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मेरी जनहित याचिका - 1

मेरी जनहित याचिका

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 1

आम की बाग को आखिरी बार देखने पूरा परिवार गया था। मेरा वहां जाने का मन बिल्कुल नहीं था। मां-पिता जिन्हें हम पापा-अम्मा कहते थे, की जिद थी तो चला गया। पापा ने अम्मा की अनिच्छा के बावजूद बाग को बेचने का निर्णय ले लिया था। बाग यूं तो फसल के समय हर साल बिकती थी। और फसल यानी आम की फसल पूरी होने पर खरीददार सारे आम तोड़कर चलता बनता था। और पापा अगली फसल की तैयारी के लिए फिर कोशिश में लग जाते थे।

लेकिन बाग की देखभाल, फिर फसल को बेचने के प्रयासों, हर साल आम के बौर या पेड़ में लगने वाले रोगों से बचाव का इंतजाम कर-कर के चार साल में ही वह थक गए थे। इसलिए पूरी बाग अपने ही पट्टीदार को बेच डालने का निर्णय कर लिया। उनका कहना था नौकरी करते हुए आम का व्यवसाय करना संभव नहीं है। वैसे भी आम के व्यवसाय की हालत को देखते हुए एक बीघे की बाग का कोई ख़ास महत्व नहीं है। हां एक समय था जब छः बीघे की बाग थी। लखनऊ से सटे मलिहाबाद में छः बीघे की बाग को अच्छी-खासी बाग माना जाता है। और बाबा की देखरेख में तीन चाचा मिलकर आम के व्यवसाय को चमकाए हुए थे।

पापा चौथे नंबर पर थे। लखनऊ में नौकरी के चलते उनके पास समय नहीं रहता था। दूसरे खेती-बाड़ी, बाग-बगीचा में उनका मन नहीं लगता था। जब तक बाबा थे सब सही चलता रहा। लेकिन उनके स्वर्गवास के साथ ही सब एकदम बदल गया। सारे भाई यूं तो अपने-अपने परिवार के साथ पहले से ही अलग-अलग रहते थे। गांव में बाबा और सबसे छोटे वाला चाचा ही रहते थे। लेकिन बाबा के गुजरते ही खेत, बाग, मकान सब चुटकी में बंट गए। बंटवारे के समय थोड़ा विवाद हुआ जिससे भाइयों के रिश्ते में खटास आ गई। जितने भाई बाहर रह रहे थे उन सबने अपने-अपने हिस्से की सारी जायदाद आनन-फानन में बेच डाली।

किसी ने पैसा जमा करने में लगाया तो किसी ने मकान में तो किसी ने गाड़ी खरीदने में। पापा ने भी खेत,मकान का पैसा लेकर लखनऊ के मकान में ऊपर एक फ्लोर और बनवा दिया। कुछ जमा कर दिया। बाग से मिलने वाले पैसों को मेरी बहनों की शादी को और बढ़िया करने में लगाना तय किया। खरीददार से पैसा लेने के बाद वह चाहते थे कि जो बाग बरसों-बरस से उनके बुजुर्गों की थी। फिर उन्हें मिली। जिसमें खेलते-कूदते उनका बचपन बीता, अब उसे सब आखिरी बार देख लें। क्यों कि अगले दिन रजिस्ट्री पर हस्ताक्षर के साथ ही बाग बिक जाएगी। मालिक बदल जाएगा। फिर उस तरफ देखने का भी कोई मतलब, कोई अधिकार नहीं होगा। उस समय पापा का व्यवहार कुछ ऐसा था, जैसे वो बाग नहीं बेच रहे बल्कि परिवार के किसी सदस्य को कहीं दूर यात्रा पर बहुत दिन के लिए बिदा करने जा रहे हैं।

