उत्तरा देवी : एक संघर्ष - Episode 2 kuldeep vaghela द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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उत्तरा देवी : एक संघर्ष - Episode 2


एपिसोड 2
धीरे धीरे बढ़ रहे कदमों की आवाज शांत कमरे में जो सन्नाटा छाया हुआ था उसे चीर रही थी। धीर-गंभीर मुद्रा, धोती और अंग वस्त्र, श्याम वर्ण और मध्यम शरीर - यह पुरुष कमरे में प्रवेश करके विशेष चंद्र की ओर बढ़ रहा था। विशेषचंद्र अपनी कुर्सी पर बैठकर कुछ लिख रहे थे। यह पुरुष उनके पास गया और नज़दीक पड़े आसन को ज़मीन पर बिछाकर बैठ गया। विशेषचंद्र ने एक नज़र उसको देखा , फिर वापस अपने लेखन कार्य में जुट गए। कुछ देर कमरे में ऐसे ही सन्नाटा छाया रहा। खिड़की से अंदर आती हुइ हवाओ की आवाज़ और कभी-कभी कुर्सी की थोड़ी थोड़ी कर्कश आवाज़ के अलावा कमरे में और कोइ भी आवाज़ नहीं आ रही थी। लालटेन भी जल रहा था जिसकी धीमी धीमी रोशनी विशेषचंद्र के लेखन कार्य के कागज़ पर पढ़ रही थी। इसके अलावा कुछ दीपक भी जल रहे थे जो कि कमरे में प्रकाश फैला रहे थे।
कुछ देर बाद विशेषचंद्र ने अपना कार्य पूर्ण कर के उस व्यक्ति की तरफ देखा, और बोले : " आजकल बहुत व्यस्त रहते हो। दिन भर घर में होते नहीं, रात को भी बाहर जाने लगे हो। कार्य करना उचित बात है परंतु कार्य के अलावा परिवार को भी समय देना वह भी अपने जीवन का एक कर्तव्य होता है। बताओ क्या कहना चाहते हो ॽ"
वह व्यक्ति थोड़ा गंभीर होकर शांत मन से बोला : " पता नहीं क्यों पर मुझे कुछ अनहोनी का एहसास हो रहा है। हालांकि व्यापार या राजनीति में ऐसा कुछ होने के आसार लग नहीं रहे, परंतु मेरा मन न जाने क्यों विचलित हो रहा है। शायद यह पारिवारिक बात भी हो सकती है पर मैं जानता नहीं। इसीलिए कुछ दिनों से काम में भी ध्यान नहीं लग रहा। मन होता भी ऐसा ही है ना अगर किसी भी चीज पर लग जाए तो फिर वहां से हटता ही नहीं।"
" सही बात है। पर ऐसा भी नहीं है कि हम अपने मन पर काबू न पा सके। कुछ देर पहले ही मैंने कहा था कि अगर जीवन में सुखी रहना है तो मन पर काबू होना चाहिए। हालांकि यह इतना भी आसान नहीं है परंतु अगर हो सके तो फिर हमें और कोई परेशानी नहीं रहती। वैसे यह बताओ तुम्हारी चिंता का कारण क्या है क्योंकि राजनेताओं की चिंता का कारण तो सिर्फ उनके अलावा कोई और जान ही नहीं सकता। या फिर वह जल्दी से किसी को बताते भी नहीं परंतु अगर तुम मुझसे एक राजनेता की जगह एक पुत्र बन कर बता सको तो शायद तुम सत्य सबसे अच्छे तरीके से बता पाओगे। मैंने हमेशा अपने बेटों का साथ दिया है, उन्हें प्रोत्साहित किया है, प्रेरणा दी है कि वह कुछ अच्छा कर सके। और खुशनसीबी भी यही है कि मेरे बेटे हमेशा मेरी बात मानते हैं या कहूं कि मेरा आदर करते हैं-मान रखते हैं। हालाकि कभी कभी मुझे आईना भी दिखा ही देते हैं। पर वह अच्छी बात है। जब बेटे अपने बाप के कद के समान हो जाए तब पिता उनके लिए पिता नहीं रहता परंतु एक मित्र बन जाता है। तुम भी मुझे पिता की जगह मित्र बनकर अगर कुछ कहो तो शायद तुम्हारा मन हल्का हो सके और मैं उसका समाधान कर सकूं। " विशेषचंद्र ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया।
