भीगे पंख - 5 Mahesh Dewedy द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भीगे पंख - 5

भीगे पंख

5. मोहित और सतिया एक

सूर्योदय में अभी कुछ पल की देरी थी- रात्रि, जो देर से दिवस से मिलन केा प्रतीक्षारत रही थी, दिन के आगमन के साथ अपने को उसके अंक में विलीन कर रही थीं। मकानों की दीवालों के छेदों में रहने वाली गौरैया ने देर से चीं-चीं करके प्रात के आगमन की सूचना देनी प्रारम्म्भ कर रखी थी। छतों पर पिछले दिनों सूखने हेतु डाले गये अनाज के बिखरे दानों को चुगने हेतु एक दो मोंरें आ वुकीं थीे। मानिकपुर के अधितर घरों में जगहर होे चुकी थी। भग्गी काछी, महते चमार, धर्माई नाई आदि अनेक लोग अपना हल-बैल लेकर खेतों को चल दिये थे। कमलिया अधजगी सतिया को गोद में उठाकर लालजी षर्मा की हवेली केा चोर की भंाति चल पडी़ थी। काम करने के लिये वहां जाने का आज उसका पहला दिन था और हल्ला द्वारा देख लिये जाने पर रोक दिये जाने के भय से उसको धुकधुकी हो रही थी।

सतिया जैसे ही हवेली के फाटक के अंदर कदम रखने वाली थी कि स्यामा, जो हल्ला का खा़स आदमी था, ने उसे टोक दिया,

‘‘भौजी! आज बडे़ सबेरे सबेरे हवेली मैं जाय रही हौ?’’

कमलिया का कलेजा कांप गया, और वह केवल ‘हां’ कहकर अंदर बढ़ गई थी।

‘‘सतिया! नाईं हुंअईं बैठी रहौ। कछू छुइयौ ना। सतिया नहीं, वहीं बैठी रहो। कुछ भी छूना मत।’’

जब भी सतिया अपने स्थान से घुटनों के बल चलकर हवेली के सहन से अंदर जाने वाले दरवाजे़ की ओर बढ़ने का प्रयत्न करती थी, कमलिया उसे डांट कर रोक देती थी। वह फिर टुकुर टुकुर दरवाजे़ की ओर देखने लगती, जहां पर अक्सर उसे मोहित दिख जाता था। कमलिया ने हल्ला के घर के अतिरिक्त हवेली में लालजी शर्मा के घर पर जानवरों का गोबर बटोरने, सफा़ई करने और कंडा पाथने का काम ले लिया दिया था। इसके पीछे एक कारण अतिरिक्त आय का होना तो था ही, साथ ही मन का यह भाव भी था कि कम से कम कुछ अवधि के लिये ही सही उसे हल्ला की निकटता से यथासम्भव बचने का अवसर मिलेगा। हल्ला द्वारा प्राय सतिया की आंखों के सामने उससे बलात सम्भोग करने से कमलिया अत्यंत लज्जा का अनुभव करती थी और सतिया के कोमल मन पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव से चिंतित रहने लगी थी।

पहले ही दिन हल्ला को कमलिया का लालजी शर्मा के यहां काम करने का पता चल गया था। उन्हें अच्छा तो नहीं लगा था पर इसका दूरगामी उपयोग सोचकर उन्होने कमलिया को हवेली मंे काम करने से मना नहीं किया था।

सतिया अभी चलना सीख रही थी और प्राय घुटनों के बल चलती थी। कमलिया जब हवेली के सहन में गोबर कूड़ा करने जाती थी तो सतिया को गोद में ले जाती थी और गोबर का पैला बगल में दबाने से पहले उसे सहन के एक केाने में बिठा देती थी तथा उसके घुटनों के बल इधर उधर चलने के प्रयत्न पर उसे बीच बीच में डंाट कर रोकती रहती थी।

सतिया का रंग अपने माॅ और बाप दोनों की तुलना में साफ़ था और अपने गोल चेहरे व फूले गालों के कारण वह बडी़ प्यारी लगती थी। मोहित प्राय हवेली के सहन में जाने वाले दरवाजे़ पर आकर खडा़ हो जाता था और वहां से सतिया को देखने लगता था। उसका मन सतिया को गोद में लेने और उसके साथ खेलने को होता था परंतु वह जब भी दरवाजे़ से निकल कर सहन की और बढ़ता था, तभी मोहित की माॅ उसे दरवाजे़ के बाहर कदम रखने से वर्जित कर देतीं थीं,

‘‘उंअयें न जाउ, कहूं तुमसै सतिया छुइ न जाय, नांईं तौ अबै हनान परिययै। उधर मत जाओ। कहीं सतिया तुमसे छू न जाये, नहीं तो अभी नहाना पड़ेगा।’’

वह कमलिया को भी सतर्क्र करतीं रहतीं थीं,

‘‘सतिया कौं फाटक सै दूर रखौ, कोई अइबे जइबे बाले सै छुइ गई तौ? सतिया को फाटक से अलग रखो। किसी आने जाने वाले से छू गई तो?’’

इसीलिये कमलिया सतिया को अपनी जगह से हिलने पर ही डंाट देती थी और वह अपनी जगह बैठकर कभी भैंस-गाय को और कभी दरवाजे़ की ओर टुकुर टकुुर देखा करती थी, परंतु मोहित के दरवाजे़ पर आकर खडे़ हो जाने पर वह डांटे जाने पर कुछ देर रुककर फिर उसकी ओर चल देती थी। फिर मां की डांट सुनकर कुछ देर को वह अपनी जगह बैठ जाती थी, परंतु मां के अपने काम में व्यस्त होते ही पुन अपने स्थान से खिसकने लगती थी। कमलिया परेषान होकर कभी कभी सतिया को पीठ में घूंसा मार देती थी, तब सतिया गुस्से में गाल फुलाकर अपने स्थान पर बैठ जाती थी और आंखों में आये आंसुओं को रोकते हुए दरवाजे़ पर खडे़ मोहित को एकटक देखती रहती थी।

सतिया के आकर्षक गोल मटोल बदन और उसके हाव भाव देखकर मोहित के बालमन में सतिया की निकटता की लालसा होती थी और उसके पिट जाने पर उसको बड़ा बुरा लगता था, परंतु ‘अच्छा बच्चा बने रहने’ की मानसिक विवशता के कारण उसने माॅ की वर्जना को स्वीकार कर लिया था और अपनी लालसा को मन में ही दबाये रखता था।

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समय बीतता जा रहा था और उसके साथ सतिया बढ़ रही थी- अब वह ठुमक ठुमक कर अपने पैरों पर चलने लगी थी। उस दिन कमलिया हवेली के सहन में नई ब्यायी हुई गाय और उसके बछडे़ को खिलाने पिलाने के काम में व्यस्त थी और उसका ध्यान सतिया पर से हट गया था। सतिया नये बछडे़ को देखकर मुदित थी और वह उठकर गाय का दूध पीते बछडे़ की ओर चल दी। गाय ने अपने बच्चे की रक्षा हेतु सतिया पर अपने सींग तान लिये परंतु अबोध बालिका गाय की ओर चलती रही। मोहित अपने दरवाजे़ से यह दृश्य देख रहा था और सतिया को ख़तरे में देखकर बिना कुछ सोचे दौड़ पडा़ था और उसे अपनी गोद में उठाकर गाय से दूर ले चला था। तभी मोहित की माॅ का क्रोधित स्वर सुनाई दिया था,

‘‘कमलिया! का अंधी हुइ गई है ससुरी? सूझत नाईं है? सतिया कौं मोहित सै दूर कांयें नाईं रक्खत है? अब जा ठंड मैं बाय हनबान परययै। कमलिया! क्या अंधी हो गई है ससुरी? क्या दिखाई नहीं देता है? सतिया को मोहित से दूर नहीं रखती है। अब इस ठंड में उसे नहलाना पड़ेगा।’’

यह कहते हुए मोहित की माॅ ने दौड़कर मोहित को झापड़ रसीद किया और उसके कपडे़ उतारने लगीं। यह जानते हुए भी कि इसमेें उसका अपना कोई दोश नहीं है, कमलिया इस सब के लिये अपने को दोषी सिद्ध करने का प्रयत्न करने लगी थी और अपने मन की भड़ास निकालने के लिये वह सतिया की धुनाई करने लगी थी- वह इस ग्रामीण कहावत केा चरितार्थ कर रही थी- ‘धोबी पर बस न चले तो गदहिया के कान उमेठे’। सतिया चीख़कर रो उठी थी; उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसने क्या ग़लती की है और उसकी पिटाई क्यों हुई है। पर पता नहीं उस नन्हीं बालिका के मन में उसके प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार की कैसी प्रतिक्रिया हुई कि वह उठकर मोहित की ओर चल दी थी और उसने अपनी नन्हीं हथेलियों से न केवल मोहित का नंगा बदन छू लिया था वरन् उसकी माॅ की टांग भी दूसरे हाथ से कसकर पकड़ ली थी। मोहित की माॅ ने तब खीझते हुए उसे झटके से हटा दिया था।

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मानव स्वभाव है कि षरीर पर लगने वाली चोट का दर्द उसे तब तक सालता है जब तक वह चोट ठीक नहीं हो जाती है, चोट ठीक हो जाने के पष्चात वह केवल ऐसे याद आती है जैसे कोई अन्य अनुभव याद आता है; परंतु मानव के अहम् को लगी चोट मन में नासूर बन जाती है और नासूर के रिसने की तरह जब भी याद आती है सालती है। कमलिया को हल्ला से बचा न पाने की अपनी अक्षमता से पस्सराम के मन को ऐसी ही चोट लगी थी। वह उस चोट से तो उद्वेलित रहता ही था, साथ ही साथ उसमें सतिया के अपनी संतान न होने की गांठ भी बैठ गई थी जो क्रोध अथवा क्षोभ का अवसर आने पर अनायास निकल पड़ती थी। सतिया अब चार साल की हो गई थी और घर के छोटे मोटे कामों में माॅ-बाप की सहायता करने लगी थी। एक शाम उसका पिता जब खलिहान से थका हारा घर में घुसा था तो वहां कमलिया को न देखकर सतिया से एक लोटा पानी लाने को कह दिया था। सतिया जब पानी भरा लोटा लाकर पिता को दे रही थी तो उसके हाथ से पानी का लोटा पस्सराम के पैर पर गिर पड़ा था और अनायास उसने सतिया को थप्पड़ मारते हुए गाली दी थी,

‘‘दोगली कहीं की।’’

सतिया उस शब्द का अर्थ तो नहीं समझी थी परंतु यह समझ गई थी कि उसके लिये अपमानजनक शब्द कहा गया है। वह रोते हुए अम्मा, जो झोपडी़ के बाहर बर्तन मांज रहीं थीं, की ओर भागी थी। कमलिया को प्रतिदिन पस्सराम के इस तरह के व्यंग्यवाण सुनने पड़ते थे, जिनका उसके मन में भी एक नासूर बन गया था जो कुरेदे जाते ही रिसने लगता था। अत सांत्वना की आशा में माॅ के पास आने पर कमलिया ने सतिया को पुचकारने के बजाय अपने नपुंसक आवेश में झिड़क दिया था,

‘‘हट अभागिन’’

सतिया पहले भी अपने लिये माॅ द्वारा क्रोध मे ‘ंअभागिन’ शब्द का प्रयोग सुन चुकी थी और उसका भावार्थ समझने लगी थी। माॅ और बाप दोनों द्वारा दुत्कार दिये जाने पर सतिया का रोना अचानक बंद हो गया और उसकी आंख के आंसू तिरोहित हो गये थे। उसके मन मे घोर विद्रोह उमड़ पडा़ था और क्रोध के आवेश में उसके फूले चेहरे से रक्त फटकर बाहर आने को होने लगा था। फिर अपने पर नियंत्रण खोकर वह दौड़कर अपने पिता की टांग से लिपट गई थी और दांतों से काटने लगी थी। पस्सराम ने उसके बाल पकड़कर खींचते हुए उसे अपने से अलग झटक दिया था।

उसके पष्चात सतिया न तो माॅ के पास गई और न पिता के पास- बस देर तक सिसकती रही थी ।

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लालजी शर्मा गुस्सैल स्वभाव के थे और घर वालों, गांववालों, घर में पलने वाले जानवरों, ओर गली में भैांकने वाले कुत्तों तक को दिन में दस-पांच बार गालियां सुना देना उनके लिये साधारण बात थी; परंतु उनकी धारणा थी कि वह राम के बडे़ भक्त हैं- गर्मियों के दिनों मे कुंएं से निकलने वाले ठंडे पानी और जाडा़ें में उसी कुंएं से निकले गर्म पानी से घर्षण स्नान करने के उपरांत वह प्रतिदिन तख़्त पर पालथी मारकर विराजमान हो जाते थे और लकडी़ के बने ‘गुणा के लिये प्रयुक्त चिन्ह’ के आकार के आसन पर तुलसीकृत रामचरितमानस रखकर देर तक उसका जो़र-शोर से पाठ करने के उपरांत ही दोपहर का भोजन करते थे। यद्यपि वह प्राय यह गाते हुए सुने जाते थे कि ‘ना जाने किस वेश में नारायण मिल जांय’, परंतु व्यवहारकि रूप में उन्हें प्रत्येक गेरुआ वस्त्रधारी व्यक्ति ही नारायण का प्रतिरूप लगता था। गांव से गुजरने वाले गेरुआ वस्त्रधारी हर व्यक्ति केा भोजन कराना, ठहराना, उसकी सेवा करना और दान-दक्षिणा देने के उपरांत ही विदा करना उनके स्वभाव की विवशता थी। यह अलग बात थी कि ऐरे गैरे साधुओं का समय-बेसमय खाने-पीने का प्रबंध करने में घर की बहू केा जो कष्ट होता था, उसके प्रति वह शत-प्रतिशत सम्वेदनहीन थे। उनके रामचरितमानस के पाठ के दौरान यदि कोइ्र्र लू से त्रस्त कुत्ता उनके तख्त के नीचे आकर अपने हांफ़ने अथवा अपनी कूं कूं से उनके पाठ में व्यवधान उत्पन्न करने लगता था तो उनका रामचरितमानस के पाठ से अधिक समय उसे माॅ-बहिन की गाली देने में बीत जाता था।

‘‘सारे बेईमान कहूं के। भगवान चहिययैं तौ जाई जलम मैं कीरा परिययैं।..... साले बेईमान कहीं के। ईश्वर चाहेगा तो इसी जन्म में कीडे़ पडे़ंगे।......’’

