भीगे पंख - 6 Mahesh Dewedy द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भीगे पंख - 6

भीगे पंख

6. मोहित और रज़ि़या एक

जून की चिलचिलाती दोपहरी में हवा एकदम शांत रुकी हुई थी, परंतु फिर भी उूष्मा की लहरें ऐसे प्रवाहित हो रही थीं जैसे ईथर के माध्यम में विद्युत्चुम्बकीय लहरें प्रवाहित होती रहतीं हैं। फ़तेहपुर कस्बे के अधिकतर व्यक्ति बदन को जलाने वाली उस ग्रीष्म से बचने हेतु कमरों की छांव में बंद हो गये थे- और अलसाये उनींदे पडे़ थे। ऐसे में मोहित दबे पांव अपने मौसा के घर से बाहर निकल आया था और पीछे जाकर जामुन के पेड़ की छांव में खडे़ होकर सामने के ताल को देख रहा था, जहां चार बतखें एक पंक्ति में तैर रहीं थीं। आगे तैरने वाला नर और पीछे तैरने वाली मांदा बतखें तो धीर-गम्भीर परंतु सतर्क मुद्रा में आगे बढ़ रहीं थीं परंतु बीच में तैरने वाले दोनों बच्चे कभी-2 पानी में डुबकी लगाकर कुलांच भर लेते थे। जामुन के पेड़ के नीचे हांफता हुआ पड़ा़ एक कुत्ता भी आंखें बंद किये था, बस कभी कभी बतखों को उनींदी आंखों से निहार लेता था। जामुन के पेड़ पर बैठे कौए ने एक कच्ची जमुनी कुतर दी थी जो मोहित के सिर पर आकर गिरी थी, तब उसका ध्यान जामुन के हरे लहलहाते पेड़ पर गया था। जामुन कुछ कुछ ललछौंहे हो आये थे, परंतु अभी पके नहीं थे। मोहित को जामुन बहुत पसंद थे और वह सोच रहा था कि जामुन यदि पक गये होते तो खाने में कितना मजा़ आता, कि तभी पीछे से एक दबी हुई धीमी सी आवाज़ मोहित ने सुनी थी,

‘‘तुम मोहित हो?’’

और वह घूमकर पुकारने वाली लड़की की ओर प्रश्नवाचक नेत्रों से देखने लगा था। छींट के फटे-पुराने कुर्ते और फीके पड़ चुके शोख लाल रंग की सलवार पहिने उस दुबली गोरे रंग की लड़की के गोल चेहरे पर हिरणी जैसी भयभीत आंखें थीं जो न केवल देखने का काम करतीं थीं वरन् बोलतीं भी थीं।

चैथी कक्षा की परीक्षा देने के बाद ग्रीष्मावकाश बिताने हेतु मोहित अपनी माॅ के साथ आज सुबह ही इस कस्बे मे अपनी मौसी के घर आया था। यहां आने का उसका यह पहला मौका था- असल में किसी भी कस्बे में जाने का उसका यह पहला मौका था। उसके मैासा कुछ दिन पहले कानूनगो से नायब तहसीलदार के पद पर प्रोन्नत होकर तहसील फतेहपूर में नियुक्त हुए थे और उन्हें आते ही तहसील प्रांगण में स्थित नायब तहसीलदार का मकान रहने हेतु मिल गया था। तब उसकी मौसी ने अपनी बहिन और जीजा को विशेष मनुहार करके मोहित के साथ गर्मियां वहीं बिताने हेतु बुलाया था। मोहित के पिता मोहित और उसकी माॅ केा फ़तेहपुर पहुंचाकर वापस चले गये थे। फ़तेहपुर कस्बा पहुंचने से पूर्व मोहित की माॅ ने मोहित को कई बातें समझांईं थी जिनमें अधिकतर इस उद्देश्य से थीं कि वह वहां गंवारू न लगे। परंतु एक उपदेश यह भी था,

‘‘मौसी के मकान के बगल में मुसलमान रहत हैं जो मलेच्छ होत हैं। उनसै दूरई रहियौ। उनके घर पै तौ कबहूं कछूं ना खइयैा- काउू कौं पानी लौ पीबे कौं देत हैं तौ बा मैं थूक मिलाय देत हैं।’’ मौसी के मकान के बगल में मुसलमान रहते हैं, जो म्लेच्छ होते हैं। उनसे दूर रहना। उनके घर पर कभी कुछ भी न खाना- किसी को पानी भी पीने को देते हैं तो उसमें थूक देते हैं।’’

मोहित ने माॅ की इस बात को संदेहपूर्ण आष्चर्य के साथ लिया था, क्योंकि उसका हृदय सम्वेदनशील और विशाल था। उसने रामलीला में राम को शबरी के जूठे बेर खाते देखा था। विद्यालय में प्राप्त होने वाली गांधी-नेहरू के विचारों से प्रेरित शिक्षा भी उसे मानव-मानव में समानता का भाव रखना सिखा रही थी। उसका मन उसकी माॅ के द्वारा सतिया को अस्पृश्य माने जाने की बात को भी कभी स्वीकार नहीं कर पाया था। फिर भी वह माॅ की बात का प्रत्यक्ष विरोध नहीं कर पाया था वरन् माॅ की बात सुनकर उसने सप्रयत्न अपने चेहरे पर ऐसा भाव नहीं आने दिया था जिससे लगे कि माॅ अनुचित बात कह रहीं हैं।

मौसी के घर पहुंचकर उसने दौड़कर मौसा और मौसी के पैर छुए थे। मौसी के कोई अपना बच्चा नहीं था और मौसी मोहित को हृदय से प्यार करतीं थी- उन्होने उसके गाल पर थपकी ली, उसकी बलैयां लीं और उसे निकट खींचकर गले से लगा लिया था। मोहित मौसी के नेत्रों में मातृवत प्रेम देखकर अभिभूत हो गया था। औपचारिक वार्ता के पश्चात मौसी यह कहकर चैके में चलीं गईं थीं,

‘‘मोहित भूखा होगा। जल्दी से खाना लगा दूं।’’

दोपहर का भोजन करने के पश्चात सब लोग कमरों में आराम करने लगे थे, परंतु मोहित को दोपहर मंे सोने की आदत नहींे थी और आज तो उसका मन इतना उल्लसित था कि प्रयत्न करने पर भी नींद आ ही नहीं सकती थी। अत वह नये स्थान की नवीनता को आत्मसात करने हेतु चुपचाप घर से बाहर निकल आया था। वह घर के पीछे स्थित ताल की ओर चला आया था और जामुन की छांव में खडे़ होकर इस स्थान की नवीनता में तल्लीन हो रहा था कि तभी उसे अपने से छोटी उस दुबली पतली लड़की की मरियल सी आवाज़ सुनाई दी थी। यहां नवीन स्थान पर किसी के द्वारा अपने को पहिचान लिये जाने पर मोहित आश्चर्यचकित था और उस लड़की को प्रष्नवाचक निगाह से देख रहा था। मोहित के हाव-भाव देखकर जब वह लड़की आश्वस्त हो गई कि वह मोहित ही है, तो मोहित का आश्चर्य समाप्त करने को स्वत ही बोल पड़ी थी,

‘‘मैं रज़िया हूं। तुम्हारी ख़ाला यानी तुम्हारी मौसी, जिन्हें मैं चाची पुकारती हूं, ने मुझे बताया था कि तुम आज आओगे।’’

रज़िया ऐसे बोल रही थी जैसे कि अगर बात जल्दी पूरी न हुई, तो सम्भवत कभी पूरी न हो पावेगी। मोहित उस लड़की के बोलने की शैली में इतना उलझ रहा था कि कोई उत्तर देने हेतु उसे सोचना पड़ रहा था और उधर रज़िया स्वयं भौंचक्की हो रही थी कि वह एक अजनबी से इतना कैसे बोल पा रही है। अपने घर में किसी के सामने उसकी जु़बान ही नहीं खुलती थी और वह अपने को दूसरों की अपेक्षा अत्यंत निरीह अनुभव करती थी। बस मोहित की मौसी जिन्हें वह चाची कहती थी, से वह अवश्य खुलकर बातचीत कर लेती थी। वह अक्सर मौका मिलने पर चाची के पास आ जाती थी और कुछ न कुछ बितयाती रहती थी, जैसे अपने घर की चुप्पी का कोटा यहां पूरा कर रही हो। चाची की ससुराल लखनउू के चैक मुहल्ले में थी और विवाहोपरांत उनका जीवन मुसलमानों के साहचर्य में बीता था अत वह मुसलमानों के प्रति खुले ख़यालों वाली थीं। अपनी संतान न होने के कारण भी उन्हें रज़िया की बातें बडी़ प्यारी लगतीं थीं और आत्मिक सुख की अनुभूति होती थी। चाची से गहन निकटता की भावना के कारण रज़िया को मोहित सेे भी निकटता की अनुभूति होने लगी थी और वह मोहित के समक्ष बेझिझक बोल पा रही थी।

अब मोहित प्रकृतिस्थ हो चला था और बोला,

‘‘हाॅ हम मोहित हैं। तुम का हियईं रहतीं हौ?’’हां, मैं मोहित हूं। तुम क्या यहीं रहती हो?