" शायद आप सही कह रहे हैं। बाहर मित्र ढूंढने जाऊं उससे तो यही अच्छा है कि अपने घर में जिसने मुझे बड़ा किया है और जो मुझे मुझसे भी ज्यादा जानता है उसी को अपना मित्र बना लूं। " व्यक्ति ने स्मित के साथ जवाब दिया और फिर से गंभीर होकर श बोला : " मेरी दुविधा यह है कि मैं समझ नहीं पा रहा कि मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है। पहले मैं विलायत गया पढ़ने के लिए , जिसने भी खूब विरोध हुआ था लेकिन आप मेरे साथ खड़े रहे और कहा की ज्ञान सभी जगह समान ही होता है , फर्क तो सिर्फ ज्ञान लेने वाले की दृष्टि में होता है। यही बात मैंने हमेशा याद रखी है। लेकिन जब मैं वापस आया तब मुझे लगा कि मुझे अपने ज्ञान का उपयोग शायद व्यापार की जगह देश के लिए करना चाहिए। मैं राजनीति में उतरा , हालांकि मेरी सोच मातृभूमी की सेवा की थी और शायद इसी सोच की वजह से मैंने अपने निजी जीवन पर कभी ध्यान नहीं दिया। मुझे लगता है कि यह अच्छा ही हुआ। इससे मैं अपने कार्य या कहूं कि मेरे जीवन के लक्ष्य पर अडिग रह पाया। परंतु आज मुझे यह संशय सता रहा है क्या मैंने अपने परिवार के प्रति कर्तव्य का पालन नहीं कियाॽ क्या मैं राजनीति और सेवा में इतना डूब गया था कि अपने परिवार को भूल गयाॽ यही बात मुझे खाए जा रही है। "
विशेषचंद्र ने बीच में ही उसे रोककर कहा : " अगर तुम अपने कार्य में पूरी तरह से प्रामाणिक हो तो तुम्हारे मन में ऐसे संशय नहीं आने चाहिए। जब भी हम कोई एक कार्य के प्रति अपना दृढ़ निश्चय करते हैं तो हमें उसके लिए कुछ त्याग करना पड़ता है और जब वह कार्य बहुत ही अच्छी तरह से हो जाए उसके बाद हम अपने त्याग किए गए कार्यों को फिर से ले सकते हैं। यही जीवन का सत्य है। यह कागज देख रहे होॽ यह भी वही है। अगर मैं इसे व्यापार के कार्य में लगाता हूं तो फिर यह घर की जगह अपने कार्यस्थल पर ही ज्यादा रहेगा। फिर चाहे इसका उपयोग वहां पर हो या ना हो लेकिन अगर मैं इसे घर पर लगा था तो फिर एक कार्यस्थल पर बेकार हो जाएगा या उतना काम का नहीं रहेगा। यही बात तुम्हारे लिए भी है, अगर तुम सेवा और राजनीति कर रहे हो तो तुम्हें परिवार को प्रधान्य नहीं देना चाहिए। हालांकि इसका अर्थ यह नहीं है कि परिवार को भूल जाना चाहिए, तुम्हारी प्राथमिकता तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिए। अब तक तुमने बहुत अच्छी तरह से किया है। आज से तुम्हारे मन में है तब मुझे कहना पड़ेगा कि तुमने अब तक जो भी सेवा कार्य किया है सब उत्कृष्ट है और इससे तुम्हारे नाम पर हमारा परिवार आना जा रहा है। तो क्या यह कम सिद्धि की बात हैॽ एक पिता के लिए यही गर्व की बात होती है कि जब वह बाहर निकले तब लोग उसे उसके बेटे से नाम से जाने। अपने मन से यह संशय तो तुम निकाल ही दो। "
