लौहपुरुष की ताकत, एक हुआ भारत Madhu Sharma Katiha द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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लौहपुरुष की ताकत, एक हुआ भारत

लौहपुरुष की ताकत, एक हुआ भारत

-मधु शर्मा कटिहा

“सरदार पटेल ने हमें ‘एक भारत’ दिया, आईये हम सब मिलकर इसे श्रेष्ठ भारत बनायें।” 31 अक्टूबर 2015, सरदार पटेल के जन्मदिवस पर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के ये शब्द ही सरदार पटेल की महत्ता बताने के लिए पर्याप्त हैं।

जी हाँ, ‘एक भारत’ तो सरदार पटेल की ही देन है। 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद अंग्रेज़ यहाँ की साढ़े पाँच सौ से ज़्यादा रियासतों को स्वेच्छा से भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने अथवा स्वतंत्र रहने के विषय में निर्णय लेने का अधिकार दे गए थे। उनकी सोच थी कि भारत के साथ इनका विलय नहीं हो सकेगा। किन्तु उनकी सोच को ठेंगा दिखाते हुए अपनी सूझ-बूझ से विभिन्न रियासतों को भारत संघ में विलय करने का जो कार्य सरदार पटेल द्वारा किया गया, वह सचमुच अतुलनीय है। यही कारण है कि इन्हें ‘आधुनिक भारत का शिल्पकार’ कहा जाता है। इतिहास में इनका नाम सदैव स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा।

बाल्यकाल

इस चमकते सितारे का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नडियाद में अपने ननिहाल में हुआ था। उनके पिता झवेर भाई पटेल खेड़ा जिले के करमसद में एक किसान थे। झवेर भाई पटेल 'लेवा' नामक क्षत्रिय जाति के थे। लेवा जाति भगवान राम के पुत्र ‘लव’ के वशंज माने जाते हैं। युद्ध-कौशल में पारंगत इस जाति का होने के कारण इनके पिता लक्ष्मीबाई की सेना का हिस्सा बने। बाद में विद्रोह की अग्नि मंद पड़ने पर उन्होने तात्या टोपे आदि विद्रोही नेताओं के साथ मिलकर स्वतन्त्रता-संग्राम की ज्योत जलाए रखने का प्रयास किया, किंतु इंदौर के राजा मल्हार राव होल्कर ने उन्हे क़ैद कर लिया। जहाँ से ये तीन साल बाद घर लौटे।

अपने पिता से मिले इन संस्कारों के कारण ही सरदार पटेल में देश प्रेम की भावना कूट कूट कर भरी थी। ये बचपन से ही बहुत साहसी भी थे। एक बार इनकी बगल में फोड़ा हुआ। आस-पास ऑपरेशन आदि की कोई व्यवस्था तो थी नहीं, अतः एक वैद्य जी को दिखाया गया। उन्होने उसका उपचार गर्म लोहे की सलाख से दागना बताया, परंतु वैद्य जी स्वयं ही इतने छोटे बच्चे पर यह प्रयोग करने में डर रहे थे। आश्चर्य कि वल्लभ भाई बिलकुल नहीं डरे और फोड़े को गर्म लोहे की सलाख से खुद ही दाग दिया।

इनकी प्रारम्भिक शिक्षा उनके गाँव में ही हुई। पटेल की पढ़ने में बेहद रुचि थी। वे घर पर रहकर खूब पढ़ाई करते और इनके पिता इन्हें खेतों में ले जाते हुए पहाड़े याद करवाते। अपने विद्यार्थी जीवन में सरदार पटेल ने कुछ ऐसे कार्य किए जिनसे इनकी अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रवृत्ति स्पष्ट झलकती है। इनमें से एक घटना इनके ऐसे अध्यापक से जुड़ी है जो छात्रों को छड़ी से पीटते थे। एक बार उन्होने एक छात्र को इतनी निर्दयता से पीटा कि वह दृश्य देखकर अन्य छात्र भय से थर-थर काँपने लगे । पटेल से रहा नहीं गया और उन्होने विद्यालय में हड़ताल करवा दी। जब बात हैडमास्टर तक पहुँची तो उन्होने मामले की जाँच करवाना आवश्यक समझा। जाँच में अध्यापक को दोषी पाया गया और उन्हे शपथ दिलवाई गई कि वे भविष्य में किसी छात्र को शारीरिक दंड नहीं देंगे। इसके बाद ही छात्रों ने हड़ताल वापिस ली।