रज़िया फिक्क से हंस दी थी क्योंकि उसे मोहित की बोली बडी़ अजीब लगी थी। पर मोहित का चेहरा देखकर उसके मन में आषंका हुई थी कि कहीं मोहित को बुरा न लग जाये और वह तुरंत संयत हो गई थी। मोहित के स्कूल की किताबें खडी़ बोली में थीं और वह खडी़ बोली समझता था एवं प्रयत्न करने पर बोल भी सकता था। वह यह भी जानता था कि खडी़ बोली पढे़ लिखे लोगों की भाषा है परंतु उसे खडी़ बोली बोलने का अभ्यास नहीं था, अत वह रज़िया से गांव की भाषा में बोल दिया था। यद्यपि रज़िया के हंसने पर उसे अपनी ग्रामीण भाषा की तुच्छता का भान तीक्ष्णता से हुआ था, तथापि रज़िया के अविलम्ब संयत हो जाने और उसके नेत्रों में उत्पन्न खेद की झलक को देखकर वह समझ गया था कि रज़िया की हंसी अकस्मात थी, उसे चिढा़ने के लिये नहीं थी। उसे रज़िया के हंसते हुए नेत्र मोहक लगे थे। तभी रज़िया ने मोहित के प्रश्न के उत्तर में कहा,

‘‘मेरा घर भी तहसील में ही है, तुम्हारी मौसी के घर के पास ही। मैं रोज़ तुम्हारी मौसी के पास आती हूं।’’

रज़िया की मौसी से निकटता जानकर मोहित और आष्वस्त हो गया था। तब मोहित ने प्रकृतिस्थ होकर रज़िया से पूछा था,

‘‘तुम कौन दर्जा मैं पढ़ती हौ?’’

‘‘मैने मकतब में मौलवी साहब से इसी साल अलिफ़ में पढ़ना शुरू किया है।’’

मोहित ने अपने गांव के लोगों को मुसलमानों के विषय में बात करते हुए मौलवी साहब सम्बोधन सुन रखा था। अत उसने रज़िया से पूछा,

‘‘क्या तुम मुसलमान हो?’’

अपनी माॅ द्वारा दी हुई सीख के कारण यह प्रश्न करते हुए मोहित के स्वर में एक अजनबीपन आ गया था, जिसे रज़िया का मन, जो अति सम्वेदनशील था, तुरंत पहिचान गया था और संकुचित होकर उसने धीरे से उत्तर दिया था,

‘‘हां।’’

तब रज़िया के मुख पर श्याम-श्वेत घटाओं के समान उभरते और मिटते भाव देखकर मोहित के मन को अपने प्रश्न पर स्वयं चोट पहुंची थी और उसका हृदय रज़िया को किसी प्रकार सहज करने को उतावला हो उठा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह रज़िया को कैसे प्रसन्न करे। कुछ अन्य उपाय न सोच पाकर उसके मुख से अनायास निकला था,

‘‘चलो, मौसी के पास चलते हैं।’’

सदैव बुझी सी रहने वाली रज़िया के मन में मोहित को देखकर जो उछाह जागा था, वह मोहित के प्रश्न पर शांत हो रहा था, परंतु मौसी के यहां जाने का वह लोभ-संवरण न कर सकी। जब दोनों घर पहुंचे तब मौसी और मां जाग चुके थे। रज़िया को मोहित के साथ आते देखकर मौसी बोलीं,

‘‘आओ बेटी। क्या तुम मोहित से मिल चुकी हो?’’

रज़िया ने हामी में अपना सिर हिलाया। मोहित की मां रज़िया के आकर्षक चेहरे को देखकर प्यार से मुस्कराने लगीं थीं और उन्होनें उसके सिर पर हाथ रखकर कहा,

‘‘बेटी, तुम्हाओ नांव का है?बेटी तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘रज़िया’’

यह सुनते ही मोहित की मां का हाथ उसके सिर से ऐसे हट गया जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो। उनके चेहरे के बदलते भाव को रज़िया ने भी ताड़ लिया था और वह अपने में गुमसुम होने जा रही थी कि तभी मोहित की मौसी, जो इस बीच चैके की तरफ़ चलीं गईं थीं, दो गिलास शर्बत बना कर ले आईं और पीतल के गिलास वाला शर्बत मोहित को तथा कांच के गिलास वाला रज़िया को थमा दिया। रज़िया को गिलास थमाकर और उसके सिर पर प्यार से हाथ रखकर मौसी ने पूछा,

‘‘रज़िया, तुम्हारी अम्मी की तबियत अब कैसी है?’’

मौसी के स्नेहमय व्यवहार से रज़िया सामान्य हो गई थी। उसने उत्तर दिया,

‘‘रोज़ जैसी। ज़्यादातर लेटी ही रहतीं हैं।’’

यद्यपि मौसी ने रज़िया को धातु के बर्तन में शर्बत नहीं दिया था तथापि मोहित की माॅ रज़िया के प्रति अपनी बहिन की इतनी निकटता देखकर मन ही मन कुढ़ रही थीं। रज़िया उनकी निगाहें पढ़कर अटपटा सा अनुभव कर रही थी और शर्बत पीकर शीघ्र ही चली गई थी। उसके जाते ही मोहित की माॅ अपनी बहिन से बोल पड़ीं,

‘‘का तुम्हाये पडोस मैं सब मुसलमानई रहत हैं जो जाय बेटी बनाय रखो है? जाके जूठे गिलास में हमैं तौ कछू पीबे कौं न दीजौ।क्या तुम्हारे पड़ोस में सब मुसलमान ही रहते हैं, जो इसको बेटी बना रखा है? उसके जूठे गिलास में मुझे तो कुछ भी पीने को मत देना।’’

मौसी मुस्कराते हुए बोलीं,

‘‘जिज्जी, तुम्हाओ धरम नाईं भ्रष्ट हुइयै- हमने रज़िया के लैं अलग सै कांच को गिलास और प्लेट रख दये है। उइसें रज़िया है बडी़ अच्छी लड़की। बा बिचारी की अम्मा तौ खाट पकडे़ है, बाप सराबी कबाबी है और भाई लोग निखट्टू हैं। इतनी सी उमर में घर को काम और अम्मा की देखभाल सब सम्हारें है। ता पै बिगडै़ल बाप और भाइयन की गाली गलौज व मारपीट और सहत है। जा सै घबराई सी रहत है और अपयें घर मैं बहुत कम बोलत है। हम थोरो प्यार सै बोल देतीं हैं ता सै बस हमईं सै बोलत है। लेकिन जब बोलत है तौ मुंह सै फूल से झरत हैं। जिज्जी, तुम्हारा धर्म भ्रश्ट नहीं होगा- मैने रज़िया के लिये अलग से कांच का गिलास और प्लेट रख दिये हैं। वैसे रज़िया है बड़ी अच्छी लड़की। उस बेचारी की माॅ तो खाट पकड़े है, बाप षराबी कबाबी है, और भाई लोग निखट्टू हैं। इतनी सी उम्र में घर का काम और अम्मा की देखभाल सब सम्हाले है। उस पर बिगड़ैल बाप और भाइयों की गालीगलौज और मारपीट भी सहती है। इससे घबराई रहती है और अपने घर पर बहुत कम बोलती है। मैं थोड़े प्यार से बोल देती हूं, इसलिये मुझसे ही बोलती है। परंतु जब बोलती है तो मुंह से फूल झड़ते हैं।’’

मोहित अपनी माॅ और मौसी के बीच होने वाली बातचीत को बडे़ ध्यान से सुन रहा था और उसे मुसलमानों के बारे में माॅ और मौसी के विचारों में इतना अंतर पाकर आश्चर्य हो रहा था- माॅ ने तो कहा था कि मुसलमान बुरे होते है और मौसी रज़िया को कितना अच्छा बता रहीं थीं और उससे कितने ममत्व से बात करतीं रहीं थीं? उसके मन में यह प्रश्न भी जागा कि जब वह इतनी अच्छी है तो उसके लिये अलग गिलास और प्लेट रखने की क्या आवश्यकता है? क्या वह भी सतिया की तरह अछूत है? पर ऐसा होता तो मौसी उसके सिर पर हाथ क्यों रखतीं? ये सारे प्रश्न मोहित के मन मंे इसलिये भी आ रहे थे क्योंकि मोहित को रज़िया अच्छी लगी थी और उस अनजान जगह पर उसका मन उससे मित्रता करने को मचलने लगा था। मोहित को यद्यपि सतिया भी अच्छी लगती थी परंतु चूंकि बचपन से उसे सिखाया गया था कि सतिया से दूर रहना है इसलिये उस विषय में उसने कभी इतना उद्वेलित होकर नहीं सोचा था जितना आज रज़िया के प्रकरण में सोच रहा था। आज उसके मन में रज़िया और सतिया दोनों के प्रति अपनी माॅ की और समाज की मान्यताओं पर गम्भीर प्रश्न उत्पन्न हो रहे थे। उस रात्रि में वह देर तक इस विषय पर सोचता रहा था और उसका मन स्थापित प्रथाओं के प्रति विद्रोह करता रहा था। दूसरे दिन प्रत्यक्षत तो वह अपनी माॅ से इस विषय में कुछ न कह सका परंतु उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह रज़िया के मुसलमान होने के बावजूद उससे दोस्ती करेगा और उसके साथ खेले कूदेगा। उसे यह विश्वास भी हो गया था कि इसमें उसकी मौसी उसका साथ देंगीं और माॅ केा समझा लेंगीं।

‘‘मोहित, तुम सबके संग घरई मैं सुइयौ; दुपहरिया मैं बाहिर मारे मारे ना फिरियौ।मोहित तुम सबके साथ घर में ही सोना। दोपहर में बाहर मारे मारे मत घूमना।’’

मोहित की माॅ ने दूसरे दिन मोहित को वर्जना के स्वर में कहा था। इसके पीछे उनके मन में मोहित केा लू-लपट से बचाने की भावना तो थी ही, परंतु यह आशंका भी थी कि मोहित कहीं रज़िया के घर जाकर कुछ खा पी न ले और मुसलमानों का जूठा खाकर अपना धर्मभ्रष्ट न करवा ले। यद्यपि उनकी बहिन ने रज़िया के गुणों की बडी़ प्रशंसा की थी परंतु रूढ़िगत संस्कारों के वशीभूत वह अपने बेटे की एक मुसलमान लड़की से मित्रता के दुष्परिणामांे की आशंका से अपने को उबार नहीं पा रहीं थीं।