बाग में पहुंच कर वे सारे लोगों को लेकर एक-एक पेड़ के पास पहुंचे, उन्हें छू-छू कर देखा। मानो उनके स्पर्श के अहसास को स्वयं में हमेशा के लिए समा लेना चाहते हों। हर पेड़ के साथ उनकी कई-कई यादें जुड़ी हुई थीं। जिसे वह बताते चल रहे थे। जैसे कोई गाइड टुरिस्ट को बताता है। एक पेड़ के साथ तो वह चिपट से गए। उस पेड़ का एक मोटा तना नीचे-नीचे बहुत दूर तक निकल गया था। पापा बताने लगे कि बचपन में एक बार वो अपने कुछ साथियों के साथ खेल रहे थे। खेल-खेल में गांव के एक बिगड़ैल सांड़ को छेड़ दिया। वह सांड़ इन लोगों को मारने एकदम से पलटा और दौड़ा लिया। सब जान बचा कर भागे।

मगर वह पीछे ही पड़ गया। पापा जान बचाने के लिए इसी मोटे तने पर चढ़ गए। कई और दोस्त भी चढ़ कर अपनी जान बचाने में सफल रहे। लेकिन एक साथी जो काफी भारी बदन का था, वह सांड़ से बच नहीं पाया। उसकी उसी पेड़ के नीचे दर्दनाक मौत हो गई थी। उसकी मौत से उसकी मां इतनी आहत हुई थी कि अपना मानसिक संतुलन खो बैठी। और साल भर बाद ही एक कुंए में कूदकर मर गई। अपनी यह याद बताते-बताते पापा भावुक हो उठे थे। उन्होंने उस पेड़ की एक टहनी तोड़ कर अपने साथ रख ली। उसमें कई पत्तियां भी लगी थीं। उनकी इस हालत पर मां ने बच्चों के ही सामने कहा ‘जब इतना लगाव है बाग से, तो पैसा वापस कर दो, मत बेचो।’ लेकिन पापा ने उनकी बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। और दूसरी बातें करते रहे।

उस दिन बाग में ही खाना-पीना हुआ, एक तरह से पूरा दिन वहीं पिकनिक मनाई गई, और सांझ ढले गोमती नगर, लखनऊ में अपने घर वापस आ गए। उस दिन पापा ने हर पेड़ के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाई थी। हम भाई-बहनों ने मोबाइल से स्टिल फोटोग्राफी की और वीडियो भी बनाए। जिसे मैंने यू-ट्यूब पर ‘बाग में भावुकता से भरी एक पिकनिक’ नाम से अपलोड कर दिया था, जिसे बहुत लोगों ने पसंद भी किया। वापसी में उनकी भावुकता को ध्यान में रखते हुए गाड़ी बड़े भाइयों ने चलाई। पापा को आराम से बैठने के लिए कहा गया। उस दिन पापा रात भर ठीक से सोए नहीं। बड़े बेचैन रहे। रात में कई बार उठ-उठ कर बैठते रहे।

अगले दिन रजिस्ट्री ऑफ़िस में जब बाग बेचने की प्रक्रिया पूरी करके आए तो उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे सर्वोच्च न्यायालय में वह अपनी किसी संतान के जीवन से जुड़ा मुकदमा हार आए हैं। घर में मां-बच्चों सबने माहौल को हल्का बनाने का पूरा प्रयास किया। मां को कई बार यह भुनभुनाते हुए सुना गया कि ‘अजीब आदमी हैं। समझ में नहीं आता क्या चाहते हैं? जल्दी से जल्दी बेचने के लिए रात-दिन एक किए हुए थे। जब बिक गई तो ऐसा मुंह लटकाएं हैं जैसे ना जाने क्या कुछ लुट गया है।’ पापा कई महीनों तक ऐसे ही उखड़े-उखड़े रहते थे। फिर घर में सबके दबाव में आकर उन्होंने पुरानी कार बेच कर एक नई कार ली। दोनों बड़े भाइयों के पास बाइक थी। मेरे पास नहीं थी। तो मुझे भी एक बाइक ले दी। हालांकि वह मेरा पसंदीदा मॉडल नहीं थी। मेरा मनचाहा मॉडल बहुत महंगा था।

