भीगे पंख - 2 Mahesh Dewedy द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भीगे पंख - 2

भीगे पंख

2. मोहित का जन्म

मानिकपुर ग्राम की भादों माह के कृष्णपक्ष की द्वितीया की वह रात्रि उस मौसम की घोरतम कालिमामय रात्रि थी- सायंकाल के पूर्व ही आकाश शांत और गम्भीर होने लगा था और फिर शन्ैा शनै पश्चिम दिशा से भूरे और काले रुई के भीमकाय फोहों जैसे बादल आकाश मे छाने लगे थे- पहले इक्के दुक्के फुटकर और फिर घटाटोप। सूर्यास्त होते ही घने अंघकार का साम्राज्य समस्त ग्राम मे फैल गया था। घनघोर वर्शा की आषंका के कारण चरवाहे अपने ढोरों को जल्दी ही घर वापस ले आये थे। खेतों और बागों मे दाना-कीड़ा चुगने वाले मोर, आंगन मे फुदकने वाले गौरैया, और गांव में मटरगश्ती करने वाले कुत्ते आने वाले तूफा़न का पूर्वाभास पाकर आज जल्दी ही अपने अपने शरणस्थलों मे दुबक गये थे। फिर जब घुंधलका होने पर पश्चिम दिशा में भयावह कड़क के साथ तड़ित चमकी थी तो सभी मयूर भयभीत होकर एकसाथ आर्तनाद कर उठे थे। इसके साथ ही बूंदाबांदी प्रारम्भ हो गइ्र्र थी- और फिर चीत्कार करती आंधी के साथ मूसलाधार वर्षा। प्रतिदिन रात्रिकाल में प्रति पहर लगभग 3 घंटे की समाप्ति पर ‘पेंउ पेंउ’ की टेर लगाने वाले मयूर आज बादलों की हर गरज पर अपने भय पर नियंत्रण खो बैठते थे और चीत्कार कर उठते थे। प्रत्येक रात्रि की भांति आज ज़मीदार लालजी शर्मा की बैठक मे चुटकुले कहने वालों, किसी की बहू-बेटी के कृत्यों को नमक-मिर्च मिलाकर कानाफूसी करने वालों अथवा भूत-प्रेत के किस्से सुनाने वालों का जमावडा़ नहीं हुआ था। उनकी हवेली के भीमकाय फाटक के सामने की गली के पार बना पक्की ईंट का लम्बा सा कमरा और उसके सामने का बडा़ सा चबूतरा, जिस पर कमरे से सटे भाग पर छप्पर छाया हुआ था, को बैठक कहते थे। छप्पर के बांयीं ओर एक तख्त, एक-दो चारपाई एवं कुछ कुर्सियां पडी़ रहतीं थीं। तख्त के ठीक सामने लालजी शर्मा के परबाबा द्वारा बनवाया हुआ चार कंगूरों वाला बड़ा सा कुंआं था- चारों कंगूरों के बीच लोहे की रेल लगी हुई थी और प्रत्येक रेल पर लोहे की गरारी लगी हुई थी, जिससे एक साथ चार व्यक्ति रस्सी को लटकाकर बाल्टियों में पानी भर सकते थे। कुंएं के चारों ओर बैठकर नहाने के लिये अष्टकोणीय पक्का फ़र्ष बना था जो किनारे पर बनी मिड़गारी से घिरा हुआ था। ‘अछूत’ जातियों के लोगों को छोड़कर अन्य सभी लोग इसी कुंएं से पानी भरते थे- ‘अछूतों’ को इस कुंएं से पानी लेने की अनुमति नहीं थी और उन्होंने अपने लिये अपने मुहल्ले में एक छोटी सी कच्ची कुंइयां खोद रखी थी। रात्रि के आगमन पर गपशप के लिये गांव के लोग यहीं चबूतरे पर छप्पर के नीचे बैठते थे- लालजी शर्मा तख्त पर, अन्य ब्राह्मण तथा उच्च जाति वाले कुर्सी अथवा चारपाई पर, कुम्हार, काछी, बढ़ई, लोहार, भुर्जी, नाई जैसी बीच की जातियों के लोग कुंएं की मिड़गारी अथवा चबूतरे पर पड़ी मूंज की आसनी पर, और चमार, कोरी, धानुक, बेड़िया आदि ‘अछूत’ मानी जाने वाली जातियों के लोग उनसे दूर एक साथ चबूतरे के किसी खाली स्थान पर तथा भंगी, जो ‘अछूतों’ के लिये भी अछूत थे, सबसे दूर किसी कोने में दुबककर। आज घनधोर वर्षा के कारण लोगबाग चबूतरे पर इकट्ठे नहीं हुए थे और जल्दी ब्यालू रात्रि का भोजन कर सोने चले गये थे। लालजी षर्मा के सहन में पुराने छप्परों के नीचे बंधे हुए गाय-भैंस भी उूपर से टपकते हुए पानी से भीगते हुए सहमकर चुप थे- बस एक हाल मंे ब्यायी हुई गाय अपने बछडे़ को भींगते देखकर कभी कभी रम्भा देती थी। उनकी हवेली के सामने से गुज़रती हुई गली में छतों के परनालों से बहता पानी कहीं कहीं कलकल की ध्वनि तो कहीं कहीं पटर पटर का कर्कश स्वर उत्पन्न कर रहा था। गली में बहते पानी मंे भीग कर आनंद लेने वाले कुछ मेढक तो किर्र किर्र बोल रहे थे और कुछ युवा-नर गला फुलाकर टर्र टर्र की गुहार लगाकर मेढकियों को पुकार रहे थे। तेजी़ से चलती वायु से चबूतरे पर खड़े नीम के पत्ते संाय-सांय कर रहे थे- कभी कभी गांव की सुरंग रूपी गली में फंस जाने वाली हवा एक भुतहा ध्वनि पैदा कर रही थी। प्रकृति की यह रोमांचित करने वाली ध्वनियां घटाटोप अंधकार के मघ्य रुकरुक कर चमक जाने वाली आकाशीय विद्युत के प्रकाश में और भयावह हो जातीं थीं।