‘‘अम्मा, तुम जन्तीं हौ कि हमैं दुपहरिया मै नींद नांईं आत है। अम्मा, तुम जानती हो कि मुझे दोपहर में नींद नहीं आती है।’’

मोहित ने इतना भर कहा था जो तथ्यात्मक था और जिसमें माॅ की बात को स्पष्टता से न नकारते हुए उसकी अवहेलना की गुंजाइश छोड़ दी गई थी।

दोपहर में सबके सो जाने पर मोहित ने कुछ देर तक शांत लेटे रहने का प्रयत्न किया, परंतु फिर मन उूब जाने पर वह उठकर घर से बाहर निकल कर तलैया की ओर चला गया था। वहां वह जामुन के पेड़ के नीचे चुपचाप खडे़ होकर सोचने लगा था कि हो सकता है कि कल की तरह आज भी रज़िया आ जाये, परंतु देर तक प्रतीक्षा करते रहने पर भी रज़िया नहीं आई थी। तब मोहित के मन मे यह विचार आने लगा कि हो न हो उसके द्वारा रज़िया से मुसलमान होने की बात पूछने के कारण रज़िया उससे खिन्न होगी और इसीलिये नहीं आ रही है। हीनभावना से ग्रसित व्यक्ति प्राय किसी भी असफलता हेतु स्वयं को दोषी मानने लगता है। वह ज्यों ज्यों स्वयं को दोषी अनुभव कर रहा था, उसकी रज़िया से मिलकर उसे अपने द्वारा की गई गलती का आभास होने की बात जता देने और उसकी क्षमा प्राप्त कर लेने की उत्कंठा उतनी ही बढ़ रही थी। देर तक रज़िया की प्रतीक्षा करने के उपरांत वह साहस कर उस मकान की ओर चल पडा़ जो रज़िया ने अपना बताया था। वहां वह इस आस से इधर उधर टहलने लगा कि हो सकता है कि रज़िया कहीं बाहर आ जाये।

‘‘अरे मोहित! आओ घर में आ जाओ।’’ मोहित को अधिक प्रतीक्षा नहीे करनी पड़ी थी क्योंकि रज़िया ने अपने घर के अघखुले दरवाजे़ से मोहित को देख लिया था और वह उसे बुलाने बाहर आ गई थी। उस समय उसके हाथों में मुर्गी का एक चूजा़ फड़फड़ा रहा था, जिसे देखकर मोहित मुस्करा दिया था। आज दोपहर में वह आंगन में गेंहूं फटकती रही थी, जिसके कारण उसे बाहर जाने की फुर्सत नहीं मिली थी। जब उसकी निगाह खोये खोये से टहलते हुए मोहित पर पडी़ थी, उस समय वह फटकन का दाना मुर्गियों को चुगा रही थी और उनमें से एक चूजे़ को अपने हाथ में लेकर प्यार से खिला रही थी।

रज़िया को देखकर और उसका स्वागत हेतु उत्सुक स्वर सुनकर मोहित का मन आश्वस्त और प्रसन्न हो गया था। माॅ के निषेध का ध्यान होते हुए भी वह रज़िया का आमंत्रण अस्वीकार न कर सका और धीरे धीरे आंगन में घुस आया। उस समय घर में शांति थी और बाहर भी कोई नज़र नहीं आ रहा था। तभी रज़िया ने उसे अपनी अम्मी के कमरे में चलने को कहा और उसके झिझकने पर उसकी उंगली पकड़कर अम्मी के कमरे में ले गइ्र्र। अम्मी बंसखटी पर लेटी हुईं थीं। रज़िया ने अम्मी को सम्बोधित कर कहा,

‘‘अम्मी! मोहित आया है।’’

मोहित ने रज़िया की कृशकाय अम्मी को देखा और हाथ जोड़कर नमस्ते की, तो अम्मी उसे दुआ देते हुए बोलीं,

‘‘जीते रहो बेटा। रज़िया कल से तुम्हारे बारे में ही बातें कर रही है।’’

अम्मी ने मोहित को पास बुलाकर उसके गालों पर प्यार भरा हाथ रखा। फिर उसके चेहरे को ध्यान से देखकर बोलीं,

‘‘रज़िया मोहित का चेहरा गर्मी से लाल हो रहा है। घडे़ के पानी में चीनी मिलाकर शर्बत बना लाओ।’’

रज़िया जब शर्बत बनानेे चली, तो मोहित के मन में यह शंका उभरी कि रज़िया कहीं उसमें थूककर न लाये और अम्मी से बात करते समय अनायास उसकी निगाहें रज़िया का पीछा करतीं रहीं। पर जब उसने देखा कि रज़िया ने गिलास साफ़कर बिना थूके शर्बत लाकर उसे थमा दिया, तो उसे लगा कि अम्मा की मुसलमानों के प्रति यह धारणा गलत है। रज़िया का दिया हुआ शर्बत उसने बेहिचक पिया, जो अपनी ठंडक और मिठास से मुसलमानों के प्रति उसके मन में उठने वाली शंकाओं को सदैव के लिये शांत कर गया। फिर रज़िया अपनी अम्मी से बोली,

‘‘अम्मी! अब हम बाहर खेल आयें?’’

अम्मी ने हामी भरते हुए ताकीद की कि तेज़ धूप में मत खेलना। दोनों जामुन की छांव में आकर बैठ गये और ऐसे बतियाने लगे, जैसे बरसों के दोस्त हों।

फिर यह क्रम प्रतिदिन चल निकला कि दोपहर में जब मोहित की मां और मौसी सोने लगतीं और रज़िया धर के काम निबटा चुकती, तब दोनों ताल किनारे आ जाते और कभी न समाप्त होने वाली बातें करते रहते और कच्चे-पक्के जामुन तोड़कर खाते रहते। मन होने पर वे गुल्ली-डंडा, लंगडी़-टांग आदि खेल खेलते और फिर रज़िया मोहित के साथ मौसी के घर आ जाती और मोहित के साहचर्य में तब तक खोई रहती जब तक घर वापस लौटना अनिवार्य न हो जाता।

बच्चों में भूत को भूलकर और भविष्य की चिंता किये बिना वर्तमान में पूरी गहराई के साथ जीने की अद्भुत क्षमता होती है- इसीलिये वे बडों़ की तुलना में अधिक तल्लीनता एवं सम्वेदना से किसी घटना को अनुभव एवं आत्म सात करते हैं; और इसीलिये बचपन के अनुभव हमें बुढा़पे तक में याद रहते हैं और अपनी मर्मस्पर्शिता के कारण प्रिय लगते रहते हैं।

इन दिनों मोहित और रज़िया का संसार एक दूसरे में सिमट कर रह गया था। इसका एक कारण यह भी था कि ‘आई ऐम नौट ओ. के.’ की मानसिकता के कारण दोनों को एक दूसरे के आश्रय की आंतरिक आवश्यकता थी, और दोनेां के मन परिस्थिति, काल और दिशा से बेखबर एक दूसरे से बंधे रहते थे।

मोहित और रज़िया का वह स्वप्निल संसार उस दिन एक झटके से छिन्न-भिन्न हो गया था जब मोहित के गांव वापस जाने का दिन आ गया था। मोहित के स्वभावानुसार एवं उसकी परिस्थितियों के कारण उसका बिछोह का दुख उतना स्थायी नहीं था जितना रज़िया का था। मोहित के जाते समय वह फफककर रो पडी़ थी। रज़िया को इस संसार में अपनी अम्मी और मोहित की मौसी के अलावा किसी से अपनत्व नहीं मिला था और मोहित के अतिरिक्त आजतक कोई ऐसा नहीं मिला था, जिसमें वह अपना सब कुछ भूलकर एकमेव हो सकी हो। रज़िया अपने हृदय में उठने वाली हूक दबा नहीं पा रही थी। उसकी दशा देखकर मोहित की मौसी ने उसके सिर पर हाथ रखकर उसे सांत्वना देते हुए कहा था,

‘‘रज़िया तू दुखी न हो। अब हम हर साल गर्मियों की छुटटी में मोहित को बुला लिया करेंगे।’’

रज़िया सिसकते हुए तब तक मोहित के तांगे को देखती रही थी जब तक मोहित अंाखों से ओझल नही हो गया था।