देखते-देखते बाग को बिके साल भर बीत गए। और पापा का अब सारा जोर बहनों की शादी जल्दी से जल्दी कर देने पर केंद्रित हो गया। उनकी अफनाहट देख कर अम्मा कहती ‘अभी कौन सी उमर निकल गई है जो इतना ज़्यादा परेशान हुए जा रहे हो। अभी पढ़ाई भी तो पूरी नहीं हुई है। हम तो चाह रहे थे कि पहले सुबीर की शादी कर दी जाए। घर में एक बहू आ जाए तो अच्छा रहेगा।’ मां बड़े भइया की शादी के लिए कहतीं। बल्कि उनकी तो इच्छा यह थी कि पहले और दूसरे भइया अभिनव की शादी पहले हो फिर लड़की की। क्यों कि दो बड़े भाइयों के रहते वह उनसे छोटी लड़की की शादी के पक्ष में नहीं थीं। वह यह तर्क भी देतीं कि ‘अभी वह बीस की भी पूरी नहीं हुई है। आज के जमाने में लड़कियों की शादी इतनी जल्दी कहां हो रही है? फिर लड़की पढ़ने में तेज़ है। ऐसे में उसे इतनी जल्दी घर-गृहस्थी के चक्कर में डाल देना उसकी पढ़ाई चौपट कर देना है।’ लेकिन पापा पर अम्मा के किसी तर्क का कोई असर नहीं होता था। हां अम्मा की बातों से यह बात भी उभर कर सामने आई कि लड़कों की शादी पर उनका इतना जोर देने के पीछे एक और भी मुख्य कारण था।

ताऊ जी ने अपने तीनों लड़कों की शादी कर दी थी। सौभाग्य से आज के माहौल को देखते हुए उनकी तीनों बहुएं ना सिर्फ़ काफी पढ़ी-लिखी थीं। बल्कि अपने काम व्यवहार से घर को खुशियों से भर दिया था। ताऊ जी, ताई जी अपनी बहुओं की तारीफ करते नहीं थकती थीं। दोनों लोग आए दिन कहीं ना कहीं घूमने-फिरने निकलते रहते थे। जो भी मिलता, वह जब तक रहता, तब तक उसके सामने उनका तारीफ पुराण चलता रहता। उनकी इन्हीं सब बातों का भूत अम्मा पर भी सवार था कि जल्दी से जल्दी दो बहुएं तो घर में आ ही जाएं। मगर पापा की इन बातों के सामने वह निरुत्तर हो जातीं। जब वह कहते कि ‘देखो अब मेरे रिटायरमेंट के कुछ ही बरस बचे हैं। मैं रिटायरमेंट से पहले लड़कियों की शादी हर हालत में कर देना चाहता हूं।

लड़कों से पहले इसलिए करना जरूरी समझता हूं कि बहुओं के आने के बाद घर में माहौल ऐसा बन जाता है कि लड़कियां उपेक्षित पड़ जाती हैं। लड़के अपने परिवार में व्यस्त हो जाते हैं। मां-बाप की ताकत बुढ़ौती के चलते कम हो जाती है। फिर लड़कियों के लिए शादी ढूढ़ना, करना ऐसा दुष्कर्य कार्य बन जाता है कि सारा काम पिछड़ने लगता है। बिगड़ने लगता है। लड़कियां घर बैठी रह जाती हैं। अभी जो लड़के जब कहता हूं साथ चले चलते हैं हर जगह, उन्हीं के पास तब इस काम के लिए समय नहीं होगा। और ना ही इच्छाशक्ति। आज जो लड़के अपनी बहनों के लिए अच्छी से अच्छी शादी के लिए तत्पर्य हैं वही अपनी बीवियों के सामने चाह कर भी नहीं कर पाएंगे। और मैं अपनी बेटियों के लिए यह बिल्कुल नहीं चाहूंगा। फिर बेटों की शादी का क्या, जब चाहेंगे तब हो जाएगी। लड़कों की शादी के लिए तो ऐसी कोई समस्या होती नहीं।’

