भीगे पंख - 3 Mahesh Dewedy द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भीगे पंख - 3

भीगे पंख

3. सतिया का जन्म

कार्तिक का बड़ा सुहाना महीना था- न अधिक गर्म, न अधिक ठंडा। वर्षा ऋतु के पश्चात चारों ओर छाई हरियाली इतनी उत्फुल्लकारी थी कि मन और शरीर दोनों आह्लाद से भरे रहें। यह वह समय था जब मोहित सवा तीन वर्ष का हो चुका था और हवेली में धमाचैकडी़ मचाये रहता था।

ग्राम्य जीवन का यह वह महीना था जब वर्षा के प्यार से प्रस्फुटित हरी-भरी प्रकृति शरत् ऋतु केा अपने अंक मे भर लेने को व्याकुल होने लगी थी।

यह वह समय था जब दोपहर बाद लोग घर के बाहर नीम के पेड़ के नीचे बैठकर पीली पड़ती धूप का आनंद लेना प्रारंभ कर चुक्रे थे।

यह वह समय था जब सांध्यवेला में अवसर मिलते ही नर और मांदा युवा मच्छर घने काले केशों वाले युवक-युवतियों के सिर के उूपर मंडरा मंडरा कर काम-नृत्य करना प्रारम्भ करने लगते हैं।

यह वह समय था जब गांव के कुत्तों ने रात रात भर कुतियों के पीछे उनको पटाने हेतु विचरण करना प्रारम्भ कर दिया था। उनमे जो सफल होते वे तो लम्बे लम्बे समय तक जीवनदायिनी क्रीडा़ मे लिप्त रहते और जो प्रेयसी द्वारा दुत्कार दिये जाते अथवा अन्य प्रतियोगी के भयवश प्रतियोगिता से बाहर हो जाते, वे हृदयविदारक चीत्कार के साथ रात भर अश्रु बहाते रहते थे।

यह वह समय था जब गृहिणियो ने उूनी कपडे़ और रजा़ई टीन के बक्सों से निकालकर धूप मे सुखाना प्रारंभ कर दिया था जिससे उनमे बसी नमी की बास उड़ जाये और जैसे ही शामों की ठंडक बढे़, वे शरीर को नरम गरम रखने के काम आ सकें।

यह वह समय था जब गांव की अंधेरी गलियों और कोठरियों मे रेंगने वाले सांपों और बिच्छुओं का डर समाप्त होने लगा था और गांव के बच्चों ने रात्रि में खेले जाने वाले खेल ‘सूंडी़’ को निधड़क खेलना प्रारंभ कर दिया था। दो टीमों में विभक्त होकर एक टीम के बच्चे दूसरी टीम से आगे जाकर गली के एक मोड़ पर खडे़ होकर ‘चल बोल’ बोलते थे और भागकर किसी अंधेरे स्थान मे छिप जाते थे और दूसरी टीम के बच्चे जो गली के पिछले मोड़ पर खडे़ होते थे, दौड़कर उन्हें ढूंढते थे। इस तरह देर रात तक गांव की गलियों मे धमाचैकडी़ मची रहती थी। कभी कभी पहली टीम के कुछ शैतान बच्चे ढूंढने मे देरी होने पर चुपचाप अपने घरों को खिसक लेते थे और खा पीकर सो जाते थे, और दूसरी टीम के बच्चे उन्हें देर रात्रि तक ढूंढते रह जाते थे।

यह वह समय था जब रात्रि मे ब्यालू करने के बाद गांव के बच्चांे, युवकों और बडे़-बूढे़ां ने अघेना अग्निकुंड के चारांे ओर बैठकर चैपाल लगाना प्रारंभ कर दी थी जिसमे किस्से कहानियों के अलावा गांव की चटपटी घटनायें जैसे, सुरेसा कहार की बहू आजकल किससे आंख लडा़ रही है, पटियाइत के सी्रचंद कक्का पिछली रात ‘लाला की बगिया’ मे खडे़ पीपल पर रहने वाले जिन्न से कितनी देर तक लड़ते रहे, आदि खूब नमक मिर्च लगाकर बखानी जातीं थीं।

यह वह समय था जब राम द्वारा रावण को जीतकर अयोध्या लौटने की स्मृति मे दीपमाला जलाकर मनाया जाने वाला दीपावली का त्यौहार प्रत्येक ग्रामवासी के मनमानस पर छाने लगा था। इस अवसर पर गांव की रियाया- नाई, धेाबी, चमार आदि- को उनकी सेवा-टहल के पुरस्कार स्वरूप ब्राह्मणों के घरांे से उनकी उतरन के पुराने कपडे़, और बची खुची मिठाइयां व पूड़ियां मिलने वालीं थी, जिसकी प्रतीक्षा उनके घरों मे होली के बाद से की जा रही थी।