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ट्ेन के थर्ड क्लास के डिब्बे में उस समय अधिक भीड़ नहीं थी और मेाहित खिड़की के किनारे की खा़ली सीट पर बैठ गया था। मोहित का टे्न का यह दूसरा सफ़र था- पहली बार वह आते समय टे्न पर बैठा था और आज जाते समय। षैषवकाल से ही ट्ेन और उसमें यात्रा की सुखद कल्पना मोहित के मानस में घर किये हुई थी; मानिकपुर की उसकी हवेली की छत पर यदा कदा रात्रि की नीरवता मंे दूर जाती टे्न की धुकधुक एवं लम्बी सी सीटी सुनाई पड़ जाती थी अथवा गर्मियों की स्वच्छ-धवल प्रात में उससे उठ़ता हुआ धुंआं दिखाई दे जाता था। मोहित जब उन्हें सुनता-देखता, तो उसे टे्न किसी परीलोक की वस्तु प्रतीत होती थी। फ़तेहपुर आते समय टे्न के डिब्बे में खिड़की के किनारे बैठकर चक्रवात मे घूमती सी दुनिया के दृश्य भी उसे परीलोक के समान लगे थे और उन्हीं को भरपूर पुन देख पाने की लालसा में वह आज भी शीघ्रता से किनारे की सीट पर जम गया था। गाडी़ के गति पकड़ते ही उसे सामने की सारी दुनिया पीछे भागती लगने लगी थी। फिर सुदूर क्षितिज में देखा कि अर्धवृत्ताकार क्षितिज रेखा उसके साथ साथ आगे बढ़ रही है। इस पर मोहित को लगा कि रज़िया पता नहीं क्षितिज रेखा के उस पार उससे दूर कहां खडी़ होगी और पता नहीं अब उसके और रज़िया के बीच में स्थित इस क्षितिज रेखा का कभी अंत होगा भी या नहीं। भावावेग में मोहित के नेत्र नम हो रहे थे कि तभी ‘बेटे! ज़रा सी जगह करना।’ कहकर एक दाढी़वाले मियां जी मोहित द्वारा कोई जगह बनाये जाने के पहले ही उसकी बगल में धंस गये थे, जिससे मोहित की मोहनिद्रा चरमराकर टूट गई थी। गाडी़ एक स्टेशन पर पहुंची थी और उसके रुकते ही डिब्बे में भीड़ का एक रेला आ गया था, जिसके एक अंग मियां जी भी थे; और मियां जी को मोहित ऐसा नज़्ार आया था कि उसकी तकलीफ़ का ख़याल किये बिना उसके बगल में घंसा जा सकता था। इससे मोहित के ब्ैाठने हेतु इतना कम स्थान बचा था कि वह कसमसा रहा था, और उसके मन में मियां जी पर घोर क्रोध आ रहा था, और उनका प्रतिरोध करने की तीव्र उत्कंठा हो रही थी परंतु उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था। उसका का्रेध कंठ तक तो आता था परंतु एक अज्ञात भयवश मुखर होने से पहले ही कंठ में अटक जाता था। फिर उस क्रोध को व्यक्त करने की अपनी अक्षमता का भान होने पर वह क्रोध आत्मग्लानि में परिवर्तित होेने लगा था।

मोहित की अम्मा जो कनखियों से यह दृश्य देख रहीं थीं, मियां जी का बदन मोहित से सट जाने के कारण जली भुनी जा रहीं थीं और वह मोहित से बोलीं,

‘‘मोहित तुम हिंयां आय जाव। पुरी-अचार खाय लेव। मोहित, तुम यहां आ जाओ। पूड़ी अचार खा लो।’’

मोहित को इस बुलावे पर लगा कि चलो यंत्रणा से छुट्टी मिली और वह ‘अच्छा’ कहकर मां के पास आकर बैठ गया। चलते समय मौसी ने शुद्ध घी की पूडी़ और अचार रख दिया था, जिसे मां ने निकाला और मोहित उसे हाथ में लेकर चुपचाप खाने लगा। क्षुधातृप्ति पर मोहित का मन भी स्वस्थ हो गया और उसने मां से पूछा,

‘‘अम्मा कै बजे लौ घरै पहुंच जययैं? अम्मा! कितने बजे तक घर पहुंच जायेंगे?’’

‘‘जा गाडी़ संजा लौ अछल्दा अट्टेसन पहुंचययै। फिर दुइ-तीन घंटा बैलगाडी़ लियै। घरै पहुंचत पहुंचत अधरत्ता हुइ जययै। यह गाड़ी सायंकाल तक अछल्दा स्टेषन पहुंचेगी। फिर दो तीन घंटे बैलगाड़ी लेगी। घर पहुचते पहुंचते आधी रात हो जायेगी।’’

अम्मा ने समय का हिसाब लगाते हुए उत्तर दिया। मोहित षारीरिक एवं मानसिक दोनों रूप से क्लांत हो रहा था- वह शांत होकर अम्मा के कंधे पर सिर रखकर सो गया। उसके स्वप्नों में सुदूर क्षितिज में खडी़ रज़िया एक क्षण को आ जाती और दूसरे क्षण अंतर्घान हो जाती। सुषुप्तावस्था में भी रज़िया के ओझल होते ही उसके मुंह से उच्छवास निकल जाती थी। शाम होने पर गाडी़ अछल्दा पहुंची, तभी मोहित की आंख खुली। वहां बैलगाडी़ पहले से आ चुकी थी और उन्हें लेकर अविलम्ब चल दी। मोहित को अब अपने गांव के मित्रों और सतिया की याद आने लगी थी और उसकी कल्पना अब इतने दिनों बाद उनसे मिलने के उत्साह में उड़ने लगी थी। घंटे भर बाद मोहित पर फिर आलस्य छाने लगा और वह गाडी़ की मद्धिम गति के साथ बजतीं बैलों के गले में बंधी घंटियों की ध्वनि के साथ निद्रित होने लगा। इस अर्धनिद्रित अवस्था में मोहित का मन यदि बैलगाडी़ के पहिये की चूं के साथ मौसी के घर और रज़िया से बिछोह की याद में दुखी हो जाता, तो चरर-मरर के साथ अपने गांव के साथियों और सतिया से मिलने के उछाह से भर जाता। बिछोह अथवा उछाह में किसी एक भाव को चुनकर उस पर स्थिर हो जाना उसके लिये सम्भव नहीे हो पा रहा था। दृढ़विश्वास की कमी प्राय मनुष्यों में ऐसी मनस्थिति उत्पन्न करती है।

उसके मन में एक झुंझलाहट भी उठती थी जब उसे ध्यान आता कि अम्मा ने उससे यह झूठ बात क्यों कही थी कि मुसलसान बुरे होते हैं और कुछ भी खाने को देते समय उसमें चुपचाप थूक देते हैं। रज़िया तो बडी़ अच्छी थी और उसने उसे कुछ भी खाने-पीने को थूककर नहीं दिया था। रज़िया की अम्मी भी उसे बडी़ अच्छी लगीं थीं। फिर उसके मन मे यह द्वंद्व भी उठने लगा कि सतिया भी तो अच्छी है और उसके साथ भी खेलने केा उसे अनावश्यक मना किया जाता है। मोहित को चुप देखकर उसकी मां ने पूछा,

‘‘बेटा का सोच रहे हौ? बेटा क्या सोच रहे हो?’’

मोहित पहले तो चुप रहा पर फिर साहस जुटाकर मां से पूछ बैठा,

‘‘अम्मा सतिया के संग हमैं खेलन कांयें नाईं देतीं हौ? अम्मा, सतिया के साथ मुझे खेलने क्यों नहीं देती हो?’’

‘‘बेटा बा अछूत हैं खेल खेल में कहूं तुम सै छू जाये तौ? बेटा, वह अछूत है। खेल खेल में कहीं तुमसे छू जाये तो?’’

माॅ ने मोहित के प्रश्न का निहितार्थ समझे बिना उत्तर दिया।

मोहित उत्तर से संतुष्ट न हुआ और मां से पुन प्रश्न किया,

‘‘अम्मा बा अछूत कैसें बन गई? अम्मा, वह अछूत कैसे बन गई?’’

माॅ झुंझला उठीं,

‘‘इत्ते बडे़ हुइ गये हौ, जाउू नाईं जान्त हौ? बा भंगी की बिटिया है। इतने बड़े हो गये हो, यह भी नहीं जानते हो? वह भंगी की बेटी है।’’

माॅ की झुंझलाहट भांपकर मोहित आगे प्रश्न करने का साहस न कर सका, परंतु उसके मन में यह धारणा दृढ़ हो गई कि सतिया को अछूत मानने का कोई समुचित कारण नहीं है; यह अलग बात है कि बड़ों के विरोध के कारण वह सतिया के साथ सबके सामने न खेले कूदे।

अपने घर पहुंचने के दूसरे दिन जब सतिया अपनी मां के साथ उसके घर आयी तो मोहित को देखकर अपने उल्लास को छिपा न सकी और उसकी आंखों में प्रसन्नता को जो भाव दीप्त हुआ, उसे मोहित के नेत्रों ने भी पढ़ लिया और उसका प्रतिदान भी किया- सतिया के मन में चंद्रमा को पकड़ने की लालसा थी तो मोहित के मन में बिखरी चांदनी को समेटने की।



‘‘रज़िया! इतनी देर कहां थी? चैका बर्तन कौन करेगा? क्या तेरा बाप?’’ कहते हुए रज़िया के अब्बा ने एक झन्नाटेदार तमाचा रज़िया के गाल पर मारा था। रज़िया आज सबेरे ही मोहित को विदा करने उसके घर चली गई थी और अब्बा भुनभुनाये बैठे थे। उन्हें अपने घर में अपनी धौंस जमाये रखने की बडी़ तमन्ना रहती थी, परंतु रज़िया और उसकी अम्मी को छोड़कर उनका रौब किसी पर नहीं चलता था। एक शाम पीकर जब वह घर लौटे थे तो रज़िया की अम्मी या रज़िया को सामने न पाकर मझले बेटे को गरियाने लगे थे, और आपे से बाहर होते हुए जब उस पर हाथ उठा रहे थे तो उसने हाथ पकड़कर ऐसी पटकनी दी थी कि उनकी कूल्हे की हड्डी खिसक गई थी, जो आज तक जाडे़ में दर्द करती थी। तब से वह चाहे कितनी भी पीकर आये हों, लड़कों से कुछ भी नहीं कहते थे- उन पर आने वाला क्रोध भी रज़िया और उसकी अम्मी पर निकालते थे। शरीर से अक्षम पत्नी के प्रति तो उनका तकिया कलाम बन गया था,

‘‘साली मरती भी नहीं है, न काम की न धाम की।’’

मीरअली द्वारा रज़िया को प्रतिदिन गरियाने और पीटने का एक और कारण भी था। वह बचपन से लड़कियों को फंसाने का खेल खेलते रहे थे, इसलिये उनका मन सदैव इस आशंका से ग्रस्त रहता था कि अगर रजि़्ाया को प्रताड़ित कर नियंत्रण में न रखा गया तो वह लड़कों से फंस जायेगी। रज़िया के निखट्टू भाई भी उससे वैसा ही व्यवहार करते थे जैसा मीरअली करते थे, क्योंकि उन्हें भी अपनी चाकरी के लिये एक बांदी की आवश्यकता थी। दिन में एक दो बार अब्बा या भाइयों की गालियां सुनना और मार खाना रज़िया की दिनचर्या का अंग बन चुका था। वह अपनी ‘आई ऐम नौट ओ. के.’ की स्थिति को पहले ही स्वीकार चुकी थी, और पिता तथा भाइयों की अनवरत अनुचित प्रताड़ना से ‘यू आर नौट ओ. के.’ का भाव भी उसके मन में स्थायी हो रहा था।