अम्मा उनकी बातों के आगे चुप रह जातीं। और फिर पापा ने अपनी इच्छानुसार रात-दिन एक कर चार साल के अंदर दोनों लड़कियों की शादी कर दी। सौभाग्य से दोनों बहनों की शादी अच्छे घरों में हुई। दोनों ही बहनोई अच्छी नौकरी कर रहे थे और बड़ी बात कि सज्जन भी थे। उनके दोनों दामाद उनकी उम्मीदों से कहीं ज्यादा अच्छे निकले। इस बीच दोनों बड़े भाइयों का व्यवसाय भी खूब चल निकला। दोनों भाइयों ने पढ़ाई की तरफ कभी विशेष ध्यान नहीं दिया तो इसी को देखते हुए पापा ने जल्दी ही दोनों को बिज़नेस करवा दिया था।

दोनों ही लोगों का रूझान भी बिज़नेस ही की तरफ था। तो मन का काम मिलते ही दोनों भाई जीजान से जुट गए। और सफल हुए। मेरा मन पढ़ाई की तरफ था तो मैं पढ़ता रहा। बहनों की शादी के बाद अम्मा की भी इच्छा पूरी हो गई। दोनों बेटों की शादी हो गई। कहां तो पापा लड़कियों की शादी रिटायरमेंट से पहले करने की कोशिश में थे। लेकिन अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के चलते वह इससे आगे निकल गए। रिटायरमेंट से छः महीने पहले दो लड़कों की भी शादी कर डाली।

अपनी दोनों बहुओं से अम्मा-पापा बहुत तो नहीं हां कुल मिलाकर खुश रहते थे। हां शुरुआती चार-छः महिने जरूर बहुत खुश रहे। मगर जल्दी ही बात बदल गई। दूसरी बहू के आने के बाद यह कुछ ज़्यादा ही तेज़ी से बदली। फिर वह समय भी जल्दी आ गया कि घर में आए दिन चिक-चिक होने लगी। दोनों भाभियों के होने के बावजूद हर हफ्ते कई अवसर ऐसे आने लगे कि पापा-अम्मा और खुद मुझे अपने लिए भी चाय-नाश्ता बनाने की नौबत आ गई। हमेशा खुश रहने वाले अम्मा-पापा और खुद मैं अब शांत रहने लगे। बड़ी भाभी के दोनों बेटे जो पांच-छः साल के थे, उनके खेलकूद के चलते हम तीनों का मन थोड़ा बहल जाता। छोटी भाभी अपने करीब दो वर्षीय बेटे को घर के किसी सदस्य तक पहुंचने ही नहीं देतीं।

मेरी पढ़ाई डिस्टर्ब ना हो इसके लिए मैं पूरी कोशिश करता। पापा-अम्मा की तबियत अब इन्हीं चिंताओं के कारण खराब रहने लगी। फिर एक दिन मैं कॉलेज से लौटा तो देखा अम्मा-पापा सुबह से कुछ खाए-पिए बिना बैठे हुए हैं। नाश्ता के नाम पर कुछ बिस्कुट और पानी पिया था। जाने क्या हुआ कि उस दिन दोनों भाभियों ने किचन की ओर रुख ही नहीं किया। अपने लिए वो लोग होटल से कुछ मंगा चुकी थीं। यह जान कर मुझे बहुत गुस्सा आया। मैं बात कुछ आगे बढ़ाता कि अम्मा-पापा दोनों ने मुझे रोक दिया। मैं नहीं मान रहा था तो अम्मा ने अपनी कसम दे दी।

मैंने देखा उनकी आंखें भरी हुई थीं। होंठ फड़क रहे थे। पापा की तरफ देखा तो करीब-करीब यही हाल उनका भी था। उन दोनों को इतना परेशान मैंने कभी नहीं देखा था। मैंने जब पूछा क्या हुआ? तो दोनों कुछ नहीं, कुछ नहीं करते रहे। मगर अम्मा का गला लाख कोशिशों के बाद भी रूंध गया तो मैं अड़ गया। तब अम्मा ने बताया कि क्या हुआ। जिसे सुन कर मेरा खून खौल उठा। बात सिर्फ़ उसी दिन की नहीं थी। पिछले कई महिनों से ये चल रहा था। दोनों भाभियां पापा से बैंक में जमा सारा पैसा आधा-आधा मांग रही थीं। कह रही थीं कि ‘बिज़़नेस को ठीक से और आगे बढ़ाने के लिए पैसे दीजिए। क्या करेंगे रख कर? आखिर हमारा भी कोई हक है। रात-दिन काम करते हैं। क्या हमें नौकरानी बना कर लाए हैं?’

