Meri Janhit Yachika - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

मेरी जनहित याचिका - 4

मेरी जनहित याचिका

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 4

मैंने सोचा कि यह तो अकेले थी। इसने यह तो बताया ही नहीं कि मुझे दो को सर्विस देनी है। जब एक अंदर घर में थी तो गेट पर बाहर से ताला लगाने का क्या मतलब है? हालांकि दोनों की बॉडी लैंग्वेज, हाव-भाव बड़े अच्छे थे। बेहद शालीन, सभ्य, सुसंस्कृत लग रही थीं। दोनों ने ऐसे बात शुरू की जैसे हम बहुत पहले से मित्र रहे हैं। पांच मिनट की बात में ही दोनों ने ही मेरे मुंह से सच निकलवा लिया कि मैं इस फ़ील्ड में न्यूकमर हूं, यह मेरा पहला दिन है। मेरे सॉरी बोलने पर वह दोनों मुस्कुरा कर रह गईं। इस बीच मुझसे यह पूछ लिया गया कि क्या मैं दोनों को सर्विस दे सकता हूं। क्षण भर में मैंने सोच लिया कि मैंने ना किया तो कमज़ोर साबित होऊंगा। अनाड़ी तो साबित हो ही चुका हूं।

फैल्योर पर्सन बन कर यहां से निकलना अच्छा नहीं। और इस बात की भी पूरी संभावना है कि दोनों के लिए एग्री न होने पर ये बैरंग ही वापस कर दें। मैंने यह सारी बातें मन में कौंधते ही पूरा कॉन्फिडेंस शो करते हुए ‘हां’ कर दी। इस पर बड़ी वाली के चेहरे पर बड़ी रहस्यमयी मुस्कान बिखर गई। इसके बाद डील फिर से तय हुई। कहां तो मैं एक से बीस हजा़र रुपए चार्ज करने की सोच कर घर से निकला था, फिर दस पर तैयार हो गया। वहीं फिर पंद्रह हज़ार में ही दो को सर्विस देने के लिए तैयार होना पड़ा। उन दोनों ने मुझे पूरी छूट दी थी कि मैं चाहूं तो वापस जा सकता हूं।

वे मुझे कंवेंस चार्ज के साथ-साथ इतना समय देने के लिए कुछ एक्स्ट्रा चार्ज भी दे देंगी। लेकिन मैं अब रोल बैक के लिए तैयार नहीं था। इस लिए सर्विस स्टार्ट हुई। मैंने सोचा था कि दोनों अलग-अलग टाइम में सर्विस लेंगी। लेकिन मैं गलत था। सर्विस साथ ही देनी पड़ी। मुझे या यह कहें कि मेरे लिए यह बड़ा शॉकिंग मूवमेंट रहा। शुरू से लेकर आखिर तक कई तरह के ड्राई नॉनवेज़, और बड़ी महंगी व्हिस्की के भी दौर चले। बेहद शालीनता के साथ। इस काम में भी बेहद हाई क्लास सोसायटी वाली बातों को मैं देख सुन रहा था।

बड़ी वाली महिला की अंग्रेज़ी अमेरिकन अंग्रेज़ी के बहुत करीब थी। मेरी अंग्रेज़ी उन दोनों के सामने बस काम चलाऊ भर थी। दोनों ने बातचीत का ऐसा शमां बांधा था कि लग ही नहीं रहा था कि मैं एक अजनबी से मुखातिब हूं। मेरी घबराहट ना जाने कहां चली गई थी। या ये कहें कि वह दोनों इतनी एक्सपर्ट थीं कि मुझे यह अहसास ही नहीं होने दिया कि मुझे क्या कैसे करना है। बल्कि उन्होंने जैसा चाहा मुझसे वैसा करवा लिया।

लास्ट में यह कह कर तारीफ की कि उन दोनों ने खूब एंज्वॉय किया। मेरे लिए तब यह सब आश्चर्यजनक ही था। मैं यंत्रवत सा बोल गया कि ‘मी टू’ इस पर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ंीं। मानो मेरी खिल्ली उड़ा रही हों कि बेटा तुमने क्या एंज्वॉय किया। तुमने तो वो किया जो हमने करवाया। तुम एक मशीन हो जिसका रिमोट मेरे हाथ में है। और फिर जैसे मुझे मेरे दायरे में रखने, मुझे मेरी हैसियत बताने की दोनों ने कोशिश की।

छोटी वाली बोली ‘यू शुडन्ट हैव गिवेन फॉल्स इंफ़ॉर्मेशन। दि साइज ऑफ योर हैंकी वॉज़ नॉट प्रॉपर। वी एन्ज्वाएड हाउ एवर।’ (आपको गलत सूचना नहीं देनी चाहिए थी। आपकी रुमाल का आकार गलत था। आपको हमें धोखा नहीं देना चाहिए था। फिर भी हमने आनंद उठाया) उसकी इन बातों ने मुझे सकते में डाल दिया कि मैंने चीट किया।

यह संयोग था कि फिर भी उन्होंने एंज्वॉय किया। मैंने सफाई देना चाहा कि मैंने चीटिंग नहीं की। यदि ऐसा कुछ हुआ है तो मेरी जानकारी में नहीं हुआ है। मेरे चेहरे पर आए तनाव और मेरी बातों से उन्हें लगा कि मैं तनाव में आ गया हूं। यह देख कर वह बड़े ही प्रोफेशनल अंदाज में बोली ‘आई नो दैट इट वाज़ नाट डन डेलीबरेटली बाई यू। यू कमिटेड दि सेम मिस्टेक्स विच आर नॉर्मली कमिटेड बाई नो विसेज़ इन दिस फ़ील्ड। एज सच देयर इज़ नो नीड टु-वरी अबॉउट इट।’ (हम जानते हैं यह आपने जानबूझकर नहीं किया। इस फ़ील्ड में आए नए व्यक्ति से जो गलतियां हो सकती हैं आपने वही कीं। इसलिए परेशान होने की आवश्यकता नहीं।) इसके बाद मुझे मेरी फीस बड़े सलीके से दे दी गई।