आज मोहित के जाने से रज़िया अत्यंत उदास थी और अपने आसुओं को कठिनाई से छिपाते हुए घर लौटी थी, अत आज गाल पर तमाचा पड़ने पर वह रोज़ की तरह और अधिक गति से काम में जुट जाने के बजाय निर्जीव सी बैठकर अश्रुप्रवाहित करने लगी थी। इससे उसके अब्बा का क्रोध और बेकाबू हो गया था और उन्होने ‘नखडे़ दिखाती है?’ कहते हुए उसकी चोटी पकड़कर उसे चैके में ढकेल दिया था।

रज़िया की अम्मी अपनी खाट से यह अत्याचार देख रहीं थीं परंतु किसी प्रकार के प्रतिरोध की निरर्थकता वह जानतीं थीं, और उनके मन में यह भय भी था कि प्रतिरोध जताने से रज़िया को दी जाने वाली प्रताड़ना बढ़ ही सकती हे, कम नहीं होगी। उनके मुंह से बस ये शब्द निकल रहे थे,

‘‘या अल्लाह रहमकर और मुझे उठा ले।’’

उस रात रज़िया देर तक सो न सकी, चुपचाप आंसू बहाती रही थी। नींद आने पर उसे स्वप्न आया कि वह ताल के शीतल जल में स्नान कर रही है और उसका रोम रोम शीत का अनुभव कर रहा है। नहाते नहाते वह ताल के बीच में चली जाती है और डूबने लगती हेै। बाहर की ओर आने के प्रयास में उसकी दम फूलने लगी है। अचानक उसे लगता है कि मोहित किनारे पर खडा़ है और उसके मुंह से चीख निकलती है,

‘बचाओ, बचाओ- मोहित! मोहित!’’

परंतु मोहित उसे बचाने नहीं आ रहा है, बस दूर खडा़ देखता रहता है। रज़िया घबराहट की चरमस्थिति में पहुंच जाती है और उसकी अंाख खुल जाती है। वह देखती है कि उसकी अम्मी उसके माथे पर हाथ रखकर कह रहीं हैं,

‘‘रज़िया बेटे, तुम्हें तो तेज़ बुखार है।’’

रज़िया का बुखार तो पांचवें दिन उतर गया था, परंतु उसका मन घनीभूत अवसाद से ग्रस्त होकर रह गया था। रज़िया सदैव स्वयं को अकिंचन और निरीह समझती रही थी और उसके मन को एक ऐसी छत्रछाया की आस रहती थी जो उसके मन और शरीर पर होने वाले प्रहारों के लिये अभेद्य दीवाल बनकर उसकी रक्षा कर सके। ऐसे व्यक्ति को अपने समस्त दुख-दर्द समर्पित कर वह उसके आश्रय की शांति में जीना चाहती थी। उसने कभी प्रत्यक्षत ऐसा नहीं सोचा था कि मोहित उसका ऐसा कोई आश्रय बन सकता है, परंतु उसके अवचेतन में ऐसी धारणा अवश्य अंकुरित हो चुकी थी जिसके कारण अपने को डूबते से बचाने के लिये उसे मोहित का ही ध्यान आया था। पर मन द्वारा यथार्थ के आकलन ने स्वप्न में भी मोहित को उसे बचाने हेतु आगे नहीं आने दिया था।

अब रज़िया ताल के पास जाने से कतराती थी क्योंकि वहां जाते ही उसे रुलाई आने लगती थी। बस जब मन अनियंत्रित होने लगता तो हसरतभरी निगाहों से उधर देख लिया करती थी। कभी कभी मन अधिक अशांत हो जाने पर वह दोपहर में फुरसत होने पर माॅ से कहकर मोहित की मौसी के पास चली जाती थी। मोहित की मौसी प्राय शिकायत करतीं,

‘‘रज़िया इतने दिन बाद क्यों आई हो?’’

रज़िया यह प्रश्न सुनकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती, तो मौसी बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये उसे पास बिठाकर उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगतीं और कहतीं,

‘‘गर्मियों की छुट्टियों तक की बात है, मोहित को फिर से ज़रूर बुला लूंगी।’’

मोहित की मौसी रज़िया के अंतर्मन को समझतीं थीं, परंतु सामाजिक एवं धार्मिक मर्यादाओं की जकड़न को भलीभांति समझने के कारण उसे एक सीमा तक ही बढ़ावा देतीं थीं।

आगे के दो वर्षों में दस-दस महीने के अंतराल पर दो बार गर्मियों की छुट्टियां फिर आईं और मोहित भी फिर आया। रज़िया के लिये दोनों बार वसंत जैसे फिर-फिर लौटकर आ गया। प्रत्येक बार रज़िया की दोपहरियां फिर मोहित के साथ ताल के किनारे बीतीं और रज़िया को मोहित की निकटता का आभास, मोहित की छत्रछाया की आवश्यकता, तथा मोहित से चिरअनुराग की आशा और अधिक गहराई से अनुभव होने लगी; और छुट्टियां समाप्त होने पर उसे मोहित का विछोह और अधिक सालने लगा।

तीसरा वर्ष चुनाव का वर्ष था। कस्बे में नारे और जुलूसों का माहौल था। राजनैतिक दल वोटरों को अपने पक्ष में करने हेतु प्रत्येक प्रकार का हथकंडा अपना रहे थे- जाति तथा धर्म के नाम पर वोटरों को बांट कर अपने पक्ष में करना उनमें प्रमुख था। फ़तेहपुर कस्बे के अधिकतर निवासी प्रवासी थे जो आस पास के गांवों से आकर बसे थे। प्रवासियों में असुरक्षा की भावना स्थायी निवासियों की अपेक्षा अधिक होती है- यह असुरक्षा की भावना केवल भौतिक असुरक्षा न होकर अपनी भाषा, अपने रीति रविाज़, अपने धर्म एवं अपनी पहिचान की भी होती है। अत कस्बों में धर्म के नाम पर लोगों को बांटना अथवा दंगा कराना आसान होता है।

इस वर्ष जब स्कूलों की छुट्टियां प्रारम्भ हुईं तो रज़िया मोहित की मौसी से पूछने गई कि मोहित के आने की कोई खबर आई है या नहीं। रज़िया को देखते ही मोहित की मौसी ने स्वत मुस्कराकर कहा,

‘‘रज़िया, जिज्जी की चिट्ठी कल ही आई है। इसी शनिश्चर को मोहित के साथ आ रहीं हैं।’’

रज़िया का हृदय प्रसन्नता से बल्लियों उछलने लगा। उस दिन वह देर तक मोहित की मौसी से बातें करती रही। आज मौसी कुछ उद्विग्न थीं। मौसी ने अपने पति को तहसील के कर्मचारियों से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच उत्पन्न गम्भीर धार्मिक तनाव के बारे में बात करते सुना था, जिसमें मंदिरो में मुसलमानों के विरुद्ध नारे लगाये जाने और मकतबों एवं मस्जिदों में हिंदुओं के विरुद्ध मीटिंग किये जाने की बात भी आई थी। अत उन्होंने रज़िया से पूछा,

‘‘रज़िया! मकतब में आजकल तुम्हें मौलवी साहब क्या पढ़ा रहे हैं?’’

रज़िया ने बताया कि अरबी, उर्दू, और गिनती-पहाडा़ के अलावा कुरानशरीफ़ की आयतें पढा़ते ंहैं और उनका उर्दू में तर्जुमा कर समझाते हैं। लेकिन कल वहां एक मीटिंग हुई थी जिसमें तमाम लोग शरीक हुए थे। उसमें मौलवी साहब बता रहे थे कि कस्बे के हालात बिगड़ रहे हैं। ईमान ख़तरे में है। मुसलमानों को एकजुट रहकर ईमान को बचाना है। क़यामत के दिन अल्लाहताला सबका फै़सला करेगा और ईमान पर चलने वालों और उस पर मरने वालों को जन्नत में हर तरह के सुख मुहैया करायेगा- काफ़िरों को सिर्फ़ दोज़ख़ ही नसीब होगी। काफ़िरों के खिलाफ़ जिहाद धर्मयुद्ध जायज़ है; और अब जिहाद का वक्त आ गया है।

मौसी एक ओर रज़िया की स्मरणशक्ति एवं अभिव्यक्ति की क्षमता पर आश्चर्यचकित हो रहीं थीं और दूसरी ओर इस प्रकार की भड़काउू बात सुनकर चिंतित हो रहीं थीं। तभी रज़िया उनसे पूछने लगी,

‘‘चाची हिंदुओं को काफ़िर क्यों कहते हैं? आप और मोहित तो इतने नेक हैं?’’

वह रज़िया को इसका उत्तर क्या देतीं, अत कह दिया,

‘‘बेटी मुझे नहीं मालूम। तुम अपनी अम्मी से पूछ लेना।’’

उस समय बात आई गई हो गइ्र्र थी। पर शुक्रवार की शाम जब रज़िया ने अपने बडे़ भाईजान सुल्तान को मुर्गी को ज़िबह करने वाली छूरी को पैनी करते देखा, तो जिज्ञासावश पूछ बैठी थी,

‘‘भाईजान! इस वक्त छूरी क्यों पैनी कर रहे हैं?‘‘

सुल्तान ने क्रोधित मुद्रा में कहा था,

‘‘काफ़िरों को ज़िबह करूंगा।’’

अम्मी ने जब यह बात सुनी तो अपनी मरियल आवाज़ में बोल पडीं थीं,

‘‘क्या बकता है सुल्तान? क्या दिमाग़ फिर गया है?’’