लालजी शर्मा ने अपनी बैठक, जो उनके परबाबा द्वारा बनवाये चार कंगूरों वाले कुएं के बगल में स्थित थी, के वाहर पडे़ हुए तख़्त पर बैठे हुए कुछ इस प्रकार कही थी कि कुएं के उस पार अपनी बैठक में बैठे हुए हल्ला कुछ-कुछ सुन तो लें, परंतु फिर भी संशयग्रस्त रह जांय कि बात उनके लिये कही गई है अथवा किसी और के लिये। कुंएं पर धर्माई नाई जांघिया पहिन कर नहा रहा था और पुत्तू कहार की पत्नी घूंघट निकाले हुए गरारी पर चढी़ हुई रस्सी से पानी भरा कलसा खींच रही थी। वह कभी कभी आंख उठाकर धर्माई के उघारे बदन को देख लेती थी और चोरी छिपे धर्माई भी रस्सी खींचते समय उसके वक्षों के उठने-गिरने को देख लेता था। लज्जाराम की बात सुनने के समय दोनों के मुख पर विद्रूप की हल्की सी स्मित-रेखा उभरी थी, जिसे हल्ला ने अपनी बैठक में बैठे ही भांप लिया था। उनके चेहरे की व्यंग्यात्मक मुस्कराहट से हल्ला निशंक समझ गये थे कि लालजीषर्मा ने उनके उूपर ही कोई छींटाकशी की है। उनका मुंह तमतमा गया था, परंतु उस समय वह चुपचाप उठकर घर के अंदर चले गये थे। उन्हें उठकर जाते हुए देखकर लालजी षर्मा इसे अपनी विजय समझकर एक विद्रूप हास्य के साथ बोले थे,

‘‘सारो अब कैसो मुंह छिपाय कें घर मैं घुसो जात है? साला अब कैसे मुंह छिपा के घर में घुसा जाता हैं?’’

मुकदमा लड़ना ज़मीदारों का पुराना शौक था। प्राय ज़मीदार खानदान में जन्म लेने वाले पुरुषों केा वयस्क होते होते इसकी लत लग जाती थी और इसमें उन्हें वही आनंद आने लगता था जो नशेड़ची को नशा करने में आता है। हल्ला और लालजी शर्मा को भी इसकी लत लग गई थी और उनके बीच कोई न कोई मुकदमा चलता ही रहता था। झाबर खेती की नीची जगह जहां पानी जल्दी भरता है की ज़मीन की मिल्कियत के बारे में हल्ला और लालजी शर्मा के बीच सालों से मुकदमा चल रहा था। इस मुकदमें के लड़ने में दोनों को अनेक कष्ट उठाने पड़ते थे क्योंकि उनके गांव से रेलवे स्टेशन सात मील की दूरी पर था और कचहरी जाने के लिये गाडी़ प्रात पौने आठ बजे मिलती थी, अत समय से स्टेशन पहुंचने के लिये अंधेरे मुंह बैलगाडी़ से अथवा पैदल चल देना पड़ता था और लौटने में फिर देर रात हो जाती थी। उन दिनों अन्य कोई सवारी हेतु सड़क ही नहीं बनी थी और अंधेरे में उूबड़खाबड़ रास्ते पर सायकिल चलाना बहुत कठिन था। फिर भी मुकदमें की तारीख पड़ने पर दोनों ऐसे चल देते थे जैसे अपनी बारात में जा रहे हों।

दीवानी के मुकदमें इतने लम्बे खिंचते हैं कि उनके बारे में कहावत है कि ‘दीवानी वह करे जो दीवाना हो’ और यह मुकदमा भी कई वर्ष तक खिंचा था। सभी गवाहों की गवाही दर्ज नहीं हो पा रही थी और किसी न किसी कारण से तारीख पर तारीख पड़ती जाती थी। पैसा भी पानी की तरह बह रहा था परंतु मुकदमा जीतना दोनों ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। तभी मुकदमे की एक तारीख के एक दिन पहले हल्ला ने लालजी शर्मा के एक विश्वासपात्र से कह दिया कि तारीख बढ़ गई है और उस व्यक्ति ने इस बात को सच मानकर लालजी शर्मा तक पहुंचा दिया। इस कारण लालजी शर्मा के गवाह तारीख पर कचहरी नहीं गये। उधर हल्ला ने मजिस्टे्ट साहब को भी खासी रकम देकर पटा लिया था, जिससे उन्होने मुकदमें में एकतरफा़ निर्णय हल्ला के पक्ष में कर दिया। फैसले के बाद जब लज्जाराम को पता चला कि हल्ला ने चाल खेलकर मुकदमा जीत लिया है तो उसकी प्रतिक्रियास्वरूप वह हल्ला के विरुद्ध बकझक कर रहे थे और उन्हें कोस रहे थे।

पस्सराम की झोपड़ी हल्ला की बैठक और लालजी शर्मा की बैठक के बीच में थी और हल्ला का अनुमान था कि पस्सराम ने लज्जाराम की गाली गलौज वहां पर स्पष्ट सुनी होगी। इसलिये घर में धुसते ही उन्होने उसे पुकारा,

‘पस्सा....पस्सा....’’

पस्सराम समझ गया कि उसे किसलिये पुकारा जा रहा है और वह अपने को दो ज़मीदारों के झगडे़ से बचाने हेतु खिसकना चाहता था कि हल्ला फिर दहाडे़,

‘‘पस्सा सारे कहां मरिययो है- का जूता खाओ चांहत है? पस्सा, साले कहां मर गया है? क्या जूता खाना चाहता है?’’

हल्ला की क्रोध भरी धमकी सुनकर पस्सराम का साहस जवाब दे गया और वह सूखा सा मुंह लेकर हल्ला के मकान की सहन में जाकर खडा़ हो गया।

हल्ला का क्रोघ उफान पर था और वह वैसे ही अपने क्रोघ पर नियंत्रण करने का प्रयत्न कर रहे थे जैसे उबलते हुए दूध पर कोई पानी के छींटे मारे। दूध का उफान कुछ थमने पर बोले,

‘‘लालजी का बकत हते? लालजी क्या बक रहे थे?’’

पस्सराम चुप्प। उसकी चुप्पी से हल्ला का क्रोध फिर बेकाबू होने लगा और वह अपना जूता निकालने लगे। पस्सराम उनके जूते उतारने की मंशा समझकर तुरंत बोल पड़ा,

‘‘मालिक! बे कहत हते ‘सारे बेईमान कहूं के......सारिन के जाई जलम मै कीरा परिययैं......सारो कैसो मुंह चुराय कें घर मै घुसो जात है?’’

हल्ला क्रोध से कांपने लगे, परंतु अपना क्रोघ पीते हुए धीरे से बोले,

‘‘अच्छा हम देखत हैं किनकें कीरा परत हैं। जाउ, बिजयीनगरा के सतबीरसिंह यादव सै कहिकें लठैत बुलाय लाउ। कहि दीजौ कि हल्ला ने कही है खूब इनाम मिलययै और पुलिस-कचहरी को सब खच्च हम उठययैं। अच्छा मैं देखता हूं कि किसके कीड़े पड़ते हैं। जाओ, बिजयीनगला के सतबीरसिंह यादव से कहके लाठी चलाने वाले बुला लाओ। कह देना कि हल्ला ने कहा है कि खूब इनाम मिलेगा और पुलिस कचहरी का खर्च भी हम ही उठायेंगे।’’

बिजयीनगरा के अहीर नामी लठैत थे और किराये पर लाठियां चलाते थे। पस्सराम के चलते चलते हल्ला ने हिदायत की कि मानिकपुर में किसी को इस बात की कानोंकान खबर नहीं होनी चाहिये।

मानिकपुर गांव के लोगों में एक विशेषता गांव के बसने के समय से ही रही थी कि उन्हें अपने गांव की इज्ज़त बहुत प्यारी थी। आपस में वे चाहे कितना भी लडे़ं, परंतु बाहर वालों के किसी भी आक्रमण को वे अपने गांच की इज्ज़त पर हमला समझते थे। अत बाहर से आये लठैतों एवं बदमाषों का उन्होनेे सदैव एकजुट होकर मुकाबिला किया था। इस कारण मानिकपुर वालों को आज तक न तो कोई बाहरी लोग परास्त कर सके थे और न आज तक इस गांव मे चोर-डकैतों ने लूट-पाट करने की हिम्मत की थी। मानिकपुर गांव के लोग अपने गांव की इस विषेशता को प्राय गर्व से बखानतेे भी थे। आज पस्सराम हल्ला के आतंकवश कुछ ना-नुकुर तो नहीं कर सका और लठैत बुलाने चल दिया, परंतु वह मन ही मन मना रहा था कि किसी तरह गांव वालों को बाहरी लठैत बुलाये जानंे की खबर हो जाय। तभी लालजी शर्मा के यहां बचपन से काम करने वाले टुड़ई कक्का सामने पड़ गये और उन्होने पूछ लिया,

‘‘पस्सराम कहां जात हौ? पस्सराम कहां जा रहे हो?’’

‘‘विजयीनगरा लठैत बुलान जाय रहे हैं।’’ पस्सराम धीरे से बोला।

आश्चर्य से टुड़ई का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘सांचेउूं? सच?’’

‘‘और का मालिक बहुत गुस्सां मे ंहैं। और क्या ? मालिक बहुत गुस्सा में हैं।’’

यह कहते हुए पस्सराम ने हल्ला के क्रोध का कारण भी बता दिया और जोडा़,

‘‘अब जा गांव की लाज तुम्हायेई हाथन मैं है। अब इस गांव की लाज तुम्हारे ही हाथ में है।’’

शाम को जब तक विजयीनगरा के लठैत मानिकपुर आ पाये, तब तक मानिकपुर वाले उनका ‘स्वागत’ करने को चुपचाप एकजुट हो चुके थे और उन्होने अपने गांव की आन बचाते हुए बाहर के लठैतों को पीट पीट कर पस्त कर दिया। गांव के चैकीदार ने पुलिस को खबर कर दी। दरोगा जी के आने पर हल्ला ने विजयीनगरा के अहीरांे की चोटें दिखाते हुए लालजी शर्मा की पार्टी के लोगों पर दोष मढ़ना चाहा, परंतु थानेदार को चैकीदार ने पहले ही बता दिया था कि हल्ला ने लालजी शर्मा को पिटवाने को बाहरी लठैत बुलाये थे। अत वह घुड़ककर अर्थपूर्ण अंदाज़ में बोला,

‘‘पर लठैत बुलाये किसने थे?’’

