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सात रंग के सपने

सात रंग के सपने

(मधु शर्मा कटिहा)

प्रज्ञा आजकल जब भी मिलती है एक ही बात रटती है। सोनम बड़ी हो गयी है,बस अब उसकी शादी की चिंता हो रही है। आज प्राची के घर पर महिलाओं की किट्टी थी। वहाँ भी सोनम को लेकर सबसे लड़का बताने की बात कह रही थी। सबने समझाया कि सोनम अभी बहुत छोटी है। मुश्किल से बीस साल उम्र होगी उसकी। पर प्रज्ञा के सिर पर बेटी की शादी का भूत सवार था। कोई कुछ भी कहता उसका यही जवाब होता कि क्या कर लेगी पढ़-लिख कर। मेरी तरह जी लेगी मस्ती करके। उसके पापा की तरह ही बिज़नसमैन ढूँढ देंगे। ऐश की जिंदगी जिएगी। जब नौकरी करनी ही नहीं तो पढ़ाने-लिखाने में उसका समय बर्बाद करने के बजाय हाथ पीले करके ससुराल भेज दिया जाये। प्रज्ञा को तो बेटी की शादी करके सब जिम्मेदारियों से मुक्त होकर गंगा नहाने की पड़ी थी। अब उसे कौन समझाये कि पढ़ाई करने का केवल एक कारण नौकरी करना ही नहीं होता। बच्चों के पालन-पोषण में भी पढ़ाई –लिखाई का बहुत महत्व है।

प्राची के घर किट्टी शाम तक चली। मुझे प्राची ने कुछ देर और ठहरने को कहा। मेरे पति मानव टूर पर गए थे और बच्चे भी हॉस्टल में रहकर पढ़ रहे हैं। इसलिए मेरा भी घर जाने का खास मन नहीं था। प्राची का खाना बनाने ‘मेड’, नीला आ गयी और प्राची मेरे साथ गप्पें मारने बैठ गई। नीला को चैन नहीं पड़ रहा था, अकेले किचन में। बहुत बातूनी है नीला। मुझसे बात करने में वह कुछ अधिक ही रुचि दिखा रही थी, इसका कारण भी था। नीला अपने बेटे का रिश्ता मेरे घर काम करने वाली सावित्री की बेटी से करना चाहती थी। इसके लिए वह मेरी मदद चाह रही थी। नीला का एक ही बेटा है। वह बैंक में ड्राईवर है। नौकरी पक्की है। अच्छे पैसे मिल जाते हैं। किन्तु वह देखने में कुछ खास आकर्षक नहीं है। सावित्री की बेटी नंदिनी देखने में बहुत सुंदर है। इसलिए नीला उसे अपने घर की बहू बनाना चाहती थी। सावित्री ने मेरे घर कुछ दिन पूर्व ही काम करना शुरू किया था, इसलिए मुझे उसके बारे में बहुत अधिक जानकारी न थी। इतना पता था कि उसके दो बच्चे हैं, बेटा गुजरात में नौकरी करता है और बेटी पढ़ रही है। मैंने नीला को कहा कि मैं सावित्री से इस विषय में जल्द ही बात करूँगी।

घर लौटते-लौटते मुझे रात हो गयी। सुबह आठ बजे दरवाजे की घण्टी की आवाज़ से मेरी नींद खुली। दूधवाला आया था। मैंने जल्दी-जल्दी चाय बनाई और सावित्री के आने का इंतज़ार करने लगी। सावित्री के आने का समय नौ बजे है। जब वह साढ़े नौ बजे तक भी नहीं आई तो मैंने उसे फोन करना ज़रूरी समझा। वह घर से निकल ही रही थी।

घर में घुसते ही रोज़ वह सीधा रसोई में चली जाती है, पर आज मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी। उसका उतरा चेहरा बता रहा था कि सब कुछ ठीक नहीं है।

मैंने बात शुरू करते हुए कहा, ”किसी तकलीफ़ में हो क्या सावित्री?”