‘‘टुड़ई कक्का! जल्दी सै चन्नी काकी कौं बुलाय लाउ।’’ लालजी शर्मा के भाई शिवदयाल शर्मा का स्वर विह्वलतापूर्ण एवं आदेशात्मक था तथापि टुड़ई को सम्बोधन आदरसूचक था - मानिकपुर में जहां एक ओर जांति-पांति आधारित उूंच-नीच का भाव प्रत्येक व्यक्ति के मानस में सदैव विद्यमान रहता था वहीं सभी बड़ों को कक्का, चच्चा, बबा, बुआ, भौजी जैसे सम्बोधनोें से पुकारने का प्रचलन भी था। सिर पर एक पुराना बोरा डालकर टुड़ई कक्का चन्नी दाई के घर को चल दिये थे। उस समय घनघोर वर्षा की रात्रि मे गांव के लगभग सभी घरों मे सूता पड़ चुका था, परंतु लाल जी शर्मा की हवेली में कोई नहीं सोया था- सभी के मन व्यग्र एवं चिंतित परंतु आशामय थे। हवेली के केंद्र में एक चैकोर आंगन था जिसके चारों ओर मोटे मोटे हाथी के पांव की तरह के खम्भों वाले बरामदे थे और उनके पीछे लम्बे लम्बे कमरे बने थे जो मड़हे कहलाते थे। दक्षिण के बरामदे और उसके बाद के कमरे से होकर बाहर निकलने का रास्ता था। इस कमरे के बाहर एक लम्बा-चैडा़ सहन था जिसके बांयी ओर गाय भैंस बांधे जाते थे, सामने पंडित बर्फी़लाल का मकान था और दायीं ओर सहन से बाहर निकलने को एक लकड़ी का नक्काशीदार भीमकाय फाटक था। फाटक के सामने गांव की प्रमुख गली थी। चूंकि हवेली गली के स्तर से कई गज़ उूंचाई पर बनी थी, अत सहन से गली तक ढलान था। हवेली के उत्तरी मड़हे के पीछे काफी ज़मीन खाली पडी़ थी जिसमे घास-फूस और झाड़ियां उगी हुईं थीं। बीच बीच में बेर के बडे़ बडे पेड़ खड़े हुए थे, तथा कहीं कहीं पपीता और तोरइ्र्र के पौधे लगाये गये थे। यद्यपि साधारणत हवेली के सभी लोग प्रातकाल मुहअंधेरे निवृत होने लोटा लेकर खेत में जाते थे, परंतु रात-बिरात घर की औरतें इस झाड़-झंखाड़ के बीच भी काम चला लेतीं थीं।