पापा ने जब कहा कि ‘पैसा समीर की पढ़ाई, शादी के लिए है। तुम सबके लिए जो करना था वह सब कर ही चुका हूं। दोनों को पहले ही कितना पैसा लगा कर बिजनेस करवाया है। बिज़नेस अच्छा चल भी रहा है। अब जो भी है यह छोटे के लिए है। आखिर उसके लिए भी तो कुछ करेंगे। वह बिज़नेस की जगह पढ़-लिख कर नौकरी करना चाहता है।’ लेकिन दोनों भाभियां नहीं मानीं। एक ही रट लगाए रहीं कि ‘पढ़ाई तो आप पेंशन से ही करा लेंगे। वह पढ़ने में तेज़ हैं, नौकरी भी ले ही लेंगे।’ लेकिन पापा ने मना कर दिया। पापा ने आखिर दोनों भाइयों से पूछा। ‘ये क्या हो रहा है? तुम दोनों क्या घर की हालत नहीं जानते।’

इस पर भाइयों ने कहा कि ‘उन्हें तो यह सब पता ही नहीं है। उन्होंने कभी एक पैसा मांगने की छोड़िए ऐसा सोचा भी नहीं।’ फिर दोनों ने अपनी-अपनी बीवियों को बहुत डांटा। कुछ दिन शांत रहने के बाद दोनों फिर पुराने ढर्रे पर लौट आईं। भाइयों के जाते ही अम्मा-पापा को प्रताड़ित करने लगीं। घर में कोई झगड़ा ना हो यह सोच कर अम्मा-पापा भाइयों तक बात पहुंचने ना देते। इससे उनकी हिम्मत और बढ़ गई। लेकिन घर की बात घर के ही लोगों से कब तक छिपाई जा सकती थी। भाइयों को फिर पता चला तो वह बिगड़ गए। छोटे भाई ने बीवी से यहां तक कह दिया कि ‘बदतमीज़ी बर्दाश्त नहीं करूंगा। ज़्यादा बदतमीजी की तो मायके भेज दूंगा।’ फिर मियां-बीवी में ही रोज झगड़ा होने लगा।

अम्मा-पापा बहुओं के हाथ-पैर तक जोड़ने लगे कि ‘आखिर क्यों कलह कर रही हो? सारी प्रॉपर्टी है तो तुम्हीं लोगों की। हम लोग हैं ही कितने दिनों के मेहमान?’ दोनों को शांत करने के लिए पापा ने कुछ रुपए निकाल कर दे भी दिए। लेकिन उनकी यह कोशिश ढाक के तीन पात साबित हुई। बहुएं अब और बढ़-चढ़ कर उत्पात करने लगीं। सारी बात भाइयों तक पहुंच नहीं पा रही थी।

पापा-अम्मा बहुओं के हाथ-पैर जोड़-जोड़ कर मनाते, समझाते कि घर में कलह ना करो। इन सब वजहों से दोनों बहुत परेशान थे। अम्मा ने अपनी कसम देकर मुझे भी चुप करा दिया था। उस दिन मैंने अम्मा के लाख मना करने पर भी खिचड़ी बनाई। उन दोनों के साथ खाने बैठा। पहले कभी किचेन का रुख नहीं किया था। उस दिन पहली बार खिचड़ी बनाई तो नमक डालना भूल गया। और जल अलग गई थी।

पहले घर में इस तरह का खाना हमने क्या किसी ने नहीं खाया था। मगर किसी तरह हम तीनों ने भूख मिटाने की कोशिश की। हम तीनों ही उस खिचड़ी को ठीक से खा नहीं सके। अम्मा की तबियत ऐसी थी कि अगले कई दिनों तक वह किचेन में जाने लायक नहीं थीं। तो उस दिन अम्मा से पूछ-पूछ कर रात का खाना भी मैंने बनाया। भाई दुकाने बंद कर के देर रात लौटते थे। और खाना अपने ही कमरे में खाते थे। तो उन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं चला। यह क्रम कई दिन चलता रहा।

