-समीर यह खांई मुझे इरीटेट कर रही है।’ शंपा जी की बात, उनकी भावनाएं मुझे समझते देर नहीं लगी। मैंने कहा आप बैठिए मैं अभी इस खांई को हमेशा के लिए खत्म करता हूं। फिर दोनों बेड मैंने आपस में मिला दिए। यह देख कर वह बोलीं ‘हां! अब कितना अच्छा लग रहा है।’ वह बैठ गईं बेड पर। फिर अचानक ही चौंकती हुईं बोलीं ‘ओह सिट।’ मैं चौंका अब क्या हो गया। मैंने पूछा कोई प्रॉब्लम? मुझे लगा शायद मैट्रेस हार्ड हैं। ये तो स्प्रिंग मैट्रेस पर सोती हैं।

वह बोलीं ‘नहीं प्रॉब्लम जैसी तो कोई बात नहीं है। स्लीपिंग ड्रेस तो लाई ही नहीं।’मैं कुछ बोलता उसके पहले ही उन्होंने सॉल्यूशन दे दिया यह कह कर कि ‘चलो मैनेज करते हैं।’ और फिर तुरंत मुझसे उन्होंने टॉवल मांग ली। और वॉशरूम चली गईं। लौटीं तो सिर्फ़ टॉवल में। मुंह वगैरह धोकर ब्रश करके आईं थीं। काफी फ्रेश लग रही थीं। उनके बाद मैंने भी चेंज किया, मुंह-हाथ धोने, ब्रश करने लगा। काफी थकान उतर गई। मैं आया तो शंपा जी बेड पर बैठी थीं। टॉवल में बैठना मुश्किल हो रहा था तो अजीब सा पैर पीछे मोड़ कर बैठी थीं। मैं उनके करीब बैठ गया। वह प्रश्न जो डिनर से पहले पूछा था कि क्या उनके पास अपने सिद्धांत को फलीभूत करने के लिए कोई योजना थी। पुनः पूछ लिया। तो वह कुछ देर जैसे कहीं खो र्गइं। फिर बोलीं।

‘हां एक विस्तृत योजना बनाई थी हम दोनों ने। उस पर एक निश्चित अवधि के बाद काम करने की सोची थी।’ मैं योजना के बारे में कुछ पूछूं उसके पहले ही उन्होंने यह कह कर चैप्टर क्लोज कर दिया कि ‘इस बारे में फिर कभी बात करेंगे। आज तो मैं सिर्फ़ इस डिनर, इस रात को जीना चाहती हूं। तुम्हारे साथ जीना चाहती हूं।’ मैंने कहा श्योर मुझे बेहद खुशी होगी। तभी वह बोलीं कि ‘ये फैन और तेज़ नहीं हो सकता क्या?’ मैंने कहा हो जाएगा। और उठ कर उसे फुल स्पीड में कर दिया। नाइट लैंप ऑन कर लाइट ऑफ कर दी। अपने बेड पर पहुंचा तब तक वह बैठी थीं। मुझसे पूछा ‘सुबह कितने बजे उठते हो?’ मैंने कहा कुछ निश्चित नहीं, जब नींद खुल जाए। वह बोलीं ‘ओह मेरा भी यही हाल है। ठीक है आओ अब सोते हैं। हमारे बीच को कोई रिफ्ट वैली तो नहीं होगी ना?’

मैं आशय पूरा समझ पाता उसके पहले ही मैं उनकी बाहों में था। जब वह बांहों में ले रही थीं तब मैंने जो खूबसूरत अहसास महसूस किया वह पहले कभी नहीं किया था। शंपा जी वाकई मुझे उसी समय से एक खा़स महिला नजर आने लगीं। जीवन के हर क्षेत्र में काम करने का उनका अपना एक अलग अंदाज मोह लेता था। उनके हर काम में एक क्लासिकता होती थी। कोई उद्दंडता, कोई हल्कापन नहीं। वह पूरी रात उनके हमारे बीच डिनर और भरपूर एक होने की रात थी। सुबह तक एक तरह से वह मुझे इस मामले में भी टीच कर रही थीं।

ऐसे जैसे सेक्स वासना नहीं है एक आर्ट है। एक क्लॉसिकल ऑर्ट, जिसकी अपनी एक कंप्लीट फिलॉसफी है। जिसे समझना आसान नहीं तो अबूझ पहेली भी नहीं है। इसे समझने के लिए धैर्य, निर्मल मन और पूरा माहौल चाहिए। और उस रात शंपा जी ने आदर्श माहौल बनाए रखा। कहने को मैंने अपने यहां रात बिताने के लिए उन्हें आमंत्रित किया था। लेकिन सच यह था कि रात मैं उनके साथ बिता रहा था।

मैं उनके हाथ में एक पपेट की तरह था। जिससे वह रात भर कुशल खिलाड़ी की तरह खेलती नहीं रहीं बल्कि उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर रही थीं। और सुबह होते-होते वह पपेट प्राणवान होकर सोने, आराम करने लगा। उसकी आंख लग गई। वह सो गया। और सुबह उठा तो दस बज गए थे। उठ कर बैठा तो वह असाधारण सी महिला बिल्कुल सामान्य सी दिखती मेरी स्टडी टेबल के पास बैठी पेपर पढ़ रही थी। हॉकर बॉलकनी में पेपर फेंक जाता है। वह इस समय भी टॉवल में ही थीं। मैंने उठ कर गुडमॉर्निंग किया। उन्होंने बिना मेरी तरफ देखे ही कहा ‘वैरी गुडमॉर्निंग समीर।’

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