पर बेटे ने जैसे उनकी बात को सुना ही न हो, ऐसे छूरी पर सान देता रहा था और फिर उसे लेकर दरवाजे़ से बाहर निकल गया था। तब रज़िया को फिर घ्यान आया कि चाची ने उसकी अम्मी से काफ़िरों के विषय में पूछने को कहा था, अत उसने अपनी अम्मी से प्रश्न किया,

‘‘अम्मी, काफ़िर किसको कहते हैंैं? भाईजान उन्हें ज़िबह करने की बात क्यों कह रहे थे?’’

अम्मी कुछ देर तक सोच में डूबीं रहीं, फिर बोलीं थीं,

‘‘काफ़िर उनको कहते हैं जो अल्लाह को नहीं मानते हैं।’’

‘‘क्या मोहित और मौसी भी काफ़िर हैं? वे तो अल्लाह को नहीं मानते हैं।’’ रज़िया अविश्वास भरे भाव से बोली।

रज़िया की अम्मी को मोहित अच्छा लगता था और उसकी मौसी भी, अत वह धर्मसंकट में पड़ गईं। फिर सोचकर बोलीं,

‘‘हां हिंदू अल्लाह को तो नहीं मानते है, पर होते तो वे भी इंसान ही हैं और इंसान इंसान सब बराबर हैं- हिंदुओं में भी कई बडे़ नेक बंदे होते है।’’ं

इस उत्तर से रज़िया की संतुष्टि नहीं हुई थी और उसने आगे पूछा था,

‘‘पर भाईजान तो काफ़िरों को ज़िबह करने की बात कर रहे थे?’’

रज़िया की अम्मी कोई उत्तर दे पातीं, उसके पहले ही रज़िया के अब्बा घबराये से घर में आ गये थे और बोल पड़े थे,

‘‘ बच्चे कहां हैं?’’

अम्मी और रज़िया आश्चर्यचकित थे कि इन्हें आज बच्चों का ध्यान कैसे आ गया। उनके प्रश्नवाचक चेहरों को देखकर मीरअली बोले,

‘‘कस्बे में हिंदू-मुस्लिम फ़साद हो गया है। आज सबेरे जुमे की नमाज़ के पहले मस्जिद में गोश्त का टुकडा़ पडा़ मिला था, जिसके बारे में नमाज़ के दौरान अफ़वाह फैली कि सुअर का गोश्त है। तब से नये लौंडों में चुपचाप मिस्कौट होती रही और शाम को बाजा़र में छूरेबाजी़ हो गई। फिर आनन फा़नन में दूकानें बंद हो गईं और अब छिटपुट मारकाट शुरू हो गई है। सब बच्चों को आगाह कर दो कि घर से बाहर न जायें।’’

बच्चेेंा की तलाश हुई तो इरफा़न और रजा़ बाहर एक दूसरे को गरियाते हुए मिले, शाकिर पडो़स की लड़की रौशन को एक ओर ले जाकर माचिस की तीली से ज़मीन पर ‘बे-पेश-रे ’ लिखना सिखा रहा था, मुन्ना दोस्तांे के साथ बीडी़ के कश लेकर छल्ले बना रहा था- बस सबसे बडा़ सुल्तान का कुछ पता नहीं था। आस-पडो़स में पूछताछ करने पर भी सुल्तान के बारे में कोई कुछ न बता सका- यहां तक कि अपने बरामदे में हुक्का गुड़गुडा़ते रहने वाले रमजा़नी की नज़्ार में भी वह आज बस घर से निकलते समय ही पडा़ था। हारकर मीरअली अपने भय को अपनी बड़बड़ाहट में निकालने लगे थे,

‘‘आवारा कहीं का। घर तो इसे जैसे काटता है। साला पी पा रहा होगा कहीें शोहदों के साथ।’’

रज़िया की अम्मी के सिकुडे़ चेहरे पर चिंता की रेखायें अैार गहरीं हो रहीं थीं और अनिष्ट की आशंका से उनका और रज़िया का चेहरा फक था।



तभी हरहरमहादेव और अल्लाहोअकबर के उद्घोष से आकाश कम्पायमान होने लगा। कस्बे की घनी आबादी की छतों से हो-हल्ला, शोर-शराबा, और फा़यरिंग की आवाजें़ आने लगीं। कस्बे के निवासियों के दिलों में जितना भय व्याप्त हो रहा था, वे उतना ही अधिक जो़र से चिल्ला रहे थे। कहीं कहीं आग की लपटें उठने लगीं थीं जो रात्रिकालीन अंधकार में किसी राक्षस की लपलपाती जिह्वा सी दिखाई देतीं थीं। रज़िया की अम्मी के कंठ से रुकरुककर सिसकियां निकल रहीं थीं जो बाहर से उठने वाले कोलाहल में डूब जातीं थीं। आज रज़िया के अलावा एक व्यक्ति और इन सिसकियों को सुन रहा था और वह था रज़िया का अब्बा। सुल्तान की सलामती के लिये आज वह भी दुआ कर रहा था।

रज़िया सब कुछ देखसुन रही थी और भयाक्रंात हो रही थी, पर द्रुतगति से घटित होने वाली घटनाओं का कारण, व्यापकता और परिणाम को ठीक से समझ नहीं पा रही थी। अम्मी और अब्बा को सुल्तान की सलामती के लिये दुआ करते देख उसके मन में भांति भांति की आशंकायें उठ रहीं थीं। यद्यपि सुल्तान का रज़िया के जीवन से सम्बंध मुख्यत अपने काम करवाने तथा गाली गलौज और धौल-धप्पा करने मात्र का था, तथापि रज़िया के नेत्र सुल्तान के लिये बार बार गीले हो जाते थे। कल सबेरे ही जब रज़िया को सुल्तान का खाना लगाने में देर हो गई थी तो उसने रज़िया की चोटी खींचते हुए उसे घमकाया था,

‘‘उठती है फ़ुर्ती से या चपत खाने का मन है?’’

आज रज़िया उसी भाई के लिये अल्लाहताला से मन ही मन इल्तिजा कर रही थी,

‘‘या अल्लाह! मेरे भाई के सब कुसूर माफ़ कर उसे सही सलामत घर पर वापस भेज दे।’’

रज़िया के मन में एक और आशंका उठ रही थी कि इस मारकाट के माहौल में मोहित और उसकी माॅ कैसे आयेंगे। इस आशंका, अवसाद और निराशापूर्ण वातावरण में जब उसके शरीर और मन थककर क्लांत हो गये, तब उसकी आंख लग गई। उसे पता नहीं कि वह कितनी देर सोई होगी जब अचानक आंगन के दरवाजे़ की ज़ंजीर की खटखट सुनकर उसकी आंख खुल गई। उसके अब्बा भी जाग गये और जब रज़िया उठकर दरवाजा़ खोलने चली, तो बोले थे,

‘‘रुक रज़िया।‘‘

रज़िया ठिठक गई। वह समझी थी कि सुल्तान भाईजान आये होंगे, पर बाहर से भाईजान की आवाज़ की जगह फिर कुंडी जा़ेर से खटखटाने की कर्कश ध्वनि आई। तब रज़िया के अब्बा ने अपनी घबराहट पर नियंत्रण कर पूछा,

‘‘कौन है?’’

‘‘अबे हम थाने से आये हैं। दरवाजा़ खोलता है कि तोड़ दूं।’’

मीरअली अचानक पुलिस के आ जाने से किसी विपत्ति की आशंका से घबरा गया था और उसने सांकल अंदर से खोल दी थी। तभी तीन पुलिस वाले एकदम घर में घुस आये थे और पूछने लगे थे,

‘‘सुल्तान कहां है?’’

मीरअली ने कहा,

‘‘क्या बात है? वह तो कल शाम से घर पर नहीं आया है।’’

पुलिसवाले बिना पूरी बात सुने घर की तलाशी लेने लगे थे। सुल्तान के न मिलने पर यह हिदायत देकर चले गये थे कि सुल्तान आये तो तुरंत उन्हें खबर की जाये। कारण पूछने पर बस इतना कहा कि साला बडा़ जिहादी बनता है। इसके बाद घर में कोई नहीं सो सका और कस्बे में दीवाली की रात की तरह गोली और बम्ब चलते रहे। फिर लाउडस्पीकर पर धोषणा होती सुनाई दी,

‘कस्बे में कफ्र्यू आर्डर लग गया है। सब लोग अपने अपने घरों में रहें। बाहर घूमते हुए पाये जाने पर गिरफ़्तार कर लिया जायेगा और दंगाइयों को गोली मार दी जायेगी।’

घोषणा का एक एक शब्द रज़िया के हृदय में बर्छी सा चुभ रहा था।

सबेरा होते होते ज़िला मुख्यालय से अतिरिक्त पुलिस आ गई थी और कफ्ऱ्यू का सख़्ती से पालन कराने लगी थी। इससे कस्बे में शांति तो हो गई थी, परंतु यह शांति उस कब्रिस्तान की शांति के समान थी जहां रात भर भूतों का नंगा ताण्डव होता रहा हो और दिन होते होते भूत अपनी कब्रों में घुस गये हों। कस्बे में अनेक व्यक्ति मारे जा चुके थे और घायल थे और अनेक दूकानों और मकानों को लूटा या जलाया जा चुका था। पुलिस मुर्दांे का पोस्टमार्टम कराने, लाशों को घरवालों को सौंपने और घायलों केा अस्पताल पहुंचाने में लगी हुई थी।