चलते-चलते उन दोनों के साथ एक छोटा पैग फिर लिया। सुबह के चार बजने वाले थे। मुझे उस महिला ने एक ऐसे प्वाइंट पर छोड़ा जहां से मैं ऑटो वगैरह ले सकूं। अभी सूर्योदय होने में वक्त था। मैं ऑटो कर जनकपुरी उस स्थान पर पहुंचा जहां बाइक खड़ी थी। उसे लेकर घर आया और तानकर सो गया। मैं बुरी तरह थकान महसूस कर रहा था। सोकर करीब दो बजे उठा। बाकी मित्र भी जाग रहे थे। मैं भी तैयार होकर उन लोगों के साथ हो लिया।

खाने के दौरान ही सबने अपनी-अपनी वीर गाथा सुनाई। मैंने भी अपनी सुनाई अंदर-अंदर फूलते हुए कि मैं तो पहली बार में ही एक रात में दो शिकार कर आया। मगर सबने मेरी वीरगाथा सुनकर जो हंसना शुरू किया तो देर तक हंसते ही रहे। सबने एक स्वर में कहा कि मैं तो फर्स्ट अटेम्प्ट में ही चीट हुआ। लूट लिया गया। बेवकूफ बन गया। और ना जाने क्या-क्या बातें कि एक मर्द हो कर दो औरतों के सामने नहीं टिक सके। दोनों ने तुम्हें लूट लिया।

मैं एकदम चुप था। समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब जो कह रहे हैं वह सही है। या मैं जो सोच रहा हूं वह। खाने-पीने के बाद पिछली बार की तरह सब फिर घूमने निकल दिए। मैं अंदर-अंदर इतना अपसेट हो गया था कि जाने का मन नहीं हुआ। सबने बहुत कहा लेकिन मैं सिर दर्द का बहाना बना कर लेट गया।

अकेला होते ही यह प्रश्न बहुत ज़्यादा परेशान करने लगा कि मैंने जो क़दम बढ़ाया है, वह सही है या गलत। अगर कहीं संयोगवश ही यह बात खुल गई कि मैं एक गिगोलो हूं तो दुनिया को क्या मुंह दिखाऊंगा। पापा जो मंझले भइया के लिवइन में होने से ही इतना आहत हैं कि उनसे बात नहीं करना चाहते, उनके लिए तो यह इतना बड़ा सदमा होगा कि शायद अपने को संभाल ना सकें। और मेरी पढ़ा़ई, मेरे माता-पिता की अंतिम इच्छा। उसका क्या होगा? तो क्या मेरा कॅरियर खत्म हो गया? जाने-अनजाने मेरा-सेक्स वर्कर होना मेरा कॅरियर बन गया है।

जिस तरह यह मित्र मंडली बता रही है कि बड़ी संख्या में लोग इसे अपना प्रोफ़ेशन बनाए हुए हैं। महीने में लाखों कमा रहे हैं। इसमें टिके रहना आसान काम नहीं है। अपने को लैंग्वेज, मैनर्स, फिज़िक, स्टैमिना हर स्तर पर बेहतर बनाए रखना होता है। कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। कैजुअली करने वालों की संख्या ज़्यादा है, लेकिन ऐसे लोग ज़्यादा समय टिकते नहीं। पैसे भी कम मिलते हैं।

मगर मैं इस पैसे से क्या-क्या कर पाऊंगा? कितने दिन ऐसे चल पाएगा? जब यह खत्म होगा तब मेरे लिए जीवन में बचेगा क्या? क्या मैं उस वक्त ऐसी जगह खड़ा होऊंगा जहां हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा होगा। पर्सनल लाइफ नष्ट हो चुकी होगी। फैमिली लाइफ की सोच ही नहीं सकता। कौन लड़की मेरे साथ आएगी? कितने दिन उससे छिपा पाऊंगा? उसे मैं कैसे फेश कर पाऊंगा? मैं उसके साथ नॉर्मल बिहेव कर पाऊंगा? यह सारे प्रश्न मुझे इस कदर परेशान करने लगे कि सिर में वाकई दर्द होने लगा।

मैं इस बीच टीवी का चैनल कई बार बदल चुका था। और उठकर व्हिस्की के भी दो पैग जल्दी-जल्दी लगा लिए थे। इसके बाद भी तर्क-वितर्क कम नहीं हुए बल्कि उन दोनों महिलाओं के साथ बिताए पल। उनकी बातें याद आने लगीं। और साथ ही रह-रह गुदगुदाने भी लगीं। मुझे लगा कैसे कुछ बिगड़ जाएगा। सारे मित्र बता रहे हैं कि किसी को कानों-कान खबर नहीं होगी। जब चाहो फील्ड से खुद की बिदाई कर लो। कोई बताने ढूढ़ने थोड़ी आता है।

