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ईदी अब्बा

सेठ ग्यान चंद्र चिकन के कारोबार के बड़े व्यापारी थे, व्यापार की अच्छी समझ थी, बाजार भाव से कम रेट पर माल बेच लेना और मुनाफा भी कमा लेना उन्हें अच्छी तरह आता था। भगवान के भक्त भी थे और द्वन्द-धन्द से काम करने में उनको कोई गुरेज़ न था। उन्नीस बीस कपडे को कम साइज का कटवाकर दो चार इंच कपडा बचा लेना, कारीगरों से कम रेट पर माल बनवा लेना उनकी फितरत थी। कपडे की कटिंग से लेकर कड़ाई धुलाई प्रेस आदि में हिसाब करते वक़्त कुछ न कुछ काट लेने में उन्हें महारत हासिल थी, क्योंकि काम में कोई न कोई कमी दिखाकर उसका पैसा ज़रूर काटते थे।
पेमेंट भी नगद न करके पर्ची से हफ्ते दो हफ्ते बाद ही करते थे। बाजार में साख थी तो कोई भी दुकानदार २% कमीशन काटकर कारीगरों को पेमेंट कर देता था और लिखित तारीक पर ग्यान बाबू से पर्ची दिखाकर नगद पेमेंट हो जाता था। यह २% कमीशन भी बाहर वाला न ले जाये इसके लिए उन्होंने अपनी बीवी को लगा रखा था। कारीगरों को रोज़ पैसा चाहिए इसलिए हिसाब के बाद वह अक्सर भाभी जी से पेमेंट नगद प्राप्त करके २% उन्हें दे देते थे। इसके विपरीत ग्यान बाबू के चाचा सभी काम ईमानदारी से करते थे, थोड़ी बहुत गड़बड़ी या कमी को वह चला ले जाते थे। चूँकि उनके चाचा बगल में ही दुकान किये थे और ज्ञान बाबू उनके व्यवहार से जलते थे इसलिए उनसे बोलचाल नही थी। कभी-कभार ग्यान बाबू के तमाशे से परेशान होकर उन्हें समझते तो यह कहकर ग्यान उन्हें झिड़क देते के अपना काम करिये, मुझे अपना अच्छा बुरा पता है, चाचा अपना सा मुँह लेकर रह जाते। युसूफ धोबी भी चाचा के यहाँ काम बनाता था, पर चाचा के यहाँ आर्डर काम पड़ जाने पर वह ज्ञान का भी काम ले लेता था,क्योंकि ग्यान के पास काम की कमी न थी पुरे सल उसका काम बनता रहता था। ग्यान चाहता था जो मेरा काम करे वह चाचा का न करे, उसके इसी झगड़ालू स्वभाव के चलते युसुफ़ ने चाचा से माफ़ी मांग ली थी। हालाँकि उसे चाचा से कोई शिकायत न थी न पैसे में कमी न काम में मीन मेख की। ग्यान बाबू का काम तमाम दुश्वारियों के बावजूद कारीगर बनाते थे। वह मुनाफा कम काम ज़्यदा वाली नीति अपनाये थे इसलिए उन्हें पोरे सल पैसा मिलता रहता था।
रमज़ान शुरू हो चुके थे कारीगर धड़ाधड़ काम ले जाते थे और बना बना कर जमा कर रहे थे, चूँकि अधिकतर कारीगर मुस्लिम थे इसलिए घरभर जुटकर ईद की तयारियों का प्रबंध कर रहा था। चूँकि मेहनत-मज़दूरी करने वाले रोज़ा नही रख पाते इसलिए धार्मिक दृष्टि से धर्म ने उन्हें कुछ सहूलियत दे रखी हैं। रोज़ कमाने रोज़ खाने वाला अपने परिवार को दो जून की रोटी ही खिला दे उसका रोज़ा पूरा हो गया। घरों में इस समय ख़ुशी का माहौल रहता है, युसूफ भी जी-जान से जुटा था। इस समय एक आध पीस ख़राब भी हो होता तो वो परवाह न करता था। उसे तो माल तैयार करके जमा करने की लगी रहती थी। हिसाब तो चाँद रात में ही होना है वह भी एक मुश्त नगद पेमेंट। गरीब लोग अमीरों की तरह पहले से कोई खरीदारी नही कर पाते वह तो चाँद रात में ही नए कपडे सिवईं मिठाई खोवा आदि न जाने क्या क्या खरीदते हैं। पूरे शहर में भीड़भाड़ वाला माहौल होता है, रात भर बाजार खुलते है और सुबह होने पर ही बंद होते है, और उसके बाद नहा-धोकर नमाज़ आदि की तैयारियां शुरू हो जाती है।