हल्ला को अविलम्ब उसकी घुड़की का अर्थ समझ में आ गया था और उन्होने थानेदार को चुपचाप एक तरफ़ बुला लिया था और मामले को रफा़ दफा़ करने की अनुनय करने लगे थे। थानेदार ने उनसे पूरे दो सौ रुपये वसूल किये थे और तब थाने जाकर गै़र दस्त्ंादाजी़ अपराध की रिपोर्ट दर्ज कर प्रकरण समाप्त कर दिया था।

हल्ला ज़्ाख़्मी शेर की तरह रात भर सोचते रहे थे कि किसने लठैतों केा बुलाने की खबर गांव वालों को दी होगी। फिर वह इस नतीजे पर पहुंचे कि बिना पस्सराम के बताये मानिकपुर वाले बाहरी लठैतों को बुलाये जाने की बात जान ही नहीं सकते थे। अत सबेरा होते ही उन्होने पस्सराम को बुलाया था। वह पहले से ही घबराया हुआ था क्योंकि वह भी समझ रहा था कि गांव वालों में बात फैल जाने के लिये हल्ला उसी को दोषी मान रहे होंगे और वह उसके द्वारा की गई अवज्ञा कतई बरदाश्त नहीं करेंगे। उसने रात में अपना भय कमलिया को भी बता दिया था, अत वह भी सतिया को साथ में लेकर पस्सराम के पीछे पीछे चली गई थी। हल्ला ने पस्सराम को देखते ही कहा,

‘‘बोल सारे तूने किनै बताओ हतो? बोल साले, तूने किसे बताया था?’’

पस्सराम को काटो तो खून नहीं। वह मौन खड़ा था क्योंकि वह जानता था कि अपराध को झुठलाने अथवा उसकी संस्वीकृति करने में से किसी विकल्प से उसकी पिटाई कम नहीं होगी, वरन् बढ़ ही सकती है। अत वह चुप रहा था। उसकी चुप्पी पर हल्ला का क्रोध अनियंत्रित हो गया और उन्होनें जूता उठाकर पस्सराम पर जडा़पड़ प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया था। कमलिया हाथ जोड़कर उनसे क्षमा की भीख मांगने लगी, परंतु हल्ला ने पस्सराम को तब तक नहीं छोडा़ था जब तक सतिया ने दौड़कर उनकी टांग अपनी नन्हीं हथेलियों मे पकड़ कर उसमें अपने दांत नहीं गडा़ दिये थे। तब हल्ला को भान हुआ कि एक अछूत ने उनकी टांग पकड़ रखी है और उन्होंने सतिया को जो़र से झटक दिया था। उनकी पहलवानी वाली मज़बूत टांग से छिटक कर सतिया दूर जाकर गिरी थी और वह बेहोश हो गई थी। उसके सर से लहू बह रहा था। कमलिया ने दौड़कर सतिया को उठाया, अपनी झोपडी़ पर आकर उसका खून से लथपथ चेहरा धोया और मूर्छित सतिया को अपनी गोद में लेकर सिसकती रही थी। हर उच्छवास के साथ वह अपनी किस्मत को कोसती जाती थी जिसने उसे भंगी के घर में पैदा किया था, जिसने उसे निर्धन और पराश्रित बनाया था, और जो उसे हल्ला की चाकरी हेतु यहां ले आई थी।

इस संसार में जन्म लेने वाला हर मनुष्य जन्म के समय ही कतिपय प्रकृतिप्रदत्त गुणों में दूसरों से भिन्न होता है क्योंकि गर्भाधान के समय जब पुरुष और स्त्री के जीन्स का मिलन होता है तो उनमें अवस्थित डी. एन. ए. की श्रंखलायें एक दूसरे में समाहित होते समय मिलन की अपरिमित सम्भावनायें प्रस्तुत करतीं है जिनमें किसी एक सम्भावना के अनुसार दोनों के डी. एन. ए. मिलते है और तदनुसार उस मनुष्य के शाारीरिक और मानसिक गुणों का प्रादुर्भाव होता है। सतिया अपनी माॅ और बाप पस्सराम से इन गुणों में भिन्न थी, और सम्भव है कि वह हल्ला की ही पुत्री हो क्योंकि उसमें उनके जैसे चालाकी, दम्भ, उग्रता एवं प्रतिशोध के गुण विद्यमान थे। उसके मन में जन्म से ही ‘आइ्र. एम. ओ. के. यू आर. नौट ओ. के.’ की मनस्थिति पनप रही थी। मूर्छा समाप्त होने पर यद्यपि सतिया की आंखों में भी अश्रु उमडे़ थे, परंतु वे अश्रु दैन्य के न होकर घृणा, क्षोभ और प्रतिशोध के अश्रु थे। उस दिन के बाद सतिया सात दिन तक ज्वरग्रस्त रही। ज्वर की अवस्था में वह प्राय एक ही स्वप्न देखा करती थी कि उसके आदेश पर उसके अनुचर हल्ला को जूता से पीटते हुए एक अग्निकुंड में ढकेल देते हैं और हल्ला माफ़ किये जाने की दुहाइ्र्र देते हुए अनंत गहराई वाली अग्नि में गिरते जाते हैं। ऐसा स्वप्न देखते हुए वह कभी कभी बड़बड़ाने लगती थी,

‘‘मार सारे कौं......हड्डी पसरी एक कर देउ.... मार जूता सै.... मार साले को....हड्डी पसली एक कर दो.....मारो जूता से।’’

कमलिया और पस्सराम उसकी बड़बड़ाहट सुनकर घबरा जाते थे और उसे जगाकर पूछने लगते थे कि क्या बात है, परंतु तभी सतिया चुप हो जाती थी और उसके चेहरे पर संतोषपूर्ण स्मित की एक आभा झलकने लगती थी।

सात दिन बाद जब सतिया ठीक हुई, तो कमलिया ने उसमें एक नवीन परिवर्तन होना पाया। उसके बाद से वह अपने पिता का विशेष ध्यान रखने लगी और उसके फलस्वरूप पिता के मन में भी उसके प्रति अपना बीज न होने की शंकाजनित वितृष्णा कम होने लगी। सतिया को हल्ला के प्रति जितनी घृणा उत्पन्न हुई थी, उसी अनुपात में उसका अपने पिता के प्रति प्रेम बढ़नेे लगा था।

जिस दिन विजयीनगला के लठैत आये थे और लाठियां चलीं थी, मोहित गांव में ही था और उसने अपने अट्टे से वह हृदयविदारक दृश्य देखा था; लाठियों से एक दूसरे का सिर फोड़ते देखकर उसके मन में दुख एवं भय उत्पन्न हुआ था। उसने दूसरे दिन पस्सराम को जूतों से पिटते और सतिया को झटककर फेंके जाते भी देखा था। पस्सराम को पिटते देखकर उसके मन में क्रोध उत्पन्न हुआ था और सतिया को फेंके जाते देखकर दुख से उसकी आंखों से अविरल अश्रुप्रवाह होने लगा था, परंतु उसका क्रोध व दुख उसे किसी प्रकार का प्रतिरोध प्रदर्शित करने के लिये पर्याप्त प्रेरणा न दे सके थे क्योंकि वह इन्हें बडे़ लोगों का मसला समझता था, जिनमें टांग अड़ाना वह बड़ों की अवज्ञा समझता था। अपने को आज्ञाकारी बालक सिद्ध करने के इस प्रयत्न में उसे स्वमन में उत्पन्न विरोधाभासों एवं उद्वेगों को दबाना पड़ता था जिसके कारण वह अनावश्यक तनावों से घिरा रहता था। ये तनाव उसके स्वच्छ एवं सम्वेदनशील मन में ग्लानिभाव एवं हीनभाव उत्पन्न करते थे।



‘झंडा उूंचा रहे हमारा,

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा;

झंडा उूंचा रहे हमारा।

इसकी शान न जाने पाये.

इसकी आन न जाने पाये

15 अगस्त को प्रातकाल कुदरकोट के प्रायमरी एवं मिडिल स्कूल के बच्चों का जुलूस कसबे से गुज़र रहा था। आगे चलने वाला अध्यापक जितनी ज़ोर एक पंक्ति कहता था, पीछे के बच्चे उतनी ही जा़ेर से उसे दोहराते थे। यद्यपि रात में बारिष होती रही थी, परंतु प्रात होते ही थम गई थी। आकाष में बादल अभी भी छाये हुए थे और प्रातकालीन हवा में नमी और उमस थी। कसबा कुदरकोट के उूंवाई पर बसे होने के कारण गलियों से पानी बह गया था, परंतु फिर भी कहीं कहीं कीचड़ था।

अधिकतर बच्चों के सिर पर गांधी टोपी थी और हाथों में काग़ज़ पर बने तिरंगे झंडे थे जो लम्बे से नरकुल के सेंठा के उूपर चिपके हुए खडे़ थे। जुलूस के आगे अध्यापकगण चल रहे थे जो एक पंक्ति गाते थे और बच्चे उसे दोहराते थे। हर बार ‘झंडा उूंचा रहे हमारा’ के गायन के साथ बच्चों के हाथों के झंडे उूपर उठ जाते थे। अधिकतर बच्चों को जुलूस का उद्देश्य अथवा कारण भलीभांति ज्ञात नहीं था, परंतु उस दिन पढा़ई से मुक्ति होने और कुछ नया करने के कारण बच्चे अति प्रसन्न थे। कसबा कुदरकोट एक खेडे़ किले ओर उसके अंदर स्थित महल के ध्वंसावशेषों से बने उूंचे विस्तृत टीले पर बसा था। कहते हैं कि बहुत पहले यहां का शासक मुसलमान था जो इतना निर्दयी था कि उसकी अवज्ञा करने वालों और अपराधियों केा लिटाकर उनके उूपर हाथियों की दांय ऐसे चलवाता था जैसे गेंहूं की बालियों से गेंहूं और भूसा को अलग करने के लिये उन पर बैलों की दांय चलाई जाती थी। खेड़े पर एक स्थान विशेष पर आज भी धरती खेादने पर हड्डियां मिलतीं हैं जिन्हें यहां के लोग उन्हीं हाथी के पैरों तले पिसने वाले व्यक्तियों की हड्डियां मानते हैं। आज इसी खेड़े के उूपर मिडिल स्कूल स्थित है और कसबे की सारी आबादी उसके पूर्व में ढलान पर बसी हुई है। स्कूल के पीछे पश्चिम में ज़मीन उूबड़ खाबड़ पड़ी है और ज़मीन के अंदर ईंटों के इतने टुकड़े भरे हुए हैं कि उस पर बस करील, बेर, बबूल और कैक्टस के वृक्ष उगते हेैं। कोई्र आबादी नहीं है। उसके पश्चात नागिन सी लहराती पुरहा नदी बहती है, जिसके किनारे के वन में एक शंकर जी का मंदिर स्थापित है, जो अपनी स्थिति की भयावहता के कारण भयानकनाथ का मंदिर के नाम से दूर दूर तक प्रसिद्ध है। पुरहा नदी पश्चिम से चलकर खेडे़ के उत्तर से होते हुए पूर्व दिशा को बहती है। बाढ़ पर होने पर नदी का पानी दूर दूर तक फैल जाता है और उत्तर में बसे कई गांवों का कुदरकोट से सम्पर्क टूट जाता है। अब जुलूस स्कूल भवन से चलकर नीचे पंडित राजा राम दीक्षित के मकान के दरवाजे़ से गुज़र रहा था और दीक्षित जी उसे अपनी बैठक में आराम कुर्सी पर पसरे हुए वितृष्णा, व्यथा और व्यंग्य के भाव से देख रहे थे। वह अपने बगल में बैठे पं. श्यामा प्रसाद से कांगे्रसियों पर कटाक्ष करते हुए बोले,

‘‘जे सारे गांधी टोपी वाले राज चलाय पययैं? ये साले गांधी टोपी वाले राज चला पायेंगे?’’