सुहेल की यह बात भी बार-बार दिमाग में कौंधती ‘यार एक प्रोफ़ेशनल की तरह सोचो। वो कहते हैं न हेल्थ इज़ वेल्थ। यानी स्वास्थ्य संपदा है। संपदा। तो यार जब यह संपदा है तो इसका यूज भी होना चाहिए। वेस्ट करने से फायदा क्या? यह हमारा एसेट है। एसेट का मैक्सिमम यूज ही मैनेजमेंट का फर्स्ट एंड लास्ट लॉ है। सारे काम करने के बाद जो समय बच रहा है, उसमें कुछ इंकम के लिए यह करना कहीं से गलत नहीं है। फिर ऐसा काम जिसमें मजा भी खूब है।’

वह जब यह सारे तर्क दे रहा था। तब बाकी सब भी जोरदार ढंग से उसी की हां में हां मिला रहे थे। उसकी इस बात का भी सबने समर्थन किया कि ऐसे भी मैरिड कपल हैं जो अपनी ब्लू मूवी बनाकर मार्केट में बेच कर पैसा कमा रहे हैं। जो अपनी पहचान छिपाए रखना चाहते हैं वो डिजाइनर मॉस्क लगा लेते हैं। जैसे बर्थ-डे पार्टी में बच्चे आदि लगा लेते हैं। मेरे लिए जानकारी के स्तर यह कोई नई बात नहीं थी। लेकिन खुद फ़ील्ड में पहुंच कर यह सब देख कर थोड़ा अचरज में था।

मैं सोचता कि क्या सेक्सुअल डिजायर इतनी पावरफुल है कि लोग किसी भी स्तर पर उतर सकते हैं। और साथ ही पैसा भी वाकई इतना इंपॉर्टेंट है कि शरीर एसेट बन जाए। या अभी तक हम यह जान ही नहीं पाए हैं कि हमें चाहिए क्या? और भटक रहे हैं। मैं यह जानकर हैरान हुआ कि विपुल को कई महीने पहले एक ऐसी क्लाइंट भी मिली थी जिसने घर पहुंचने के आधे घंटे बाद डिमांड कर दी कि क्या वो अपने दो और साथियों को भी बुला सकता है। इसी समय। साथी कैसे होने चाहिए यह भी उसने बहुत खुले शब्दों में बताया। विपुल ने उसकी अफनाहट का पूरा फायदा उठाया और अपने दो साथियों को बुला भी लिया। फिर उस महिला ने जो हरकतें कीं उसके बाद विपुल उसे साइकिक क्वीन कहता था। महिला ने तीनों साथियों को रात भर के लिए पचास हज़ार रुपए पेमेंट किया था।

विपुल का नंबर उसने सेव कर लिया था। डेढ़ दो महिने के अंतराल पर कई बार बुलाया। लेकिन उसके द्वारा किए जाने वाले क्रियाकलापों, उसकी सनक भरी डिमांड से यह तीनों इतना ऊब गए कि ज़्यादा पैसा मिलने के बावजूद उसके पास जाना बंद कर दिया। विपुल ने यह जानने की बहुत कोशिश की थी कि आखिर वह साइकिक लेडी करती क्या है? इतनी स्मार्ट, इतनी रिच और साथ ही बहुत पढ़ी-लिखी भी है, फिर भी इस स्तर पर क्यों उतर आई है? विपुल सारी कोशिशें करके सिर्फ़ इतना जान सका था कि वह एक बिजनेस वुमेन थी। बाकी उसकी फै़मिली लाइफ़़ के बारे में कुछ नहीं जान सका कि वो मैरिड है, या अनमैरिड है। कितने फ़ैमिली मेंबर हैं। कुछ भी नहीं।

नशे में भी वह इतनी सतर्क रहती थी कि सीधे चुप करा देती थी। ड्रिंक भी उतना ही लेती जितने से होशो-हवास कायम रहे। मैं सारे मित्रों के अनुभव और अपने पहले अनुभव के आधार पर सिर्फ़ इतना ही निष्कर्ष उस समय निकाल सका कि यह ऐसा दल-दल है, जिससे विरले ही बाहर निकल पाते हैं। नहीं तो ज़्यादातर उसी में समाप्त हो जाते हैं। मैंने अहसास किया कि एक तरफ मैं इससे होने वाली तमाम समस्याएं जान रहा हूं, समझ रहा हूं, निकलने की बात भी मन में आती है लेकिन सेक्स और मनी पॉवर का अट्रैक्शन जकड़े जा रहा है। क्योंकि निकलने के मेरे प्रयास बेहद कमज़ोर थे, तो आखिर मैं इस दल-दल में आकंठ डूब गया।

फील्ड में सक्सेज के लिए जो भी फंडे ज़रूरी थे उन सबको मैंने बारीकी से जाना-सीखा। हर वह काम किया जिससे मेरी डिमांड ज़्यादा से ज़्यादा बने और ज़्यादा पेमेंट ले सकूं। अपनी कोशिशों में मैं सफल भी होता जा रहा था। जल्दी ही अपने कई साथियों को पीछे छोड़ दिया। मैं इसमें इतना रम गया कि सब भूल गया। पापा को भी भूल गया। इतना कि जब पापा का फ़ोन आता तभी उनसे बात होती। वह बातें एक दो मिनट से ज़्यादा करते तो मैं ऊबने लगता। फिर कुछ न कुछ बहाना बना कर फ़ोन काट देता। स्थिति यह आई कि इस फील्ड में आने के बाद ऐसा पहली बार हुआ कि मैं लगभग आठ महीने घर नहीं गया। पापा से कह दिया कि रिसर्च वर्क का लोड ज़्यादा है, अब जल्दी नहीं आ पाऊंगा।