पश्चिमी मड़हे, जिसके छत की शहतीरें रोजा़ना जलने वाले दीये के धंुएं से काली हो चुकीं थीं और दीवालें भी ललछौही हो गईं थीं, की पीछे की दीवाल में बने आले में एक कड़ु़ए तेल का दीया जल रहा था। यद्यपि दीये की लौ लम्बी और सशक्त थी, परंतु आंगन से होकर आने वाले हवा के झोंके इसे बुझाने का अनवरत प्रयास कर रहे थे। मड़हे की दक्षिणी दीवाल से सटा हुआ एक पुराना मोटे मोटे मचवों वाला लकडी़ का पलंग पड़ा हुआ था, जिस पर लेटी हुइ्र्र पारू प्रसव पीडा़ से कराह रही थी। कमरे में धूप और लोबान का धुंआं भरा हुआ था- और धूपबत्ती के पास अम्मा पारू की सास बैठी हुई थीं, जो बीच बीच में उठकर पारू के माथे पर हाथ रखकर उसको ढाढ़स बंधा रहीं थीं।

टुड़ई कक्का के जीवन के साठ वर्षों मे ऐसे गिने चुने दिन ही होंगे, जिनका अधिकांश इस हवेली के सहन में न बीता हो- अपनी पैदाइश के बाद एक माह बीतते बीतते उनकी माॅ उन्हें गोद में लेकर हवेली के सहन में बंधने वाले गाय-भैंस का गोबर बटोरने आने लगीं थीं। तीन साढे़ तीन साल की उम्र के बाद वह खुद भी अपनी नन्हीं नन्हीं कोमल हथेलियों से माॅ के काम में हाथ बंटाने लगे थे। थेाडा़ बहुत समझदार होते होते टुड़ई्र कक्का समझ गये थे कि भगवान ने उन्हें हवेली में रहने वाले मालिकों की सेवा के लिये ही बनाया है और हवेली वालों का नमक खाने के कारण उनके मन में हवेली वालों के प्रति अटूट स्वामिभक्ति का भाव भर गया था। अब अपनी आयु के कारण हवेली मंे वह कक्का अथवा बबा कहलाते थे और अपनी अस्पृश्यता एवं तुच्छता का पूरा भान होते हुए भी उनमें हवेली वालों के प्रति अपनत्व का भाव था। उन्हें मालूम था कि उनके बाप और बाबा का पेट भी इसी हवेली के सहारे पला था और वह बचपन से हवेली के साथ ऐसे रम गये थे कि हवेली की चाकरी के अतिरिक्त अलग अपना कोई अस्तित्व सोच ही नहीं सकते थे। आज के पहले भी कई्र बार वह चन्नी काकी को बुलाकर इस हवेली में लाये थे। चन्नी काकी ही इस गांव की एकमात्र दाई थीं जो हर घर में ऐसे अवसर पर बुलाईं जातीं थीं। यद्यपि वह भंगी जाति की थीं और साधारण परिस्थितियों में अस्पृश्य थीं, परंतु गोरेलाल पंडित जी पुरोहित ने व्यवस्था दे रखी थी कि आपातकाल में अस्पृश्य को स्पर्श की अनुमति दी जा सकती है बशर्ते आपातकाल के बीत जाने पर विधिपूर्वक शुद्धिकरण कर लिया जाय। अत प्रसव क्रिया के दौरान चन्नी काकी कोे जच्चा और बच्चा दोनों को छूने की अनुमति थी।

मूसलाधार बारिश से बचने के लिये टुड़ई के सिर पर पड़ा पुराना बोरा पर्याप्त नहीं था परंतु टुड़ई कक्का का ध्यान तो हवेली मे आने वाली संतान और उसकी मां की कुशलता में रमा हुआ था और वह मन ही मन राम राम जपते जा रहे थे। इस चिंता का एक कारण भी था कि दो वर्ष पूर्व जब वह चन्नी काकी को बुलाकर लाये थे और शिवदयाल षर्मा की पत्नी ने सुंदर से पुत्र को जन्मा था तो वह शिशु केवल 24 घंटे जीवित रहा था। चन्नी काकी का कहना था कि उसे ‘जमोगा’डिप्थीरिया हो गया था। उन दिनो गांव में बच्चे का जन्म जच्चा और बच्चा दोनों के लिये बडा़ जोखिम भरा होता था। टुड़ई की अपनी तीन संतानें जन्म के एक सप्ताह के अन्दर कालकवलित हो गईं थीं। गांव के पश्चिमी कोने मे काछियों के घर थे और उनमें से भग्गी काछी की उन्नीस संतानों में तो केवल एक कन्या ही बची थी।