" अब रही बात निजी जीवन की। एक बात तुम जान लो कि जो व्यक्ति सार्वजनिक कार्यों में लगा है उसके लिए कोई जीवन निजी नहीं होता। आप सार्वजनिक तभी हो सकते हैं जब आप सबके सामने जैसे हैं वैसे ही रहे या आप जैसे हो वैसे ही दिखे। तब आपके निजी और सार्वजनिक जीवन में कोई भेद रेखा नहीं होती। इसीलिए अब तुम्हारा सार्वजनिक जीवन ही तुम्हारा निजी जीवन बन गया है। इस बात का तुम्हें गर्व होना चाहिए। " स्नेह से विशेषचंद्र ने अपना हाथ उस व्यक्ति के चेहरे पर फिराते हुए कहा।
" जब तुम ने शुरुआत की थी तब मुझे भी इतनी आशा नहीं थी या कहूं कि एक प्रकार का डर था कि कहीं तुम ब्रिटिश अंपायर के प्रति कोई बैर भाव ना पाल लो। परंतु यह नहीं हुआ। जिस तरह से हमारे पूर्वज और मैं उनसे अंतर रखते आ रहे हैं वह भी बिना उन से बैर कीए हुए, उसी तरह से तुमने भी अच्छा संतुलन बनाए रखा है। मैं यह कह सकता हूं कि तुम हमसे कई ज्यादा आगे हो। क्योंकि हम तो केवल अंतर रखते हूए अपना कार्य करते थे फरंतु तुमने उनकी नज़रों में हमारे परिवार की इज्जत , मान-मर्यादा को और ऊपर पहुंचा दिया है। अब तो स्थिति यह है कि ब्रिटिश मी हमारे परिवार का आदर करते हैं। उन्हें हम पर यह संशय तो कभी भी नहीं होगा कि हम उनके खिलाफ है।"
" शायद आप सही कह रहे हैं। आज फिर आपने अपनी बात को साबित कर दिया कि अगर परिवार के साथ मन की बात कर ले तो जाने-अनजाने में आपकी समस्या का समाधान अपने आप हो जाता है। " उस व्यक्तिने सम्मान प्रगट करते हुए कहा। या व्यक्ति था विशेषचंद्र का सबसे बड़ा पुत्र जयंतराम।
यह बातें चल ही रही थी कि दरवाजे पर किसीने दस्तक दी। एक ऊंचे कद काठी का युवान सूट पहनकर मुस्कुराते हुए खड़ा था। गोल चेहरा, निर्दोष मुस्कान और एक अलग ही ताॹगी। विशेषचंद्र ने उसकी ओर नजर की और अंदर आने की सहमति दी। वह युवान थोड़ा जल्दी में लग रहा था। उसने विशेष चंद्र से कहा : " आज गवर्नर साहब ने एक दावत रखी है। आने में थोड़ी देर हो जाएगी। भैया को भी निमंत्रण है परंतु उन्होंने आने से मना कर दिया।" इतना कहकर उसने जयंतराम की तरफ एक स्मित किया। यह युवान था विशेषचंद्र का का सबसे छोटा पुत्र शंकरराय। यह इस परिवार का ऐसा सदस्य था जीसमें सभी की जान बसती थी। सबसे छोटा होने के कारण शायद सबसे ॹ्यादा लाड़-प्यार इसी को मिलता था। हालांकि इसके प्रमाण में इतना बिगड़ा हुआ नहीं था क्योंकि संस्कार भी कोई चीॹ होती है। जो पीढ़ियों से इस खानदान में चली आ रही है। सत्कार ही एक ऐसा धन है जीसे कमाने में और गवाने में पीढ़ियां लग जाती है। किसी ने सच ही कहा है कि अगर किसी इंसान को उसके मूल रूप में पहचान