कृति
- आनन्द सहोदर
1
यह माना झूठ है अन्याय अत्याचार है,
स्वयं ही दुखी जो कर रहा व्यभिचार है।
तुम्हारी वेदना के लिए मेरा प्रबल सिद्धांत है,
सहारा धर्म जीवन सुखी का मार्ग है ।।
2
बचन धर्म की ग्लानी अति जब पायेगी,
बचन है सत्य की आभा चली जब जाएगी ।
मैं आउंगा पुनः उस रूप कल्की अवतरण में,
युगों के सत्य का तब ही करुंगा अवतरण में ।।
3
मानव हो स्वयं तुम भी अभी इतने प्रबल,
तुम्हारे ही दिलों की आग में जलती अनल।
तुम्हारे प्रेम में इतना है रस बाकी अभी,
अमृत भी नहीं जितना अमर उतना सरस ।।
4
कहा है इस महा कलयुग में इतने कष्ट हैं,
स्वार्थ की ही नदी में डूबते स्पष्ट हैं।
भवसागर में कितनी उछालें भर गया,
जीते जी अमर तू आज कैसे मर गया ।।
5
तुम्हारी वेदना को समझकर आज मैंने ,
न जाने द्वार कितने धर्म के खोले सभी ।
मैं माना आउंगा युग अंत में तो क्या हुआ,
तुम्हारी आत्मा में मेरी आभा है अभी ।।
6
तुम्हारा प्रेम ही बेचैन करता है मुझे ,
तुम्हारा प्रेम ही सर्वत्र प्रकट करता मुझे ।
तुम्हारी लोकसेवा ही तो मेरी साधना है,
तुम्हारा प्रेम ही मेरी सही आराधना है ।।
7
तुम्हारी भक्ति के कारण विवश मैं हो गया हूं ,
तभी तो ज्ञान गीता का तुम्हें मैं दे गया हूं ।
न पाना तुम कभी मेरी कमी एकांत में भी ,
नियंता बन के बैठा हूं तुम्हारी बुद्धि में भी ।।
8
तुम्हारी उस गुफा में भी तो मेरा बास है,
जहां से शेष सीधा चूमता आकाश है।
सागर ले रहा कितनी हिलोरें देख लो,
कभी सोते से मुझको भी जगाकर देख लो ।।
9
करुणा सिंधु हूं यह विन्दु मेरे देखलो ,
कितना हूं निकट अपने हृदय में देखलो।
तुम्हारे प्रेम के कारण विवश हो जाऊंगा ,
हर पल हर समय में मैं प्रकट हो जाऊंगा ।।
10
जीवन और मरण का चक्र तो चल रहा है,
तू भौतिक है नहीं जो समझता ही रहा है ।
तू मेरा अंश अविनाशी सदा से है अमर ,
कि निर्भर हो अभी इसको समझ कर ।।
1 1
किसी में जागता हूं जब मैं आधी रात भी,
भरता हूं उसे आनंदमय इतिहास को भी।
मुझसे भी बड़ा है भक्त मेरा भी सदा से ,
हृदय में लेने लगता हूं उछालें वंदना से ।।
12
तुम्हारे आंसुओं की धार में मैं वह रहा हूँ ,
तुम्हारे तेज़ में वाणी में मैं ही बस रहा हूँ।
न पहचाना मुझे तो बैठजा चुपचाप होकर ,
स्वयं अनुभव में आ जाऊंगा मैं भी शांत होकर ।।
13
तेरा आचरण मेरा सदा से ही रहा है,
नर लीला के पीछे ध्येय तो यही रहा है ।
धर्म के लिए मैंने सदा से ही लिया अवतार,
अनीति से निपटने के लिए तू भी तो कर कुछ बार ।।
14
शांति के स्वप्न को तुमने सदा संग्राम तक ,
मैंने टालना चाहा सदा विश्राम तक ।
रोको उस घड़ी को ना मुझे आना पड़े
लेने दो उछालें मुझको अपने उर बसे ।।
15
तुमने सोचा द्वापर में मैं मर गया था ,
तुम्हारे ही मैं बुद्ध गांधी बन गया था ।
नियति के चक्र को मैं बींधता अवतार लूंगा ,
तुम्हारे ही लिए मैं हाथ में तलवार लूंगा ।।
16
तुम्हारी हर तड़प को मैंने समझा है निकट से ,
तू माया मोह में भूला रहा मुझको सदा से ।
मैं त्याग हूं आदर्श हूं उपकार हूं ,
मैं चिंतन हूं चिरंतर हूं सुविचार हूं ।।
