स्वाभिमान - लघुकथा - 22 Janki Wahie द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

स्वाभिमान - लघुकथा - 22

1 - प्रेम का धागा

हथकरघे पर बैठी गौरा को देख, सुबोध चहक कर बोला-

"चाची जी, दोनों गलीचे तुरन्त बिक गए।"

" सुबोध, सच्ची !"

" आप सुंदर धागों और रंगों को बुनकर, जादुई डिज़ाइन का ऐसा ताना बाना बुनती हो कि देखते ही सबके मुख से 'वाह' निकलता है ये लीजिये 20, 000 रूपये "

सुबोध ने आसपास फैले सतरंगे ऊनी धागों से राह बनाते हुए, हाथ आगे बढ़ाया।

" झूठ-मूठ ही बढ़ाई करता है। तू, अपने लिए कुछ पैसे रख ले "लाड़ से गौरा ने अपने बेटे के बचपन के साथी से कहा

"ना ना चाची, माँ से कुछ लेते नही, देते हैं।

पर आपके हाथों का गर्म खाना ही मेरा ईनाम है। बहुत स्वाद है आपके हाथों में।"

" आजा बैठ, तेरी पसन्द की खीर भी बनाई है आज।"

"अरे ! भूल ही गया। चाची, अमेरिका से नरेंद्र की चिट्ठी आयी है "

"ज़ल्दी से पढ़ तो।"ख़ुशी और ममता से गौरा की आँखें चमकने के साथ ही ममता से छलक उठीं

" माँ,

पायँ लागूँ,

मैने अमेरिका में ही बसने का निर्णय ले लिया है जो तरक्की मैं, यहां कर पाऊँगा, वो भारत में मुश्किल है। आपके खर्च के लिए रूपये भेजता रहूँगा। चिंता मत करना. अब आप ये गलीचे बुनना बन्द कर दें।"

आपका- 'नरेंद्र '

गौरा की आंखो में एक पल में, कई रंग आकर गुज़र गए। कैसे पति के स्वर्गवास के बाद इन्ही गलीचों को बुनकर, अपनी दुखों से भरी बेरंग ज़िन्दगी के तानो बानो को समेट कर, सुख और ख़ुशी के ताने बाने बुन दिए बेटे नरेंद्र के लिए।उसे उच्च शिक्षा दिलवाई और आज?स्वाभिमान से आँखें छलक उठीं।

अचकचाये से सुबोध सेबोली-" अभी इसका उत्तर लिख कर डाक में डाल कर , लिख...-'

प्रिय

नरेंद्र, प्यार और आशीर्वाद .

अगर मैं तुम्हें, परिश्रम करके उच्च पद पर बैठने लायक बना सकती हूँ तो, स्नेहिल गावँ वालों के सुख-दुःख रूपी ताने बाने के साथ बाकि जीवन भी गुज़ार सकती हूँ इस पते पर, अब कोई रूपये और चिट्ठी मत भेजना यहां दो बूढ़ी आँखें, अब तुम्हारी राह नही देखती हैं। और याद रखना, कभी जब जिंदगी के तानो बानो को समेटने बैठोगे तो, चाहकर भी समेट नही पाओगे

'इति ' माँ,

***

2 - मुस्कान

" सूरज चाचू, सामान समेट कर अस्ताचल की की तैयारियों में है, हमें भी लौटने की तैयारी कर लेनी चाहिए सखियों "

सौम्या ने क्षितिज पर बिखरे नारंगी रंग को निहारते हुए कहा।पहाड़ी पर बने पिकनिक स्थल पर आज सभी का दिन बहुत अच्छा गुज़रा जंगल से आती हवाओं की आवाज़, नीचे शहर का नयनाभिराम दृश्य शांत माहौलऔर इनसे भी बढ़कर पत्थर के चूल्हे पर खुद पकाए गए पुलाव का कभी भूलने वाला स्वाद।

एक बेहतरीन दिन अब समाप्ति की ओर था।

"सौम्या, इस बचे पुलाव का क्या करें? फेंकना अच्छा नहीं लग रहा है।"

निधि ने देग की ओर देखते हुए कहा।

" फेंकना क्यों? किसी को दे देंगे।"

राधा ने बचा पुलाव समेट कर एक प्लेट में रख उसे दूसरी प्लेट से ढकते हुए कहा।

"किसे? और कोई क्यों लेगा बचा खाना?"

चलो, अब चलना शुरू करो वर्ना यहीं अँधेरा हो जायेगा। बैग कंधे पर डाल निधि ने कदम तेज किये।हँसती, खिलखिलाती, सहेलियों की आवाज़, घर लौटते पंछियों की चहचहाट के साथ मिलकर पेड़ों की शाखों पर फुदकने लगी।

"ये प्लेट अब तुम पकड़ों, मेरे हाथ दर्द कर रहे हैं कहकर प्लेट सौम्या के हाथ में पकड़ा दी राधा ने। "क्या करें इसका ?अभी तक तो कोई ऐसा मिला नहीं जिसे ये दिया जाय। "सौम्या ने प्लेट को सावधानी से सहेजते हुये कहा।

"देखो ! नीचे से कोई बुजुर्ग से रहे हैं।कपड़ों से गरीब लग रहे हैं उनसे पूँछें ?"