बचपन में पापा के सामने मैं छोटा सा भी झूठ बोलने से घबराता था, उन्हीं से मैं यह और अन्य झूठ बराबर बोलता रहा। साल-बीतते-बीतते मेेरी आदत, मेरी सेहत और बैंक एकांउट की सेहत, पढ़ाई के प्रति नजरिया, कॅरियर के प्रति चिंता सब बदल गई। पढ़ाई अब मैं दूसरे ढंग से कर रहा था। प्रोफ़ेसर की सेवा में समय ज़्यादा देता। उन पर ज़्यादा पैसे खर्च करता। अब वह भी खुश थे। फिर एक दिन उन्हीं के साथ एक होटल में डिनर कर रहा था, तो मैंने मौका देख कर कह दिया कि सर तीन साल होने जा रहे हैं। मैं अभी तक कुछ कर नहीं पाया। थीसिस का काम देखें तो अभी तो वह एक तरह से शुरू ही नहीं हुआ है। सर कुछ किजिए, मुझे जल्दी से जल्दी पी.एच.डी. अवॉर्ड कराइए। सर अब मैं घर से ज़्यादा समय तक पैसे मांग नहीं पाऊंगा।

सर इटैलियन फूड चिकेन मिलानो, डेलीजीओसो (क्मसप्रपवेव), पैन फ्राइड एसपरागस के स्वाद में डूबे कुछ देर तक सोचते रहे। फिर बोले ‘सब हो जाएगा। परेशान होने की ज़रूरत नहीं।’ डिनर उस दिन उन्होंने भरपेट नहीं मन भर किया। आखिर में जब होटल से बाहर आए तो बोले ‘समीर तुम इतना प्यार से खिलाते हो कि मना करते नहीं बनता। आज बहुत ज़्यादा हो गया।’ मैंने मस्का मारते हुए कहा नहीं सर आपने ऐसा कुछ ज़्यादा नहीं खाया। मैं उनको छोड़ने से पहले थीसिस के बारे में पक्की बात कर लेना चाहता था।

मैंने घुमा-फिरा कर फिर बात छेड़ी तो उन्होंने एक मोबाइल नंबर नोट करा कर कहा। ‘ये शंपा टोक का नंबर है। इन्हें मेरा परिचय देकर बात कर लेना। कोई संकोच करने की ज़रूरत नहीं है। सीधे बोल देना यह प्रॉब्लम है। फ़ोन पर सारी बातें नहीं करना। उनसे मिलने का टाइम लेकर सीधे घर चले जाना। मैं बोल दूंगा। कोई प्रॉब्लम नहीं आएगी। शुरू में वो बहुत नानुकुर करेंगी। सीधे मना कर देंगी। लेकिन चल मत देना। वो कुछ देर बाद खुदी सब बता देंगी। वो चाहेंगी तो मैक्सिमम-तीन महीने के अंदर थीसिस तुम्हारे हाथ में होगी।’ उनकी इस बात से मुझे बड़ी राहत मिली।

मैंने अगले ही दिन मिलने का टाइम ले लिया। पहले तो उन्होंने मना किया कि आज टाइम नहीं है। लेकिन प्रोफे़सर साहब का नाम लेते ही बोलीं। ‘अं ठीक है यदि आपको कोई समस्या ना हो तो नौ बजे आ जाएं।’ मैंने छूटते ही कहा मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं होगी। मैं आ जाऊंगा। शंपा जी के नौ बजे शब्द ने मेरे शरीर में करेंट सी दौड़ा दी। उसी पल मुझे यह और गहराई से अहसास हुआ कि आदमी का काम उसकी मानसिकता पर जबरदस्त प्रभाव डालता है। उसकी मनः स्थिति उसी के अनुरूप बनती चली जाती है। आखिर में मुंह से यह अनायास ही निकल गया कि इस गिगोलो वर्ल्ड से मैं बाहर ना आया तो वह दिन दूर नहीं जब यह मुझे पूरी तरह निगल जाएगा।

मैं पूरे समय इसी उधेड़बुन में रहा कि मेरी मति को क्या हो गया था जो मैं इस दलदल में उतर गया। और उतर गया तो इतना समय होने के बाद भी मैं निकल क्यों नहीं पा रहा हूं। शंपा जी का नौ बजे शब्द बार-बार मस्तिष्क में गूंज रहा था। यह गूंज मुझे बहुत परेशान कर रही थी। इससे छुटकारा पाने के लिए मैंने कई सिगरेट पी डाली। मगर बार-बार नौ बजे, शंपा जी, नौ बजे शंपा जी, से इतना परेशान हुआ कि सोचा दो-चार पैग लगा लूं। मगर यह सोच कर कि शंपा जी के यहां ठीक से, सलीके से पहुंचना है। नशे से सूजी आंखें चेहरा लेकर जाना मुर्खता होगी। इसलिए नहीं पी।

मैं अपने भरसक नौ बजे सलीके से शंपा जी के घर पहुंचा। वह नांगलोई में रहती थीं। मकान काफी बड़ा था। मैंने गेट पर पहुंच कर कॉल बेल बजाई तो कुछ देर बाद एक अधेड़ से व्यक्ति ने खोल कर पूछा ‘किससे मिलना है?’ मैंने बताया तो उसने आगे इशारा कर कहा ‘उपर चले जाइए।’ उसके अंदाज से स्पष्ट संकेत मिल गया कि वहां शंपा जी ऊपर किराए पर रहती हैं। बड़े से पोर्च में तीन फोर व्हीलर और कई टू व्हीलर खड़े थे। वह अधेड़ अपने मालिक का बहुत वफादार नौकर लग रहा था। जब तक मैं शंपा जी के कमरे के दरवाजे पर नहीं पहुंच गया वह नीचे खड़ा मुझे देखता रहा।