श्यामा प्रसाद का उत्तर था, ‘‘तुम दिखियौ, थोरे दिन बाद जे सारे खुदई अंग्रेजन कौं बापिस बुलाय लययैं। तुम देखना थोड़े दिन बाद ये साले स्वयं ही अंग्रेजा़ें को वापस बुलायेंगे।’’

परंतु यह उत्तर उनकी आकांक्षा का द्योतक था विश्वास का नहीं। वर्ष 1910 में कुश्ती का शैाकीन एक अंग्रेज़ पुलिस कप्तान दंगल देखते समय पं श्यामा प्रसाद की कुश्ती को देखकर प्रसन्न हो गया था और उसने उन्हें पुलिस में सिपाही के पद पर नामित कर दिया था। वह कक्षा पांच फेल थे परंतु अपनी वफा़दारी और हिकमतअमली से पहले दीवान और फिर दरोगा हो गये थे और थानेदार के पद से सेवानिवृत हुए थे। पं राजाराम के स्वार्थ उनके स्वार्थों से मेल खाते थे और उनके विचारों से वह हृदय की गहराइयों से सहमत थे। उन्होने अपनी बात में आगे जोडा़,

‘‘राज करबो तौ अंग्रेजन के खून मे हतौ; ताई सै अंग्रेजन के राज मै कबहूं सूरज नाईं डूबत हतो। जे कांग्रेसी समझत हैं कि नारे लगायबे भर सै राज चल जात है? राज करना तो अंग्रेजों़ के खून में था; इसीलिये उनके राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था। ये कांग्रेसी समझते हैं कि नारे लगाने भर से राज चल जाता है।’’

पं. राजाराम और पं. श्यामाप्रसाद के पीछे बैठक के कमरे की दीवाल के सहारे गोरे धानुक उकडूं़ बैठा हुआ था। वह अपने दाहिने हाथ में बंधी एक रस्सी अपनी ओर खींचता और फिर छोड़ता था। छत में लगे तीन हुक से एक दो गज़ लम्बा और एक फुट चैाड़ा लकडी़ का तख्ता लटक रहा था जिसके नीचे पीले मटमैले रंग का डेढ़ फुट चैडा़ कई पर्त का कपड़ा लटक रहा था। गोरे धानुक के हाथ में बंधी रस्सी लकडी़ के तख़्ते में लगे हुक से फंसी थी और रस्सी खींचने और उसमें ढील देने के साथ यह पंखा हिलता था और हवा की उमस को कम कर रहा था। गोरे धानुक उन दोनों की बातें रामायण की इस चैपाई वाले भाव से सुन रहा था- ‘कोउ नृप होइ हमैं का हानी, बांदी छांड़ न हुइहौं रानी’। यद्यपि देश स्वतंत्र हो चुका था परंतु निर्बल वर्ग के मानस में उनके लिये सदैव यथास्थिति कायम रहने की सदियों के अनुभव से बनी आस्था की जड़ें इतनी गहरीं थीं कि यदा कदा हिल तो जातीं थी, परंतु उखड़ने का नाम नहीं लेतीं थीं। फिर गोरे धानुक के जीवन में स्वतंत्रता के उपरांत कोइ्र्र परिवर्तन भी तो नहीं आया था- अंग्रेजों़ के ज़माने में उसकी दिनचर्या राजाराम दीक्षित के छत से लटकते पंखे को उूंघते हुए हिलाते रहने और बैठक एवं जानवरों के सहन की झाडू़ बुहारू करने तक सीमित थी, जो यथावत आज भी चल रही थी। यद्यपि दोनों पंडितों में किसी का ध्यान उसकी तरफ़ नहीं था परंतु वह हर एक की बात समाप्त होने पर सहमति में खीसें निपोर देता था जैसे ऐसा न करने से उनकी तौहीन हो जायेगी।

जुलूस आगे बढा़ तो उन पतली गलियों से गुज़रने लगा जहां दोनों ओर घनी आबादी के बीच गंदगी का साम्राज्य था और बजबजाती नालियों, और कुड़कती मुर्गियों के बीच मैली कुच्ैाली सलवार कुर्ता पहिने औरतें और बच्चे गृहकार्य, खेलकूद और आपसी गाली गलौज की दिनचर्या में व्यस्त थे। इस गली के जुम्मन मियां जैसे कतिपय बाशिंदों केा काफी़ दिनो से इस उधेड़बुन के कारण अच्छी नींद नहीं आ रही थी कि अल्लाह की पाकज़मी पाकिस्तान को तर्कसकूनत कर दिया जाये या हिंदुओं के हुकुम में रहकर शेष जीवन बिताया जाये। यद्यपि ये सभी लोग काला अक्षर भैंस बराबर थे परंतु यह बात सभी को मालूम थी कि मुस्लिम लीग ने यही आधार लेकर पाकिस्तान बनवाने में सफलता प्राप्त की थी कि मुसलमान हिंदुस्तान में हिंदू बहुसंख्यकों के शासन में नहीं रह सकता है। जुलूस जब जुम्मन मियां के घर के सामने से निकला, तो उनकी समझ में नहीं आया कि किस तरह की प्रतिक्रिया करें, और वह चुपचाप अपना हुक्का गुड़गुड़ाते हुए घर के अंदर धुस गये थे।

फिर जुलूस कोरियों, धानुकों, वाल्मीकियों और चमारों की बस्ती से होकर निकला जहां चारों ओर निर्धनता, निरीहता, और नैराश्य का सामा्रज्य छाया हुआ था। रमचरना की अंधी माॅ, जो गली के किनारे बैठी अपनी नातिन को गोद में खिला रही थी, बोली,

‘‘जू का है? जे लड़का का चिल्लाय रहे हैं? ये क्या है? ये लड़के क्या चिल्ला रहे हैं?’’

रमचरना अपना ज्ञान बघारते हुए बोला,

‘‘लेउ! तुमै इत्तेउू नाईं मालूम? आजादी आय गई है, ताई को जलूस निकरो हे। लो तुम्हें इतना भी नहीं मालूम? आजा़दी आ गई है। उसी का जुलूस निकला है।’’

चालीस वर्ष पूर्व रमचरना की अम्मा की आंखों में भयंकर दर्द उठा था और उसके निवारण हेतु किसी बिन मांगे राय देने वाले गंवार के बताने पर उन्होने अपनी आंखों में अकौआ का रस निचोड़ लिया था, तभी से वह अंधी हो गई्रं थीं। आजादी शब्द उन्होने आज पहली बार सुना था, अत अपने प्रकाशहीन दीदे फाड़कर बोलीं,

‘‘आजादी का होत है? आजा़दी क्या होती है?’’

इसका उत्तर तो रमचरना भी ठीक से नहीं जानता था, अत अब अपने अज्ञान को स्वीकार करने की खीझ के कारण बोला,

‘‘हम का जानै का होत है? जा सुनी है कि अब अंग्रेज अपयें देस चले गये हैं और कांग्रेसियन को राज हुइ गओ है। मैं क्या जानूं क्या होती है? यह सुना है कि अब अंग्रेज़ अपने देश चले गये हैं और कांग्रेसियों का राज हो गया है।’’

आज पस्सराम जब कुदरकोट आने लगा था तो सतिया भी उसके साथ ज़िद करके चल दी थी। बच्चों का जुलूस जब बाजा़र से निकल रहा था, तो उसे देखकर पस्सराम सतिया की उंगली पकड़कर एक किनारे खडा़ हो गया था। सतिया विस्फाारित नेत्रों से जुलूस को देख रही थी कि तभी उसे जुलूस में झंडा उठाये मोहित दिखाई पड़ गया था। सतिया आज पहली बार अपने गांव से बाहर आयी थी और उसके मन में बड़ा उछाह भरा था। मोहित केा यहां देखकर वह समस्त वर्जनाओं को भूलकर अपने पिता की उंगली छुड़ाकर मोहित की ओर दौड़ ली थी।

उसकी यह हरकत जुलूस के साथ चल रहे मुंशी जी ने देख ली थी और उन्होने जोऱ से उसे डांटना शुरू कर दिया था,

‘‘हट हट, हुंअईं ठाडी़ रहिये। काउू कौं छुइये ना। हट हट, वहीं खडी रहना, किसी को छूना नहीं।’’

मुंशी जी की कड़क आवाज़ सुनकर वह सहमकर खडी़ हो गई थी और छलछलाती आंखों से मोहित की और देखती रही थी। मोहित के सम्वेदनशील मन को सतिया का इस तरह दुत्कारा जाना बुरा लगा था और वह देर तक उसकी ओर सहानुभूतिपूर्वक देखता रहा था, परंतु जुलूस से बाहर आकर सतिया से मिलने का साहस न कर सका था।

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कुदरकोट की रामलीला दूर दूर के गांवों तक प्रसिद्ध थी। दस दिन तक चलने वाले इस भक्तिरसपूर्ण मनोरंजन की प्रतीक्षा साल भर सबको रहती थी, परंतु धनुष भंग के दिन होने वाला लक्ष्मण-परशुराम सम्वाद इस रामलीला का प्रमुख आकर्षण था। इसकी ख्याति परशुराम का पार्ट करने वाले पंडित गयाप्रसाद के कारण बहुत बढ़ गई्र थी। यद्यपि रामलीला में राम, लक्ष्मण और सीता की भूमिका निभाने वाले बालक पूज्यनीय होते थे, परंतु परशुराम की भूमिका वाले पं. गयाप्रसाद सबके प्रिय पात्र थे। वह कुदरकोट से दस कोस दूर रहते थे और सबसे अधिक मंहगे परशुराम थे, परंतु कुदरकोट के रामलीला के आयोजक प्रतिवर्ष उन्हीं को परशुराम का पार्ट करने के लिये बुलाते थे क्योंकि एक बार वह लक्ष्मण पर क्रोध दिखाते हुए इतना उछले थे कि वह तख्त, जिस पर मंच बनाया गया था, ही टूट गया था। इससे दर्शक आनंदातिरेक में देर तक तालियां बजाते रहे थे। तब से वह तखततोड़ परशुराम मशहूर हो गये थे और रामलीला के दिन आने के काफी़ पहले से कुदरकोट की रामलीला समिति उन्हें अग्रिम बयाना देकर आमंत्रित कर लेती थी। इस लक्ष्मण-परशुराम सम्वाद के मंचन में तुलसीकृत रामचरितमानस में लिखे सम्वाद का कुछ ही अंश होता था, अपितु अपनी गेयता के लिये प्रसिद्ध राधेश्याम रामायण के अंशों की प्रधानता रहती थी। इसके अतिरिक्त लक्ष्मण और परशुराम की तारीफ़ इसमें समझी जाती थी कि मंचन के समय तत्काल ऐसे समयोचित सम्वाद बना लें जो दर्शकों को मुग्ध कर सकें। लक्ष्मण, जो क्षत्रिय थे, और परशुराम, जो ब्राह्मण थे, दोनो अपनी अपनी वीरता का बखान करते हुए क्रमश ब्राह्मण एवं क्षत्रियों की एक दूसरे से लज्जापूर्ण पराजयोें को दोहा, चैपाई आदि में गा गाकर बखानते थे। इन बखानों में केवल कवित्व का जोश नहीं रहता था वरन् हर दोहे अथवा छंद का अंत ढोलक की एक थाप के साथ होता था और इस थाप के साथ सम्वाद बोलने वाले लक्ष्मण अथवा परशुराम मंच पर उछलते हुए तख्त पर पैर की थाप मारते थे। यद्यपि लक्ष्मण और परशुराम दोनों के जोशीले बोल और जो़रदार उछलकूद दर्शकों को आह्लादित करते थे, परंतु चूंकि कुदरकोट में और आस पास के गांवों में ब्राह्मणों का बाहुल्य था अत लक्ष्मण-परशुराम के बखानों में परशुराम की विजय होने पर अधिकतर दर्शकों के हृदय विशेष तौर पर गदगद हो जाते थे। लक्ष्मण का पार्ट करने के लिये किसी बालक अथवा नवयुवक को चुना जाता था जबकि परशुराम का पार्ट करने वाले मंजे हुए अभिनेता थे, अत दोनों की वीरता के बखानों में परशुराम का अधिक प्रभावी होना लगभग तय रहता था।

हथिया नक्षत्र, जिसमें वर्षा ज्ञतु की समाप्ति पर बडी़ बडी़ बूंदों की बौछार छोड़ते हुए बादल उड़ते चले जाते हैं, को बीते हुए एक माह बीत रहा था। गर्मी अपनी चुभन खो चुकी थी और किसी किसी संध्या की वायु के झोंके में गुलाबी जाडे़ की लहर आने लगी थी। रामलीला का समय आ चुका था। क्वार माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया की रात्रि में लक्ष्मण परशुराम सम्वाद का मंचन था। उस दिन मानीकोठी के अधिकतर पुरुष और बच्चे रामलीला देखने गये हुए थे- मोहित भी उन्हीे में से था। सतिया भी ज़िद करके अपने पिता के साथ रामलीला देखने चली गइ्र्र थी। मंच के सामने कई खेस और जाजिम बिछा दी गईं थी, जिन पर सवर्ण लोग और उनके परिवार बैठ गये थे, अन्य जातियों के लोग पीछे ज़मीन पर बैठै थे और अस्पृश्य माने जाने वाले लोग सबसे पीछे दूसरों से दूरी रखकर बैठे हुए थे- पस्सराम और सतिया भी पीछे एक कोने में बैठे हुए थे। सतिया एक दो बार उठकर आगे चलने को हुई थी परंतु पस्सराम ने उसे घसीटकर अपनी गोद में बिठा लिया था। धुंधलका होते ही मंच पर एक धुंआता सा पेट्ोमैक्स जला दिया गया था। इतना अधिक प्रकाश गांव के बच्चों को केवल शादी-विवाह के अवसर पर देखने को मिलता था, अत पेट्ोमैक्स के जलते ही उनके हृदय प्रफुल्लित हो उठे थे। राजकुमारों की वेशभूषा में सुसज्जित अनेक युवक एवं प्रौढ़ पाश्र्व से आकर मंच पर विराजमान हुए और उनके सामने एक धनुष, जिस पर प्रत्यंचा नहीं चढी़ थी, रखा गया। फिर कुछ देर में एक गायक ने दोहे चैपाई गाकर दधीचि की हड्डियों से बने धनुष के माहात्म्य का बखान किया एवं घोषणा की कि जो राजकुंवर उस धनुष पर प्रत्यंचा चढा़ देगा, सीता जी स्वयम्वर में उसी का वरण करेंगीं। सभी हट्टे कट्टे दिखने वाले राजकुमार एक एक कर उठे, परंतु उनमें से कोई धनुष को उठा तक न पाया। जब जनक निराश होकर कहने लगे कि पुत्री जानकी कहीं कुंआरी ही न रह जाय, तब पीले रंग की धोती पहने और उसी से कंधों को आंशिक रूप से ढके, माथे को गेरुआ तिलक और श्वेत बिंदियों से सजाये, केशों का जूडा़ बनाये, कमनीय मुख वाले धनुषधारी राम के मंच पर साक्षात दर्शन हुए और राम का दमकता हुआ मुखारबिंद देखकर दर्शक श्रद्धा और प्रेम के वशीभूत हो गये।