सावित्री की आँखें भीग गईं। मेरी ओर देखते हुए दुखी मन से वह बोली, ”मैडम मेरे दो बच्चे हैं, बेटा गुजरात में और बेटी नंदिनी मेरे पास।“

“हाँ! ये तो तुमने मुझे बताया था। सब ठीक तो है न?” मैंने आशंकित होकर सावित्री से पूछा।

“मैडम, नंदिनी का अभी दो महीने पहले ही तो कॉलेज में दाखिला करवाया है। बारहवीं में अच्छे नंबरों से पास हुई थी। उसे पढ़ने का बहुत शौक है। पर मेरे स्वामी को किसी ने एक अमीर घर के लड़के का रिश्ता नंदिनी के लिए बताया है। मेरे स्वामी नंदिनी की शादी जल्दी करने के लिए मुझ पर दबाव डाल रहें हैं। अब आप ही बताओ कि क्या लड़की को बिना पैरों पर खड़ा किए दूसरे घर भेजना क्या अच्छी बात है?”

उसकी इतनी समझदारी से भरी बातें सुनकर मैं बेहद प्रभावित हुई। मैंने उसे विश्वास दिलाया कि उसकी इस सोच में मैं भी उसके साथ हूँ और उसके पति शमशेर के विचार बदलने की पूरी कोशिश करने आ आश्वासन भी दिया। दो-चार बातें और पूछकर मैंने उसे जल्दी से काम निबटाकर अपने घर जाने को कहा क्योंकि नंदिनी घर में अकेली उदास थी। उसने कहा कि शाम को वह अपने स्वामी को लेकर आ जाएगी। दोपहर को मानव भी लौटने वाले थे। इसलिए सोचा कि मैं और मानव मिलकर शमशेर को समझा देंगे।

मानव का ऑफिस के काम से अक्सर गाँवों में भी जाना होता रहता है। वहाँ पंचायत से मिलकर वे उनकी समस्याएँ जानते हैं। महिला पंच अधिकतर अन्य स्त्रियों के घर की समस्याएँ भी बताती हैं, क्योंकि ये समस्याएँ उनके आर्थिक व सामाजिक जीवन को प्रभावित करती हैं। मानव प्राय उनके घरों में जाकर पुरुष-वर्ग को शराब से दूर रहने, बच्चों को स्कूल भेजने व सरकारी योजनाओं से जुड़ने के लाभ बताते हैं। अतः मुझे विश्वास था कि वे शमशेर को समझाने में सफल रहेंगे।

दोपहर का भोजन करने के बाद मैं कुछ देर आराम करने लेट गयी। मन ही मन सावित्री और प्रज्ञा की तुलना करने लगी। कहाँ वह उच्च-वर्गीय समझदार समझी जाने वाली स्त्री और कहाँ यह निम्न-वर्गीय झूठे बर्तन साफ़ करके पेट भरने वाली सीधी-सादी नारी। लेकिन दोनों के बौद्धिक स्तर में कितना अंतर है। एक अपनी बेटी को पराए घर भेजकर जल्द-से-जल्द अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाना चाहती है तो दूजी आर्थिक तंगी से जूझते हुए भी बेटी को आत्मनिर्भर बनते देखना चाहती है। उच्च वर्ग के व्यक्ति की मानसिकता भी ऊंची हो ऐसा ज़रूरी नहीं है। आर्थिक रूप से पिछड़े लोग कभी-कभी ऊंचे इरादों के बावज़ूद भी आगे नहीं बढ़ पाते। मुझे शमशेर की मानसिकता बदलने की पूरी कोशिश करनी होगी। अंतरात्मा ने पूछा, “क्या प्रज्ञा को समझाना शमशेर को समझाने जितना आवश्यक नहीं है?” मेरे मन में एक विचार कौंधा। मैंने उसी समय सावित्री को फोन करके आज शाम को न आकर कल आने को कहा। अगले दिन घर पर मैंने एक ‘गैट-टुगैदर’ रख लिया और सभी मित्रों को भी फोन करके आने को कह दिया। मानव के लौटने पर मैंने उन्हें सावित्री के घर की स्थिति बता दी।

अगले दिन सावित्री सुबह से ही आकर मेरी मदद कर रही थी। अपने घर में खाना बनाकर आने को मैंने उसे मना कर दिया था। उसके पति को मैंने दोपहर का भोजन वहीं करने के बहाने बुला लिया था। दोपहर को सभी एकत्र हो गए। मैं और सावित्री रसोई में थे। मैं कटलेट बना रही थी और सावित्री चाय। मानव ने शमशेर को अपने साथ परोसने के काम में लगा लिया था। थोड़ी देर बाद हम चारों भी आकर वहीं बैठ गए।