सीढ़ियों के बाद करीब आठ-दस क़दम का टेरेस था। उसके बाद कमरा दिखाई दिया। उसका दरवाजा खुला हुआ था। अंदर तेज़ लाइट थी। कोई दिख नहीं रहा था। मैंने थोड़ा संकोच के साथ आगे बढ़कर दरवाजे पर नॉक किया तो अंदर से महिला स्वर ‘गूंजा कौन?’ यह शंपा टोक ही थीं। मैंने बाहर ही से कहा शंपा जी मैं समीर। यह सुनते ही उन्होंने कहा ‘अच्छा-अच्छा अंदर आ जाएं।’ शंपा जी ने यह वाक्य थोड़ा भारी स्वर में कहा।

मैंने शूज बाहर ही उतारे और अंदर दाखिल हुआ। कमरा काफी बड़ा था। लेकिन बेहद अस्त-व्यस्त। अलमारियों, टेबल, बेड हर तरफ, किताबें, डायरियां, पेन, राइटिंग पैड, रजिस्टर रखे हुए थे। उस बड़े से कमरे से अटैच बाथरूम, किचेन भी दिख रहे थे। बेड के एक तरफ थोड़ा स्पेश डाइनिंग स्पेश की तरह प्रयोग किया जा रहा था। एक साधारण सी मेज के पास चार कुर्सियां पड़ी हुई थीं।

शंपा जी करीब चालीस के आस-पास रही होंगी। बेड पर ही बैठी थीं। एक चौड़ी टेबिल सामने बेड पर ही उन्होंने रखी थी। दोनों पैर टेबिल के नीचे से आगे फैले हुए थे। वह टेबल पर एक पैड पर कुछ लिख रही थीं। उन्होंने अजीब सा अस्त-व्यस्त सा गाउन पहन रखा था। बाल बड़े थे। जिसे पीछे उठा कर सी पिन लगाया हुआ था। बगल में ही सिगरेट ऐश ट्रे रखी थी जिसमें सिगरेट के टोटे दिख रहे थे।

शंपा जी गोरे रंग की कुछ हेल्दी सी थीं। मुझ पर एक नजर डाल कर कहा ‘अच्छा-अच्छा आप ही हैं समीर। आइए बैठिए।’ उन्होंने स्टडी टेबिल की तरफ पड़ी चेयर की ओर इशारा करते हुए कहा। मैं आज्ञाकारी शिष्य की तरह थैंक्यू कहता हुआ बैठ गया। तभी वह बोलीं ‘अरे दूर बैठने के लिए नहीं कहा। यहां करीब बैठिए तभी बात हो पाएगी।’ उन्होंने अपने दाएं हाथ से सामने एकदम करीब फुट मैट के पास इशारा करते हुए कहा।

उनके इस वाक्य से मैंने शरीर में करेंट का झटका सा महसूस किया। मैं सहमा सा उठा कुर्सी जहां उन्होंने इशारा किया था वहीं खींच कर बैठ गया। एकदम सीधा। बिल्कुल तनकर। तेज़तर्रार स्टूडेंट माना जाने वाला, शोध कार्य में जुटा, भले ही जुगाड़ से मैं शंपा जी के सामने बड़ा असहज हो रहा था। भीतर-भीतर घबरा रहा था। मुझ पर उड़ती सी एक नजर डालकर, वह फिर लिखने लगीं। वह जितना ज़्यादा चुप थीं मैं उतना ही ज़्यादा घबरा रहा था। मन में सोचा आखिर ये इस तरह मुझे बैठा कर क्या अहसास कराना चाहती हैं। करीब पांच मिनट में मेरे पांच करम हो गए। मुझे लगा यह महिला जिस तरह टाइम ले रही है उससे तो यह प्रोफेशनल लगती ही नहीं।

पांच मिनट बाद भी जब शुरू हुईं तो पहले सिगरेट जलाई। मुझे भी ऑफर किया, मैंने मना कर दिया तो लाइटर से अपनी सिगरेट जला कर एक कश लेकर बोलीं। ‘मुझे प्रोफेसर साहब ने बताया है कि आप क्यों आए हैं। काम तो मैं कर दूंगी। लेकिन मैं इसके पहले यह बता दूं कि मैं फीस में कोई रियायत नहीं करती। और पूरी फीस एडवांस लेती हूं। हां काम भी टाइम पर देने की गारंटी तो नहीं लेकिन पूरी कोशिश करती हूं। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि जो टाइम बताया उस टाइम पर काम पूरा ना किया हो।’ इतना कह कर शंपा जी ने सीधे फीस बता दी। जिसे सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए। लेकिन शंपा जी तो पहले ही कह चुकी थीं कि फीस में कोई बार्गेनिंग नहीं होगी। तो मेरा मुंह बंद था।

मैं कुछ देर सोचता रहा कि अगर दो साल और निकल गए तो ना जाने कितने खर्च हो जाएंगे। जितनी जल्दी पूरी हो पी.एच.डी. उतनी जल्दी घर वापस चलूं। दूसरे जिस दुनिया में आजकल विचरण कर रहा हूं उसके चलते तो लगता ही नहीं कि थीसिस कभी पूरी क्या आधी भी कर पाऊंगा। मुझे चुप देख वह बोलीं ‘कोई जल्दबाजी की ज़रूरत नहीं है। आराम से सोच लें। दो-चार दिन बाद बताएं।’