राम ने बिना किसी विशेष प्रयास के तिनके की तरह धनुष को उठाया और उस पर प्रत्यंचा चढा़ने हेतु उनके द्वारा उसे मोड़ते ही वह बीच से टूट गया- दर्शकगण में हर्षातिरेक छा गया। धनुष भंग कर दिये जाने के उपरांत मंच पर परशुराम क्रोधित मुद्रा में दहाड़ते हुए प्रकट हुए कि किसने ब्रह्मर्षि दधीचि की हड्डियों से बना धनुष तोड़ने का दुस्साहस किया है? राम कोई उत्तर देते उससे पहले ही लक्ष्मण बीच में कूद पडे़ और परशुराम को चैलेंज करने लगे और दोनों में वाक्युद्ध प्रारम्भ हो गया। दर्शकगण मंत्रमुग्ध होकर उनके सम्वादों का रसास्वादन करने लगे। इस बीच मोहित को पीछे से किसी बच्चे के रोने की आवाज़ आई। उसने पीछे मुड़कर देखा तो कुछ दूर पर घबराई सी खडी़ सतिया रोते हुए मोहित को पुकार रही थी। इसके पहले कि कोई इस बात पर ध्यान देता कि एक अछूत लड़की सवर्णों के मध्य आ गई है, मोहित ने उठकर सतिया का हाथ पकड़ लिया और उसे भीड़ से बाहर पीछे ले आया और उससे रोने का कारण पूछने लगा। सतिया ने सिसकते हुए उत्तर दिया,

‘‘बापू जा कह कें बाहिर चले गये हते कि हियईं बैठियो, हम पेसाब करकें आत हैं, लेकिन देर हुइ गई्र है नाईं लौटे हैं। बापू यह कहकर चले गये थे कि यहीं बैठो, मैं पेशाब करके अभी आ रहा हूं, परंतु देर हो गई है वह नहीं लौटे हैं।’’

मोहित को आंखों में मोटा सा काजल लगाये हुए उससे रक्षा की गुहार करने वाली सतिया बडी़ अच्छी लगी थी, और वह उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे सांत्वना देने लगा था। सतिया के अंतर्मन में भी मोहित का सान्निध्य चकोर के लिये चांद की प्राप्ति के समान था; उसे मोहित का स्पर्श न केवल सांत्वनादायक वरन् मनभावन भी लग रहा था। वह चुप होकर मुस्कराने लगी थी। फिर कुछ दूरी पर पस्सराम को आते देखकर मोहित घबरा गया था कि कहीं सतिया के कंधे पर हाथ रखे हुए पस्सराम उसे देख न ले और उसने झटके से अपना हाथ हटा लिया था। पस्सराम को देखकर वह अपनी झेंप छिपाते हुए बोल पडा़ था,

‘‘सतिया कौं सम्हारौ। जा रोत हती। सतिया को सम्हालो। यह रो रही थी।’’

पस्सराम कृतज्ञ नेत्रों से मोहित को देखकर खीसें निपोरकर बोला था,

‘‘अरे नेक देर का हुइ गई, ताई मैं रोअन लगी। अरे थोड़ी सी देर क्या हो गई, उसी में रोने लगी।’’

सतिया केा मोहित को छूने की जितनी वर्जना मिल रही थी, उसका उग्र मन उतना ही मोहित के साथ लिपटकर खेल कूद करने को लालायित रहने लगा था। आज अकेले में मोहित द्वारा बिना झिझक उसका हाथ पकड़कर उसे दर्शकों की भीड़ से पीछे लाने एवं कंधे पर हाथ रखकर आश्वस्त करने से सतिया को लगा था कि मोहित को उसको छूने में कोई बुराई्र नहीं लगती है। मन को मिले इस आष्वासन से सतिया के मन में लड्डू फूट रहे थे।



स्वतंत्रता आने के बाद सवर्णाें के अतिरिक्त बीच की जातियों के काफी़ बच्चे भी स्कूल जाने लगे थे। इनमें अपवादों को छोड़कर सभी लड़के होते थे। कुछ लड़कियां प्राथमिक पाठषाला तक पढ़ने जातीं थीं। उसके पष्चात उनको पढ़ाने का साहस बिरला बाप ही कर सकता था- एक तो लड़कों की संगत का भय और दूसरे गांव के बड़े-बूढ़ों के तानों की बौछार। ‘अछूत’ मानी जाने वाली जातियों के बच्चों को स्कूलों में अब भी हेय दृष्टि से देखा जाता था, परंतु उन्हें भी भर्ती करने और समान रूप से शिक्षा देने का शासकीय आदेश होने के कारण उनके कुछ बच्चों ने पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था। हल्ला ‘अछूतों’ की शिक्षा के घोर विरोधी थे, और प्राय उनके स्कूल जाने वाले बच्चेंा को लेकर उनके पीठ पीछे एवं उनके सामने भी ताने कसा करते थे; परंतु जब सतिया करीब पांच साल की हो गई और उनके एवं कमलिया के मौके-बेमौके समागम के बीच ‘कबाब में हड्डी’ की भांति आने लगी, तो उसे दूर रखने के उद्देश्य से उन्होने एक दिन पस्सराम को बुलाकर कहा था,

‘‘तुम्हाई बिटिया तौ हुसियार लगत है। बाय स्कूल मैं भरती कराय देउ। तुम्हारी बिटिया तो होशियार लगती है। उसे स्कूल में भर्ती करा दो।’’

पस्सराम अपनी संतान को- एवं विषेशकर पुत्री को- पढ़ाने की बात सोच भी नहीं सकता था और उसे मालिक का यह कोई नया मजा़क लगा था। वह फिक्क से हंस दिया था, परंतु हल्ला ने फिर गम्भीर होकर कहा था,

‘‘कल्ल दस बजें बाय लैकें हेडमास्टर साहब के ढिंगां पहुंच जइयौ। हम भरती कर लीबे के लैं कह दियैं। पढ़ाई मैं तुम्हाओ कछू खरचउू नाईं हुययै, काये सै अछूतन की फीस सरकार सै माफ़ है और उूपर सै बजीफा और मिलत है। कल दस बजे उसे लेकर हेडमास्टर साहब के पास पहुंच जाना। मैं भर्ती कर लेने के लिये कह दूंगा। पढ़ाई में तुम्हारा कुछ खर्च भी नहीं होगा, क्योंकि ‘अछूतों’ की फ़ीस माफ़ है और उूपर से वजीफ़ा भी मिलता है।’’

पस्सराम समझ गया कि यह सुझाव नहीं आदेश है और उसने घर आकर कमलिया से इसकी चर्चा की। कमलिया पहले तो अविश्वास से आश्चर्यचकित हुई, पर सोचने पर उसे लगा कि इसमें सतिया की भलाई ही है। शायद पढ़ लिख जाने पर वह उसकी तरह यौन शोषण का शिकार होने से बच जायेे। अत उसने कह दिया,

‘‘कोई हज्ज नाईं है, पढ़ लिख कें चिट्ठी पत्री तौ बांचन लगयै। कल्ल स्कूल मैं भरती कराय देउ। कोई हर्ज़ नहीे है, पढ-़लिख कर चिट्ठी पत्री तो पढ़ने लगेगी। कल स्कूल में भर्ती करा दो।’’

सतिया जब अपनी अम्मा के साथ सबेरे-सबेरे मोहित के घर जाती थी, तब मोहित केा स्कूल के लिये साफ़ कपडे़ पहिनकर, बालों में कड़ुआ तेल लगाकर और बस्ता कंधे पर उठाकर जाते हुए हसरत भरी निगाहों से देखा करती थी। स्कूल में पढ़ने जाने की बात जानकर उसके मन में लड्डू फूटने लगे। उसे लगा कि वह भी मोहित की तरह सजघज कर जायेगी और वहां उसके साथ ही रहेगी। दूसरे दिन मां ने उसका मंुह धोया पोंछा और बापू के साथ स्कूल भेज दिया। कपड़े बदलने को थे ही नहीं, परंतु इससे सतिया का उत्साह कम न हुआ। वह सोच रही थी कि स्कूल में वह मोहित के पास ही बैठेगी, परंतु स्कूल में उसका प्रथम अनुभव बडा़ कटु रहा। हेडमास्टर साहब ने नाक भैंा सिकोड़ते हुए उसे भर्ती तो कर लिया, परंतु ‘अलिफ़’ कक्षा में सवर्णों के बच्चों से अलग बैठा दिया, जहां अन्य अछूतों के कुछ बच्चे बैठै हुए थे। सतिया को न तो मोहित की कक्षा में बैठने को मिला था और न अपनी कक्षा में सबके साथ बैठने का। दाखिला कराके पिता के जाने के बाद वह सिसकने लगी थी और किसी द्वारा उस पर ध्यान न देने पर वह कक्षा से उठकर रोते हुए इधर उधर घूमने लगी थी। तभी उसे मोहित अपनी कक्षा में बैठा दिखाई दे गया था और वह धीरे से उसके पास जाकर खडी़ हो गई थी। यद्यपि उस समय मोहित की कक्षा में अध्यापक नहीं थे, तथापि वह सतिया को अपने पास खडा़ देखकर चकरा गया था और घबराहट में उससे बोल पडा़ था,

‘‘सतिया! तुम हिंयां का कर रहीं हौ? सतिया! तुम यहां क्या कर रही हो?’’

तब अन्य बच्चों का ध्यान भी उस पर आकृष्ट हो गया था और वे बोल पडे़ थे,

‘‘हट, हट हिंयां सै। हट, हट यहां से।’’

सतिया केा इससे अपमान एवं दुख की अनुभूति हुई थी, और वह अपनी सहायता हेतु मोहित को देखने लगी थी। मोहित के मन में सतिया के प्रति सहानुभूति एवं अपनत्व उभरा था परंतु वह उसे किसी प्रकार की सांत्वना अथवा सहायता देने में अपने को असमर्थ समझकर सतिया को वहां से चले जाने को कहने लगा था। सतिया इससे मर्माहत हो गई थी और रोना बंद कर चुपचाप अपनी कक्षा में आकर बैठ गई थी। इस घटना के बाद सतिया ने स्कूल में मोहित के निकट आना तो कम कर दिया परंतु मोहित से निकटता की उसकी चाह अदम्य ही रही थी और वह मोहित के स्कूल से घर आने पर और घर से स्कूल जाने पर उसके पीछे पीछे चलती रहती थी। मोहित कनखियों से उसे अपने पीछे आते देखता रहता था और सतिया जानती थी कि मोहित उसको पीछे आते हुए बीच बीच में देखा करता है। मोहित और सतिया दोनों का मन साथ साथ चलने को होता था परंतु न तो मोहित चार कदम पीछे चलता था और न सतिया चार कदम आगे। मोहित प्राय अपने साथियों से बात करने में व्यस्त रहता था और सतिया चुपचाप उसकी बातों में रस लिया करती थी।

इस तरह की शांत लुकाछिपी में माह और वर्ष व्यतीत हो रहे थे। एक दिन जब मोहित अकेला स्कूल से घर आ रहा था और सतिया उसके पीछे पीछे आ रही थी, तो सतिया के नंगे पैर में बडा़ सा कांटा चुभ गया था और वह पीडा़ से चीख कर बैठ गई थी। मोहित ने घबराकर पीछे देखा था और उसके पैर में निकलते खून केा देखकर दुखी होकर उसके निकट बैठ गया था। फिर उसका पैर अपने हाथों में पकड़ कर कांटा निकालने लगा था। कांटा निकल जाने पर भी कुछ देर तक सतिया के पैर में पीडा़ बनी रही थी और मोहित उसके आंसू अपने हाथ से पोंछते हुए उसे सांत्वना देता रहा था और जब सतिया की पीडा़ कम हई थी, तभी उसके साथ साथ साथ घर वापस आया था। सतिया का मन उस दिन बड़ा उल्लसित रहा था और उसे रात में देर तक नींद नहीं आई थी- उसे पैर की पीड़ा में भी सुखानुभूति होती रही थी।

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मानिकपुर के इतिहास मंे प्रथम बार एक नवीन प्रकार की हलचल थी- चुनाव की हलचल।