एक अन्य घटना अध्यापकों द्वारा शिक्षा के व्यवसायीकरण से संबन्धित है। वल्लभ भाई के स्कूल में कुछ अध्यापकों ने यह नियम बना दिया कि सभी छात्रों को पुस्तकें विद्यालय से ही खरीदनी होंगी। छात्रों से वे पुस्तकों के मनमाने दाम वसूल करते। पटेल ने छात्रों को बुलाया और एक स्थान पर एकत्रित होने को कहा। वहाँ सब छात्रों को उन्होने स्कूल से पुस्तकें न खरीदने के निर्देश दिए। उनके इस रवैये को देखते हुए लगभग एक सप्ताह विद्यालय बंद रहा । अंत में अध्यापकों को पुस्तकें खरीदने के अपने निर्णय को वापिस लेना पड़ा और छात्रों, विशेषकर गरीब छात्रों ने चैन की साँस ली। इस प्रकार बचपन से ही अन्याय का विरोध कर वे जान गए थे कि विजय अंत में सत्य की ही होती है।

अध्यापन व वैवाहिक जीवन

छात्र जीवन में ही सरदार पटेल को विवाह के बंधन में बंध जाना पड़ा। 16 वर्ष की अल्पायु में इनका विवाह झवेरबा से हो गया। किन्तु पढ़ने की इनकी लगन में विवाह भी आड़े नहीं आया और 1897 में इन्होने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। इसके बाद ये उच्च शिक्षा पाना चाहते थे, किन्तु आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवार पर बोझ भी नहीं बनना चाहते थे। अपने लिए पैसे इकट्ठे करने के उद्देश्य से इन्होने नडियाद में एक वकील के सहायक के रूप में काम करना शुरू कर दिया। वहाँ ये कानून की पुस्तकों का अध्ययन भी कर लिया करते थे। इसी के फलस्वरूप 1900 में इन्होने जिला-अधिवक्ता की परीक्षा पास की और उन्हें वकालत करने की अनुमति मिल गई। गोधरा जाकर इन्होने वकालत की प्रैक्टिस शुरू कर दी। 1902 में ये अपना काम बोरसद ले गए और खूब नाम कमाया। अपनी तर्क शक्ति, तीव्र बुद्धि व परिश्रम के दम पर ही इन्होने कई कठिन मामले सुलझाए। इस प्रकार अंग्रेजी शासन काल में कई निर्दोषों को दंडित होने से बचाया।

बोरसद में रहते हुए इन्हें संतान-सुख प्राप्त हुआ। 1904 में पुत्री मणिबेन व 1905 में पुत्र डाह्या भाई का जन्म हुआ। सरदार पटेल की तीव्र इच्छा थी कि वे इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर का कोर्स करें। वहाँ जाने के लिए इन्होने धन भी एकत्र कर लिया था। किन्तु अचानक ही इनके बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल ने भी इंग्लैंड जाने की इच्छा जताई। दोनों के नाम के पहले अक्षर एक ही थे, अतः अपने टिकट पर वल्लभ भाई ने उन्हें इंग्लैंड भेज दिया। अपने बड़े भाई के प्रति उनका यह त्याग सचमुच एक आदर्श व्यक्तित्व का परिचायक है।

उनकी यह कर्तव्यपरायणता केवल अपने परिवार की ओर ही नहीं थी, बल्कि कार्य के प्रति भी वे पूरी तरह समर्पित थे। 11 जनवरी 1909 को जब वे अदालत में अपना केस लड़ रहे थे तो उन्हें एक टेलिग्राम मिला, जिसे पढ़कर उन्होने बिना कुछ कहे चुपचाप वह अपनी जेब में रख लिया। लगभग दो घंटे की बहस हुई और मुक़द्दमे का फैसला उनके पक्ष में हुआ। कार्यवाही के बाद जब वे जाने लगे तब न्यायधीश व अन्य लोगों को पता लगा कि उनकी पत्नी का निधन हो गया है। समाचार प्राप्त होने पर भी उनके चुप रहने का कारण पूछने पर उन्होने बताया कि वे नहीं चाहते थे कि मुक़द्दमा बीच में रुक जाए और एक निर्दोष अपने दोषमुक्त होने का इंतज़ार करता ही रह जाए। किसी से फीस लेने के बाद वे उसका केस बीच में छोड़ कर नहीं जाना चाहते थे।