लेकिन मैं जो कैलकुलेशन कर चुका था इस बीच उससे यह निष्कर्ष निकाला कि मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है, तो मैंने तुरंत कहा शंपा जी मेरे पास और टाइम नहीं है। हालांकि यह फीस यदि मैं वाकई घर पर डिपेंड होता तो देने के बारे में सोच ही नहीं सकता था। लेकिन ऐसा नहीं था तो मुझे यह कहते देर नहीं लगी कि मुझे फीस मंजूर है। हां इस बात की गारंटी चाहता हूं कि मेरा काम पूरा हो जाए। थीसिस ऐसी हो कि डिग्री अवॉर्ड होने में कोई प्रॉब्लम ना हो।

मैंने देखा कि मेरी इस बात पर उनके चेहरे पर कुछ तनाव सा आ गया है। लेकिन बात निकल चुकी थी। और साथ ही यह भी कि मैं इतनी लंबी-चौड़ी फीस देने के लिए एग्री होने के बाद इतनी गारंटी लेना जरूरी भी समझता था। मगर उनके जवाब से मुझे निराशा हुई। वह बहुत बेरूखी से बोलीं। ‘क्या प्रोफेसर साहब ने बातें ठीक से नहीं बताईं।’ मैंने पल भर की खामोशी के बाद तुरंत कहा शंपा जी मुझे अकाउंट नंबर बता दें, मैं फीस अभी ट्रांसफर कर देता हूं।

उन्होंने नंबर बताने में देरी नहीं की। दो अकाउंट नंबर बता कर कहा कि फिफ्टी-फिफ्टी पर्सेंट दोनों में कर दूं। मैंने फीस तुरंत ट्रांसफर कर के कहा ठीक है शंपा जी मैं अब कब आऊं? यह कह कर मैं उठा ही था कि उन्होंने हाथ से बैठने का इशारा करते हुए कहा ‘बैठिए। अभी आप से कुछ बातें भी करनी हैं।’ इस सेंटेंस से मुझे एक बार फिर करेंट लगा। फीस, काम से लेकर समय तक सबकी बात हो चुकी थी। पेमेंट भी कर चुका था। वह भी हंडेªड परसेंट। उनके मोबाइल में पैसा ट्रांसफर होने का मैसेज भी आ गया था। तो अब क्या चाहती हैं।

मेरा मन अंड-बंड बातों की तरफ एकदम चला गया। वह उठीं वॉशरूम की तरफ चलीं गईं। मैं बैठा रहा। सामने टीवी पर एक मूवी ‘300’ चल रही थी। लीना हेडी और गेरार्ड बटलर की यह अद्भुत फिल्म 2007 में ही आई थी। यह प्राचीन राजा लियोनाइडस और उनके 300 जांबाज सैनिकों की विशाल पर्शियन आर्मी के साथ दिल दहला देने वाले युद्ध की कहानी पर बनी है।

युद्ध सहित हर दृश्य इतने स्वाभाविक फ़िल्माए गए हैं कि देखते वक्त पलक ना झपके। निर्देशक जै़क स्नाइडर ने अपनी पूरी प्रतिभा उडे़ल दी है। मैं जब वहां पहुंचा था यह मूवी तब पहले से ही चल रही थी। मैंने यह फ़िल्म दोस्तों के साथ कई बार देखी थी। लीना हेडी के दो इंटीमेट शीन ऐसे थे खासतौर से बटलर के साथ कि उन्हें कम से कम परिवार के साथ नहीं देखा जा सकता था।

उधर शंपा जी वॉशरूम का दरवाजा खोल रही थीं। इधर वही शीन बस शुरू होने जा रहा था। मैंने सोचा शंपा जी आकर बंद कर देंगी या डीवीडी फॉरवर्ड कर देंगी। मगर उम्मीद के एकदम विपरीत वह पूर्ववत अपने स्थान पर बैठ गईं। नई सिगरेट जलाई और धीरे-धीरे कश लेते हुए ध्यान से मूवी देखने लगीं। शीन जैसे-जैसे अपने चरम पर पहुंचता जा रहा था कामुक आवाजें वैसे-वैसे बढ़ती जा रही थीं और वैसे-वैसे मेरी असहजता भी बढ़ती जा रही थी। इसी बीच शंपा जी ने नजर टीवी पर जमाए हुए ही पूछा ‘आप स्मोकिंग करते नहीं या इस समय नहीं करना चाह रहे।’

इस अनपेक्षित प्रश्न से मैं चौंका। लेकिन संभलते हुए कहा स्मोकिंग करता हूं। ‘तो लीजिए। इतना हेजीटेशन क्यों?’ इतना कह कर डिब्बी, लाइटर मेरी तरफ बढ़ा दी। मैंने भी एक सिगरेट जला कर पहला कश लिया और इसी बीच शीन खत्म हो गया। साथ ही शंपा जी का एक शब्द गूंजा ‘मार्वलस’ मुझे बड़ी राहत मिली। लेकिन शंपा जी ने फिर परेशान कर दिया यह पूछ कर कि क्या मैं फ़िल्में देखता हूं। मैं किसी भी तरह से वहां और नहीं रुकना चाहता था तो तुरंत सफेद झूठ बोल दिया कि मुझे फिल्में पसंद नहीं।

शंपा जी ने स्क्रीन से नजर हटाए बिना कहा ‘जिस टॉपिक पर आप रिसर्च कर रहे हैं मैं उस बारे में कुछ बातें करना चाहती हूं।’ फिर मेरी प्रतिक्रिया जाने बिना ही उन्होंने बातें शुरू कर दीं। वह बातें क्या एक से बढ़ कर एक जटिल प्रश्न थे। उनके हर दस में से आठ प्रश्न के उत्तर मेरे पास नहीं थे। उस वाटर कूल्ड कमरे में मैं पसीना-पसीना हुआ जा रहा था। उसी समय मैं सही मायने में समझ पाया कि मेरी पढ़ाई की डेप्थ क्या है?