मानिकपुर में फूस की उस टुटही झोपडी़ मे जैसे कार्तिक आया ही नहीं था; वैसे भी उसमंे जब भी कोई मौसम आता था तो केवल उसमें रहने वाले युगल की विपन्नता को उजागर करने एवं उनकी निरीहता से उत्पन्न कष्टों में वृद्धि करने हेतु आता था- ग्रीष्म ऋतु मे लू के थपेडे़, शरत ऋतु मेे फूस के छप्पर को अबाध पार कर आने वाली शीतलहर और बरसात मे पुराने छप्पर से टपकता पानी, इन्हें सहना ही उसमे रहने वाले दम्पति का भाग्य था। उस झोपडी़ में दीया भी होली-दीवाली पर ही जलता था। आज सायंकाल से ‘हाय अम्मा, हाय मरी.....हाय अम्मा, हाय मरी........’ के नारी स्वर की कराहें उस झोपडी़ में गूंज रहीं थीं जो झोपडी़ के बाहर कुछ दूर तक की वायु को प्रकम्पित कर विलीन हो जातीं थीं। ये कराहें बीच बीच में रुक जातीं थीं और झोपडी़ में पूर्ण शांति छा जाती थी। झोपडी़ के अंदर एक ढीले-ढाले झूलते हुए बानों से बुनी बंसखटी पर अठारह वर्षीय कमलिया लेटी हुई थी। उसके मुख से कभी कराहट निकलती थी तो कभी मात्र बुदबुदाहट, परंतु उन्हें सुननेवाला कोइ्र्र न था। हां, एक चुहिया, जो अरहर की लकड़ियों से बनी डलिया मे रखी रोटी को कुतर कुतर कर खा रही थी, अवश्य कमलिया की कराह को सुनकर सतर्क होकर कान खडे़ कर लेती थी और कराह के रुक जाने पर आश्वस्त होकर पुन अपनी क्षुधापूर्ति में जुट जाती थी। झोपड़ी की कच्ची मिट्टी की दीवालों के उूपर रखे फूस के छप्पर के संधिस्थल पर एक झींगुर ने अपना शरणस्थल बना लिया था, जो प्रतिदिन की भांति अंधेरा होते ही कर्कश ध्वनि में अपना राग अलापने लगा था। कमलिया के सिरहाने की दीवाल पर एक नर छिपकला एक मांदा छिपकली को पटाने हेतु उसके पीछे दौड़ रहा था। कमलिया की प्रसव पीडा़ इतनी तीक्ष्ण थी कि वह जीवन की इन प्रखर प्रक्रियाओं से अनभिज्ञ थी। शनै शनै वह जागृति और मूर्छा की अवस्था के बीच झूलने लगी थी। उसे लगने लगा था कि वह आज नहीं बचेगी और बीते जीवन के अंतरंग क्षण उसके मस्तिष्क मे चलचित्र सम घूमने लगे थे।

‘‘अम्मा! बराइत आइ गई है। बगिया मै टिकी है। पानी-पत्ता कराय आये हैं। अम्मा बारात आ गई है, बाग में टिकी है। जलपान करा दिया हैं’’ - जब कमतिया के छोटे भाई दिन्नू ने हांफते हुए आकर कहा था, तो उसके मन में मिसरी सी घुलने लगी थी; परंतु तभी उस मिसरी में यह सोचकर खटास पैदा हो गइ्र्र थी कि लड़का दुजांहूं दूसरे विवाह वाला है। फिर अम्मा की यह बात याद कर उसने संतोष कर लिया था, ‘‘लड़का की उमिर पचीस सै जांदा नांई्रं है और पहली वाली सै कोई्र औलाद नाइ्र्रं है। बू तौ उनके भय्या की बिचमानी सै ऐसो लड़का मिल गओ, नाईं तौ आजकल मजूर-पेसा बूढे़ लौ दहेज मै सायकिल मांगन लगे हैं। लड़के की उम्र पच्चीस से ज़्यादा नहीं है, और पहली पत्नी से कोई औलाद भी नहीं है। वह तो उनके भाई के बीच में पड़ने से ऐसा लड़का मिल गया है, नहीं तो आजकल मज़दूरी करने वाले बुड्ढे भी दहेज़ में सायकिल मांगने लगे हैं।’’

फिर जब भांवरें पड़ने के समय उसने लड़के पस्सराम को घूंघट के अंदर से देखा था तो पीले कुर्ते और लाल मौर में सांवले मुंह पर बडा़ बडा़ काजल लगाये हुए वह कमलिया को बडा़ सुंदर लगा था। उस क्षण को यादकर अर्धमूर्छित अवस्था में भी कमलिया के मुंह पर एक क्षीण स्मित रेखा दौड़ गई थी। कमलिया एक विपन्न परिवार की लड़की थी और विपन्नता की अवस्था में पली थी। उसे एक जवान पति मिल रहा था, यही बडी़ बात थी। उसके लिये यह कौन कम सौभाग्य की बात थी कि वह किसी अधेड़ बाल-बच्चेदार पुरुष के यहां नहीं बैठा दी गई थी जैसे कमलिया की मां अपनी से दूनी आयु वाले उसके पिता के यहां बैठाई गई थी।

पस्सराम को भी कमलिया पहली निगाह में ही भा गई थी और जब पौनछक बारात के आगमन के पश्चात रात्रिभोज के समय उसके फूफा इस बात पर रूठकर वापस जाने लगे थे कि कमलिया के पिता ने उनके पैर अपने हाथ से नहीं धोये थे, तो बडा़ें के बीच वह बोल पडा़ था,

‘‘फूफा! अब गुस्सां थूक देउ। आदमियई्र सै भूल होत है। फूफा, अब गुस्सा त्याग दीजिये। आदमी से ही भूल होती है।’’

दूल्हे के मुंह से यह बात सुनकर सब अवाक रह गये थे और उसके जीजा ने चुटकी ली थी,

‘‘हाय! अबै सै जू हाल है तो अंगाउूं का हुइअय? हाय, अभी से यह हाल है, तो आगे क्या होगा।’’

इस पर सब लोग अनायास हंस पडे़ थे और पस्सराम झेंप गया था, परंतु आसन्न झंझट टल गया था।

विवाह के अगले साल ग्रीष्म ऋतु में कमलिया का गौना हुआ था और तब वह पहली बार ससुराल आइ्र्र थी। उस समय वह पंद्रह वर्ष की किशोरी थी और उसके मन में पुरुष द्वारा प्यार किये जाने के स्वप्न सोते-जागते आने लगे थे। सुहागरात में पस्सराम की चाची ने उन दोनों के लिये घर के एकमात्र मड़हे की छत पर बंसखटी डलवा थी और चाचा चाची तथा उनकी संतानें नीचे मड़हे और उसके सामने के खुले आंगन में सोये थे। पस्सराम के माता-पिता तो उसके बचपन में ही उसे बिलखता छोड़कर परलोक सिधार गये थे और उसके चाचा-चाची ने ही किसी तरह उसे पाला था। पस्सराम की पहली पत्नी विवाह के तीन माह बाद ही मलेरिया बुखार में चल बसी थी। पहले विवाह में पस्सराम के चाचा ने लगुन के मौके पर पूरे ग्यारह रुपये दहेज में लिये थे, परंतु इस बार उन्हें दहेज में लगुन, विवाह और गौने के तीनों अवसरों को मिलाकर दस-बारह रुपये से अधिक की प्राप्ति नहीं हुई्र थी, इसलिये चाचा चाची नई बहू से अधिक खु़श नहीं थे।