दीवाली, होली, रक्षाबंधन, दशहरा जैसे त्योहारों अथवा किसी के यहां जन्म, विवाह, तिलक या कथा के अवसर पर ग्रामवासियों के जीवन में होनेवाली हलचल से ग्रामवासी परिचित थे। इन अवसरों के अतिरिक्त किसी सपेरे, जोगी, नट, बंदरवाले, भालू वाले अथवा बाइस्कोपवाले के गांव में आने के अवसर पर बच्चों के जीवन में उठने वाली तरंगों से भी उनका परिचय था। इनके अतिरिक्त गांव का जीवन शीत ऋतु की मैदानी नदी की भांति एक सा बहता रहता था- ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति की दिनचर्या भी उसकी जाति, लिंग एवं सामाजिक स्थिति के अनुसार निश्चित थी। विशेषत ग़रीब जातियों के घरों की स्त्रियों का ढर्रा तो अपनी लकीर से बिल्कुल अलग नहीं होता था। घर की स्त्रियों की दिनचर्या ब्राह्मवेला में जागकर घुरुर-घुरुर करती चक्की पर आटा पीसने से प्रारम्भ होती थी। फिर अंधेरे में ही लोटा में पानी लेकर किसी खेत में जाकर निवृत्त होना पड़ता था- इस क्रिया हेतु उच्च जाति की स्त्रियों को भी खेत में ही जाना पड़ता था क्योंकि संडास या फ़्लश के विषय में किसी को ज्ञान नहीं था। पुरुषों को दिन में भी खुले आम बम्बा छोटी नहर अथवा पोखरी के किनारे किसी खेत में बैठ जाने की आजा़दी थी और वे निवृत्त होने के बाद वहां से उठकर बम्बा या पोखर पर जाकर उसके पानी से शौच करते थे। स्त्रियां शौच के उपरांत घर लौटकर मिट्टी से हाथ धोतीं थीं और मिट्टी से ही लोटा धोतीं थीं। फिर चूल्हे की राख से दांत मांजतीं थीं। तब तक पुरुष भी नाश्ता लेने और काम पर जाने के लिये तैयार हो जाते थे। स्त्रियां पुरुषों को सत्तू या पिछली रात्रि में बनाई मक्का या जौ की बासी रोटी खिला देतीं थीं और उसमें बची खुची स्वयं खा लेतीं थीं। फिर पुरुषों द्वारा अपने अथवा अपने मालिकों के हल-बैल लेकर खेत पर जाने पर स्त्रियों द्वारा बच्चों की देखभाल के अतिरिक्त बडे़ लोगों के घरों का सफा़ई करना, जानवरों का गोबर कूडा़ करना और दूध दुहना आदि काम निबटाये जाते थे। तत्पश्चात दोपहर का भेाजन बनाकर स्त्रियां पुरुषों के लिये भोजन और लोटे में पानी लेकर खेत पर पहुंचातीं थीं। वापस लौटकर घर में सबके खाने के बाद ही खाना खातीं थीं। फिर एक आध घंटा के आराम के बाद ओखली में कुटाई, मिथैारी बड़ी बनाना, फटे कपडो़ं की मरम्मत करना जैसे काम प्रारम्भ हो जाते थे। दिन ढलते ढलते रात का खाना बनाना प्रारम्भ हो जाता था। रात में सबके खा पी चुकने के बाद स्वयं खाना खाकर और चैका बर्तन धोकर विवाहित स्त्रियों को पति-संतुष्टि का काम भी शेष रह जाता था। कमलिया की दिनचर्या भी कुछ कुछ ऐसी ही थी और विवाहोपरांत इसी प्रकार की दिनचर्या को बिना किसी ना-नुकुर किये अपनाने का प्रशिक्षण कमलिया अपनी बिटिया को भी देने का प्रयत्न कर रही थी, परंतु कभी कभी सतिया द्वारा उस प्रशिक्षण को मन से ग्रहण करने के विषय में उसे गम्भीर शंका होने लगती थी। यद्यपि सतिया कमलिया की खुली अवहेलना नहीं करती थी, परंतु कभी कभी उसके हाव-भाव और तेवर देखकर कमलिया सशंकित हो जाती थी कि ससुराल में जाकर सतिया आदर्श ग्रहणी साबित होगी भी या नहीं।

देश के प्रथम चुनाव की घोषणा हो चुकी थी और पिछले कुछ दिनों से गांव में नेता लोगों का आगमन प्रारम्भ हो गया था। आज चुनाव में वोट मंागने ठाकुर गजेंद्र सिंह आये हुए थे। ठाकुर गजेंद्रसिंह सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी थे। उनके विरोध में प्रमुख प्रत्याशी कांग्रेस के शुक्ला जी थे; उनके बेटे का विवाह हल्ला की पुत्री से हुआ था, अत हल्ला कांग्रेस के प्रत्याशी शुक्ला जी, जो उनके समधी भी थे, को जिताना चाहते थे। यद्यपि देश के अधिकतर ‘हरिजन’ कांग्रेस के पक्ष में थे, परंतु हल्ला के अत्याचारों के कारण मानिकपुर गांव के ‘हरिजन’ मन ही मन चाहते थे कि शुक्ला जी हार जांयें। गजेंद्रसिंह अपनी नई खरीदी हुई चमकदार बी. एस. ए. सायकिल पर बैठकर आये थे। उनके साथ एक प्रौढ़ सज्जन तथा तीन नवयुवक अपनी पुरानी सायकिलों पर आये थे। उन दिनों के अधिकतर नेता वे थे जिन्होने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था और देश के लिये कुछ न कुछ त्याग किया था। नेताओं के पास प्राय जीपें और कारें नहीं होतीं थीं। अधिकतर नेता हिंद सायकिल पर चला करते थे। जिन नेताओं की आर्थिक दशा औरों से कुछ अच्छी होती थी वे बी. एस. ए. या हक्र्यूलिस सायकिल पर चलते थे। अगर किसी नेता का कोई पैसे वाला चेला होता था, तो वे उसकी बुलेट मोटरसायकिल पर पीछे बैठकर वोट मांगने आते थे। किसी नेता के साथ कोई गनर या शेडो लगे होने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। गजेंद्रसिंह के साथ आने वाले नवयुवक वे थे जो खेत खलिहान पार करते समय अथवा गांव आ जाने पर उनकी सायकिल पकड़कर पीछे चलने लगते थे। इन युवकों का भविष्य में स्वयं भी नेता बनने का सपना था। प्रौढ़ सज्जन की सायकिल के कैरियर में एक छोटी सी तिरपाल और रस्सी बंधी हुई थी और नवयुवकों में एक की सायकिल के कैरियर में एक लाउडस्पीकर ओर दूसरे की सायकिल में एक बैटरी बंधी हुइ्र्र थी। ये लोग लालजी शर्मा की बैठक पर आये थे। बैठक पर पहुंचते ही एक युवक ने तिरपाल कैरियर से निकाल कर उसके कोनों को रस्सियों से बांधना प्रारम्भ कर दिया था। फिर एक कोने को चबूतरे पर खडे़ नीम की डाल से, दूसरे और तीसरे को दीवाल में लगी खूंटियों से और चैथे को कुंएं के खम्भे की मुंडेर से बांध दिया था। दूसरे युवक ने लाउडस्पीकर में बैटरी फिट कर के ‘हलो-हलो’ बोलना प्रारम्भ कर दिया था। नवयुवकों में उदयप्रतापसिंह नाम का युवक अन्यों से अधिक होशियार था और लाउडस्पीकर के काम को वही सम्हाल रहा था। लालजी शर्मा द्वारा खबर करवा देने पर गांव वाले इकट्ठे होने लगे थे। इसमें ‘हरिजनों’ को भी बुलाया गया था क्योंकि उनके वोट काफी़ थे। गजेंद्रसिंह, उदयप्रतापसिंह, लालजी शर्मा, हल्ला, हरीराम चैबे, रतीराम पाठक आदि सवर्ण बैठक के सामने पडे़ तख़्त और चारपाईयों पर बैठ गये थे। धर्माई नाई, रामू भुर्जी, रामकुमार कुम्हार, भग्गी और कलू काछी, राजाराम बढ़ई आदि कुंएं के चारों ओर बनी फ़र्श की मुंडेर पर बैठ गये थे। ‘हरिजन’ बैठक के चबूतरे के एक किनारे पर बैठ गयेे थे। यद्यपि शासन ने अस्पृश्यता समाप्त करने की घोषणा कर दी थी, तथापि समाज का उच्च वर्ग चुनाव में वोट मांगते समय भी इस प्रथा को तोड़ना नहीं चाहता था और सदियों से अछूत माने जाने वाले लोगों में स्वयं इसे तोड़ने का साहस नहीं था। सतिया की झोपडी़ हल्ला के मकान के बगल में थी और लालजी शर्मा की बैठक के सामने। बीच में बस कुंआ था। लालजी शर्मा या हल्ला के मकान की बैठक पर ही प्राय चुनावी मीटिंगें आयोजित होतीं थीं। सोशलिस्ट पार्टी के नेता प्राय लालजी शर्मा के यहां आते थे और कांग्रेस वाले हल्ला के यहां आते थे। यद्यपि लालजी शर्मा को सोशलिस्ट अथवा कांग्रेस में किसी से कोई लगाव नहीं था परंतु चूंकि सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी गजेंद्रसिेह सर्व प्रथम पंडित लालजी शर्मा से वोट मांगने हेतु मिले थे और हल्ला के समधी के विरोध में थे, अत वह मन ही मन सोशलिस्ट पार्टी के पक्ष में हो गये थे। परंतु किसी भी पार्टी के उम्मीदवार के आने पर और उनका बुलावा आने पर लालजी शर्मा और हल्ला एक दूसरे के दरवाजे़ पर चले जाते थे। उन दिनों राजनीति में आज जैसी शत्रुता की भावना नहीं थी। आज भी हल्ला लालजी शर्मा की बैठक पर आये थे और ठाकुर गजेंद्रसिंह द्वारा पालागन कहने पर उन्हें मुस्कराकर आशीर्वाद दिया था।

मीटिंग प्रारम्भ होने पर सर्वप्रथम प्रैाढ़ सज्जन ने मीटिंग बुलाये जाने के उद्देश्य और चुनाव की महत्ता पर प्रकाश डाला। फिर उदयप्रतापसिंह ने गजेंद्रसिंह के व्यक्तित्व एवं जनसेवा की भावना का गुणगान किया। तत्पश्चात ठाकुर गजेंद्रसिंह ने अपनी पार्टी की़ नीतियों को सर्वजनहिताय बताते हुए उन्हीं से देश का हितसाधन होने की बात कही और उनके चुने जाने पर उस गांव की कायापलट कर देने के वादे किये; एवं स्वयं को वोट देने हेतु सबसे अनुरोध किया। उन्होने गांव वालों से यह भी कहा कि यदि उनकी पार्टी जीत गई तो समाज में व्याप्त अशिक्षा, बेगारी, भुखमरी, छुआछूत, शोषण आदि को समाप्त कर असली रामराज स्थापित कर देगी। उनकी बात किसने कितनी समझी, यह कहना कठिन है परंतु अधिकतर श्रोता हामी में अपना सिर ऐसे हिलाते रहे जैसे वे वक्ता से पूर्णत सहमत हों- गांव वाले न तो हल्ला के बुरे बन सकते थे और न लज्जराम के।

इन मीटिंगों के आयोजित होने पर सतिया प्राय अपनी झोपडी़ से बाहर आकर खडी़ हो जाती थी और ध्यान से नेताओं की चिकनी चुपडी़ बातों और ग्राम के विभिन्न जातियों के लोगों की प्रतिक्रिया सुनती-देखती रहती थी। सतिया उनमें से कुछ बातें समझ पाती थी और कुछ नहीं समझ पाती थी, परंतु उसकी समझ में यह अवश्य आने लगा था कि उसके गांव में प्रचलित अनेक प्रथायें अन्यायपूर्ण हैं, जिनको बदलने की बात नेता लोग करते हैं।

चुनाव का वास्तविक व्यूह तो तब रचा जाता था जब अन्य लोग चले जाते थे और विशिष्ट व्यक्ति ही रह जाते थे। तब सारी मंत्रणा का उद्देश्य यह रहता था कि क्या क्या हथकंडे अपनाकर किस किस जाति के वोट अपने पक्ष में किये जा सकते हैं। ये मंत्रणायें भी हल्ला या लालजी शर्मा की बैठक पर ही होतीं थीं, और सतिया किसी बहाने वहीं आसपास खडी़ होकर चुपचाप इन मंत्रणाओं को घ्यान से सुनती रहती थी। उसे इन मंत्रणाओं केा सुनने में आंतरिक रुचि रहती थी और एक प्रकार के उल्लास का अनुभव होता था। उस दिन भी मीटिंग समाप्त होने पर जब शाम का अंधियारा घिरने लगा और बैठक पर गजेन्द्रसिंह व उनके साथी तथा लालजी शर्मा ही रह गये थे, तब गजेंद्रसिंह ने लालजी शर्मा से कहा,