‘‘चन्नी भौजी! जल्दी चलौ’’ टुड़इ्र्र ने चन्नी के मड़हे के सामने पहुंचते ही आवाज़ लगाई। चन्नी मक्का की रोटी अचार के साथ खाकर मड़हे के भीतर पड़ी बंसखटी पर लेट चुकी थी और उसकी आंख लग गई थी। अत टुड़इ्र्र की पुकार सुनकर वह धबराहट में उठी और फिर संयत होकर बोली,

‘‘काये? का पेट मैं पीर सुरू हुइ गइ्र्र है? क्यों क्या पेट में पीड़ा प्रारम्भ हो गई है?’’

चन्नी रोज़ सुबह पारू बहू की मालिश करने हवेली जाती थी और उसे आभास था कि किसी भी समय पीर प्रारम्भ हो सकती है। वह टुड़ई के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही अपनी गुदडी़ जैसी फटी पुरानी चादर ओढ़कर मड़हे से बाहर निकल आइ्र्र। चन्नी को बरसते पानी से बचाने को टुड़इ्र्र ने अपने द्वारा ओढे़ हुए बोरे के आधे भाग को चन्नी के सिर पर डाल दिया। चन्नी विधवा थी और टुड़ई विधुर। टुड़ई्र चन्नी पर दिल रखते थे और चन्नी को इसका आभास था परंतु उमर के शर्म-लिहाज़ के कारण बात कभी बढ़ नहीं पाई थी। रास्ते के घने अंधकार में टुड़ई ने देवर-भौजी के नाते का छोटा मोटा लाभ उठाने के लिये हाथ बढा़या था परंतु चन्नी ने हाथ झटक दिया था। हवेली पहुंचते ही चन्नी ने पानी गरम करने को कहा और पारू बहू के कमरे में जाकर प्रसव प्रक्रिया में सहायता देने लगी थी।

तभी आकाश में भयंकर वज्रपात हुआ और और उसके साथ ही मड़हे से किहों किहों की आवाज़ आइ्र्र, जिसे सुनकर बाहर प्रतीक्षारत टुड़ई समेत सबके चेहरों पर मुस्कराहट दौड़ गई थी। कुछ देर बाद चन्नी मड़हे से निकलकर मुस्कराती हुई बोली,

‘‘लड़का भओ है, मुंहमांगो नेग लियैं। लड़का हुआ है। मुंहमांगा इनाम लूंगी।’’

फिर सबकी प्रसन्नतापूर्ण मुस्कराहट देखकर आत्मश्लाधा के भाव से आगे कहने लगी,

‘‘जा लड़का ने जलम लीबे मैं मेरोउू पसीना छुटाय दओ। पाइन के भर निकरो है और मूंड़ बाहर निकरबे मैं तौ मेरी सांस अटकी रही। ता पै जैसेई बाहिर आओ, तभईं बज्जर जैसी बिजली कड़की, जाकी चमक भीतर मड़हा लौ मैं फैल गई। इस लड़के ने जन्म लेने में मेरा भी पसीना निकाल दिया। पैरों के बल पैदा हुआ है और सिर के बाहर निकालने में तो मेरी सांस अटकी रही। उस पर जैसे ही पैदा हुआ, तभी वज्र जैसी बिजली कड़की, जिसकी चमक अंदर मड़हा तक में फैल गई।’’