युसूफ मियां ग्यान बाबू के पास बैठे हिसाब-किताब करवा रहे थे क्योंकि चाँद निकलने का एलान जो हो चूका था। ग्यान बाबू भी कम शातिर नही थे कुछ न कुछ कटिंग ईद की बिरयानी के नाम पर कर चुके थे। बात एक आइटम के गंदे रहने पर भङक जाती है। वह पचास पीस की मज़दूरी काट रहे थे जबकि दो चार पीस ही ऐसे थे। युसूफ ने बहुत अनुनय-विनय की पर ग्यान बाबू न पसीजे,"ईद बाद दोबारा साफ कर दूंगा" कहने पर ग्यान बाबू का यह जवाब था कल परसो माल पैक होना है और तुम हफ्ते तो हफ्ते तक तो ईद ही मानते रहोगे, मेरा तो आर्डर कैंसिल हो जायेगा, मेरे नुकसान से तुम्हे क्या लेना देना, तुम तो अपना पैसा लेकर मौज में लग जाओगे। बात बढ़ते बढ़ते युसूफ से भविष्य में काम न करवाने पर आ जाती है। युसूफ को यह सब बड़ा बकवास लग रहा था। उसे घर पर इंतज़ार कर रहे बीवी बच्चो का ख्याल सत्ता रहा था। वह चाहता था ग्यान बाबू जल्दी पैसा दें और वह खरीदारी पर निकले, इसी उलझन में उसके मूह से निकल गया "हाँ मत करवाना" युसूफ के इतना कहते ही ग्यान बाबू आपे से बहार हो गए और अनाप शनाप बकने लगे । युसूफ को भी यह अफ़सोस हुआ खुवामखाह मैं यह क्या बोल गया। अभी पूरा हिसाब करके देता हूँ कहकर खाता निकाला और पुराने बाकि लिखे पांच हज़ार काटकर तुरंत तीन हज़ार हाथ पर रख दिए। अब युसूफ को काटो तो खून नही, बहुत गिड़गिड़ाया पर ग्यान बाबू हाथ बांधकर चुप बैठ गए। युसूफ ने सोचा तीन हज़ार में क्या बनेगा दस बारह हज़ार के खर्चे में, घर पर रक्खे तीन हज़ार भी मिला दें तो बच्चों के कपडे आदि में चूक जायेगे, बाकि का इंतेज़ाम कहाँ से होगा। सिवई मेवा चावल ईधन आदि का भी तो प्रबंध करना है, बहनो रिश्तेदारों के यहाँ भी तो भिजवाना है। ग्यान बाबू ने तंत्रा तोड़ी और कहा अब जाओ दुकान बंद होने जा रही है, बोझिल मन से युसूफ मियां तीन हज़ार रुपये हाथ में ही लिए धीमी गति से चले जा रहे हैं, दुआ सलाम तो करना जैसे भूल ही गए हैं ईद की मुबारकबाद लेना-देना तो उन्हें आ ही नही रहा है, सिर्फ घर पर बीवी बच्चों का ख्याल ही दिल को घबड़ा रहा है। हज़ारों ख्याल दिल में आ जा रहे हैं, कभी सोचते मामू से मांग लूंगा, कभी चाचा से, कभी बहनो से, इस आड़े वक़्त मांग लेने में हर्ज ही क्या है? फिर सोचते कौन देगा इस वक़्त सभी का तो त्यौहार है। रस्ते में कई दुकानदार जानने वाले मिले पर नहीं माँगा सोचा क्या पता न दें तो बड़ी बेइज़्ज़ती होगी। पास अगर पैसा है तो जानने वालों से झूटों ही मांग लो तो उम्मीद से ज़्यादा मिल जाता है, न होने पर यह सवाल आता है की क्या सोचेंगे वह, इतना बड़ा त्यौहार सर पर है पैसों का कोई इंतेज़ाम नहीं है, क्या इतने दिन मस्ती ही करते रहे? मांगने पर न दें तो क्या फ़ायदा अपना रोना भी रोया और काम भी न बना। इस उलझन में पड़ने से अच्छा है घर चलो वहीँ सोचेंगे, घर पर मुहफट्ट झगड़ालू बीवी नफीसा का ख्याल आते ही कलेजा मुँह को आ गया। सोचा उसके बोलने से पहले ही दुकानदार को गलियां देना शुरू कर दूंगा, तो कुछ ठंडी पडेगी, बच्चों और बीवी के कपडे सस्ते खरीद लूंगा, अपने और अम्मी अब्बा के पुराने ही चल जायेगे, उन्हें कहाँ जाना है बाकि सुबह देखा जायेगा। हो सकता है कोई खुदा का बंदे ही मिल जाये रात में अथवा कोई रिश्तेदार ही मदद करदे कोई न कोई को रात भर में यदा कर ही लूंगा।