‘‘पंडित जी, जा बताउ कि आप के गांव के ‘अछूत’ कियैं जययैं। सुनी है कि हल्ला उनके बोट कांग्रेस कौं दिबैबे की पूरी कोशिश कर रहे हैं। पंडित जी, यह बताइये कि आप के गांव के ‘अछूत’ किधर जायेंगे। सुना है कि हल्ला उनके वोट कंाग्रेस को दिलाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं।’’

लालजी शर्मा बोले,

‘‘बात तौ सांची है लेकिन पस्सराम को ‘अछूतन’ पै काफी जोर है और आजकल बू हमाई बात मानत है। बात तो सही है लेकिन पस्सराम का ‘अछूतों’ पर काफ़ी जो़र है और आजकल वह मेरी बात मानता है।’’

तब तक लालजी शर्मा कोे कुछ दूरी पर खड़ी सतिया दिखाई दे गई थी और उसकी ओर देखकर वह कहने लगे थे,

‘‘जाउ, अपयें बापू कौं भेज देउ। जाओ, अपने बापू को भेज दो।’’

सतिया अपने बापू को लिवा लाई और फिर कुछ दूरी पर जाकर ऐसे खड़ी हो गई, जैसे उसे इस बातचीत से कोई मतलब ही न हो। तब लालजी शर्मा ने पस्सराम से धीरे से कहा,

‘‘कहौ, अब गांव के ‘हरिजन’ कियैं जाय रहे हैं? कहो, अब गांव के हरिजन किधर जा रहे हैं।’’

पस्सराम ने सहमी हुई आवाज़ में उत्तर दिया,

‘‘मालिक! हम तौ पूरी कोसिस कर रहंे हैं कि सब लाल टोपी कौं बोट दें, लेकिन हल्ला ने ‘अछूतन’ कौं धमकाय रखो है कि जो लाल टोपी कौ बोट दियै, बाय बे अपओं खेत जुतबे के लैं बटाई पै नाईं दियैं। ‘अछूतन’ कौं जू डर और है कि जिननें हल्ला सै पैसा उधार लेत बखत सादे कागज पै अंगूठा लगाय रखो है, उन पै बे कागज मैं दस गुनी रकम लिख कें नालिस न कर देंय। मालिक, हम तो अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश कर रहे हें कि सब लाल टोपी सोशलिस्ट को वोट दें, परंतु हल्ला ने हरिजनों को धमका रखा है कि जो लाल टोपी को वोट देगा, उसे वह अपना खेत जोतने को नहीं देंगे। हरिजनों को यह डर और है कि जिन्होने हल्ला से पैसा उधार लेते समय सादे काग़ज़ पर अंगूठा लगा रखा है, उन पर वह काग़ज़ पर दस गुना रकम लिखकर नालिश न कर दें।’’

गजेंद्रसिंह यह सुनकर अपना रौब दिखाने के उद्देश्य से एकदम बोल पडे़ थे,

‘‘हम दिखयैं कि हल्ला कैसें ऐसो कर लियैं? अब कोई काउू को गुलाम थोड़ेउूं है? अब देस आजाद है। हम देखेंगे कि हल्ला ऐसा कैसे कर लेंगे? अब कोई किसी का गुलाम थोड़े ही है? अब देश आजा़द है।’’

पस्सराम उनकी इस बात को सुनकर अविष्वास से मुस्करा दिया था क्योंकि वह आज़ादी के धरातलीय सत्य को समझ रहा था। सच तो यह था कि गजेंद्रसिंह स्वयं भी अपनी इस बात पर आश्वस्त नहीं थे कि वह हल्ला को उनके द्वारा दी गई धमकी के कार्यान्वयन से रोक सकते हैं। लालजी शर्मा और पस्सराम गजेंद्रसिेह की बात पर कुछ देर चुप रहे, फिर लालजी षर्मा ने गजेंद्रसिेह को आश्वस्त करते हुए कहा था कि वह उनके लिये पूरा प्रयत्न करेंगे ओर उन्हें आशा है कि अधिकतर ‘अछूत’ पस्सराम की सलाह पर अमल करेंगे।

हल्ला रौब दिखाते हुए कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी शुक्ला जी से कह रहे थे,

‘‘हम दिखययैं, पस्सराम सारो कैसें सोशलिस्टन कौं बोट दिबात है? हम देखेंगे कि पस्सराम साला कैसे सोशलिस्टों को वोट दिलाता है?’’

शुक्ला जी को पता चला था कि अधिकतर ‘अछूत’ कांग्रेस के खिलाफ़ हैं और वह हल्ला से अनुरोध करने आये थे कि पस्सराम पर नियंत्रण रखें और उस पर दबाव डालकर अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों से भी उन्हंे वोट दिलायें। हल्ला ने पहले से ही पस्सराम से कह रखा था कि ‘हरिजनों’ से कह देना कि अपनी ख़ैर चाहते हैं तो वे कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार को ही वोट दें; परंतु उनको भी उड़ती हुई खबर मिली थी कि पस्सराम उूपरी तौर से कांग्रेस पार्टी को वोट देने को कहता था परंतु बाद में अपने विश्वस्त लोगों को यह कहकर भड़काता था,

‘‘हल्ला आज लौ हम लोगन कौं जूता की नोक पै रखें रहे, और आज बोट चांहत हैं अपयें समधी के लैं। अगर इनके समधी जीत गये, तब तौ जे और आगी मूतन लगययें। हल्ला आजतक तो हम लोगों को जूता की नांेक पर रखते रहे हैं और अब वोट मांगते हैं अपने समधी के लिये। अगर इनके समधी जीत गये, तब तो यह और आग मूतेंगे।’’

हल्ला की बात सुनकर भी शुक्ला जी पूर्णत आश्वस्त नहीं हो सके थे और बोले थे,

‘‘सो तौ हम जान्त है कि पस्सराम आप के कंट्ौल सै बाहिर नाईं जाय सकत है, फिरउूं बा पै निगाह रखबे की जरूरत है। सो तो हम जानते हैं कि पस्सराम आप के कंट्ोल से बाहर नहीं जा सकता है, फिर भी उस पर निगाह रखने की ज़रूरत है।’’

हल्ला को अपने समधी के स्वर में अपने ‘कंट्ोल’ पर विश्वास का अभाव लगा, जो उनकी शान के खिलाफ़ था। अत वह बाहरी दरवाजे़ के पास खडी़ सतिया को पुकार कर बोले,

‘‘सतिया! अपयैं बापू कौं भेज देउ। सतिया, अपने बापू को भेज दो।’’

सतिया चुचाप अपनी झोपडी़ में चली गई और पस्सराम को लेकर वापस आ गई। पस्सराम को देखते ही हल्ला गुस्सा दिखाते हुए बोल पडे़,

‘‘पस्सराम सुनी है कि तुम आजकल लाल-टोपी बालन मैं जादां उठत-बैठत हौ? पस्सराम सुना है कि तुम आजकल लाल-टोपी वालों सोशलिस्टों में अधिक उठते बैठते हो?’’

पस्सराम सकपका गया और उसके मुंह से बस इतना निकला था,

‘‘नांईं मालिक, हम आप सै अगल्ल कहाॅ जाय सकत हैं? नहीं मालिक! हम आप से अलग कहां जा सकते हैं?’’

अपनी बात का प्रभाव बढ़ाने के उद्येश्य से हल्ला फिर आंखें तरेर कर बोले थे,

‘‘एक बात याद रखियौ कि मड़इयन को एकौ बोट इयैं सै उयैं गओ तौ तुम्हाई खैर नाईं है। एक बात याद रखना कि मड़इयन हरिजन टोला का एक भी वोट इधर से उधर गया तो तुम्हारी ख़ैर नहीं है।’’

पस्सराम भयवश कांपते हुए साफ़ झूठ बोल गया था,

‘‘मालिक, हम अपईं ओर सै कोई कोर कसर नांईं छुड़ययैं। मालिक, हम अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे।’’

सतिया यह वार्तालाप सुन रही थी और हल्ला की बात सुनकर उसका खून उबलने लगा था। यद्यपि चुनावी राजनीति अथवा चुनाव से प्राप्त होने वाली सत्ता की ताकत का उसे कुछ भी ज्ञान नहीं था, परंतु घर में होने वाली बातचीत से वह जान चुकी थी कि ‘अछूत’ लोग हल-बैल की जोडी़ कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिन्ह के बजाय बरगद सोशलिस्ट पार्टी का चुनाव चिन्ह को वोट देना चाहते हैं। हल्ला की चेतावनी का उल्लंघन कितना घातक हो सकता है, इसका उसे अनुमान था; और यही मजबूरी उसके क्षोभ को असहनीय बना रही थी। वह अपने पिता के पीछे चुपचाप अपनी झोपडी़ में वापस आकर अपने क्षोभ एवं भय पर नियंत्रण करने के प्रयत्न में लेट गईं थी।

ज्यों ज्यों चुनाव का दिन निकट आता जा रहा था, गांव की गलियों का चिर-सूनापन नेताओं एवं उनके सहयोगियों के आगमन, और सायकिलों पर लगे लाउड-स्पीकरों की घ्वनि के कोलाहल में परिवर्तित होता जा रहा था। बम्बा की पुलिया पर, पेडो़ं पर और घरों के सामने विभिन्न पार्टियों के झंडों की झालर लगा दी गई थी, जिससे धूलधूसरित रहने वाली गांव की गलियों में कुछ रंगीनी आ गई थी। प्राय नेताओं के आगमन पर उनके अनुयायी कांग्रेस-जिंदाबाद, महात्मा गांधी की जय, समाजवाद अमर रहे जैसे नारे लगाने लगते थे। कभी कभी सतिया का मन करता कि सोशलिस्ट पार्टी के नेता के आगमन पर वह भी अन्यों के साथ नारे लगाये।

हल्ला को पक्की खबर हो गई्र थी कि सभी ‘अछूत’ सोशलिस्ट पार्टी को वोट देने का मन बना चुके हैं। अत चुनाव वाले दिन के पहले की सायं को हल्ला ने पस्सराम को बुलाकर अंतिम चेतावनी दी थी,

‘‘अगर कोई अछूत बोट डारन गओ, तौ हाथ पांय टुरबाइ दियैं। अगर कोई ‘अछूत’ वोट डालने गया, तो हाथ पैर तुड़वा दूंगा।’’

पस्सराम ने घर आकर जब यह बात कमलिया को बताइ्र्र, तो उसकी प्रतिक्रिया थी,

‘‘ठीकई है- कोई नृप होइ हमैं का हानी, बांदी छोड़ न हुइहौं रानी? ठीक ही है- कोई राजा हो हमारा क्या जाता है? हमें कौन रानी बनना है।’’

परंतु हल्ला की ‘अछूतों’ को वोट डालने की मनाही सुनकर सतिया का मन क्रोध एवं विद्रोह से भर गया था और उसके अतिरेक में उसे उस रात नींद नहीं आई थी।

दूसरे दिन कोई ‘अछूत’ वोट डालने नहीं जा सका था क्योंकि हल्ला ने मड़इयन से लेकर बम्बा पर बने मतस्थल पर जाने वाले रास्ते पर अपने लठैत बिठा दिये थे।

सतिया के रक्त का उबाल तब शांत हुआ था जब पांच दिन बाद चुनाव का परिणाम ज्ञात हुआ था एवं सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी गजेंद्रसिंह विजयी घोषित हुए थे। सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी की विजय से सतिया को ऐसा लगा जैसे हल्ला की ज्यादतियों की पराजय हो गई हो; उसे यह भी आभास हुआ कि चुनाव की ताकत हल्ला की ताकत से उूपर है।

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‘‘मोहित रुकौ। हमैं अंधेरे मैं बहुत डर लग रहो है।’’- सतिया ने घबराते हुए मोहित से याचना की थी।