इससे घर में शांति आ गई। मैंने सोचा अगर खाना-पीना अलग करने से शांति बनी रह सकती है तो क्यों ना सब अलग-अलग हो जाएं। रोज-रोज की चख-चख तो खत्म हो जाए। आखिर भाइयों से कितने दिन यह बात छिपेगी। मैंने सोचा चलो किसी दिन भाइयों से बात करके अलग कर लेंगे। सही अवसर की प्रतीक्षा में आठ-दस दिन निकल गए। इस बीच शांति बनी रही तो मैंने सोचा शायद भाभियों को अपनी गलती का अहसास हो गया है। तो मैं थोड़ा लापरवाह हो गया।

इस बीच मैं दोनों टाइम खाना बना लिया करता था। मगर अम्मा-पापा की खुशी नहीं लौटा पा रहा था। वे अपने पोतों को गोद में लेने, खिलाने के लिए तरस रहे थे। उन्हें अपनी मांओं के साथ सामने से निकल कर जाता देख उनकी आंखें भर-भर आतीं। बच्चे भी अपने दादा, दादी, चाचा के पास आने को व्याकुल रहते लेकिन मांओं की सख्ती के आगे वे भी विवश थे।

क्योंकि उनकी मां उन्हें बाबा दादी की तरफ बढ़ता देख कर बेतरह डांटतीं, पीट भी देतीं। जानबूझ कर ऐसी जली-कटी बातें कहतीं कि पत्थर का कलेजा भी फट जाए। मेरे सामने तो जानबूझ कर कहतीं कि बात बढ़े। बवाल हो। लेकिन मैं अम्मा-पापा की तबियत, और मां की कसम के आगे विवश हो चुप रहता। भाभियों को इससे भी चैन ना मिला।

करीब तीन हफ्ते की शांति के बाद जब एक दिन मैं नहीं था तो भाभियों ने पापा-अम्मा से फिर झगड़ा किया। इस बार सिर्फ़ पैसा ही नहीं गहने भी निकाल कर देने को कहा। अम्मा ने मना कर दिया तो अंड-बंड बातें कीं। धक्का-मुक्की भी। जिससे अम्मा गिर कर बेहोश हो गईं । उन्हें बेहोश देख पापा ने मुझे फ़ोन किया ‘तुरंत आओ तुम्हारी मां की तबियत ज़्यादा खराब है।’ यह नहीं बताया क्यों।

घर पहुंचा तो वहां कई पड़ोसियों को देख कर सहम गया। अम्मा बेड पर आंखें बंद किए हुए पड़ी थीं। पापा सोफे पर भरी-भरी आंखें लिए रुआंसे से बैठे थे। मैंने पूछा तो बोले ‘अब सब ठीक है।’ कुछ क्षण चुप रहने के बाद फिर कहा ‘बेटा कहीं और छोटा-मोटा मकान किराए पर ले लो। वहीं रहेंगे। अब यहां ठिकाना नहीं।’ और फिर लाख कोशिशों के बावजूद वह फफ़क कर रो पड़े। उन्हें रोता देख मेरा खून खौल उठा। मैंने जिद पकड़ ली कि बताइए क्या हुआ? आज मैं कसम-वसम कुछ नहीं मानूंगा।

रोज-रोज झगड़े से अच्छा है एक दिन निर्णय हो जाए। तभी पड़ोस की आंटी बोलीं ‘बेटा पहले मां-बाप की ज़िंदगी देखो। फिर जो करना हो शांति से मिल बैठ कर बात कर लो सारे भाई। नहीं ऐसे तो किसी दिन कोई अनर्थ हो जाएगा। बूढ़ा-बूढ़ी की जान चली जाएगी।’ फिर जो बातें मालूम हुईं उससे मैं अपना आपा खो बैठा। भाइयों को तुरंत फ़ोन कर बुलाया।