सुल्तान अभी तक नहीं लौटा था और रज़िया व उसके घरवाले उसकी प्रतीक्षा में सांस साधे बैठै हुए थे। सबकी अवज्ञा कर धमाचैकड़ी मचाने वाले रज़िया के भाई भी आज एक दूसरे की ओर आशंकित नेत्रों से निहार रहे थे। करीब चार बजे शाम पुलिस की एक जीप रज़िया के दरवाजे़ पर आकर रुकी और उन्होने मकान का दरवाजा़ खुलवाया। पुलिस के दरोगा ने मीरअली को देखकर कहा,

‘‘अफ़सोस है मियां कि तुम्हारा लड़का रात में दंगे में मारा गया है। आज सबेरे हिंदुओं के मुहल्ले की एक गली में उसकी लाश पडी़ मिली है। वहां रहने वाले लोगों ने बताया है कि यह कुछ दूसरे लड़कों के साथ एक हिंदू लड़के पर छूरी से हमला करने जा रहा था कि उसकी गुहार सुनकर आसपास के मकानों से लड़कों ने निकलकर उन पर हमला कर दिया। इसके दूसरे साथी तो भाग निकले लेकिन यह पकड़ में आ गया। भीड़ ने गु़स्से में इसके चेहरे को इतना कुचल दिया था कि पहिचानना मुश्किल था और इसको पोस्टमार्टम के बाद लावारिस समझकर जला दिया जाता लेकिन अस्पताल के नर्सिंग अर्दली इस्माइल ने इसके कपडे़ देखकर पहिचान लिया कि यह आप का लड़का सुल्तान है। कफ्ऱ्यू के दौरान लाश को दफ़नाने के लिये चार आदमियों को इजाज़त का रुक्का मैं लिखे देता हूं। इससे ज़्यादा मत जाना और अंधेरा होने से पहले ही दफ़ना देना।’’

व्यस्त पुलिस वालों ने लाश जीप से उतारकर दरवाजे़ पर रख दी और अन्य जगह ड्यूटी पर चल दिये।

रज़िया की अम्मी को छोड़कर सभी घरवाले दरवरजे़ पर जमा हो चुके थे और धीरे धीरे उनके मानस में घटना की गम्भीरता का भाव समा रहा था। सुलतान की मृत्यु का अवसाद घर की हवा में तैरने लगा था और उसकी माॅ के कमरे में भी पहुंच रहा था। अनहोनी की आशंका से वह किसी प्रकार अपनी बंसखटी से उठकर दरवाजे़ तक आ गई थीं और रोने के पहले ही उनकी घिग्धी बंध गई थी। रज़िया अपने भाईजान के शरीर को छूकर विलाप कर रही थी और अम्मी मूर्छित होकर अपनी जगह ही ढेर हो रहीं थीं। पडो़सी आ आकर मीरअली को सांत्वना दे रहे थे। जब स्थिति कुछ सहज हुई तो रमजा़नी चाचा बोले,

‘‘अब जल्दी से दिन डूबने से पहले ही दफ़नाने का इंतजा़म करो।’’

जब सुल्तान की अर्थी उठाकर ले जाई जा रही थी, उसकी माॅ की आॅखें एक पल को खुलीं जैसे वे अपने बेटे को अंतिम बार जी भरकर देख लेना चाहतीं हों। अर्थी के जाने के बाद रजि़्ाया और उसके भाई माॅ को उठाकर चारपाई पर ले आये। उसके पश्चात वह चेतना और मूर्छा की अवस्था के बीच झूलतीं रहीं और रजि़या उनके सिरहाने बैठकर अल्लाह से उनके जीवन की भीख मांगती रही। रज़िया बीच बीच में सुल्तान के लिये भी मुंह फाड़ कर रो पड़ती थी क्योंकि उसके द्वारा सताये जाने की दैनिक घटनाओं की उसे रहरहकर याद आ जाती थी। इस संसार की यह अनोखी विडम्बना है कि हमें अपने को प्यार करने वालों के बजाय त्रसित करने वाले अधिक याद आते हैं- जीवन में भी और मृत्योपरांत भी।

दूसरे दिन कर्फ़्यू तीन घंटे को खुलने का ऐलान हुआ। रज़िया को इस बीच मोहित के घर जाकर उससे मिलने और उसका हाल जानने की बडी़ ललक हुई, पर वह गई नहीं क्योंकि एक तो अम्मी की देखभाल के लिये उसका घर में रहना ज़रूरी था और दूसरे वह बीते दिनों की घटनाओं को देखकर समझ चुकी थी कि उसे किसी हिंदू के यहां जाने की अनुमति मिलने का सवाल ही नहीं था। रज़िया के मन में एक आशा अवश्य उठती थी कि मोहित अगर आ गया होगा, तो उससे मिलने अवश्य आयेगा। पर उन तीन घंटों में न तो रज़िया माहित के पास जा सकी और न मोहित ही आया। हां, कुछ पडो़सी मुसलमान मातमपुर्सी के लिये ज़रूर आये थे। इनमें मकतब के मौलवी साहब और सुल्तान के कुछ साथी भी थे, जिन्हें देखकर रज़िया का खू़न खौल गया था क्योंकि वह जानती थी कि इन्हींने भाईजान को काफ़िरों का सफा़या करने को उकसाया होगा और जज़्बाती होने के कारण भाईजान इनके बहकावे में आ गये होंगे। दंगे की रात हिंदुओं के बीच घिर जाने पर ये चालाक साथी भाग लिये होंगे और अकेले भाईजान अपनी जान पर खेल गये होंगे। पर वह अपना आक्रोश अपने मन में दबाकर रह गई थी- उसे व्यक्त करने का साहस नहीं कर सकी थी।

अगले दिन फिर तीन धंटे के लिये दोपहर में कफ़र््यू खुला। कफ्ऱ्यू खुलने की घोषणा होते ही रज़िया ने मोहित के आने की आशा में पलक-पांवडे़ बिछा दिये, पर आज भी न तो मोहित आया और न उसकी कोई ख़बर मिली। उसी रात में रज़िया की माॅ के दिल में जो़र का दर्द उठा था और उनकी छटपटाहट सुनकर उसके अब्बा भी जाग गये थे, परंतु इतना कहकर उन्होने करवट बदल ली थी,

‘‘थोडा़ बरदाश्त करो। ऐसे में क्या किया जा सकता है- कहीं कोई डाक्टर हकीम भी नहीं मिलेगा।’’

रज़िया की माॅ ने उनकी ओर ऐसी निगाह से देखा था जैसे उलाहना दे रही हो कि इससे ज़्यादा आप से अपेक्षा भी क्या की जा सकती है। फिर बडा़ प्रयत्न कर रज़िया का हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे धीरे फुसफुसाने लगी थी,

‘‘रज़िया, मैं अब जा रहीं हूं।’’

आज अंतिम समय में उनके हृदय में वर्षों से संचित पीडा़ बाहर फूट निकली थी और अपने पति की ओर देखकर आगे बोलने लगीं थीं,

‘‘बेटी! मज़हब नहीं इंसान अच्छा या बुरा होता है। मज़हब से कोई काफ़िर नहीं होता है, इंसानियत न होने से.....’’

और तभी रज़िया की माॅ की आवाज़ सदैव के लिये शून्य में खो गई थी।

माॅ की मृत्यु से रज़िया के हृदय को बडा़ आघात लगा। समस्त घरवालों में अकेली रज़िया ही उनके लिये हृदय की गहराइयों से रोई थी। शेष घरवालों के मन में यदि क्षणिक दुख उभरा भी, तो तुरंत बाद यह भाव आ गया कि चलो छुट्टी मिली- उनके लिये तो वह न काम की थीं न काज कीं। उस घर में रज़िया का एकमात्र सम्बल माॅ ही थीं और वह भी उसे सदैव के लिये छोड़ गईं थीं- रज़िया के लिये वह घर एकदम पराया हो गया था। अगले दिन सबेरे ही कफ्ऱ्यू उठा लिये जाने का ऐलान हो गया। रज़िया की माॅ को सादे ढंग से दफ़ना दिया गया। उसकी मय्यत में घरवालों के अतिरिक्त बस रमजा़नी चाचा ही गये। समाज में केवल उस पत्नी को मान दिया जाता है, जिसका पति उसको मान देता हो। सब जानते थे कि रज़िया की माॅ का खा़बिंद उसकी परवाह नहीं करता है, इसलिये एक दो औरतों को छोड़कर किसी ने मातमपुर्सी के लिये भी आना आवश्यक नहीं समझा।

अगले दिन दोपहर होते होते रज़िया के अब्बा और भाईलोग इतने दिन से दबाये हुए अपने अपने शौकों को पूरा करने के लिये निकल पड़े थे। अम्मी के बिना रज़िया को वह घर काटने को दौड़ने लगा और वह भी घर से निकलकर चुपचाप मोहित की मौसी के घर को चल दी। हां, आज उसके कदम उस सहजता से चाची के घर के लिये नहीं उठ रहे थे, जिस सहजता से पहले उठा करते थे- एक तो मोहित के उसके घर न आने से उसके मन में मोहित के विषय में भांति भांति की शंकायें उठ रहीं थीं और हिंदू मुसलमानों के बीच हुई मारकाट ने उसके शंकालु मन ने चाची के घर में अपनी स्थिति के विषय में भी शंका उत्पन्न कर दी थी।

‘‘अरे रज़िया!’’- जैसे ही रज़िया आंगन के दरवाजे़ का पल्ला हटाकर झांकी थी, मोहित ने उसे देख लिया था और उसकी ओर दौड़ पडा़ था। एक बार तो उसकी इच्छा तीव्रता से हुई कि रज़िया को बांहों में भर ले, परंतु साहस न कर सका था; वरन् अपने अनियंत्रित उछाह प्रदर्शन पर वह लजा सा गया था। मोहित को देखकर रज़िया के नेत्र भावातिरेक से छलछलाने लगे थे परंतु उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकल रहे थे।