पत्नी की मृत्यु के उपरांत 1910 में इन्होने इंग्लैंड जाकर लॉं की पढ़ाई करने का मन बनाया। वहाँ जाकर ये अपना अधिकतम समय पुस्तकालय में ही बिताते थे। एक आदर्श विद्यार्थी की तरह किया गया इनका कठोर परिश्रम व्यर्थ नहीं गया। इन्हें प्रथम परीक्षा में, पहले पेपर में सर्वाधिक अंक पाने पर पाँच पाउंड व अंतिम परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर पचास पाउंड का पुरस्कार मिला। प्रथम श्रेणी में पास होकर ये 1913 में भारत लौट आए।

राजनीति और पटेल

वापिस आकर इन्होने अहमदाबाद में वकालत की प्रैक्टिस शुरू कर दी। शीघ्र ही इनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। किन्तु अपने पेशे में पूर्णतः सफल सरदार पटेल के भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था। 1917 में गुजरात सभा में जब गांधीजी ने सब नेताओं को अंग्रेज़ी का बहिष्कार कर गुजराती में भाषण देने को कहा तो सरदार का मन गांधीजी के प्रति श्रद्धा से भर उठा। राजनीति के प्रति उनका रुझान अब दिखाई देने लगा था।

1917 में मित्रों के आग्रह पर इन्होने अहमदाबाद नगर पालिका का चुनाव लड़ा और चेयरमैन बने। दुर्भाग्य से उसी वर्ष वहाँ प्लेग फैल गया और फिर इन्फ़्लूएंजा। किन्तु अपने अथक परिश्रम और सुचारु व्यवस्था द्वारा इन्होने किसी तरह शहर को इस बीमारी से छुटकारा दिलावाया। वल्लभ भाई पटेल बाद के वर्षों में भी नगर निगम के अध्यक्ष चुने गए। उनके कार्यकाल में अहमदाबाद में शिक्षा के स्तर में सुधार हुआ, विद्युत आपूर्ति बढ़ाई गई तथा स्वच्छता व जल निकासी का भी विस्तार हुआ।

सरदार पटेल गांधीजी के चंपारण आंदोलन की सफलता से बहुत प्रभावित थे। 1918 में गुजरात के खेड़ा में भयंकर सूखा पड़ा। किसान चाहते थे कि सरकार उनका लगान माफ़ कर दे। किन्तु जब सरकार इसके लिए तैयार न हुई तो गांधीजी ने सत्याग्रह का मार्ग अपनाने की सलाह दी। उन्होने लोगों से कार्यकर्ता बनने की प्रार्थना की। गांधी जी के लिए अपना सारा समय खेड़ा को देना संभव नहीं था। अतः वे किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे जो उनकी अनुपस्थिति में इस आंदोलन का नेतृत्व कर सके। ऐसे में सरदार पटेल आगे आए और अपनी ख़ासी चलती वकालत को छोड़ कर इस संघर्ष की अगुवाई की। ब्रिटिश सरकार ने, देर ही से सही पर राजस्व की वसूली पर रोक लगाई और करों को वापिस लिया। 1919 में यह संघर्ष समाप्त हुआ और पटेल एक कुशल नेता के रूप में उभरकर सामने आए।

1920 में ‘असहयोग आंदोलन’ द्वारा गांधीजी से जुड़ने के बाद इन्होने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई तथा स्वयं भी धोती, कुर्ता और चप्पल पहनने लगे तथा राजनीति में सक्रिय भूमिका निभानी शुरू कर दी। ‘तिलक स्वराज फ़ंड’ के लिए इन्होने दस लाख रुपये एकत्र किए और लोगों को ‘भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस’ का सदस्य बनाना शुरू कर दिया। अकेले गुजरात में ही तीन लाख सदस्य बन गए।