ना हो तो केवल उससे थोड़ी बातचीत कर लेनी चाहिए। इसी से पता चल जाएगा कि उसके संस्कार उसका चरित्र और उसका कूल कैसा है। शंकर राय अपने आप में एक राजा था। खुले विचारों वाला साथ में भारतीयता का प्रबल हिमायती। बेनर्जी परिवार की परंपरा भी तो यही थी। उसने संस्कृत में महारथ हासिल की थी। अंग्रेज़ी भी वह बहुत ही अच्छी बोल लेता था। बंगाल में जब भी कोई युवा शिक्षित और सुलझे हुए इंसान की बात होगी तब शंकर राय का नाम अवश्य लिया जाएगा। विलायत ना पढ़ने जाने का उसका निर्णय कई लोगों को अजीब लगा था। जिनमें विशेषचंद्र भी शामिल थे। परंतु उसने अपनी प्रतिभा और व्यक्तित्व से इस निर्णय को सही साबित कर दिया। अपने पिता और भाई के नक्शे कदम पर यह राजनीति में आना चाहता था परंतु विशेष चंद्र की आज्ञा न होने के कारण उसने यह विचार त्याग दिया।
" मुझे यह सब पसंद नहीं। मैं तो अपनी सादगी में ही ठीक हूं। " जयंतराम स्मिथ के साथ जवाब दिया।
" उचित है। " कहकर शंकर राय पिता के पांव छूकर दोनों की आज्ञा लेकर बाहर निकल गए। विशेषचंद्र और जयंतराम एक दूसरे के सामने देख कर हंस पड़े। इतने में एक और व्यक्ति कमरे में दाखिल हुआ।
मध्यम कद काठी , बड़ी आंखें , हाथ में कुछ कागज और बदन पर कुर्ता पजामा। अमीरों की निशानी जेसी एक सफेद शॉल - यह व्यक्ति था दिवाकर राय। दिवाकरराय के बारे में दो बातें पूरे बंगाल में प्रसिद्ध थी - एक इनके ॹमीनी कानुन और गणित का ज्ञान और प्रतिबद्धता और दूसरी इनका क्रोध। अगर किसी से ॹरा से भी गलती हो जाए तो यह बरस पड़ते। हालांकि यह बात उनकी खुद की गलतीयों पर भी लागू होती थी। पर यह बहुत ही कम गलतियां करते थे। एक बात तो तय ही थी की दिवाकरराय जो अपने पिता का कारोबार संभाल रहे थे उनसे ॹमीनदारी के मामले में कोई नहीं जीत सकता। कैसा भी कानून हो , कैसी भी परिस्थिति हो दिवाकरराय उसका हल निकाल ही लेते थे। इनके बारे में यह भी कहा जाता था की किसानों के लिए कर्ज़ अगर कोई माफ कर सकता है तो वह केवल दिवाकरराय है। क्योंकि इनकी कानून की समझ उतनी उत्कृष्ट थी कि वह उससे कभी भी खेल सकते थे। कभी कभी विशेषचंद्र को भी इस बात का अफसोस रहता है कि इन्होंने पढ़ाई क्यों नहीं की परंतु इस अफसोस पर इनकी सफलता हमेशा हावी हो जाती है।
दिवाकरराय ने आते ही पिताजी को कागज़ दिखाएं और कहा :
" यह ज़मीन जो हमने पिछले साल खरीदी है। वह इस बार अंग्रेज़ो के हाथ मे आने वाली है। क्योंकि अंग्रेज़ो के साथ हमारा जो समझौता हुआ था उसमें लिखा था कि अगर तय सीमा तक हमने तय रकम का कमीशन उनको नहीं दिया तो वह कुछ हिस्सा हमारी ज़मीन में से ले लेंगे। हमारे पास इतने पैसे तो है परंतु इस बार फसल अच्छी नहीं हुई। तो मैं यह सोच रहा हूं कि किसानों को कुछ मुआवज़ा दे दुं। क्योंकि अंग्रेज़ तो वह देने से रहे और नवाब की तो बात ही ना करें तो ही अच्छा है। "