वर्ष 1940 में मानिकपुर की जनसंख्या लगभग 800 हो गई थी। कुल 55 घरों में आठ घर ब्राह्मणों के थे इनमें से तीन घर- लालजी शर्मा एवं शिवदयाल शर्मा का घर, अशर्फी़लाल एवं बर्फी़लाल शर्मा का घर, एवं कमलप्रसाद शर्मा उर्फ़ हल्ला का घर- के लोग इस गांव को बसाने वाले पंडित सुकुवासीलाल शर्मा की संतानों में से थे और वही गांव के ज़मीदार थे, शेष ब्राह्मण सुकुवासीलाल द्वारा गांव बसाने के बाद आकर बसे थे और काश्तकार थे। पंडित सुकुवासीलाल मूलत तिरवा के पास के एक गांव के रहने वाले थे, जहां हैजा का गम्भीर प्रकोप होने पर उनके अधिकतर घरवाले कालग्रस्त हो गये थे और फिर भी हैजा का प्रकोप शांत नहीं हो रहा था - सभी प्रकार की दवायें और पूजा-पाठ निष्फल होते पाकर सुकुवासीलाल एक दिन बचे खुचे लोगों को बैलगाड़ियों में बैठाकर और माल-अस्बाब लादकर कुदरकोट चले आये थे। उनके साथ उनके गांव के कुछ अन्य जातियों के लोग भी चले आये थे। कुदरकोट के ज़मीदार तिवारी जी थे जिनसे सुकुवासीलाल की दूर की रिश्तेदारी थी। तिवारी जी ने अपनी ज़मीदारी में से कुछ ज़मीदारी सुकुवासीलाल को बेच दी थी और उन्होंने उस पर होकर बहने वाले बम्बा छोटी नहर के किनारे ग्राम मानिकपुर बसाया था। यह बम्बा नहर न केवल ग्राम के खेतों के सींचने के काम आता था, वरन् शौच, स्नान, तथा जानवरों और मनुष्यों की प्यास बुझाने के काम भी आता था। यह ग्राम के बच्चों के लिये जलक्रीडा़ का साधन भी था। गर्मियों में बम्बा के किनारे खडे़ आम के वृक्षों से टपककर बहे आमों को ढूंढने हेतु बम्बा में कूदने को बच्चे-बूढे़ सभी लालायित रहते थे- बहते आमों को रोकने हेतु वे स्थान स्थान पर तलहटी में गड्ढे भी कर देते थे। इस बम्बा के कारण मानिकपुर गांव के खेतों मे पैदावार बम्बा से दूर स्थित गांवों के खेतों की अपेक्षा कहीं अधिक होती थी तथा आम, जामुन, बेल, कैथा, बेर, अमरूद आदि फलों की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में रहती थी। अत जल्दी ही इस गांव में काछी, कुम्हार, बढ़ई, लुहार, नाई, भुर्जी, कोरी, चमार, धानुक, बेड़िया और भंगी जातियों के लोग आकर बस गये थे। सुकुवासीलाल ने ग्राम में उन सभी की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उन्हें बसने की अनुमति दे दी थी। कुछ लोगों को मुख्य ग्राम से कुछ दूर स्थित दो पोखरियों के किनारे बसाया गया था- ये पटयाइत और कदमपुर नाम के दो मजरे बन गये थे। चमारों और कोरियों को गांव के दक्षिणी किनारे पर कुछ दूरी पर बसाया गया था और चूंकि ग़रीबी के कारण वे मकान नहीं बना सकते थे और मड़इयों फूस की झोपडी़ में रहते थे अत उनकी आबादी को मड़इयन कहा जाता था। भंगी अन्य अस्पृश्य जातियों के लिये भी अस्पृश्य थे, अत उन्हें सबसे अलग पोखरी के गंदे किनारे से सटाकर मडै़इयां डालने की अनुमति मिली थी।