शंपा जी के सामने मैं कहीं नहीं ठहरता था। उन्होंने बीस मिनट में ही मुझे निचोड़ डाला है, यह अहसास कर के ही मेरा मन घबड़ा उठा था कि गिगोलो वर्ल्ड ने कैसे मेरी पढ़ाई-लिखाई को तहस-नहस कर दिया है। जिस विषय पर मैं डॉक्टरेट की डिग्री के लिए लालायित हूं कि मिल जाए तो कॅरियर राह पर ले आऊं उस विषय में मुझे दस में दो नंबर मिल रहे हैं। मेरी इस दयनीय हालत से शंपा भी खीझ उठी थीं तो उन्होंने बात समाप्त करते हुए कहा ‘ठीक है, ज़रूरत होगी तो मैं कॉल करूंगी।’

मैं उठा जल्दी से थैंक्यू बोल कर बाहर आ गया। वह पूरी रात मेरी जागते हुए बीती। बार-बार शंपा जी के एक-एक प्रश्न मेरे दिमाग को मथे जा रहे थे। बार-बार यह बात मन में आ रही थी कि शंपा जी इन प्रश्नों के जरिए मेरी पढ़ाई का स्तर जांच रही थीं, और जो स्तर पाया क्या वैसी ही गडमड सी कोई थीसिस लिख कर थमा देंगी। और प्रोफेसर साहब बस किसी तरह डिग्री दिलवा देंगे। और किसी तरह मैंने जॉब भी जुगाड़ ली तो क्लास में छात्रों को क्या पढ़ाऊंगा?

इन बातों के अलावा एक और बात से भी मन बहुत परेशान हो रहा था। शंपा जी को लेकर मन में तमाम दुषित भावनाएं बार-बार सिर उठा रहीं थीं। जब उनके पास था तभी से। मैं हर कोशिश करके बार-बार हार जा रहा था। मुझे बार-बार वह मुझ जैसे की सर्विस हायर करने वाली महिलाओं में से एक नजर आ रही थीं। और हर बार उन्हें मैं अपने साथ अलग-अलग स्थितियों में पाता जिन स्थितियों में येे महिलाएं मुझे ले जाती थीं।

पहली बार मुझे यह सब ना जाने क्यों अटपटा, अनैतिक और घिनौना लगने लगा। मगर दिमाग में जहां यह था, वहीं मन में दूसरा पक्ष भी चल रहा था कि उन्हीं महिलाओं की तरह यह भी ऐश करें। एक बात यह भी कि इनसे पैसे की जरूरत नहीं। बस यह अपनी सहमति दे दें। मन में कहीं पॉप कॉर्न से भी फूटते कि यह तो मेरे हाथ में है। उनकी बातचीत, बॉडी लैंग्वेज, काम यह सब तो शुरू से ही आमंत्रित कर रहे हैं। मैं ही अफनाया हुआ भाग आया।

इस तरह सोचते-विचारते मैंने आखिर तय कर लिया कि यहां मैं ट्राई करूंगा। बाकी तो मुझे खरीदती हैं। अपनी सेक्सुअल डिजायर, अपनी सेक्सुअल फैंटेसी के लिए एक गुलाम खरीदती हैं। और गुलाम की कोई इच्छा नहीं होती। उसकी एक ही और आखिरी हैसियत होती है कि वह सिर्फ़ और सिर्फ़ गुलाम है। लेकिन मैं यहां गुलाम नहीं बनूंगा।

यहां बराबर की हैसियत होगी। कोई किसी को पैसे के दम पर नहीं खरीदेगा। ना ही इश्क-विश्क का कोई चक्कर होगा। बस एक चीज़ होगी। परस्पर सहमति। इसके सिवा कुछ नहीं। और मैं सूत्र ढूंढ़ने लगा। बिना बुलाए वहां जाने की हिम्मत नहीं थी। कई दिन सोच-विचार में निकालने के बाद मैं प्रो़फेसर साहब को लेकर फिर पहले की तरह डिनर पर गया। उनसे जब शंपा जी की बात छेड़ी तो मेरी तरफ कुछ क्षण गौर से देखने के बाद बोले। ‘अपनी थीसिस पर ध्यान दो।’ लेकिन मैं चुप नहीं हुआ।

प्रोफ़े़सर साहब से इतना मिक्सप हो चुका था कि दोस्तों सा रिश्ता बन गया था। मैं जानने के लिए पीछे पड़ गया तो बोले ‘समीर दुनिया में तरह-तरह के लोग हैं। तुम शंपा जी के बारे में क्या सोचते हो। उससे क्या चाहते हो मैं नहीं जानता। सच यह है कि शंपा के बारे में मैं स्वयं बहुत कम जानता हूं। हालांकि पिछले दस वर्षों से हम एक दूसरे को जानते हैं। उसने कभी किसी को इतनी लिफ्ट नहीं दी कि कोई उससे उसके बारे में ज़्यादा जान समझ सके, बात कर सके। मैं सिर्फ़ इतना जानता हूं कि वह असाधारण मेधा वाली औरत है।’ ‘औरत!’ मैं चौंका। मैं उन्हें अनमैरिड ही समझता था।