दोनों भाइयों को जब अपनी बीवियों की करतूतें पता चलीं तो उनकी आँखें आश्चर्य से फटी रह गईं। दोनों ने अपनी बीवियों को खूब डांटा। पीट भी दिया। बड़ी तो शांत हो गई पति के रौद्र रूप को देख कर लेकिन छोटी ने रोना-पीटना शुरू कर दिया। चीख-चिल्ला कर आसमान सिर पर उठा लिया। घर के दरवाजे पर एक बार फिर पड़ोसी इकट्ठा हो गए।

घंटों की उठा-पटक के बाद किसी तरह सब शांत हुए। और पापा की जिद के आगे सभी को झुकना पड़ा। सबके किचेन और मकान में सबका हिस्सा उन्होंने अलग कर दिया। दोनों भाई कहते रहे कि ‘पापा हम लोग ऐसा कुछ नहीं चाहते।’ मगर पापा का एक ही तर्क था कि ‘देखो मैं नहीं चाहता कि हम दोनों की वजह से तुम लोगों की लाइफ डिस्टर्ब हो। हम दोनों अब कितने दिन के मेहमान हैं। तुम लोगों की पूरी लाइफ पड़ी है। तुम सब की लाइफ अगर हम मियां-बीवी के कारण डिस्टर्ब हो तो यह तो हमारे लिए और भी दुख की बात है।

इसलिए भलाई इसी में है कि तुम लोग हमारी बात मानो। अपने परिवार के साथ खुश रहो। हम दोनों भी अपना जीवन किसी तरह काट ही लेंगे। अब ज़िंदगी के लिए बचा ही क्या है? एक छोटे की शादी की ही चिंता है। अपने जीते जी वह भी कर दूं तो मुक्ति पा लूं इस ज़िंदगी से। इन कुछ ही दिनों में इतना कुछ देख लिया है, ज़िंदगी के ऐसे-ऐसे रंग देख लिए हैं कि मन भर गया है। भगवान जितनी जल्दी उठा लें उतना अच्छा।’ पापा यह कहते जा रहे थे और रोते भी।

हम सारे भाई उन्हें समझा-समझा कर चुप कराने में लगे रहे। मगर वह यह कह कर फूट पड़ते कि ‘यह दिन भी देखने पड़ेंगे ऐसा सपने में भी नहीं सोचा था। आखिर ऐसा कौन सा पाप किया था कि हमारे परिवार का यह हाल हो गया। घर के सदस्य इस तरह दुश्मनों सा व्यवहार कर रहे हैं।’ जिस कमरे में हम लोग बातें कर रहे थे उसके पीछे वाले कमरे में अम्मा सो रही थीं। जो डॉक्टर उन्हें देखने आए थे, उन्होंने कहा था कि ‘इनका बीपी, हॉर्ट बीट बहुत बढ़ गए हैं। इन्हें सख़्त आराम कीे जरूरत है। ऐसी कोई बात नहीं होनी चाहिए जिससे इन्हें तनाव हो। इससे इनकी जान खतरे में पड़ सकती है।’ जब वह घर आया था तो माहौल देख कर उसे बहुत कुछ मालूम हो गया था।

हम तीनों भाई कमरे में पापा के साथ थे। उनकी भी तबियत ना खराब हो जाए इसी उद्देश्य से सब कुछ सामान्य सा दिखाने में लगे हुए थे। पापा ने समस्या के समाधान के लिए सबको जो अलग किया था उसे बिल्कुल पुख्ता कर देना चाहते थे। बार-बार दोहरा रहे थे कि ‘अब एक साथ रहना संभव नहीं है।’ मैं भी उनकी बात से सहमत था कि भाभियों का जैसा व्यवहार है, उसे देखते हुए तो एक साथ रहना संभव ही नहीं है। मगर दोनों भाई दिमाग से ज़्यादा भावना से काम ले रहे थे। और भावना में बहकर पापा को समझाने में लगे थे कि ऐसा कुछ ना करें। वो लोग अपनी बीवियों को समझा लेंगे। अब फिर ऐसी समस्या नहीं होगी। तभी एक और धमाका हुआ। हम सभी किसी अनहोनी की आशंका से सहम गए।