‘‘रज़िया, आओ बैठो।’’- तभी मौसी ने रज़िया को देखकर पुकारा था और रज़िया और मोहित दोनो उनके पास आकर बैठ गये थे। मोहित की अम्मा भी पास में चारपाई पर बैठीं थीं। रज़िया ने उन्हें आदाब किया तो वह कुछ बोलीं नहीं थीं, बस पहिचान का भाव उनके चेहरे पर परिलक्षित हुआ था।

‘‘कर्फ़्यू ने तो तुम्हारा आना ही बंद कर दिया था। कितने दिन हो गये तुम्हें देखे।’’- मौसी के ममता भरे शब्द सुनकर रज़िया के अश्रु अनवरत बह पडे़। शांत होने पर वह बोली,

‘‘चाची, कर्फ़्यू के दौरान मेरे बडे़ भाईजान मारे गये और उनके सदमें में मेरी अम्मी भी नहीं रहीं।’’

यह सुनकर मोहित सन्न रह गया था। रज़िया के भाई सुल्तान की किसी हिंदू पर हमला करते हुए मारे जाने की बात मौसी ने अपने पति से सुन रखी थी। सुल्तान के आवारा और अपराधी होने की बात भी उन्हें मालूम थी। उन्होने मोहित को यह बात जानबूझकर नहीं बताई थी। रज़िया की अम्मी की मौत की खबर उन्हें अभी तक नहीं मिली थीं। रज़िया की अम्मी की सामाजिक स्थिति अत्यंत तुच्छ थी और उसी अनुपात में उनकी मौत समाज के लिये अत्यंत तुच्छ खबर थी। मौसी जानतीं थीं कि रज़िया के लिये उसके घर में उसकी अम्मी ही एकमात्र सहारा थीं, अत उनकी मौत की खबर पाकर मौसी को रज़िया पर बडा़ तरस आया था। उन्होंने रज़िया के कंधे पर हाथ रखकर उसे अपने पास खींच लिया। मन की प्रवृत्ति है कि आसरा पाकर अपने दुख को व्यक्त करने को व्याकुल हो जाता है अत रज़िया की सिसकियां और तेज़ हो गईं थीं।

रज़िया के भाई और अम्मी की मृत्यु का समाचार जानकर मोहित की अम्मा के मन मंे भी रज़िया के लिये सम्वेदना जागृत हुई थी और उनकी आंखें भी छलछला आईं थीं। मोहित तो इतना आहत हुआ कि कुछ बोल न सका- बस अपने आंसू रोकने का असफल प्रयत्न करता रहा।

‘‘मोहित, तुम कब आये?’’- सहज होने पर रज़िया ने पूछा।

रज़िया के दुख की बात जानकर मोहित की अम्मा रज़िया के प्रति नरम हो गइ्र्रं थीं। अत मोहित के बोलने के पूर्व ही कहने लगीं,

‘‘हम तौ सुक्कुर कौं चल दये हते और सनीचर की सबेरें अट्टेसन पै आय गये हते। हमैं का पता हतो कि हिंयां हिंदू और मुसलमानन में मारकाट हुइ रही है। अगर अट्टेसन सै पुलिस बाले हमैं हिंयां न पहंुचाय देते, तौ भगवानई मालिक हतो। हम तो षुक्र को चल दिये थे और षनिष्चर की सुबह स्टेषन पर आ गये थे। हमें क्या पता था कि यहां हिंदुओं और मुसलमानों में मारकाट हो रही है। यदि स्टेषन से पुलिस वाले हमें यहां न पहुंचा देते तो भगवान ही मालिक था।’’

फिर कुछ रुककर कहने लगीं, ‘‘ऐसे मैं हम जांदां दिन हिंयां नाईं रहिययैं; हम जल्दियईं लौट जययैं। ऐसे में हम अधिक दिन यहां नहीं रुकेंगे, जल्दी ही वापस चले जायेंगे।’’

मोहित की अम्मा का यह वाक्य रज़िया के हृदय में नश्तर सा चुभ रहा था। फिर कुछ चिंतित होकर वह मोहित की मौसी से बोली थी,

‘‘चाची, अभी तो मैं चलूंगी, पता नहीं कब कोई घर पर आ जाये।’’ फिर मोहित की ओर देखते हुए उसने कहा, ‘‘तुम्हें फुर्सत हो तो आ जाना।’’

इस पर मोहित की माॅ घबराकर बोल पड़ीं थीं,

‘‘बिटिया, मोहित कौं तुम्हाई ओर भिजबे मैं हमैं डर लगत है। चाहौ तौ तुम्हई आय जइयौ। मोहित को तुम्हारी ओर भेजने में मुझे डर लगता है। चाहो तो तुम्हीं आ जाना।’’

उनकी चिंता आधारहीन नहीं थी- जिस घर का जवान लड़का हिंदुओं द्वारा मारा गया हो, उसके घरवालों का खून खौलना नामुमकिन नहीं था।

रज़िया को भेजने मोहित अपने दरवाजे़ तक आया, परंतु उसके जाते समय कुछ बोला नहीं, बस उसे जाते हुए देखता रहा। इस साम्प्रदाायिक दंगे में घटित विस्फोटक घटनाओं ने उन दोनों के बीच आज ऐसी रेखा खींची हुई थी कि अदम्य चाह होते हुए भी वे विगत वर्षों की भांति उन्मुक्त एवं सहज नहीं हो पा रहे थे। इसके अतिरिक्त बढ़ती आयु के कारण उन दोनों के मन में उत्पन्न ‘दिल की शिकायत ओर नज़र के शिकवे’ भी एक अनांमंत्रित सीमा रेखा खींच रहे थे।

फ़तेहपुर के लिये आते समय टे्न में मोहित लगातार सोचता रहा था कि वह रज़िया से क्या क्या बातें करेगा, तालाब के किनारे उसके साथ कौन कोन से खेल खेलेगा। पर फ़तेहपुर स्टेशन पर टे्न से उतरने पर उसका जिस अफ़रा-तफ़री के माहौल से सामना हुआ, उससे उसकी चाहत और योजनायें गड्डमड्ड हो गये थे। घर आने पर कफऱ््यू के कारण उसके घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी गई थी। रोज़ रोज़ यह किस्से सुनकर कि कैसे हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के खू़न के प्यासे हो गये थे, उसकी मां ने उसे सख़्त मनाही कर दी थी कि इस बार वह किसी मुसलमान के घर झांकेगा भी नहीं। सुल्तान के हिंदुओं द्वारा मारे जाने का समाचार जानकर उसकी मौसी ने भी इस बात में उसकी माॅ का समर्थन किया था।

रज़िया को मोहित की मौसी के घर की तरफ़ से आते हुए उसके भाई मुन्ना ने देख लिया था और उसकी जमकर धुनाई की थी। इस पर रज़िया ने न तो कोई प्रतिरोध किया था और न रोई थी, बस एक ठूंठ की तरह मार सहती रही थी। इस पर मुन्ना का क्रोध और भड़क उठा था और वह दहाडा़ था,

‘‘काफ़िरों ने हमारे भाई को बेरहमी से कुचल कुचलकर मार डाला और तू अभी भी उनकी सगी बन रही है?’’

रज़िया फिर भी चुप रही थी- वह जानती थी कि वह न तो मुन्ना को अपनी बात समझा सकती है और न स्वयं को मोहित से मिलने को रोक सकती है।

लगभग एक सप्ताह बीत रहा था और रज़िया को मोहित के घर जाने का कोई अवसर नहीं मिल पाया था। रज़िया मोहित से मिलने को छटपटा रही थी और उसे यह आशंका भी थी कि कहीं मोहित जल्दी वापस न चला जाये। मोहित भी रज़िया के घर नहीं आ पाया था। अम्मी की मौत के बाद आज पहली बार वह मकतब गई थी। वहां से छुट्टी होने पर वह दीवानी मीरा सी अपने घर के बजाय मोहित की मौसी के घर को चल दी थी। उसके घर में घुसते ही मौसी प्रसन्न होकर बोल पडीं़ थीं,

‘‘अरी रज़िया, तू खूब वक्त से आ गई । मोहित और दीदी आज जाने को तैयार हैं।’’

यह सुनकर रज़िया का चेहरा एकदम फक पड़ गया, जिसे देखकर मौसी आगे बोलीं, ‘‘मैने तो बहुत रोका, लेकिन दीदी मानती ही नहीं हैं।’’

तब मोहित भी अंदर से वहीं आ गया। मोहित को जाने को तैयार देखकर रज़िया का गला भर आया। उसके मुंह से बस इतना ही निकला,

‘‘इतनी जल्दी जा रहे हो?’’

मोहित भी केवल एक शब्द ‘हां’ अपने मुख से बोल सका, बस अतृप्त नज़रों से रज़िया को देखता रह गया। जब रज़िया के लिये मोहित की उन निगाहों को देखना असह्य हो गया, तो वह मोहित की माॅ को टीन के बक्से में कपडे़ रखते हुए, अखबार में पूड़ियां और अचार लपेटते हुए और मौसी से गले मिलते हुए देखती रही। परंतु उसका मन मोहित के साथ के इन मूल्यवान क्षणों को अपने मन में ऐसे संजोता रहा जैसे कोई कृपण अपना धन तिजोरी में संजोता है। समय ने किसका साथ दिया है- वह तो निस्पृह-निष्काम भाव से समान गति से प्रवाहित होता रहता है चाहे कोइ्र्र आंसू बहाये या मुस्कराये। कुछ ही अंतराल में वह निष्ठुर क्षण आ पहुंचा जब मोहित रज़िया की आंखों से ओझल हो गया- रज़िया के जीवन मे एक अमिट अतृप्ति भरकर।

अगले वर्ष गर्मी की छुट्टियों में मोहित मौसी के घर नहीं आया- छुट्टियों के बाद उसे गांव से दूर इंटर कालेज में भर्ती करा दिया गया था। उसके आगे के वर्षों में भी मोहित नहीं आ सका था।

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