गांव के लगभग सभी ‘अछूत’ जातियों के लोेग भूमिहीन थे और ज़मीदारांे पर पूर्णत आश्रित थे। वे उनके यहां मज़दूरी अथवा उनकी दयादृश्टि होने पर उनकी ज़मीन पर बटाई पर कार्य करते थे। बीच की जातियों के लोगों के पास थोडी़ बहुत अपनी ज़मीन थी परंतु वे भी प्राय ज़मीदारों की ज़मीन पर बंटाई के आधार पर खेती करते थे और अपने पुश्तैनी पेशे के अनुसार मिट्टी के बर्तन बनाने, चारपाई-कुर्सी आदि बनाने, बाल काटने, सब्जी़ उगाने, भाड़ भूंजने आदि का काम करते थे। गांव की अधिकतर ज़मीन पर स्वामित्व ज़मीदारों का था और इसके बदले वे सरकार को मालगुज़ारी देते थे, परंतु मालगुज़ारी देने के बाद उनका पूरा अधिकार था कि उस ज़मीन को किसको खेती हेतु दें और उसके बदले उनसे कितनी बेगार लें अथवा उनके साथ कैसा व्यवहार करें। यह प्रबंध अंग्रेज़ों के हित में बडा़ उपयुक्त था क्योंकि उन्हें ग़रीब किसानों से किसी प्रकार की वसूली करने का झंझट मोल नहीं लेना होता था और ज़मीदारों द्वारा किसानों पर की जाने वाली जो़र-ज़बरदस्ती के लिये किसान अंग्रेजों़ को दोषी नहीं समझते थे। इस भूमि प्रबंध से ज़मीदारों का अपनी रियाया पर नियंत्रण इतना कठोर हो जाता था कि अधिकतर किसानों की दशा दास जैसी रहती थी। कामगारों के कार्य अथवा उनके द्वारा निर्मित वस्तु का कोई्र निश्चित मूल्य नहीं था, वरन् नई फ़सल कट कर आने पर, त्योहारों पर और बडे़ आदमियों के घरों मे होने वाले विवाहों, जन्मोत्सवों आदि पर उन्हें कुछ धन-धान्य बख़्शीश के रूप में दे दिया जाता था। इसके अतिरिक्त जब इन लोगों के अपने बच्चों के विवाह, गौना आदि होते थे तो उन्हें कोई सूखा पेड़ काट कर लकडी़ का उपयोग करने, ज़मीन पर बिछाने हेतु पुआल उठा ले जाने और ‘अछूतों’ को छोड़ अन्यों को उसके उूपर बिछाने को दरी-जाजिम आदि दे दिया जाता था। चिरौरी-बिनती करने पर छत्तीस प्रतिशत के चक्रवृद्वि ब्याज की दर से ऋण भी मिल जाता था, परंतु उसके हेतु सादे प्रोनोट पर अंगूठा लगाना होता था, जिससे अदायगी न होने की दशा में उसमें मनमानी रकम भरकर मुकदमा ठोंका जा सके। गांव के सभी अछूत जातियों के लोग एवं बहुत से बीच की जातियों के लोग आजीवन ज़मीदारों के ऋणी रहते थे और मरते समय अपनी संतानों पर अदायगी का उत्तरदायित्व छोड़ जाते थे। जातियों के क्रम में जो जिससे उूंचा था, वह अपने से निम्न जाति वालों को हेय दृष्टि से देखता था और ज़मीदार को सभी की जान, माल और इज्ज़त के शोषण का अधिकार था। यद्यपि ग्राम की निम्न जातियां ग़रीबी, बीमारी, अशिक्षा, अज्ञान और सर्वत्र शोषण की शिकार थीं, तथापि अंग्रेजी़ शासन सुचारुरूप से चल रहा था और न्यायाप्रियता की ख्याति भी अर्जित किये हुए था।

मानिकपुर के सभी ब्राह्मण भी एक स्तर के नहीं थे और उनके ब्राह्मणत्व के स्तर के अनुसार ही गांव वाले उन्हें सम्मान देते थे। रामप्रसाद तिवारी के अपढ़ व गरीब होने के कारण उनका विवाह नहीं हुआ था और उन्होने एक नाई की लड़की को भगाकर घर में रख लिया था। इसलिये उनका ब्राह्मणत्व समाप्तप्राय हो गया था। भागीरथ पाठक की पत्नी गांव के आकर्षक व्यक्तित्व के काछी जाति के युवक के साथ भाग गईं थीं और दोनों के वापस आने पर गांव के ब्राह्मणों ने काछी युवक को तो जूतों से मार मार कर भगा दिया था, परंतु भागीरथ ने अपनी पत्नी को फिर घर पर रख लिया था। इससे उनका ब्राह्मणत्व भी हेय हो गया था। अन्य ब्राह्मणों ने इनके साथ बैठकर अथवा इनके हाथ का बना भोजन खाना बंद कर दिया था। ये दोनों परिवार अपने को ब्राह्मण स्वीकार किये जाने केा लालायित रहते थे। इसी पर उनके बच्चों का विवाह होना निर्भर था, अन्यथा उनसे न तो ब्राह्मण विवाह कर सकते थे और न नाई, काछी। किसी गांव वाले के यहां जब भी कथा, हवन, मुंडन, विवाह आदि का सम्मिलित भोज आयोजित होता था तब ये दोनों ब्राह्मण परिवार अन्य ब्राह्मणों से उन्हें भोजन बनाने की अनुमति देने और अपने साथ में बिठाकर खिलाने हेतु चिरौरी करते थे। इस पर ब्राह्मणों में लम्बी चर्चायें होतीं थीं जिनके अंत में इन परिवारों को शुद्धीकरण हेतु स्वयं एक ब्राह्मण-भोज आयोजित करनेे को कहा जाता था। परंतु बार बार ब्राह्मण भोज जीमने के पष्चात फिर सम्मिलित भोज का अवसर आने पर कोई न कोई ब्राह्मण तुनक जाता था और हर नये अवसर पर उन परिवारों के ब्राह्मणीकरण की बहस फिर प्रारम्भ कर दी जाती थी- इस प्रकार इन गिरे हुए ब्राह्मणों की शुद्धीकरण प्रक्रिया बार बार सम्पादित होती रहती थी। इन परिवारों से अन्य ब्राह्मणों ने अनेक ब्रह्मभोज जीमे, परंतु उन्हें कभी बराबरी का दर्जा नहीं दिया गया। इन परिवारों का ब्राह्मणीकरण अन्य ब्राह्मणों के लिये मनोरंजक बहस करने एवं बारम्बार पूडी़ कचैडी़ उडा़ने का साधन बन गया था।