विवाह और गौने के अंतराल में कमलिया की काया गदरा गइ्र्र थी और बडी़ कमनीय हो गई्र थी जिसे देखकर पस्सराम की खुशी उसके मन में नहीं समा रही थी और वह बेताबी से रात्रि की प्रतीक्षा कर रहा था। घर में सबका खाना पीना हो जाने पर जब सब सोने का उपक्रम करने लगे, तो पस्सराम दबे पांव जी़ने से छत पर चढ़ आया था। चाची ने कमलिया को पहले से ही वहां भेज दिया था। चतुर्दशी की चांदनी रात्रि थी, जिसकी चांदनी में कमलिया के कुंआरे सौंदर्य को निहारकर पस्सराम का मन प्यार से आप्लावित हो गया था। कमलिया संकोच से छुई्र मुई्र हो रही थी, परंतु उसके अधमुंदे नयन पस्सराम को निकट आने का मूक निमंत्रण दे रहे थे। नेत्रों की भाषा का यह आदान प्रदान जब असह्य होने लगा तो पस्सराम ने आगे बढ़कर कमलिया को बांहों में भर लिया था और उसके कान में फुसफुसाया था,‘‘ मेरी कमलिया........’’। पस्सराम ने ऐसे धैर्यपूर्वक एवं प्रेमपूर्वक कमलिया को अपना बनाया था कि कमलिया जी-जान से उस पर निछावर हो गइ्र्र थी।

कमलिया अपनी सेवाटहल से अपने चाचा-चाची को पूर्णत प्रसन्न रखने का प्रयत्न करती थी परंतु शीत ऋतु आते आते चाची ने उससे कह दिया था कि अब उन दोनों को अपना अलग प्रबंध कर लेना चाहिये। चाची की बात भी सही थी क्योंकि उनके पास बस एक ही मड़हा था और अब उनके बेटे के विवाह की भी बात चल रही थी।

पस्सराम बचपन से हल्ला के यहां चाकरी करता रहा था- उनके जानवरों का गोबर-कूडा़ करना, उन्हें चराना, पानी पिलाना, कुट्टी काटकर उन्हें खिलाना, फ़र्श को गोबर से लीपना और कंडे पाथना आदि ही उसके जीवन की दिनचर्या थी। उसके पास अपनी कोई ज़मीन नहीं थी। अत आज ज़्मीन की आवश्यकता पड़ने पर वह उन्हीं के पास अपनी फ़रियाद लेकर आया,

‘‘मालिक! हमाये चच्चा अब हमैं अलग रहिबे कौं कह रहे हैं। थोरी सी जगह दै कें हमाये रहिबे के लैं कोई ठिकानों कर देउ। मालिक, मेरे चाचा अब हमें अलग रहने को कह रहे हैं। थोडी़ सी जगह देकर हमारे रहने का ठिकाना कर दीजिये।’’

उसकी अनुनय सुनकर हल्ला कुछ देर तक पलकें मूंदकर कुर्सी पर ऐसे बैठे रहे जैसे उन्होंने कुछ सुना ही न हो। पस्सराम उनके इस स्वभाव को जानता था, अत कुछ देर चुप खडे़ रहने के बाद उसने अपनी अनुनय दोहरायी, तब उन्होंने अपने नेत्र खोले थे। उस समय उनकी मूंछों में एक क्षीण स्मित-रेखा विद्यमान थी। वह अपने गम्भीर स्वर में बोले,

‘‘ठीक है तुम मेरे घर के उत्तर की ओर खाली पडी़ ज़मीन के कोने में एक मड़हा बनाय लेउ। पुखरिया सै मट्टी लै लीजौ और मेरे लाहा को फूस लै कें छप्पर डाल लीजौ। ठीक है, तुम मेरे घर के उत्तर की ओर खाली पड़ी ज़मीन पर एक कमरा बना लो। पोखरी से मिट्टी ले लेना और मेरे खेत के लाहा के फूस का छप्पर डाल लेना।’’

पस्सराम यह सुनकर अवाक था- उसे लग रहा था कि उसकी मांग पर व्यंग्य करने हेतु हल्ला ऐसे बोल रहे हैं। अपने घर के बगल में वह एक ‘अछूत’ को कैसे बसा सकते हैं? वह उनकी बात का मर्म समझने हेतु चुपचाप खडा़ रहा, तभी वह फिर बोले,

‘‘अब मेरो मुंह का देखत है? का बांस बल्ली के लैं पैसा चहिंयें? अब मेरा मुंह क्या देखता है? क्या बांस-बल्ली के लिये रुपये चाहिये?’’ और उन्होंने अपनी फतुईं की जेब से निकालकर दस रुपये उसकी तरफ़ फेंक दिये थे। कृतज्ञता से पस्सराम की खीसें निपुर गइ्र्रं और वह पैसे उठाकर आभार व्यक्त करने हेतु बार बार ज़मीन छूकर अपने माथे से लगाने लगा। फिर महीने भर में ही पस्सराम ने कच्ची मिट्टी का अपना मड़हा बना लिया था और उस पर छप्पर भी छा लिया था। गांव के अन्य ब्राह्मणों को हल्ला द्वारा अपने पडो़स में एक ‘अछूत’ को बसा लेने पर अत्यंत क्षोभ था और पीठ पीछे वे कहते भी थे कि ब्रह्मणों का नाश होने वाला है जो उनकी ऐसी मति भ्रष्ट हो रही है, परंतु हल्ला के उग्र स्वभाव के कारण कोई उनसे कुछ कहने का साहस न करता था। उनसे तब भी कोई्र कुछ कहने का साहस कहां जुटा सका था जब उन्होने बेड़नियों को पोखर के किनारे रहने की जगह दे दी थी, अथवा जब उन्होंने गोह और सांप जैसे जंतुओं को अपने घर में पाला था, अथवा जब अपने ही खानदान में आयी हुई बारात के बारातियों पर इसलिये ईंट-पत्थर और धूल-माटी फिंकवाई्र थी कि बारात में नाचने को वे पतुरिया नहीं लाये थे।