1922 में सरकार द्वारा बोरसद में ‘हदीया’ नामक कर लगाने पर इनके द्वारा सत्याग्रह किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार को यह कर वापिस लेना पड़ा। इसके बाद गांधीजी उन्हे ‘किंग ऑफ बोरसद’ कहने लगे थे। 1927 में गुजरात भीषण बाढ़ की चपेट में आ गया। ऐसे में वल्लभ भाई पटेल ने सरकार से एक करोड़ रुपये सहायतार्थ मंजूर करवाए।

यूँ बने सरदार

वल्लभ भाई पटेल के नाम के साथ ‘सरदार’ शब्द जुड़ने की घटना भी कम प्रशंसनीय नहीं है। 1928 में गुजरात के ‘बारदोली’ में सरकार ने किसानों के लगान में 30 प्रतिशत की वृद्धि कर दी। यह लगान 30 जून 1927 से लागू होना था। ऐसे में किसान सकते में आ गए। किसान-मण्डल ने इस विषय पर अधिकारियों से बातचीत भी की, किन्तु उनके कानों पर जूँ तक न रेंगी। तब सरदार पटेल के नेतृत्व में सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ। यह फैसला किया गया कि बढ़ा हुआ लगान नहीं दिया जाएगा। अधिकारी जो लगान वसूल करने आते थे, उनके रहने व खाने-पीने के व्यवस्था किसान करते थे। सत्याग्रह के अंतर्गत उन अधिकारियों का सहयोग न करने का निर्णय भी हुआ। लगान न मिलने व असहयोग के कारण अधिकारी क्षुब्ध हुए और किसानों के जानवर उठाकर ले जाने लगे। इसके अतिरिक्त उनकी चल व अचल संपत्ति को भी कुर्क किया जाने लगा। इस अत्याचार का विरोध करते हुए सरदार पटेल ने 12 जून को पूरे देश में बारदोली-दिवस मनाने का आह्वान किया। समाचार पत्रों में भी बरदोली की चर्चा होने लगी। सभी प्रदेशों के किसान संगठनों ने धमकी दी कि यदि बरदोली में कर-वृद्धि वापिस नहीं ली गई तो वे सब भी अपने-अपने प्रदेशों में लगान देना बंद कर देंगे। लगान वृद्धि के प्रति पूरे देश में फैले इस आक्रोश से सरकार हिल गई और अधिकारियों की जाँच समिति बैठाई गई । जाँच के बाद लगान 30 प्रतिशत से घटाकर 6 प्रतिशत कर दिया गया। किसानों की भूमि और जानवर वापिस लौटाने के आदेश भी जारी हुए और गिरफ्तार किए गए किसानों को रिहा कर दिया गया। इसके बाद वल्लभ भाई वहाँ के लोगों के प्रिय नेता बन गए। लोगों ने ससम्मान उनको ‘सरदार’ की उपाधि दे दी। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में इस उपाधि को सार्वजनिक मान्यता मिल गई।

पटेल हो सकते थे स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री

यदि पटेल ने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अध्यक्ष पद की दावेदारी बार-बार न ठुकराई होती तो वे ही स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री होते। उस समय के वे बेहद लोकप्रिय नेता थे।

भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन में सरदार पटेल महात्मा गांधी के बाद दूसरे उम्मीदवार थे। महात्मा गांधी ने अपनी दावेदारी छोड़ दी और सरदार पटेल से भी ऐसा ही करने को कहा। फलस्वरूप जवाहर लाल नेहरू अध्यक्ष बने। वल्लभ भाई उस समय महात्मा गांधी से जुड़ चुके थे।