पता चला कि मंझली भाभी अपनी स्कूटर लेकर बहुत गुस्से में कहीं चली गई हैं। मैं उनसे गुस्सा होने के कारण उठकर नहीं गया। लेकिन जब आधा घंटा से ज़्यादा समय बीत गया तो मुझे चिंता हुई। पापा तो सुनते ही किसी अनिष्ट की आशंका से डर गए थे। बार-बार मुझे भी ढूंढ़ने जाने के लिए कह रहे थे। आखिर मैंने मंझले भाई को फ़ोन किया को तो उन्होंने कॉल रिसीव ही नहीं की। फिर बड़े वाले को किया तो उन्होंने कहा ‘कुछ पता नहीं चल रहा है। मोबाइल ऑफ किया हुआ है।’

यह सुन कर मैं भी सन्न रह गया। ऐसे में जो होता है वही हुआ। तुरंत बुरे ख्याल मन में आने लगे कि वह कहीं कोई गलत क़दम ना उठा लें। आज कल तो लोग जरा सी बात पर सुसाइड कर ले रहे हैं। कहीं भाभी ने यह क़दम उठा लिया तो पूरा घर तबाह हो जाएगा। भइया का तो जीवन ही बर्बाद हो जाएगा। बच्चे को कौन देखेगा। बिना मां के बच्चा कैसे जिएगा? यह बात मन में आते ही मैं तुरंत गोमती नदी पुल की ओर भागा। बाईक जितनी तेज़ चला सकता था उतनी तेज़ चलाई।

सोचा यह नदी ना जाने कितनों को समेट चुकी है। उस सूची में मेरे घर के किसी सदस्य का नाम ना जुड़े, इस भावना से यही प्रार्थना करता नदी की हर उस संभावित जगह पर गया जहां अक्सर ऐसे कांड हुए। इस बीच भाइयों को भी फ़ोन कर के पता करता रहा। हर बार निराशा हाथ लगी। मैं दो-ढाई घंटे में घर वापस आ गया। दोनों भाई मुझसे कुछ देर पहले आ चुके थे।

सबके चेहरे पर हवाईयां दौड़ रही थीं। क्या किया जाए, किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पुलिस में रिपोर्ट लिखाई जाए। उनके मायके बताया जाए कि नहीं यही सब बातचीत कुछ देर चली फिर यह तय हुआ कि अभी और खोजबीन कर ली जाए। जहां तक हो किसी को बताया ना जाए। फिर यह समस्या आई कि तीन लोग इतने बड़े शहर में उन्हें कहां ढूंढ़ेंगे। आखिर तय हुआ कि कुछ और करीबी रिश्तेदारों को साथ ले लिया जाए। इसके लिए कई लोगों को फ़ोन कर मदद के लिए कहा गया।

घर आने में लोग समय ना गवाएं इसलिए बोल दिया गया कि जो जहां है वहीं से चला जाए ढूंढ़ने। हम तीनों ने पापा को धैर्य से काम लेने को कहा। अम्मा अभी भी सो ही रही थीं। मुझे पापा की हालत देख कर और ज़्यादा घबराहट हो रही थी। उन्हें अकेले छोड़ने का मन नहीं हो रहा था। हालात ऐसे बन गए थे कि बड़ी भाभी से कुछ कहने या उन्हें नीचे कमरे में बुलाने की हिम्मत किसी में नहीं हो रही थी। अंततः मन मसोस कर हम तीनों भाई उठे कि चलें देर हो रही है। मगर तभी घंटी बजी।

मुझे लगा जैसे भाभी गुस्सा ठंडा होने पर आ गर्इं हैं। लेकिन गेट पर पहुंचा तो पुलिस जीप देख कर सहम गया। पूरे शरीर में सनसनाहट होने लगी। पसीना होने लगा। किसी अनहोनी की आशंका से मन कांप उठा। भाइयों के चेहरे का भी रंग उड़ गया था। लपक कर सब इंस्पेक्टर के पास पहुंचे कि क्या हुआ? तो उसने जो बताया उसे सुनकर पापा वहीं बेहोश होकर गिर पड़े। हम भाइयों के पैरों तले जमीन खिसक गई।

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