1 - रावण अमर है ...
रामलीला के मंचन की समाप्ति के पश्चात् राम का रूप धरा हुआ पात्र हाथों में धनुष बाण लिए मंच से उतरकर रावण के पुतला दहन के लिए धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था । उसके पास आते ही लोग " जय श्री राम " के जयकारे लगाने लगे । भीड़ में खड़ी जानकी के हाथ भी श्रद्धावश जुड़ गए ।वह भी जयकारे लगाने ही वाली थी कि उसकी दृष्टि और समीप आ चुके पात्र राम पर पड़ी ।अब वह उसे स्पष्ट पहचान पा रही थी । पहचानते ही उसके होठों पर विद्रूप हँसी आ गई और उसकी आँखों के सामने उस दिन का दृश्य आ खड़ा हुआ ।
" मेरी बात का विश्वास क्यों नहीं करते आप ? मेरी कोख़ में पल रहा बच्चा आपका ही है ।आप बेवज़ह ही मुझ पर शक कर रहे हैं ।" जानकी पति राघव को समझाने की भरपूर कोशिश कर रही थी ।
" मैं तीन महीने का दौरा पूरा कर आज ही घर लौटा हूँ , और इस बीच तुमने मुझे एक बार भी पेट में बच्चा होने की खबर नहीं दी, तो फिर मैं कैसे इसे अपना बच्चा मान लूँ ?" शक में अंधे राघव को जानकी का न सच सुनाई दे रहा था, न दिखाई । वह अपनी बात मनवाने की जिद पर अड़ा हुआ था ।
" वो... मैं आपको घर आने पर एकदम से ख़ुशी देना चाहती थी इसलिए इस विषय में कुछ नहीं बताया ।" जानकी रुआँसी होकर बोली ।
" सबूत क्या है कि ये मेरा ही बच्चा है ?" शक के प्रभाव से शब्द भी जल उठे थे ।
" मतलब आपको मेरे चरित्र पर शक है ?" अपने प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए जानकी ने अपनी नज़रें राघव पर गढ़ा दीं ।
" हाँ, बिल्कुल ।"
" ठीक है फिर ... आप भी लंबे अंतराल के बाद घर लौटे हैं तो आपको भी सिद्ध करना होगा कि आप राम हो ।" जानकी ने कठोर और दृढ़ स्वर में कहा ।
अपने पौरुष पर आँच आते ही राघव ने एक झन्नाटेदार तमाचा जानकी के गाल पर दे मारा ।
" राम अवतारी होकर भी पुरुषोचित प्रवृत्ति का त्याग नहीं कर पाये थे बहू, और न ही उन्होंने कोई परीक्षा ही दी थी । फिर राघव तो साधारण पुरुष है ।वह कैसे तेरी बात मानेगा ? " पति-पत्नी के झगड़े की आवाज़ सुन सास अपने कमरे से बाहर आ गई और जानकी को अपनी ओर खींच गले लगाते हुए बोली ।
" तो ठीक है माँ ! मैं भी सती सीता बनकर अपनी बेगुनाही का सुबूत नहीं दूँगी।" आँसूं पौंछते हुए जानकी उसी समय राघव का घर सदा के लिए छोड़कर निकल आई थी ।
दहन के प्रकाश और पटाखों की तेज़ आवाज़ से जानकी वर्तमान में लौट आई । उसने महसूस किया , दहन के लिए आगे बढ़ रहे राम रूप धारी पात्र को देखकर ' स्पीकर्स' पर रावण की तेज़ मर्माहक गूँज चीखते हुए कह रही है...
"स्त्री स्वाभिमान के दोषी तो तुम भी हो राम ! फिर तुम्हारे हाथों से पूर्ण मुक्ति कैसे मिलेगी मुझे ? "
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2 - गृहस्थ नाव
दीपक के साथ हुए झगड़े में संध्या ने घर छोड़ने का फैसला कर लिया । वह जरुरी सामान बैग में ठूँस ही रही थी कि उसकी नज़र कलाई घड़ी पर पड़ी । " ये तो दीपक की चाय का समय है, चाय समय पर न मिले तो सिर दुखने लगता है उसका ।" उसने दीपक की ओर देखा, जो आँखों पर बाँह रखे लेटा हुआ था ।बैग वहीं छोड़ वह रसोई में गई और चाय की पतीली गैस पर चढ़ा डिब्बे से बिस्किट निकालने लगी । " ओफ्फो... बिस्किट को भी आज ही ख़त्म होना था । दीपक तो कभी खाली चाय नहीं पीते, अब क्या करूँ ? शाम अलग गहराने वाली है ।" उसने पुनः घड़ी पर नज़र डाली और तुरंत तेल की कड़ाही चढ़ा चिप्स तले और ट्रे ले जाकर कमरे में इतनी तेज़ आवाज़ के साथ रखी कि दीपक सुन ले । फिर रसोई में आकर खड़े खड़े ही तेज़ी से चाय का घूँट भरने लगी ।" बाप रे... छत पर बड़ियाँ डाली थीं सूखने को ..." चाय अधूरी छोड़ वह छत की ओर भागी । बड़ियाँ समेट सीढ़ियाँ उतर ही रही थी कि उसका ध्यान कोने में पड़े धुले कपड़ों के ढेर पर गया । पुनः घड़ी पर नज़र दौड़ाई," जहाँ इतनी देर हुई वहाँ दो मिनिट और सही " कपड़ों की तह बनाकर उन्हें अलमारी में जमाया और बैग उठा बाहर निकल गई । कॉरिडोर तक पहुँची ही थी कि मोबाइल घनघना उठा, " हेलो बेटा! कैसे हो ? " आवाज़ को सामान्य बनाते हुए संध्या ने पूछा ।
" ठीक हूँ माँ, कल से अचानक कॉलेज की छुट्टियाँ लग गई हैं, इसलिए कल सुबह की फ्लाइट से पहुँच रहा हूँ ।" उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही उधर से फोन काट दिया गया ।
अबकी संध्या ने आकाश की ओर नज़र डाली, फिर एक दीर्घ श्वांस छोड़ते हुए बैग उठाकर भीतर आ गई ।
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स्वरचित … शशि बंसल