गांधीजी के ‘नमक सत्याग्रह’ के प्रचार में भाग लेने के कारण 1930 में सरदार पटेल को साबरमती जेल भेज दिया गया। यहाँ इन्होने भूख हड़ताल कर अपने स्तर के अनुसार ‘ए’ क्लास खाने की जगह ’सी’ क्लास खाना देने की माँग रखी, जिसे थोड़ी ना-नुकुर के बाद जेल अधिकारियों को मानना पड़ा। रिहा होने पर 1931 में शिमला वार्ता में ये गांधीजी के साथ रहे। इसके अतिरिक्त उन्होने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के कराची अधिवेशन की अध्यक्षता भी की। लंदन में गोलमेज़ सम्मेलन की विफलता पर सरदार पटेल और गांधीजी दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। 1932-34 तक यरवदा जेल में गांधीजी के साथ होने पर ये उनके बहुत निकट आ गए। दोनों के बीच स्नेह, स्पष्टता और विश्वास का गहरा संबंध बन गया। इसी दौरान उनके बड़े भाई विट्ठल भाई की मृत्यु हो गई। 1934 में नाक की बीमारी के कारण इन्हे रिहा कर दिया गया। 1935-42 तक वे राष्ट्रीय काँग्रेस के संसदीय बोर्ड के चेयरमैन रहे। 1937 के चुनावों में उन्होने काँग्रेस पार्टी के संगठन को व्यवस्थित किया। 1937-38 में काँग्रेस के अध्यक्ष पद के प्रबल दावेदार होने पर भी गांधीजी के दबाव में एक बार फिर अपना नाम वापिस लिया। अगस्त 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में भाग लेने पर अहमदनगर फोर्ट में कई बड़े नेताओं के साथ इन्हे भी क़ैद कर लिया गया। जून 1945 में इन्हे शिमला वार्ता में भाग लेना था, अतः इनको रिहा करना पड़ा। 1945-46 में फिर एक बार भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अध्यक्ष पद की दावेदारी को गांधीजी के कहने पर इन्होने छोड़ दिया। फिर पंडित नेहरू अध्यक्ष बने और ब्रिटिश वाइसराय ने अन्तरिम सरकार के गठन के लिए उन्हें आमंत्रित किया।

मंत्री पद

2 सितंबर 1946 को वे अन्तरिम सरकार में गृह व सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने। सरकार ने 25 जून 1947 को रियासतों के लिए इनके अधीन एक नया विभाग ‘स्टेट्स डिपार्टमेंट’ बनाने का फैसला किया। 15 अगस्त 1947 को सरदार पटेल स्वतंत्र भारत के पहले उपप्रधानमंत्री, गृह तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने।

राष्ट्र का एकीकरण

भारत में तब 554 रियासतें थीं। उन्हें भारत या पाकिस्तान में किसी के भी साथ मिलने अथवा स्वतंत्र रहने की अनुमति दे दी गई थी। सरदार वल्लभ भाई पटेल की सूझ-बूझ से केवल तीन रियासतों को छोड़ कर बाकी सभी स्वेच्छा से कुछ ही सप्ताहों में भारत में विलय को तैयार हो गईं। चुनौती बनकर सामने आयीं वे तीन रियासतें थीं-जूनागढ़, हैदराबाद व जम्मू-कश्मीर।

जम्मू-कश्मीर के राजा हरिसिंह ने कश्मीर को स्वतंत्र रखने का निश्चय किया। किन्तु वहाँ अचानक ही घुसपैठियों ने आक्रमण कर दिया । हरिसिंह ने भारत से सहायता मांगी क्योंकि उनके पास सेना नहीं थी। सरदार पटेल ने सहायता के लिए शर्त रखी कि उसे भारत में विलय के लिए राज़ी होना पड़ेगा। हरिसिंह को यह शर्त माननी पड़ी और विलय के कागज़ों पर हस्ताक्षर करने पड़े। सरदार पटेल ने फिर न केवल सेना भेजी, अपितु स्वयं वहाँ जाकर सेना की कार्यप्रणाली को संचालित भी किया। जल्द ही आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया गया। इस प्रकार 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हो गया।

सरशाह नवाज़ भुट्टो के उकसाने पर जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान में शामिल होना चाहता था। सरदार पटेल ने वहाँ आर्थिक घेराबंदी करवा दी और कोयले,तेल आदि की सप्लाई भी रुकवा दी। डाक-संपर्क भी रोक दिया गया। इसके अतिरिक्त सेना द्वारा वहाँ का घेराव भी करवा दिया गया। इस पर वहाँ की जनता ने सत्याग्रह कर दिया और नवाब के विरूद्ध विद्रोह खड़ा हो गया। इसके फलस्वरूप नवाब और भुट्टो कराची भाग गए और जूनागढ़ का 7 नवम्बर 1947 को भारत में विलय हो पाया। 12 नवम्बर को सरदार पटेल ने जूनागढ़ पहुँचकर सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार का निर्देश दिया।