17
मुझे जो जानते है वे तुझे भी बतला देगे ,
शीतल काष्ट में भी ज्वाला तुमको दिखला देंगे ।
मैं हूं दृश्य में अदृश्य में मानव पशु में ,
मैं ही खेलता रहता अणु परमाणुओं में ।।
18
मुझको ही चराचर में सदा से देखले तू ,
तम में मैं चमक में हर जगह हूं ।
ग्रह नक्षत्र लोको में चमकता हूं ,
प्रेम बस में हृदय में भी तड़पता हूं ।।
19
स्वयं ही बुने इस जाल में तू फस रहा है ,
मोह के बंधनों में तू स्वयं को कस रहा है ।
तेरे हर कष्ट को मैं स्वयं ही उठा लूंगा ,
शरण आने पर तुझको सदा आनंद दूंगा ।।
20
पथ कितना सरल सादा सदा से ही खुला ,
मद में चूर होकर न स्वयं को तू भुला ।
न तू परवाह कर संसार के व्यापार की ,
तुझे तो प्यास है बस प्रेम के व्यवहार की ।।
21
तू घर में रहना या जंगल में कहीं भी ,
लय मुझमें लगा के देखले सबमें मुझे ही ।
सभी से नम्र निष्ठा प्रेम का व्यवहार कर ले ,
किसी के दर्द में दो-चार आंहे तू भी भरले ।।
22
धरा के भार को हरने ही मेरा अवतरण है ,
स्वर्ग धरती बना दो हर दिलों में संचरण हैं ।
न कुछ विपरीत कर स्वयं के आचरण में ,
सदा ये सोच ले तू है प्रभु की ही शरण में ।।
23
कृति यह कर्म की अवतार का उद्देश्य है ,
जहां अवतार लूंगा प्यारा भारत देश है ।
अगर तू जानता है मानता है मुझे भी ,
सारे सद्गुणों को आचरण में ला अभी ।।
24
हो कर मुक्त तू सानिध्य मेरा पाएगा ,
मेरे अवतार सा तू भी प्रकट हो जाएगा ।
कर्म निष्कामता का भाव लेकर कर सदा ,
पुण्य पुरुषार्थ करके तू भी बन मानव महा ।।
25
जिस पथ जाएगा बन जाएगा वह ही श्रुति,
तेरे कर्म करने की यही सुंदर कृति।
न्याय की नीति की आचरण की ,
तेरी गाथा पुराणों सी लगेगी स्मृति ।।
26
सृष्टि के आदि में संकल्प मैंने भी लिया था ,
पुण्य परमार्थ को शंकर ने विष भी पिया था ।
शिवि हरिश्चंद्र ने न्याय सत्य के लिए ,
ऋषि दधीचि ने दान में अस्थि दिए ।।.
27
प्याला पी गया सुकरात विष का भरा ,
अमर मीरा हुई उसको भी पी कर के जरा ।
विषमता के गरल को तू पचा भी जाएगा ,
प्रेम से तू प्रभु की जब शरण में आएगा ।।
28
नाचना चाहे तो तू भी भजन में नाचले ,
प्रेम से नाम गुण और कीर्ति को तू बांचले ।
भला संसार का ऐसे ही लोगों ने किया है ,
विषमता से भरा प्याला उन्होंने ही पिया है ।।
29
देश की धर्म की रक्षा का संकल्प कर ,
धर्म के भार को कुछ तो वहन कर ।
'सहोदर' नाम तेरा भी अमर हो जाएगा ,
अरे तो क्या हुआ संसार से चला जाएगा ।।
30
समय की साधना में सफल हो जाएगा ,
मान सम्मान में तू सम सदा रह जाएगा ।
दृष्टि बस एक मुझमें ही रहेगी ,
कामना लेश भर भी न रहेगी ।।
31
सुखों के और दुखों के जाल में तू ,
पड़ेगा ना कभी भ्रमजाल में तू ।
तभी अपूर्ण तू भी पूर्ण होगा ,
तभी आनंद परमानन्द होगा ।।
32
वंदना जप करो पूजन करो अर्चन करो ,
सभी की आत्माओं में सदा दर्शन करो ।
अहंता द्वेष दारिद दंभ त्यागो ,
अरे संसार से वैराग्य ले लो ।।
- मधुसूदनगढ़, जिला - गुना (मध्यप्रदेश)
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