अपने मड़हे में रहने के लिये कमलिया को लेकर जब पस्सराम अपने चाचा के घर से चला था तो उसकी चाची ने कमलिया को अलग ले जाकर सचेत किया था,

‘‘सेर की माॅद मैं रहन जाय तौ रही हौ, लेकिन बच कें रहियौ। शेर की मांद में रहने तो जा रही हो, परंतु रहना बच के।’’

कमलिया चाची की बात का अर्थ नहीे समझ पाई थी और अपने घर में रहने की खुशी में वह कोई ऐसी वैसी बात सुनने समझने को उद्यत भी नहीं थी। शाहजहां को अपने द्वारा बनवाये गये ताजमहल में प्रवेश करते समय जितनी प्रसन्नता हुई होगी, अपनी कोठरी में आकर इन दोनों को उससे कम प्रसन्नता नहीं हुई्र थी। कमलिया को पहली बार पूर्ण एकांत में पाकर पस्सराम मगन हो रहा था और रात्रि आने की बेताबी से प्रतीक्षा कर रहा था। रात मे प्रथम एकांत मिलन का ज्वार शांत होने पर कमलिया ने पस्सराम की छाती पर सिर रखे हुए चाची की चेतावनी के विषय में पस्सराम को बताया था और उसका अर्थ पूछा था। पस्सराम के मन में यह खटका तो प्रारम्भ से था कि हल्ला ने उसे अपने मकान के बगल में रहने की अनुमति क्यों दे दी है, परंतु आज कुछ तोे पस्सराम शुतुरमुर्ग के समान बालू में मुंह छिपाकर आसन्न आशंका को जानबूझकर अनदेखा करना चाह रहा था और कुछ हल्ला के अपने प्रति व्यवहार से इतना आश्वस्त था कि उसने कह दिया,

‘‘गांव मैं सब लोग जलत हैं कि हम लोगन कौं हियां रहिबे कौं काये मिल गओ है, ता सै ऐसी बातैं करत हैं। गांव में सब लोग जलते हैं कि हमें यहां रहने को क्यों मिल गया है। इसलिये ऐसी बात करते हैं।’’

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पस्सराम के अपने नये घर में आने के तीन माह पश्चात ग्राम के पोर पोर में वसंत प्रवेश करने लगा था- चहुंओर होली की रंगीनी छाने लगी थी। मानिकपुर गांव में हर वर्श फागुन आते ही होली जैसा वातावरण बनने लगता था जो पूरे माह चलता था। माघ पूर्णिमा की रात्रि से ही होली जलाये जाने के स्थान पर लोग लकड़ियां ला लाकर रखने लगते थे। गांव के बच्चे प्राय रात में कहीं पडे़ किसी के लकडी़ के कुंदे अथवा खेत में रखे छप्पर को चुपचाप उठा लाते थे और होली पर रख देते थे- इसे होली बढा़ना कहा जाता था। एक बार कोई लकडी़ या फूस होली पर रख जाने के बाद कोई्र उसे उठाकर वापस ले जाने का साहस नहीं करता था क्योंकि ऐसा करने से होली माता के कुपित हो जाने की मान्यता थी। प्राय गरीब एवं कमजो़र लोगों की लकड़ियां ही स्वाहा होतीं थीं क्योंकि बड़े आदमी की लकडी़ रखे जाने पर वह उसे वहां से उठा तो नहीं सकता था परंतु होली बढा़ने वालों की पिटवाई तो होली माता को कुपित किये बिना ही करवा सकता था। फागुन आते ही अब हवेली के सामने के चबूतरे पर अगेहना जलना बंद हो गया था परंतु रात में गांव वालों का जमावड़ा कम नहीं हुआ था। अब वहां फाग गाने के लिये रात में लोगबाग इकट्ठे होते थे। बालकों और नवयुवकों ने मस्ती आने पर रंग, पानी, कीचड़ आदि फेंककर होली की धमा चैकडी़ भी प्रारम्भ कर दी थी। फाग के गानों में, देवर-भौजी के तानों में, और अबीर-गुलाल के गालों और बालों में लेपने के बहाने अनेक रिश्ते-नातों का अतिक्रमण हो रहा था। कहीं-कहीं कामदेव दुतरफा़ सक्रिय थे और कहीं कहीं स्त्रियों को जो़र-ज़बरदस्ती से भी पराजित किया जा रहा था- विशेषत सामाजिक मापदंड में निम्न जाति की स्त्रियों को।

गांव के एक छोर पर रहने वाले नेहरू पंडित के यहां नाउन भौजी गुझिया बनवाने गईं थीं तो दोनों की आंख लड़ गई थी। नाउू भैय्या को काम से बाहर जाना पड़ता था और ऐसी ही एक रात में नेहरू पंडित नाउन भौजी के घर में कूद गये थे; और फिर यह सिलसिला चालू हो गया था। यद्यपि एक दो बार पडो़स के नाइयों ने नेहरू पंडित को रात में घर में आते जाते देख भी लिया था, परंतु वे केवल खांसने-खूंसने भर की हिम्मत जुटा पाये थे, कोई इससे अधिक रोक टोक का साहस नहीं कर सका था।

हल्ला ने कमलिया की सुंदरता के विषय में काफी़ सुन रखा था, परंतु पस्सराम उसे घर से बाहर कम ही निकालता था, इसलिये हल्ला ने उसे कभी भलीभांति देखा नहीं था। होली के अवसर पर उनका मन उसके लिये चुलबुला रहा था। होली और दीवाली के त्योहार पर हर कमीन बड़े लोगों के घरों में काम करने वाले की घरवाली को ज़मीदारों तथा अन्य ब्राह्मणों के घर जाने की प्रथा थी, जिसे तोड़ने का साहस पस्सराम नहीं कर सकता था। प्रथा के पालन की अनिवार्यता के अतिरिक्त कमलिया के आज बड़े लोगों के यहां जाने में एक लोभ भी था- त्योैहार के मौके पर कमीनों को बडे़ लोगों के घर से भोजन, अनाज और पुराने कपडों़ की प्राप्ति हो जाती थी जिसका लोभ सम्वरण कर पाना उन निर्धन लोगों के लिये बडा़ कठिन था।

होली की रात्रि में 10 बजे पंडित जी ने होलिकादहन का मुहूर्त निकाला था। दूसरेे दिन सबेरे से गांव में रंग, गोबर और कीचड़ एक दूसरे पर फेंका जा रहा था। फिर दोपहर बाद फाग की टोली निकल पड़ी थी।

‘‘होरी खेलैं स्याम बिरज मैं, मारैं भर पिचकारी,

होरी खेलंै हो..ओ.....ओ.’’