उस रात्रि कृष्ण पक्ष की रात्रि का गहन अंधकार फैला हुआ था और सतिया के माता-पिता हल्ला के खलिहान पर काम कर रहे थे। सतिया अपनी झोपड़ी में अकेली थी। झोपडी़ में पूर्ण अंधकार था। यद्यपि उसमें एक डिब्बी थी जो केवल कोई त्योहार पड़ने पर अंधेरी रातों में शाम को कुछ देर के लिये जला ली जाती थी। आज कोई त्यौहार नहीं था और घर में मिट्टी का तेल भी उपलब्ध नहीं था। पस्सराम के राशन कार्ड के हिसाब से उसे महीने में एक बोतल तेल कुदरकोट के छविराम बनिया की राशन की दूकान से कंट्ोल के भाव पर मिलने का आदेश था, परंतु त्योहार का एक-आध मौका छोड़कर उसे शायद ही कभी तेल मिल पाया हो। उसके तथा अन्य ग़रीब गांववासियों के कोटे का तेल कोटेदार प्राय अपनी राशन की दूकान तक लाता ही नहीं था। वह शहर में उसे गोदाम से उठाकर वहीं खुले बाजा़र में ब्लैक में बेच देता था। कभी कभी किसी बडे़ आदमी के यहां कोई उत्सव होने पर ग़रीबों के हिस्से का तेल लाता था जिसे बडे़ आदमी को बांट देता था जिससे उनके मुंह बंद रहते थे। राशन के तेल और बाज़ार में ब्लैक में बिकने वालेे तेल के भाव में इतना अंतर होता था कि राशन की दूकान वाले केा इतना मुनाफ़ा हो जाता था कि आपूर्ति विभाग के अफ़सरों को खिलाने-पिलाने के बाद भी उसकी चांदी कटती थी। उस रात भी पस्सराम की झोंपड़ी में डिब्बी जलाने को तेल नहीं था और झोपडी़ की छत पर बैठी दो बिल्लियां बुरी तरह गुर्राकर लड़ रहीं थीं। सतिया के मन में छोटे पर से बिल्लियों का भय समाया हुआ था क्योंकि एक रात जब वह डेढ़ साल की थी तब एक बिल्ली के झोपडी़ में घुसकर रोटी मुंह में दबा लेने पर वह उसकी ओर दौड़ पड़ी थी और बिल्ली ने उस पर आक्रमण कर उसका मुंह नोच लिया था।

उस रात्रि मोहित सूंडी़ नामक खेल खेलते हुए पीछे आती टीम द्वारा अपने को देख लिये जाने से बचाने के लिये बेतहाशा भागा था और अंधेरे में छिपने के लिये छूतछात की बात भूलकर सतिया की झोपडी़ में तीर के समान घुस गया था। सूंडी़ का खेल आजकल के ‘आइस-पाइस’ जैसा होता था और रात्रि के अंधकार में खेला जाता था। इसमें गांव के लड़के दो टीमों में बंट जाते थे और आधे लड़के गांव की गली के एक मोड़ पर और बाकी आधे उसके अगले मोड़ पर खडे़ हो जाते थे। फिर आगे वाले ‘चल बोल’ कह कर आगे भाग कर किसी पेड़ या ठूंठ के पीछे अथवा किसी खाली पडे़ मड़हे में छिप जाते थे और बाकी आधे उन्हें ढूंढते थे। मोहित आज छिपने वाले लड़कों की आगे की टीम में था और पीछे आती टीम की पदचाप सुनकर बिना कुछ सोचे समझे सतिया की झोपडी़ में घुस गया था। पर फिर एक अगमनीय स्थान पर पहुंच जाने का भान होते ही वह लौटने लगा था। तभी अंधेरे में बिल्लियों से भयभीत सतिया ने बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया था तथा उससे लिपटकर रुकने की अनुनय करने लगी थी। सतिया रुंआसी हो रही थी जिससे मोहित रुक तो गया था, परंतु किशोर वय के मोहित को किशोरावस्था में प्रवेश करती भरे पूरे बदन की सतिया का स्पर्श उसके जीवन की प्रथम उत्तेजना देने लगा था और उसका उत्तेजन ज्यों ज्यों बढ़ रहा था त्यों त्यों उसका साहस जवाब देने लगा था। आज उसका भय ‘अछूत’ के स्पर्श के कारण बड़ों द्वारा धिक्कारे जाने का नहीं था, जितना इस आशंका का भय था कि कहीं सतिया को उसकी उत्तेजना की अवस्था का भान न हो जाये तथा यह भय था कि एक लड़की के उससे लिपटे होने की अवस्था में कहीं कोई उसे देख न ले। यद्यपि मोहित के हाथ सतिया को अपने आलिंगन में ले लेने को मचल रहे थे तथापि अपनी अनियंत्रित उत्तेजना एवं आशंका से उसकी पिंडलियां कंपकंपाने लगीं थीं और वह सतिया से अपने को छुडा़कर उलटा भाग लिया था। बाद में बहुत दिनों तक उसके मन को एक आत्मग्लानि मथती रही थी क्योंकि उसको ऐसा लगा था जैसे एक डरपोक सिपाही युद्धक्षेत्र से पीठ दिखाकर भाग लिया हो।

मोहित के साथ खेलने, उसे स्पर्श करने और उसका साहचर्य पाने की इच्छा सतिया के मन में बचपन से पनपती रही थी। सतिया के लिये चूंकि मोहित अप्राप्य घोषित था अत अप्राप्य को येन-केन-प्रकारेण प्राप्त कर लेने के अपने मूल स्वभाव के कारण सतिया के लिये यह लालसा अदम्य भी थी। मोहित के द्वारा रामलीला के अवसर पर एवं कांटा चुभ जाने के अवसर पर एकांत में सतिया के प्रति किये गये व्यवहार और यदा कदा उसके द्वारा अपने को निहारते पाकर सतिया के मन में यह विश्वास भी जम गया था कि मोहित उसे अस्पृश्य नहीं समझता है और उसका साहचर्य चाहता है परंतु सामाजिक प्रतिबंधों के कारण निकट आने का प्रयास नहीं करता है। अपने अच्छे स्वास्थ्य एवं हृष्टपुष्ट शरीर के कारण किशोरावस्था के दस्तक देने के पूर्व ही सतिया के मन में विपरीत लिंगीय आकर्षण का उद्भव भी होने लगा था। आज अकस्मात उसके द्वारा मोहित से लिपट जाने का प्राथमिक कारण बिल्लियों का भय ही था, तथापि लिपटने पर शीघ्र ही सतिया को अपने प्रथम समर्पण की अनुभूति भी होने लगी थी। नारी में प्रथम समर्पण के समय अपने अहं को पुरुष के समक्ष पराजित स्वीकार कर लेने का भाव गहराई से विद्यमान रहता है, और उस समय सतिया के मन में भी समर्पण का यह भाव उदय होने लगा था। आज सतिया ने मोहित के समक्ष न केवल अपना दैन्य प्रकट किया था वरन् अपने अहं को भी मोहित के अहं के समक्ष समर्पित कर दिया था; फिर मोहित द्वारा झट से अपने को छुडा़कर भाग जाना उसके अहं को गहराई तक आहत कर गया था। सतिया आत्मग्लानि एवं दुख से अभिभूत हो गई थी। अवसाद से ग्रस्त होकर उस रात्रि वह देर तक सिसकती रही थी।

पर सतिया सतिया थी- सदैव अपने को सही मानने वाली। शीघ्र ही उसका अवसाद मोहित को अपने वश में कर लेने की अदम्य प्रेरणा में परिणत हो गया था।

‘‘मोहित! तुम अपयें कौं समझत का हौ? तुमैं अपआंे न बनाय लओ, तौ मेरोउू नांव सतिया नाईं है। मोहित तुम अपने केा समझते क्या हो? यदि तुम्हें अपना न बना लिया, तो मेरा भी नाम सतिया नहीं है।’’- सतिया के मन को सांत्वना तभी मिली थी जब उसके मन के किसी कोने में यह निश्चय स्थापित हो गया था कि एक न एक दिन वह मोहित का समर्पण प्राप्त कर उसेे पराजित अवश्य करेगी।

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उस दिन के पश्चात मोहित सतिया के सामने पड़ने में झिझक अनुभव करने लगा था। दो माह पष्चात ही आठवां उत्तीर्ण करने के उपरांत मोहित को गांव से दस कोस दूर स्थित इंटर कालेज में प्रवेश दिला दिया गया था। गांव छोड़ने से पहले मोहित के मन में सतिया से मिलने की अतीव उत्कंठा उठी थी और वह कई बार किसी न किसी बहाने हवेली से निकलकर अपनी बैठक की ओर इस आस में गया था कि सतिया दिखाई पड़ जाये, पर सतिया से दो बात करने अथवा कम से कम उसे निगाह भर देख लेने की उसकी चाह अपूर्ण ही रह गई थी। मोहित ने अपने हृदय में एक कसक लेकर गांव छोड़ा था जो उसे बहुत दिनों तक सालती रही थी। मोहित के चले जाने की बात जानकर सतिया को जितना उससे विछोह का दुख हुआ था, उतना ही इस बात का कि मोहित का समर्पण प्राप्त करने का सम्भवत अब अवसर ही न मिले। इस कचोट के कारण मोहित अब उसके सपनों में आने लगा था और कभी कभी दिवास्वप्नों में भी सतिया मोहित को अपने से प्रेम की याचना करने की कल्पना करती थी।

अब मोहित का गांव में आना जाना किसी किसी रविवार को अथवा अन्य छुट्टियों में ही हो पाता था। छुटपन की भांति अब सतिया अपनी माॅ के साथ उसके घर नहीं आती थी। छुट्टी में गांव में आने पर सतिया को देखने की आस मंे मोहित अपने घर से बाहर निकलते हुए तिरछी निगाहों से सतिया की झोपडी़ की ओर घूर लेता था परंतु उसके निकट जाने के विचार मात्र से उसका मन एक अज्ञात भय से जकड़ जाता था। सतिया भी यदि उसे देख लेती, तो झोपडी़ की ओट में हो जाती थी और ओट में रहकर उसके हाव भाव निरखने-परखने लगती थी। मोहित को प्राय सतिया से मिलने की अतृप्त चाह मन मंे लिये ही वापस लौट जाना पड़ता था। सतिया का मन तब उत्फुल्ल हो उठता था जब वह मोहित को हसरतभरी निगाहों से झोपड़ी की ओर देखता पाती थी। मोहित की प्रत्येक तड़प से उसके मन में लगा घाव कुछ कुछ भर जाता था।

वार्षिक परीक्षा प्रारम्भ होने के पूर्व होली की तीन दिन की छुट्टी में मोहित अपने गांव आया हुआ था। वसंत ऋतु अपने यौवन पर था और होली के हुड़दंग में परिलक्षित हो रहा था। जब हल्ला के दरवाजे़ पर फगुहारे रंग खेल रहे थे, मोहित ने देखा कि सतिया अपनी झोपडी़ के बाहर एकांत में खडी़ हसरत भरी निगाहों से फगुहारों को देख रही थी। मोहित सतिया के उभरते यौवन को देखकर स्तब्ध रह गया- उस समय सतिया के कपडे़ रंग से भीगे हुए थे और उसकी फटी पुरानी कमीज़्ा उसके उभरे वक्ष से चिपकी हुई्र थी। वह जब से गांव में आया हुआ था, हर ओर वसंती रंगीनी और हंसी मजा़क का वातावरण छाया हुआ था और इस रंगीनी में मोहित का मन भी रंगीन हो रहा था। उसने चुपचाप अपनी पिचकारी में रंग भरा और सब की निगाह बचाकर हल्ला के घर से बाहर निकल आया। फिर अकेली खडी़ सतिया के वक्ष पर तानकर अपनी पिचकारी चला दी। यद्यपि मोहित के मन में बडी़ घबराहट थी कि कहीं कोई उसे देख न ले अथवा सतिया बुरा न मान जाये, परंतु आज होली होने के कारण उसका साहस बढा़ हुआ था और वह अपनी कामना के वशीभूत हो रहा था। फिर मोहित यह देखकर आश्वस्त हो गया था कि वक्ष पर पिचकारी की धार पड़ने पर सतिया के चेहरे पर सकुचाहट आने के बजाय उसके होठों पर मंद मंद मुस्कान एवं गालों पर लालामी निखर आई थी और उसके नेत्रों में मोहित के लिये अबाध प्रेम झलक रहा था। तब मोहित भी मग्न होकर उसे एकटक देखने लगा था। दोनों के बीच जब चक्षु-प्रेम का आदान प्रदान हो रहा था, तभी मोहित को लगा कि कुछ फगुहारे हल्ला के घेर से बाहर आ रहे हैं और वह अविलम्ब मुड़कर घेर की ओर जाने लगा था। सतिया ने उसे मुड़ते देखकर विह्वलता से पुकारा

‘मोहित!’

मोहित ने सतिया द्वारा अपने को पुकारे जाते सुना, परंतु उस धुंधलके में अपने को सतिया के निकट खड़ा हुआ देख लिये जाने के भयवश वह बिना कोई उत्तर दिये घेर में धुस गया और अन्य होली खेलने वालों में ऐसे मिल गया था जैसे वह घेर से बाहर निकला ही न हो।

मोहित को विश्वास था कि सतिया पर रंग डालते हुए उसे किसी ने नहीं देखा है, परंतु एक व्यक्ति ने उसको सतिया के वक्ष पर रंग डालते ओर सतिया की प्रेममय प्रतिक्रिया को अपनी गृद्धदृष्टि से देख लिया था- और वह थे हल्ला नम्बरदार।

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