हैदराबाद का निज़ाम उस्मान आली खान विलय न करने पर अड़ा था। जब उसे यह समझ में आया कि भारत आज़ाद हैदराबाद को स्वीकार नहीं करेगा तो उसने पाकिस्तान में शामिल होने की धमकी देनी शुरू की। हैदराबाद का भारत में विलय न होने का मतलब भारत का कमज़ोर हो जाना था। वह भारत की नाभि के समान था और उत्तर से दक्षिण को जोड़ रहा था। सरदार पटेल ने सेना को वहाँ शिकंजा कसने को कहा और 13 सितम्बर 1948 को आक्रमण करने की योजना बनाई। जब उनसे कहा गया कि ‘13’ संख्या तो भारतीय अशुभ मानते हैं तो उन्होने जवाब दिया कि यदि तारीख़ बदली ही जाएगी तो वह 12 सितम्बर हो सकती है, किन्तु 14 नहीं होनी चाहिए। सरदार पटेल वहाँ की परिस्थिति से भली-भांति परिचित थे अतः एक दिन भी वे व्यर्थ गंवाना नहीं चाहते थे। इस प्रकार ऑपरेशन ‘पोलो’ के अंतर्गत दो दिन में ही हैदराबाद पर कब्जा कर लिया गया।

रियासतों का इस प्रकार एकीकरण एक सुखद आश्चर्य था। सचमुच यह एक रक्तहीन क्रांति थी। अपने इसी कारनामे के कारण वे ‘लौह-पुरुष’ कहलाए व आधुनिक भारत के निर्माता बने।

सरकार में रहकर सेवाएँ

सरकार में रहकर उन्हें तीन वर्ष ही अपने पद से सेवाएँ देने का अवसर मिला। इतने कम समय में भी उन्होने देश के लिए कई कार्य किए। गृह मंत्री के रूप में भारतीय नागरिक सेवाओं (आईसीएस) का भारतीयकरण कर इन्हे भारतीय प्रशासनिक सेवाएँ(आईएएस) बनाया। भारतीय प्रशासनिक तंत्र को नया रूप दिया, जहाँ अधिकारी सरकार व जनता के बीच की कड़ी बनकर स्वयं को जनसुरक्षा व जनकल्याण के प्रति समर्पित कर सकें। जब वे भारत के एकीकरण जैसे महान कार्य में लगे हुए थे, तब लाखों की संख्या में देश में आ रहे शरणार्थियों का उन्हे विशेष ध्यान रहता था, चाहे फिर वे हिन्दू हों या मुसलमान। अपने विभागों के अतिरिक्त नेहरूजी की विदेश यात्रा के दौरान 7 अक्टूबर 1949 से 15 नवम्बर 1949 तक उन्होने प्रधानमंत्री पद का कार्यभार भी संभाला। राष्ट्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और ईमानदारी ही सदैव उन्हें विजयमार्ग दिखाती रही।