भग्गी काछी ढोलक बजा रहे थे और फगुहारे होली गा रहे थे। प्रतिवर्ष की भांति फगुहारे भग्गी काछी के दरवाजे़ पर इकटठे हुए थे और बम्बा के किनारे जलती हुइ्र्र होली के चारों ओर परिक्रमा करते हुए आखत जौ के पौधों पर निकले हरे दानों को भूनकर अग्नि में डालने के अक्षत डालने के बाद घर-घर जाकर फाग गा रहे थे।

गांव में यह मान्यता थी कि होली आने पर पिछले वर्ष के सब गिले शिकवे भूल जाने चाहिये और मिलजुलकर नया वर्ष प्रारम्भ करना चाहिये। इसलिये आपस में मुकदमेबाजी़ और मनमुटाव होने के बावजूद होली के दिन लालजी शर्मा और हल्ला के परिवार के लेाग एक साथ मिलकर होली खेलते थे और आपस में गले मिलते थे। ‘अछूतों’ को छोड़कर सभी के घर जाकर ढोलक की थाप और मंजीरे की झंकार पर फाग गाई गई और रंग खेला गया। प्रथा के अनुसार हल्ला के दरवाजे फाग सबसे बाद में पहुंची थी और यहां देर तक फाग चलती रही थी। यहीं से इसे विसर्जित होना था। तब तक शाम का धुंधलका होने लगा था। कमलिया अपना मन न रोक सकी और झोंपडी़ के बाहर आकर फाग सुनती रही थी। इस दौरान हल्ला नम्बरदार की गृद्ध-दृष्टि ने कमलिया की कमनीय काया को भरपूर देख लिया था और उनकी उतावली बढ़ गइ्र्र थी।

फगवारों के जाने के बाद हल्ला ने नाई से तेल का उबटन लगवाया और घर्षण स्नान कर अपने बदन से रंग छुड़ाया। फिर नया कुर्ता धोती पहनकर और कान में फुलेल लगाकर आने वालों से मिलने के लिये बैठक में बैठ गये थे। देर रात तक मिलने वालों का सिलसिला चलता रहा था। कमलिया की छठी इंद्रिय उसे हल्ला के प्रति षंकालु बना रही थी और वह हल्ला के यहां जाने में घबरा रही थी। उस दिन सुबह से ही हल्ला ने कई काम बताकर पस्सराम को बैलगाडी़ लेकर शहर भेज दिया था। आसन्न भय को यथासम्भव टालने हेतु कमलिया पहले अन्य ब्राह्मणों व बडे़ आदमियों के यहां होली की बख़्षीष लेने गई और वहां से निबटने के बाद जब वह लौटी तब तक हल्ला के यहां आने वालों का सिलसिला समाप्त हो चुका था। सहन को खाली देखकर वह जल्दी से बैठक के सामने से होते हुए घर में जाकर बाहरी बराम्दे की दहलीज पर खडी़ हो गई्र थी। हल्लाइन उसे देखकर बोलीं थीं,

‘‘अरे, कमलिया! तुम तौ दिखाइयै नांईं परतीं हौ? अरे कमलिया, तुम तो दिखाई ही नहीं पड़ती हो?’’

कमलिया सकुचाकर रह गई थी, कुछ उत्तर नहीं बन पडा़ था। फिर हल्लाइन ने उसके आंचल में कुछ पूड़ियां और एक पुरानी धोती डाल दी थी। कृतज्ञता ज्ञापन में पैर छूने की प्रक्रिया के प्रदर्शन हेतु दहलीज छूकर कमलिया बाहर को चल दी थी। बाहर आकर जब कमलिया बैठक के सामने से गुज़र रही थी, तो हुक्का गुड़गुडा़ते हुए हल्ला नम्बरदार के नेत्र कमलिया की राह पर केन्द्रित थे। कमलिया उनके प्रभाव से आतंकित होकर जल्दी जल्दी बैठक के सामने से निकलने लगी, कि उनकी भारी भरकम आवाज़ सुनाई दी,

‘‘कमलिया कैसी हौ? होरी को इनाम तौ लेती जाउ। कमलिया कैसी हो? होली का इनाम तो लेती जाओ।’’

यह कहकर उन्होंने दो रुपये का नोट उंगलियों के बीच फंसाकर कमलिया की ओर बढा़या था। कमलिया धर्मसंकट में पड़ गई्र थी कि अछूत होकर बैठक में कैसे घुसे और ज़्ामीदार साहब की अवहेलना भी कैसे करे। तभी हल्ला उसकी दुविधा दूर करने हेतु बोल पडे़ थे,

‘‘अरे आज तौ होरी है। आज सब बराबर हैं। भीतर आय कें लै लेउ। अरे आज तो होली है। आज सब बराबर हैं। अंदर आकर ले लो।’’

कमलिया के पैर मनों भारी होकर उठ रहे थे परंतु कोइ्र्र अन्य विकल्प न देखकर वह बैठक के दरवाजे़ से एक कदम अंदर आकर दूर खडी़ हो गई थी। तभी हल्ला अपनी कुर्सी से उठकर दावाजा़ बंद करने लगे थे और तब कमलिया की घिग्घी ऐसे बंध गई थी जैसे बाघ को देखकर मेमने की बंध जाती है।