" विचार तो अच्छा है।परंतु इससे हमें कुछ ज्यादा ही नुकसान तो नहीं होगा!? एक तो हम अंग्रेज़ो को ज़मीन देंगे दूसरा हम किसानों को मुआवज़ा। "
" नहीं। आप एक बात भूल रहे हैं। नया कानून आने वाला है चार्टर एक्ट 1813। इसमें कुछ अच्छे अच्छे नियम है जिस में से एक यह भी है कि अब कंपनी को केवल चाय और चीन में ही अकेले व्यापार का हक है। "
" तो इससे क्या होगा ॽ " विशेषचंद्र हेलो ने जिज्ञासा वश पूछा।
" अब इंग्लैंड से और भी कंपनियां आएंगी यहां पर व्यापार के लिए। जिससे हमें ही फायदा होगा क्योंकि हम अपने माल का सही दामों पर या कहूं कि अभी से तो अच्छे दामों पर व्यापार कर सकेंगे। जिससे यह दोनों की भरपाई हो जाएगी। " दिवाकररावते एक समझदार की अदा से कहा।
" तो फिर कंपनी को तकलीफ नहीं होगी ॽ " जयंतराय ने बीच में ही पूछा।
इस समय दीवाकरराय का चेहरा देखने लायक था। थोड़ा सा गुस्सा उनके चेहरे पर दीख रहा था परंतु विशेष चंद्र के होने के कारण वह कुछ ज़्यादा नहीं बोले। " तकलीफ तो सिर्फ इतनी ही होगी कि उनके लिए स्पर्धा हो जाएगी। अब तक वह जो मनमानी करते थे वह खत्म या कम हो जाएगी इतना तो विश्वास है। "
" तब तो किसानों और मजदूरों के लिए शायद अच्छे दिन आने की उम्मीद है। अब जब दूसरे लोग आएंगे तो उनको भी सही वेतन और सही दाम मिलेंगे। " जयंतराम के चेहरे पर चमक आ गई
" हां हो सकता है। पर हमे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह भी इंग्लैंड से ही है और एक बात यह भी है कि अब इंग्लैंड की संसद थोड़ी ज़्यादा सख्त हो रही है। तो शायद यह उम्मीद रखना भी उचित होगा। परंतु इतनी भी आशाए ना रखो कि फिर पछताना पड़े। " विशेषचंद ने बड़े ही ठंडे दिमाग से सरलता के साथ उतर दिया।
" आप तो इसमें भी राजनीति ही ढूंढ लोगे। राजनीति करते करते थक नहीं जाते! कभी इंसानों के बारे में भी सोच लिया करो। कभी देश का भी कुछ भला कर दिया करो। " दिवाकरराय ने हंसते हुए कहा और कमरे में हंसी बिखर गई। जो सन्नाटा था वह इस हंसी में गायब हो गया।
ईतने में किसी व्यक्ति के कदमों की आवाज़ सुनाई दी। विशेषचंद्र ने ग़ोर से देखा। सामने के बरामदे में से कोई आ रहा था। एक हाथ में मोमबत्ती और दूसरे हाथ में कुछ था। छवि कम प्रकाश के कारण दिख नहीं रहा था परंतु विशेषचंद्र के हाव-भाव से तो सब कुछ ठीक ही लग रहा था। आखिर कौन था वो। वह धीरे धीरे कदम बढ़ा रहा था जैसे किसी हृदय से धड़कन जा रही हो। हर एक धड़कन के साथ समग्र शरीर में रुधिर का प्रवाह जैसे समर्पित होता है वैसे ही उसके एक एक कदम पर धरती भी उसे प्रणाम करती हुई जगह दे रही थी। उसका एक अलग ही रूआब था जो कि शायद किसी और में नहीं था। ज़मीदारी की अदा, उत्तम चरित्र का हाव भाव स्वमान के साथ घूमती हुई नजरें उसे बाकी लोगों से अलग बना रही थी। आखिर कौन था वो ? जीसके कदम संगीत का कोई ताल छेड रहे थे। ठक ठक ठक. . .
to be continued .....