धीमी गति से चढ़ाई चढ़ते बुजुर्ग पर सबकी उम्मीद भरी निगाहें टिक गईं।

" बुबू जी, नमस्कार।"

"जीती रहो, चेलियों अन्यार होने से पहले नीचे उतर जाओ सुनसान जंगल हुआ ये बुज़ुर्ग आशीर्वाद देते और चिंता प्रकट करते बगल से गुज़र गए।

" पूछ , खाना लेंगे ?" सौम्या ने प्लेट पर नज़र डाली।

"नहीं लेंगे तो? "राधा ने असमंजसता दिखाई।

"पूछने में क्या हर्ज़ है मैं बात करती हूँ।

बुबू जी, पीछे से आवाज़ दी, हमने पिकनिक में पुलाव बनाया था काफी बच गया। क्या आप लोगे?"ठिठक कर खड़े हो गए बुजुर्ग और पलट कर लड़कियों को निहारा। कुछ पल खामोशी से गुज़र गए।फिर धीमी आवाज़ गूँजी।

"ले लूँगा चेलियों।अन्न हुआ उसका क्या अपमान।"

" कोई चीज़ है आपके पास ?किसमें दूँ।निधि ही बातचीत की डोर पकड़े थी।

"चेली, कुछ नहीं है ।ऐसा करो इसमें डाल दो।" सिर से टोपी निकाल कटोरे की तरह फैला दी।

"बुबू जी, टोपी में? "

तीनों अचकचा गईं।

"और तो कुछ है नहीं फिर मेरे पास।" आवाज़ की निरीहता ठंडी हवाओं के साथ आस-पास के देवदारों पर जा दुबकी।

अभी भी टोपी खाने की आस में फैली थी और तीन जोड़ी आँखों में असमंजस भी। पर ये कौन समझे-बूझे कि बूढ़े के मन में उस समय, टोपी का स्वाभिमान नहीं भूख ज़ोर मार रही है। वह कह नहीं पा रहा कि -

दो दिन से अन्न का एक दाना नहीं गया था उसके और पत्नी के पेट में। शहर गया था कुछ मजूरी मिलेगी तो रोटी का जुगाड़ होगा पर उस बूढ़े पर कौन दाँव लगाता। फिर टोपी भूख से बढ़कर तो नहीं होती है ना ?

आगे बढ़कर राधा ने बुजुर्ग के हाथों से टोपी ले ली और ठिठुराती ठंड में उनके सिर पर पहना दी सौम्या ने हाथों में पकड़ी प्लेट उनकी झुर्रियों से भरे हाथों में पकड़ा दी।

"आप इसे ही ले जाइए।"

उस पल वहाँ उन सबके बीच सुबह झरे पारिजात के फूलों सी मुस्कान के आदान-प्रदान को ढलते भास्कर ने केवल उगते तारों के साथ देखा।

***

3 - पानी का रंग

ढलान पर जीत सिंह को ऊपर आता देख शिवानी हिचक गई। अब क्या करे? वापस नहीं लौट सकती।दिल मजबूत कर आगे बढ़ती गई।अंततः वो पल गया।शिवानी को आश्चचर्य हुआ जब जीत सिंह ने झुककर नमस्ते किया।प्रत्युत्तर दे वह आगे बढ़ गई। लगता है निडरता के आगे दबंगई झुक गई।

कल की बात है, स्कूल से नीचे पानी का स्त्रोत है जहाँ उच्च जाति के दबंगों ने गैरकानूनी तरीके से पानी के टैंक बना रखे हैं.रोज़ की तरह दोपहर का भोजन कर बच्चे पानी पीने गए थे।अचानक उनके करुण रुदन और कातर आवाज़ों से पेड़ों पर बैठे पंछी उड़ने लगे।देखा ऊपर से सनसनाते हुए पत्थर बरस रहे हैं। बच्चे जान बचाने की असफल कोशिश में इधर -उधर भाग रहे हैं. अब ऊपर से गन्दी-गन्दी गालियों की आवाज़ें आने लगी।"एक -एक को जान से मार दूँगा।"

"ये क्या हो रहा है? " शिवानी ने डरी हुई भोजन माता चन्नो से पूछा।

" बहन जी ! जीत सिंह है। बच्चों ने उसका पानी छू लिया है। हरिजन हैं ना ? "

उसका पानी कैसे ? ये तो प्राकृतिक स्रोत है चन्नो?"

"बहन जी! दबंग हैं " चन्नो की आवाज़ में भय था।

"आपको, जो कुछ कहना है मुझसे कहें, मेरे बच्चों को ना मारे ना ही गाली दें, अगर उन्हें कुछ हुआ तो?... शिवानी पत्थर और गालियों के बीच गई

"बहन जी ! उसके हाथ में राइफल है? आप क्यों अपनी जात वालों से झगड़ा मोल लेती हैं।"

" चन्नो ! जिस तरह पानी का कोई रंग नहीं होता उसी तरह बच्चों का भी कोई धर्म और जाति नहीं होती जिसमें मिलाओ उसमें घुल-मिल जातेँ हैं। और इस विद्या के मन्दिर में सभी को सम्मान पाने का हक़ है।"

आकाश में उड़ते आज़ाद परिंदों की चहचहाट में स्कूल के बच्चों की आवाज़ भी मिल गई। वे दूर से उसे।हाथ हिला रहे थे।

जानकी बिष्ट वाही

मौलिक एवम् अप्रकाशित