हल्ला ने होली के अवसर पर खूब पी रखी थी और उन्होनें कमलिया को अपनी बलिष्ठ बांहों में उठाकर जितनी बेरहमी से बाघ की तरह नांेच खसोट कर अपनी उद्दाम कामवासना को शांत किया था, कमलिया के मन में उनका उतना अधिक आतंक समाता चला गया था और वह दर्द भरी आह भी कठिनाई से निकाल सकी थी। फिर चलते समय उन्होनें दो रुपये का नोट कमलिया की अंगिया में खोंसते हुए चेतावनी दी थी,

‘‘अगर काउू कौं कानोंकान खबर भई, तौ पस्सराम की लास पुखरिया मैं मिलययै। अगर किसी को कानोंकान खबर हुई, तो पस्सराम की लाश पोखरी में मिलेगी।’’

कमलिया किसी तरह लड़खडा़ती अपनी झोपडी़ में आयी और धम्म से बंसखटी पर पसर गई थी। उसे अब चाची की चेतावनी का अर्थ समझ में आया था, जब बहुत देर हो चुकी थी। धीरे धीरे कमलिया के नेत्र अश्रुपूरित होने लगे थे और फिर चादर में अपना मुंह छिपाकर वह फफक कर रोने लगी थी। वह ऐसी घायल हिरणी थी जिसे खुलकर रोने की भी अनुमति नहीं थी। वह किसी को कुछ बताने की बात सोच भी नहीं सकती थी क्योंकि हमारे समाज में इज्ज़त सदैव स्त्री की ही लुटती है- चाहे वह मन से, बेमन से अथवा विवश होकर कैसे भी अवैध सम्बंध स्थापित करे। पुरुष के लिये तो ऐसा सम्बंध युद्ध में विजय के समान माना जाता है जबकि स्त्री के लिये यह उसका मान, शरीर और आत्मा सब कुछ गंवा देने के समान समझा जाता है। कमलिया जानती थी कि उसके साथ हुए बलात्कार की घटना को जानकर पस्सराम भी हल्ला का तो कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा, वरन् कमलिया को ही हेय दृष्टि से देखने लगेगा और हो सकता है कि घर से भी निकाल दे। राम ने भी तो सीता के बलात अपहरण पर उन्हें वनवास दे दिया था। फिर कमलिया यह भी जानती थी कि हल्ला जब चाहें अपने द्वारा दी गइ्र्र धमकी को क्रियान्वित करा सकते हैं। अत उसने चुपचाप अपने आंसू पी जाने में ही अपनी और पस्सराम की भलाई समझी थी। होली के बाद हल्ला अक्सर पस्सराम को कभी फसल बेचने के लिये, कभी बीज खरीदने के लिये या किसी रिश्तेदार को उसके घर पहुंचाने के लिये बैलगाड़ी लेकर बाहर भेजने लगे थे। इन कामों में उसे एक दो रातें बाहर बितानी पड़तीं थीं, परंतु पस्सराम को रोज़ रोज़ गोबर कूडा़ उठाने के काम से यह काम अधिक अच्छा लगता था और हल्ला उसे पगार भी कुछ बढा़कर देने लगे थे। पस्सराम के बाहर रहने पर रात्रि में हल्ला सुभीता के अनुसार कभी पस्सराम की झोपडी़ मे प्रवेश कर जाते थे और कभी कमलिया को अपनी बैठक में बुला लेते थे। कमलिया ने अपनी नियति से समझौता कर लिया था।

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‘‘कमलिया.....!’’ कहकर पस्सराम ने उसे बांहों में भर लिया था और उसकी आखों मे अंाखें डालकर मुस्कराने लगा था। उस दोपहर में कमलिया जैसे ही खाने बैठी थी, उसे उबकाई आने लगी थी और वह उठकर परनाले की ओर भागी थी। जब उबकाई शांत हुई तो पस्सराम उसको अंक में लेकर प्यार जताने लगा था। कमलिया स्वयं पस्सराम की मुस्कराहट देखकर हैरान थी, और तभी उसकी हैरानी दूर करने के लिये पस्सराम बोला था,

‘‘बोल लड़का हुइयै कि मोडी़?बोल, लड़का होगा या लड़की?’’

कमलिया उसका अर्थ समझकर झेंप गई थी और निगाहें झुकाकर मुस्करा दी थी। परंतु कमलिया उन्मुक्त हृदय से आह्लादित नहीं हो पा रही थी क्योंकि उसके मन में बार बार यह कांटा चुभ जाता था कि पता नहीं उसके पेट में पल रहा भ्रूण पस्सराम के प्रेम की परिणति है अथवा हल्ला की बरबरता की। फिर उसका हृदय यह सोचकर दहल गया था कि यदि पस्सराम को हल्ला से उसक्रे सम्बंधों का पता चल गया, तब क्या होगा।

कहावत है कि ‘इश्क और मुश्क छिपाये नहीं छिपते’। एक दिन हल्ला ने पस्सराम को आलू बेचने शहर भेजा था, परंतु शहर में दंगा हो जाने और कर्फ़्ूयू लग जाने के कारण पस्सराम शहर के बाहर से ही बैलगाडी़ वापस लौटा लाया था। गांव पहुंचते पहुंचते पौष माह की कृष्णपक्ष की रात अधियाय गई थी और पस्सराम भूख और जाडा़ दोनों से त्रस्त हो रहा था। पस्सराम ने रथखाने के बाहर गाडी़ खडी़ की और बैलों केा खूंटे से बांधकर उनके सामने पुआल खाने को डाल दिया। फिर जल्दी से अपनी झोपडी़ में घुसते ही बोला,

‘‘कमलिया! बडी़ भूख लगी है। जल्दी सै कछू खइबे कौं दै देउ। कमलिया बड़ी भूख लगी है। जल्दी से कुछ खाने को दो।’’

झोंपडी़ में धुप्प अंधकार था और हाथोंहाथ दिखाई नहीं दे रहा था। कोई उत्तर न पाकर उसने सोचा कि कमलिया गम्भीर निद्रा में है और बंसखटी पर जाकर उसके ओढ़ने की कथरी हटाने लगा। तब कमलिया को बंसखटी पर न पाकर पस्सराम के होश उड़ गये। उसने दरवाजे़ पर आकर ‘कमलिया...., कमलिया......’ की आवाजें़ भी दीं, पर प्रत्युत्तर न पाकर वह हतप्रभ होकर दरवाजे़ पर खडा़ रहा। तभी हल्ला के घर की ओर से कमलिया के पैरों की आहट सुनाई दी। उसकेा सामने आते देखकर पस्सराम अपने पर नियंत्रण खोने लगा और दहाडा़,

‘‘कमलिया! कहां गई हती? कमलिया, कहां गई थी?’’