‘हां। तुम्हारी तरह मैं भी उन्हें काफी समय तक अनमैरिड ही समझता था। दरअसल ये उड़ीसा के एक बेहद पिछड़े इलाके के किसी गांव की रहने वाली हैं। गरीब परिवार की हैं। गांव में कोई साधन नहीं था तो इनका परिवार भुवनेश्वर आ गया। वहीं मां-बाप मजदूरी किया करते थे। बच्चे पढ़ाने की धुन में स्कूल भेजा। वहां शंपा की प्रतिभा से सभी चकित थे। फीस, ड्रेस, किताबों की दिक्कत के चलते शंपा अपनी बड़ी बहन के साथ घरों में चौका-बर्तन भी करने लगी।

वहीं किसी नौकर से इसका परिचय हुआ। वह भी पढ़ने में तेज़ था। दोनों की हालत एक सी थी। तो खूब पटने लगी। दोनों अपने प्रयासों से ग्रेजुएशन में पहुंच गए। यहीं से दोनों का जीवन दूसरे ट्रैक पर चल पड़ा। दोनों दिल्ली भाग आए कि यहां काम भी करेंगे। पढेंगे भी। और एक दिन अपना मुकाम बनाएंगे। इन्होंने शुरुआत भी अच्छी की। लेकिन जब कठिनाइयों से सामना हुआ तो इसके आदमी की पढ़ाई छूट गई। मगर दोनों का सपना टूटा नहीं।

आदमी बीवी को जी जान से पढ़ाई में आगे बढ़ाता रहा। दो बार वह आई.पी.एस. मेन में सेलेक्ट हुई। लेकिन इंटरव्यू में फेल हो गई। इसकी वजह यह थी कि तैयारी के लिए उसे जिन संसाधनों की ज़रूरत थी वह उसके पास नहीं थे। उसकी इस असफलता से उसके आदमी की छटपटाहट और बढ़ गई। इस छटपटाहट में वह गलत रास्ते पर चला गया। फिर एक दिन गायब हुआ तो लौटा ही नहीं।

शंपा ने बहुत कोशिश की। पुलिस वगैरह हर जगह। मगर अमूमन इन मामलों में जो होता है वही हुआ। रिजल्ट जीरो रहा। आदमी को ढूढ़ने के चक्कर में इनकी पढ़ाई बुरी तरह डिस्टर्ब हुई। इतना ही नहीं इस बीच यह दो लोगों के सेक्सुअल हैरेसमेंट का शिकार हो गईं। इसने रिपोर्ट लिखानी चाही वह भी नहीं लिखी गई। इसकी अनवरत कोशिश के बाद जब लिखी भी गई, तो अज्ञात लोगों के खिलाफ। कुछ सफेदपोश लोगों के चलते ऐसा हुआ।

चहुँ तरफ पड़ती मार और आर्थिक तंगी ने इसे तोड़ कर रख दिया। हालत यह हुई कि इसने फिर कई महिने चौका-बर्तन किया। झुग्गी-झोपड़ी में रही। उसी समय एक जगह जहां बर्तन मांजती थी उस परिवार ने जब इसकी काबिलियत के बारे में जाना तो इसे झुग्गी से निकाल कर अपने यहां रख लिया। उन्हीं लोगों ने किसी कंपनी में नौकरी दिलाई। वहां से टीचिंग जॉब में आ गई। वहीं से लिखने-पढ़ने की तरफ यह फिर बढ़ी। मगर पहले जैसी बात नहीं आई।

वह अध्ययनशील हैं तो जानकारियां बढ़ती रहीं। उसी परिवार के बच्चों का कार्य करते-करते उनके बच्चों के दोस्तों का भी कार्य करने लगी। यहीं किसी की थीसिस लिख डाली। बस यहीं से थीसिस वगैरह लिखने के काम में आ गई। पहले तो थोडे़ बहुत पैसे लेती थीं लेकिन जब मार्केट बन गई तो डिमांड बढ़ गई। ऐसा नहीं कि यह कोई रिसर्च वगैरह करती हैं तब लिखती हैं। उसके पास कैसे थीसिस लिखी जाए इसकी जबरदस्त समझ है।

पांच थीसिस से छठी थीसिस वह चुटकियों में बना देती हैं। लेकिन पढ़ने में वह मौलिक ही लगेगी। कोई विशेषज्ञ ही बता पाएगा कि यह कटपेस्ट है। इसके अलावा पेपर, मैगज़ीन में भी लिखने लगीं। वहां दूसरे नाम से लिखती हैं। इसी तरह यह आगे बढ़ती गईं। आज अच्छी-खासी रकम कमाती हैं। लेकिन मैं इसे उसकी बर्बादी मानता हूं। उसकी सक्सेज़ नहीं।

वह जितनी ब्रिलिएंट हैं उसे देखते हुए यह उसका स्थान नहीं है। एक्चुअली उसने पति की खोज, और रेप के खिलाफ अपनी लड़ाई जीतने के चक्कर में छः साल गवां दिए। नहीं तो वह सिविल सर्विस ना सही कम से कम कोई और अच्छी नौकरी पा सकती थीं। उन दो घटनाओं ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। ना कॅरियर बना सकी। ना अपने साथ हुए अत्याचार का न्याय ले पाई। जहां तक मैं समझ पाया हूं तो वह अपनी ज़िंदगी बस काट रही हैं। जिए जा रही हैं। चिड़चिड़ी इतनी हैं कि जरा सी बात पर कितना बड़ा तमाशा कर दें कोई ठिकाना नहीं। अच्छी फ्रीलांसर राइटर के चलते थोड़ी बहुत पहुंच भी बना रखी है। इसलिए यदि तुमने कुछ सोच रखा है तो भूल जाओ, सिर्फ़ थीसिस याद रखो।’

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