जीवन संध्या

1948 में गांधीजी की हत्या ने सरदार पटेल को भीतर तक विचलित कर दिया। वे इतने टूट गए कि गांधीजी की मृत्यु के दो मास बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा। इतने निराश होने पर भी देश के प्रति अपने कर्तव्य को वे नहीं भूले। दिन-रात काम में लीन रहने से उनका स्वास्थ्य दिन प्रति दिन बिगड़ने लगा। आंतों की बीमारी के चलते डॉक्टरों ने उन्हें आराम करने की सलाह दी और वे बंबई आ गए। वहाँ आकर भी वे सरकारी अधिकारियों के साथ विकास कार्यों की चर्चा में लीन रहते थे। अंतिम सांस तक वे केवल देश के हित की बात ही सोचते रहे। दुर्भाग्य से 15 दिसम्बर 1950 को उनकी महान आत्मा नश्वर देह त्यागकर परमात्मा में विलीन हो गई। उनका अंतिम संस्कार राष्ट्रीय सम्मान के साथ करने का विचार था। लेकिन उनकी बेटी मणिबेन व बेटे डाह्या भाई ने कहा कि वे धरती-पुत्र थे। उनके लिए देश की एक इंच ज़मीन भी कीमती थी। इसलिए उन्होने कह रखा था कि उनकी समाधि के लिए एक इंच ज़मीन का उपयोग भी न किया जाए। अतः उनका अंतिम संस्कार एक साधारण व्यक्ति की तरह ही किसी श्मशान में किया जाना चाहिए। तब उनका अंतिम संस्कार मुंबई के सोनापुर श्मशान गृह में करने का फैसला हुआ। अंतिम समय में उनके पास केवल 260 रुपये ही थे। उनके त्याग व ईमानदारी का यह ठोस उदाहरण है।

पटेल: एक महमानव

निःसन्देह सरदार पटेल परिपक्व राष्ट्रीय-राजनैतिक सोच वाले महमानव व सदियों में जन्म लेने वाले एक बेजोड़ नेता थे।

उनकी तुलना जर्मन भाषी राज्यों का एकीकरण कर शक्तिशाली जर्मन राज्य स्थापित करने वाले नेता ‘बिस्मार्क’ से की जाती है। सरदार पटेल में चाणक्य जैसी राजनीतिक समझ व अब्राहम लिंकन जैसी देश-प्रेम को समर्पित निष्ठा थी। भारत माँ के इस सपूत को मरणोपरांत वर्ष 1991 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत-रत्न’ से सम्मानित किया गया।

यह सरदार पटेल के अद्भुत गुणों का प्रभाव ही है कि 31 अक्टूबर 2013 को सरदार पटेल के जन्मदिवस पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने पटेल की स्मृति में उनका स्मारक बनाने की घोषणा करते हुए उसका शिलान्यास किया। ‘स्टेचू ऑफ यूनिटी’ नामक यह स्मारक एक विशालकाय मूर्ति का रूप लिए होगा। 182 मीटर ऊंची इस मूर्ति का निर्माण गुजरात के ‘साधु बेट’ नामक स्थान पर किया जा रहा है।

भारत को एकजुट रखने के उनके महान ऐतिहासिक प्रयासों से प्रभावित होकर ही केंद्रीय सरकार ने 2014 में इनके जन्मदिवस 31 अक्टूबर को ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय किया है ।

मानवतावाद व राष्ट्रवाद का अनूठा संगम

वल्लभ भाई पटेल शेर जैसे निडर व साहसी थे, किन्तु हृदय में जनमानस के प्रति अपार स्नेह था। इनके बहु आयामी व्यक्तित्व के कारण इन्हें विभिन्न नाम दिये गए। किसी ने इन्हें ‘बर्फ से ढके ज्वालामुखी’ का नाम दिया तो कोई ‘लौहपुरुष’ जैसे सम्मानजनक नाम से बुलाने लगा । देखने में सौम्य व शांत, शालीनता से व्यवहार करने वाले किन्तु भीतर देश के लिए कुछ भी कर दिखाने का अदम्य साहस। उन्हें यदि मानवतावाद व राष्ट्रवाद का अनूठा संगम कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगा।

यूँ ही तो डॉ हरिवंश राय बच्चन ने उन पर ये पंक्तियाँ नहीं लिख दीं-

यही प्रसिद्ध लौह का पुरुष प्रबल,

यही प्रसिद्ध शक्ति की शिला अटल,

हिला इसे सका कभी न शत्रु दल,

पटेल पर,

स्वदेश को,

गुमान है।

सुबुद्धि उच्च शृङ्ग पर किये जगह,

हृदय गंभीर है समुद्र की तरह,

कदम छुए हुए ज़मीन की सतह,

पटेल देश का

निगहबान है।

हरेक पक्ष को पटेल तोलता,

हरेक भेद को पटेल खोलता,

दुराव या छिपाव से उसे गरज़ ?

सदा कठोर नग्न सत्य बोलता।

पटेल हिन्द की,

निडर ज़बान है।