कमलिया को काटो तो खून नहीं- उसका गला सूख गया था और वह एक शब्द भी नहीं बोल पा रही थी। वह धरती माता के फट जाने और उसमें कमलिया को छिपा लेने की प्रतीक्षा करती हुई सी थम गई थी। इससे पस्सराम का संदेह विश्वास में परिवर्तित हो गया था और उसने पास आकर कमलिया का झोंटा पकड़कर कहा,

‘‘बोल्त कांय नाईं ससुरी? कौन नओ खसम कर लओ है? बोलती क्यों नहीं है ससुरी? कौन नया खसम कर लिया है?’’

कमलिया के कपडो़ं, गालों और बालों की दशा देखकर पस्सराम ने अपना आपा पूर्णत खेा दिया और पाशविक का्रेध के वशीभूत होकर उसने कमलिया का गला अपने दोनों हाथों से जकड़ लिया था। हाथों का दबाव बढ़ने पर जब कमलिया की सांस रुकने लगी थी, तब उसके गले से एक चीत्कार निकला, जिसे सुनकर हल्ला वहां आ गये और दबंग स्वर में बोले,

‘‘पस्सराम का बात है? जल्दी कैसे लौट आये? का आलू बिके नाईं? पस्सराम क्या बात है? जल्दी कैसे लौट आये? क्या आलू बिके नहीं?’’

हल्ला का स्वर सुनकर पस्सराम की पकड़ एकदम ढीली हो गई थी और उसका गुस्सा काफ़ूर हो गया था। उसे हल्ला के इस समय उसकी झोपड़ी पर आने का निहित उद्देश्य और अपनी नियति का भान होने में पल भर का समय न लगा था। फिर वह कफ्ऱ्यू के कारण शीघ्र लौट आने की बात ऐसे बताने लगा जैसे अभी कुछ असामान्य घटा ही न हो। उसकी बात सुनकर हल्ला पस्सराम की आंखों में ‘जबरा मारै रोअन न देय’ के भाव से देखते हुए बोले,

‘‘ठीक है। आलू फिर बेंच अइयौ। अबै चुपां सोय जाउ। ठीक है, आलू फिर बेच आना। अभी चुपचाप सो जाओ।’’

यह कहकर हल्ला धीरे धीरे अपने घर की ओर चल दिये थे। पस्सराम उन्हें ठगा सा देखता रह गया था।

उन दिनों हमारे समाज में भंगी का स्वाभिमान और उसका पुरुषत्व भी उसकी सामाजिक स्थिति के समान छोटा होता था। वापस जाते हुए हल्ला की हर पदचाप के साथ पस्सराम का अपमानजनित क्षोभ अपनी अवशता के भान के ताप से आंसुओं के रूप में पिघलता गया और उनके आंखों से ओझल होते ही वह बच्चे की तरह फुक्का मारकर रो पडा़ था। उसे यूं बच्चों की भांति रोते देखकर कमलिया का साहस लौट आया था और वह स्पष्टीकरण देते हुए बोली,

‘‘हम का कत्ते? हल्ला ने तौं जब होली पै पहले दांय जबरजत्ती करी हती, तभईं कह दई हती कि काउू कौं कानौंकान खबर भई तौ तुम्हाई लास पुखरिया मैं परी मिलययै। अब हम तुमैं बचाते कि अपईं इज्जत बचाते? मैं क्या करती? हल्ला ने तो जब होली के अवसर पर पहली बार जबरदस्ती की थी, तभी कह दिया था कि किसी को कानोंकान खबर हुई तो तुम्हारी लाश पोखरी में मिलेगी। अब मैं तुम्हें बचाती या अपनी इज्ज़त बचाती?’’

परिस्थिति से समझौता करना पस्सराम की मजबूरी थी- कमलिया की इस बात से उसके मन को इतना सम्बल अवश्य मिल गया कि कमलिया ने स्वत उसके पौरुष को ठेस नहीं पहुंचाई थी। वह पहले ही समझ चुका था कि हंगामा करने अथवा कमलिया को मारने पीटने से बदनामी, जेल अथवा मौत ही मिल सकती है; हल्ला से अपने अपमान का प्रतिकार करना उसके साहस और सामथ्र्य दोनो के बाहर था। परंतु इस घटना के बाद पस्सराम प्राय अवसादग्रस्त रहने लगा था और कभी कभी कमलिया जब उसकी बांहों में होती, तो वह अचानक सिसक सिसक कर कहने लगता था,

‘‘कोई हमैं बस जा बताय देय कि तुम्हाई कोख में जू बच्चा हमाओ है कि नाईं। कोई मुझे सिर्फ़ इतना बता दे कि तुम्हारी कोख का यह बच्चा मेरा है या नहीं।’’