चाय की चुस्कियों और इधर-उधर की बातों के बीच मैंने नंदिनी की योग्यता की चर्चा शुरू कर दी। मैंने बताया कि जिस कॉलेज में अच्छे-अच्छे छात्र जाने को तरसते हैं, वहाँ नंदिनी को पहली सूची में ही प्रवेश मिल गया था। उसको राज्य सरकार द्वारा मिले सम्मान के विषय में भी मैंने सबको बताया। इसके बाद मैंने सावित्री और शमशेर की प्रशंसा के पुल बांधने शुरू किए। मैंने कहा कि इनकी वजह से ही आज नंदिनी इतनी आगे बढ़ पायी है। शमशेर पहले थोड़ा लज्जित सा लग रहा था, किन्तु जब सबने एक सुर में नंदिनी के साथ-साथ उन दोनों की भी तारीफ़ की तो वह स्वयं को गौरवान्वित महसूस करने लगा। इसी बीच मानव ने गाँव की महिलाओं द्वारा सुनाये गए अनुभव सबके सामने बताने शुरू कर दिये। बेटियों का आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर होना कभी-कभी कितना कष्टप्रद हो सकता है, इसके बारे में भी उन्होने बताया। शमशेर बीच-बीच में मानव से सवाल कर रहा था। ऐसा लग रहा था कि इन बातों का उस पर सकरात्मक प्रभाव पड़ रहा है। मेरे दोस्तों में कुछ ऐसे भी थे जिनके बच्चे अभी स्कूल में पढ़ रहे थे। नंदिनी की योग्यता से वे इतने प्रभावित हुए कि अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए नंदिनी को टीचर रखने की बात सावित्री और शमशेर से करने लगे। अपनी बेटी को इतने उच्च स्थान पर देखकर शमशेर की आँखें भर आई। थोड़ी देर बाद रात होने लगी और सब अपने-अपने घर चल दिए। मुझसे विदा लेते समय प्रज्ञा के चेहरे के बदले हुए भाव भी साफ़-साफ़ दिखाई दे रहे थे। ऐसा लग रहा था कि आज की शाम ने उसे भी भीतर तक झकझोर कर रख दिया है।

अगले दिन सावित्री काम पर आई तो बहुत प्रसन्न थी। उसने बताया कि शमशेर ने अपनी इच्छा से लड़के वालों को नंदिनी की शादी के लिए मना कर दिया है और नंदिनी को आगे पढ़ाने के लिए भी वह बेहद उत्साहित है। यह सुनकर मैंने भी राहत की सांस ली।

दोपहर को शीतल ने मुझे फोन किया। वह कुछ ग़ैर-सरकारी संस्थानों के विषय में पूछ रही थी। उसने बताया कि प्रज्ञा ही यह जानकारी चाहती है। उसकी बेटी के बारहवीं में अच्छे नंबर नहीं आ पाये थे इसलिए कहीं दाख़िला नहीं हो पाया था। दो साल से घर पर खाली बैठी है। अब वह उसे किसी निजी संस्थान में प्रवेश दिलवाकर आगे पढ़ाना चाहती है। मैंने कुछ जानकारी एकत्र करके शीतल को ऐसे कई संस्थानों के नाम व ईमेल पते दे दिये। इधर नंदिनी ने उस दिन से कुछ बच्चों की अध्यापिका की भूमिका भी निभानी शुरू कर दी। मैंने मानव को धन्यवाद दिया। उनकी मदद से ही ये सब हो पाया था। वे बोले,“चलो अच्छा ही हो गया-हींग लगी न फिटकरी और रंग भी आया चोखा।“

रात हो सोने गयी तो बेटियों के भविष्य को लेकर मुझे एक सुखद अनुभूति हो रही थी। मानव से मैंने कहा, ”बेटियों को उनके अधिकार से क्यों वंचित किया जाये? उन्हे भी तो अधिकार है पढ़-लिख कर अपनी मनपसंद ज़िन्दगी जीने का। क्या उनका मन नहीं करता सात रंग के सपने देखने का?”

वे बोले,”तुम्हारा सोचना बिलकुल ठीक है। और इन सात रंग के सपनों को साकार करने का काम प्रत्येक माता-पिता का, बल्कि सारे समाज का है।“

मन कह उठा—“काश! हर बेटी के सात रंग के सपने पूरे हों।“

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