पं सुकुवासीलाल के दो पुत्र थे मथुराप्रसाद और मुसद्दीलाल। मथुराप्रसाद के दो पुत्र हुए- लालताप्रसाद और बाबूराम। मुसद्दीलाल के एक बिगड़ैल पुत्र हुए कमलप्रसाद, जो अपने स्वभाव के कारण बचपन से ही हल्ला के नाम से कुख्यात हो गयेे थे। इन्हीं दिनों घर में बंटवारा हो गया था। सुकुवासीलाल द्वारा बनवाई्र हवेली लालताप्रसाद को मिली और बाबूराम तथा कमल प्रसाद ने हवेली के पास ही अलग घर बना लिये। लालता प्रसाद के पुत्र हुए लालजी और शिवदयाल और बाबूराम के पुत्र हुए अशर्फीलाल और बर्फीलाल। हल्ला का एक सौतेला भाई कलू भी था जो उनके पिता की बेड़िया जाति की रखैल की संतान था। बेड़िया से सम्बंध रखने पर मुसद्दीलाल अथवा उनके पुत्र हल्ला के ब्राह्मणत्व पर कभी किसी ने प्रश्न नहीं उठाया, परंतु बेड़िया माॅ के गर्भ से जन्मे कलू को मुसद्दीलाल और हल्ला के जीवन काल में एक ‘अछूत’ की तरह घर के बाहर सहन मे ही रहने की अनुमति दी गई थी। जब इन दोनों की मृत्यु हो गई, तब घर में एकमात्र पुरुष होने के कारण कलू सर्वेसर्वा हो गये और अपने को कलू के बजाय कल्यान प्रसाद शर्मा कहलाने लगेे। यद्यपि लालता प्रसाद औार बाबूराम के खानदान ने कलू को कभी बराबरी का दर्जा नहीं दिया और प्राय उनसे मुकदमेंबाजी़ और लडा़ई झगडे़ करते रहे, परंतु सुकुवासीलाल की आधी ज़मीदारी के मालिक होने के कारण, अपने को दूसरों से उूपर साबित करने की ललक होने और अपने तिकड़मी एवं चालबाजी़ स्वभाव के कारण कलू सदैव गांव के आधे से अधिक निवासियों को अपने चंगुल में रखे रहे। कलू इन लोगों को ऋण देकर सादे प्रोनोट पर अंगूठा लगवा लेते थे और फिर ऋण का ब्याज भरते भरते ही वह व्यक्ति इनकी दया पर अपना जीवन बिताने को मजबूर हो जाता था। गांव में लगभग सभी लोग काला अक्षर भैंस बराबर थे- केवल लालजी हिंदी-उर्दू मिडिल पास थे और शिवदयाल सनातन धर्म इंटर कालेज से हाई स्कूल पास थे। एक दो अन्य ब्राह्मण हरूफ़ मिला मिला कर रामायण बांच लेते थे या चिट्ठी पढ़ लेते थे।