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उसी अनजाने बाप के बच्चे ने आज जब कमलिया अकेली थी, तब उसके पेट से बाहर आने की ठान ली थी और पूर्वान्ह से कमलिया के पेट में पीडा़ उठने लगी थी। आज सुबह ही हल्ला ने पस्सराम को दिन भर के लिये शहर भेज दिया था और बच्चा, जैसे अपने प्रति पिता की आशंका का भाव जानता हो, पिता की अनुपस्थिति मे ही संसार में आने को कुलबुलाने लगा था। दिन ढलते ही कमलिया की पीडा़ असह्य होने लगी थी और रात्रि आते आते कमलिया आती जाती चेतना की स्थिति में आ गई थी। रात में जब पस्सराम घर आया तो कमलिया की ऐसी हालत देखकर चन्नी चाची के घर को दौड़ पड़ा और उन्हें जल्दी आने को कहकर वापस अपनी झोपडी़ में आया, तब तक वहां कमलिया एक नन्हीं सी बच्ची को जन्म देकर मूर्छित पडी़ थी और वह नन्हीं बच्ची ‘कहों कहों’ चीख रही थी। तब चन्नी चाची आ गइ्र्रं और उन्होनें जच्चा-बच्चा को सम्भाला। कमलिया के मूर्छित होने के कारण बच्ची को माॅ के पेट के सुरक्षित वातावरण से इस निष्ठुर संसार में आने के पश्चात काफ़ी देर तक वांछित सुरक्षा और प्यार न मिल सका था। कमलिया के होश में आने पर चन्नी चाची ने बच्ची को उसके बगल में लिटा दिया- बच्ची ने जब आंख खोली तब एकटक माॅ का मुॅह देखने लगी जैसे शिकायत कर रही हो, ‘माॅ! इतनी देर तक आपने मुझ निरीह को निस्सहाय क्यों छोड़ दिया था?’

कमलिया ने बच्ची को ऐसे देखते देखकर उसे छाती से चिपका लिया था और उसके मुख से अनायास निकल गया था, ‘मेरी सतिया’।

बच्ची के लिये सतिया नाम स्वत निकलने के पीछे कमलिया के मन की वह घनीभूत पीडा़ थी कि चाहते हुए भी वह अपना सतीत्व न बचा सकी। अब उसका मन अपनी बच्ची के सतीत्व की रक्षा की मातृवत कामना कर रहा था- सम्भवत उसका अवचेतन अपनी बेटी के सतीत्व की रक्षा में अपने सतीत्व की रक्षा का काल्पनिक आभास भी कर रहा था।

‘‘बिटिया कौं एक आध दांय तौ गोदी मैं लै लेउ करौ। बिटिया को एक आध बार तो गोद में ले लिया करो।’’- कमलिया ने कई दिन की प्रतीक्षा के बाद पस्सराम से अनुनय की थी। छ दिन बीत जाने पर आज तक पस्सराम ने सतिया की ओर ढंग से देखा भी नहीं था। आज छठी के दिन भी बस कमलिया ने अकेले उसे काजल का टीका लगा दिया था, पर पस्सराम दूर ही रहा था। पस्सराम का मन वितृष्णा से भरा हुआ था और वह जवाब मे व्यंग्यपूर्ण स्वर मे बोल पडा़ था,

‘‘तुम्हईं सम्हारौ अपईं सतिया कौं। तुम्हीं सम्हालो अपनी सतिया को।’’

ज्यों ज्यों दिन बीतने लगे थे, अपने पिता की अवहेलना का गूढ़ अनुभव सतिया को होने लगा था और अपने पिता का प्यार पाने की उसकी लालसा बढ़ने लगी थी। कभी कभी जब वह रो रही होती थी और पस्सराम झोंपडी़ में आ जाता, तब पिता को देखकर उनका घ्यान आकृष्ट करने हेतु और चीखकर रोने लगती थी जिसे सुनकर पस्सराम के मन में एक नपुंसक प्रतिशोध जाग पड़ता था और वह सतिया पर बुरी तरह चिल्ला पड़ता था। सतिया इससे घबराकर चुप हो जाती थी परंतु पिता के उसके प्रति क्रोध का कारण अथवा औचित्य न समझ पाने के कारण शनै शनै विद्रोह का भाव भी उसके मन में जन्म लेता जा रहा था। यह विद्रोह का भाव ही ‘आई एम. ओ. के. यू आर नौट ओ. के.’ की प्रारम्भिक मनस्थिति थी।

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‘‘कैसी हो कमलिया?’’ हल्ला का भारी भरकम स्वर झोपडी़ के बाहर सुनकर कमलिया को ग्रीष्म ऋतु में ही झुरझुरी आ गइ्र्र थी। उसी दोपहर को पस्सराम शहर गया हुआ था और कमलिया दाहिनी करवट लेटी हुई सतिया को अपने वक्ष का दूध पिला रही थी। झोपडी़ के बाहर कृष्णपक्ष की रात्रि का अंधकार छाया हुआ था और झोपडी़ के अंदर जलती-बुझती सी डिव्वी की लौ का मद्धिम प्रकाश था। कमलिया के मन में पहले से चोर था- सतिया के जन्म के बाद वह अब तक किसी न किसी तरह हल्ला के चंगुल से बचती रही थी- कभी पस्सराम के बाहर जाने पर उसको उसी रात्रि लौट आने की ज़िद कर और कभी बीमारी का बहाना बनाकर; परंतु वह आज इस समय हल्ला की आवाज़ सुनकर समझ गई कि ‘बकरे की अम्मा कितनी भी ख़ैर मनावे, बकरा को तो एक दिन काटा ही जाना है’। कमलिया का हाथ अप्रयास अपने वक्ष को ढकने हेतु सतिया के द्वारा मुटठी में पकडी़ हुई्र साडी़ खींचने लगा। हल्ला उसके वक्ष ढकने के इस प्रयास पर और कामातुर हो गये और उन्होंने जल्दी से झोपडी़ मंे घुसकर टट्टर केा उढ़काकर अंदर से बंद कर दिया और सतिया को कमलिया से अलग कर दिया। फिर सतिया के भयभीत नेत्रों के समक्ष उसकी माॅ को निर्वस्त्र कर अपनी बांहों में दबोचकर फ़र्श पर लिटा दिया और बहशी की तरह उससे सम्भोग करने लगे। सतिया अपनी मां की आहें कराहें सुनकर भयभीत होकर रोती रही पर उसकी चीखों पर ध्यान देने वाला कोई न था। हल्ला के जाने के बाद कमलिया देर तक सिसकती रही और सतिया उसे ऐसे देखती रही जैसे अपनी माॅ की निरीहता भांप रही हो और उसके मानस में हल्ला के प्रति घृणा उबलती रही।

फिर माॅ की इस लाचारी और बेबसी का दृश्य यदा कदा देखते रहना सतिया का भाग्य बन गया। साथ ही उसके मन में घृणा और विद्रोह का भाव स्थायी होने लगा था।

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