इसी उधेड़बुन में सबको लेकर बाजार पहुचे और खरीदारी शुरू की, बच्चो ने तो पहले खाने पिने का सिलसिला शुरू कर दिया। अपनी परेशानी छुपाकर किसी को मना नहीं किया खुशी-खुशी सबको खाने का सामान दिलवाने लगे, हाँ जो महंगी चीज़ देखते उसे बुरा एवं बासी बताकर आगे बढ़ जाते और समझते इस वक़्त ख़राब खालोगे तो बीमार पड़ जाओगे और फिर त्यौहार कैसे मनाओगे? बीवी हैरान कि पैसा पास नहीं, खर्च साहूकारों वाला,वह बेकूफ़ क्या जाने? युसूफ मियां अपनी बजट के अंदर ही खर्च कर रहे थे। इसी बीच माथे पर तिलक लगाए किसी व्यक्ति ने आवाज़ दी,"युसूफ मियां क्या हो रहा है, खरीदारी हो रही है" कहकर बच्चों के गालों को सहलाया और पूछा "मिठाइयाँ चल रही हैं"। पलट कर युसूफ ने देखा रमेश चाचा मुस्कुरा रहे थे। युसूफ ने सोचा अभी शाम को ही इनके भतीजे से बकबक हुई है, क्या पता उसी के बारे में बातें करने लगें और न जाने क्या क्या पूछने लगें, कहीं नफीसा ने सुन लिया तो उसकी आफत कर देगी। युसुफ ने धीरे से सलाम किया और बच्चों की तरह देखने लगा। नफीसा आगे ठेले पर कपडे देख रही थी पलटी तो देखा बच्चे खाने में मस्त हैं और एक तिलक लगाए व्यक्ति युसूफ से बातें करता हुआ किनारे ले जा रहा है। युसुफ ने बच्चों से वहीँ रुकने को कहा और रमेश चाचा साथ चल पड़ा। आनन-फानन रमेश रमेश बाबू ने सौ रुपये की नई गड्डी निकली और तेज़ी से युसूफ को पकड़ाई, यह लो ईदी और बोले ईद मुबारक, यह है बीवी बच्चो की ईदी, यह ईदी दे रहा हूँ कर्ज़ा नहीं, सिवइयां लेकर आना वरना अच्छा न होगा। आखिरी शब्द "सिवईयां लेकर आना वर्ना अच्छा न होगा" ही नफीसा सुन पायी बाकि उसने कुछ न देखा था और न सुना था, वह तो बच्चो को अकेला देखकर युसूफ को ढूंढ़ती उधर आ गयी थी। रमेश बाबू तब तक आँखों से ओझल हो चुके थे, नफीसा के पूछने पर युसूफ ने इतना ही कहा "था कोई खुदा का बंदे मैं नहीं जनता" उस रात तो खूब जमकर खरीदारी हुई, सुबह भुरारे घर पहुँचकर नमाज़ आदि के बाद नफीसा से सब सच-सच बता दिया। तीन दिन बाद नफीसा युसुफ के साथ रमेश बाबू के घर पहुंची, आदाब किया और बोली "बाबू जी मैंने अपनी जान मे शुद्ध तरीके से सिवईयां बनायीं हैं, (यह बात उसने यह सोचकर कही की तिलक आदि से वह पंडित लग रहे थे, क्या पता खाये न खाये) और आपको मेरे सामने इन्हे खाना होगा,"वर्ना अच्छा न होगा" क्योंकि सिवईयां खिलने आना तो बहाना है, मैं देखने चाहती थी "खुदा का बंदे होता कैसा है"? हाज़िर जवाब रमेश बाबू ने "वर्ना अच्छा न होगा" शब्द सुनकर सारा माजरा समझ लिया और डिब्बा खोलकर चम्मच से सिवइयां खाते हुए बोले "दुल्हन! धमकी के आगे तो भूत भाग जाते हैं, फिर इस बूढ़े श्वसुर की क्या हैसियत। नफीसा गद-गद हो गयी और आँखों से झर-झर आंसू बहने लगे, युसूफ सोचने लगे मुहफट्ट झगड़ालू लोगों का दिल क्या इतना कोमल होता है। युसूफ रमेश बाबू को अब "ई दीबा" कहकर सलाम करता है, रमेश बाबू भी मुस्कुरा कर उसका सलाम क़ुबूल करते हैं। ग्यान बाबू समेत कोई दुकानदार इसका रहस्य नही जनता,लाख पुच्छने पर वह सिर्फ मुस्कुरा कर टाल जाता है। कहता तो वह "ईदी अब्बा" ही है, पर मुँह से "ईदी बा" ही है। युसुफ नफीसा और रमेश बाबू के सीने में यह रहस्य दफ़न है। नफीसा अब इस दुनिया में नहीं है, रमेश बाबू भी स्वर्ग सिधार चुके हैं, चूँकि रमेश बाबू की तीन लड़कियां थीं, कोई लड़का न था इसलिए उनको पंचागिन दी गयी थी (पांच लोगो दुवारा आग देना) उन पांच लोगो में युसूफ भी था।।

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