भादों की द्वितीया को घनघोर रात्रि में हवेली में जनमा नवजात शिशु पंडित सुकुवासीलाल की पांचवी पीढी़ की संतान था। उसकी छठी के दिन टुड़ई ने आंगन लीप पोतकर खूब चमकाया था और उस पर दरियां बिछा दी थीं। फिर गांव की तमाम महिलायें हवेली में जमा हुईं थीं। राजाराम लुहार की दुलहन ने खूब थाप दे देकर ढोलक बजाई थी और भग्गी काछी की दुलहन लंहगे का फेरा ले लेकर नाची थी। फिर अंजुरी भर भर कर सबको बताशा बांटे गये थे। बालक की माॅ ढोलक की हर थाप पर बालक का सुंदर सा चेहरा देखकर मगन हो उठती थी परंतु ढोलक की वह ढम-ढम शिशु को उसी तरह घबरा देती थी जैसे उसके जन्म के समय बादल की गरज ने उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को कम्पायमान कर दिया था। ढोलक की एक थाप पर वह जब तक माॅ के वक्ष में छिपने का प्रयास करता, तब तक और जो़र से थापें पडने लगतीं और उसका कोमल दिल-दिमाग दहल जाता था। शिशु को गम्भीर असुरक्षा एवं अपनी अवशता का बोध होता और वह उतना ही माॅ का आश्रय खोजता था।

सायंकाल छठी का उत्सव समाप्त होते होते उस बालक को दस्त होने लगे और रात्रि में तेज़ ज्वर हो गया था। प्रत्येक दस्त के साथ बालक का चेहरा भयाकुल हो जाता था। इससे माता समेत सभी घरवालों को गहरी चिंता हो गइ्र्र थी- कोई कहता कि घर्माई नाई की पत्नी बच्चे को घूर घूर कर देख रही थी, उसी की नज़र लगी है; तो कोई कहता कि स्यामा लुहार की बहू की नज़र लगी है- ‘खुद कें लड़का है नाईं तौ दुसरे को कैसें बरदास्त होय?’ अपना लड़का है नहीं तो दूसरे का कैसे बर्दाश्त हो?। फिर अम्मा शिशु की दादी बोलीं,

‘‘जाव थोरी सी मिच्च और लोढ़ा लै आउ। जाओ, थोड़ी सी मिर्च और सिलबट्टा ले आओ।’’

बूढी़ अम्मा के निर्देश के अनुसार कमरे मे आग जलाकर मिर्च उसमें छोड़ी गई और लोढा़ सिलबट्टा को सात बार बालक के उूपर घुमाया गया। बालक ठीक तो न हुआ, धंुएं से शिथिल अवश्य हो गया। बच्चे को लगातार सात दिन तक दस्त व ज्वर रहा। आठवें दिन बालक का ज्वर तो उतर गया, परंतु वह रह रहकर चैंकने लगा। कभी कभी जागते हुए भी वह भयभीत हो जाता और माता से चिपट जाता। भय का यह भाव उसके मस्तिष्क में कुछ इस तरह स्थायी हो गया कि कई माह तक उसे सोते जागते स्वप्न आते रहे कि वह मीलों गहरे अग्निकुंड में गिर रहा है और उसे कोई बचा नहीं पा रहा है। वह अपने केा बचाने को चिल्लाना चाहता है परंतु उसके मुख से ध्वनि ही नहीं निकल रही है। धीरे धीरे इस अवषता की भावना ने उसके मन में एक ऐसी स्थायी हीनभावना का रूप ले लिया कि बडे़ होने पर साहस के साथ अपने को अभिव्यक्त करने के किसी अवसर पर उसका गला सूखने लगता और उसके हृदय का कम्पन अनियंत्रित हो जाता रहा।

फिर एक शुभ दिवस पर पुरोहित पं. गोरेलाल आये और उन्होने बालक के जन्म की गृृहदशा देखकर कुंडली बनाई। कुण्डली में बालक की राशि सिंह बताई गई थी और उ अथवा म अक्षर से प्रारम्भ होने वाला नाम रखने का सुझाव दिया गया था तथा बालक के भ्विष्य के विषय में अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी लिखा था कि बालक यद्यपि बुद्धिमान और भाग्यशाली होगा तथापि स्वाभाव में व्यवहारकुषलता की कमी के कारण अपनी योग्यता के अनुसार प्रगति का योग नहीं है।

पंडित जी द्वारा सुझाये गये नामांे में से बालक का नाम मोहित रख दिया गया था।

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