ज़ेबा Ravi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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ज़ेबा

प्रस्तावना

"लड़की होकर मुशायरा सुनती हो" हज़ार बार सुन चुकी ज़ेबा पर अब असर नहीं होता। उसी की कौम के दिए हुए एक तोहफ़े में उसे कई बार यह सुनना पड़ता। फिर ग़ज़ल को भी एक सफर तय करना पड़ा है। मोहल्ले में कई मुशायरे होते, ज़ेबा सबसे आगे बैठती। उसकी सुनने की चाहत के आगे यह भी एक अजीब और सब्र की बात है कि ज़ेबा लिखती नहीं है।

अब्बा के इंतकाल और अम्मी के बिखरने ने उसे खामोश कर दिया था। सिर्फ मेट्रिक तक की पढ़ाई उस तक पहुँच सकी। अम्मी के काम में अपना हंसकर दखल देना। उसे पूरा करना। फिर नए काम में लग जाना। ज़ेबा अपनी ज़िंदगी से खुश तो है, लेकिन वो पूर्णता की ओर खुद ही जाना नहीं चाहती। अपने हाल पर जीना चाहती है।

फ़राज़ एक पच्चीस बरस का लड़का हैं। ज़ेबा से दो बरस आगे। दोनों को तीन बरस पहले नज़दीक फूलों की दूकान पर एक दूसरे से इश्क़ हो गया था। फ़राज़ एक अभिनेता बनना चाहता हैं। अठारह बरस की उम्र में उसके अब्बा उसे हिंदुस्तान छोड़ गए थे। लाहौर में जन्मे फ़राज़ को दोनों मुल्कों से बेइंतेहा मोहब्बत हैं। इस कहानी को हम ज़ेबा की नज़रों से देखेंगे।

***

1 दिल्ली

"ज़ेबा ज़रा कान खुले रखा करों" अम्मी की आवाज़ सुनाई पड़ी। दरवाज़े पर फ़राज़ खड़े थे। जो अम्मी से मिल चुके थे और हमे न जाने कितनी बार पुकार चुके थे। हमे याद हैं अम्मी ने हमसे ये तक सवाल नहीं किया था कि फ़राज़ का काम क्या हैं, या कहाँ से आया और कहाँ रहता हैं। उन्होंने तो बस हमे दुआएं दी थी। हम गली से कुछ दूर आ गए। हमारी गलियों में हमेशा मीठी खुशबुएँ आती हैं। और तरह-तरह के इत्र की खुशबु। यहाँ सारे चेहरे खुश दिखाई देते हैं। हम कुछ दूर आकर बैठ गए।

इस वक्त हम फ़राज़ से इस लिए नाराज़ हैं कि वो अम्मी से हमारे निकाह की बात क्यों नहीं करते।

"ज़ेबा! आप भी तो कह सकती हैं न अम्मी से" फ़राज़ ने कहा।

"हमारे और आपके कहने में फर्क हैं" हमने कहा।

"ज़ेबा...ज़ेबा सुनो न आप कितनी खूबसूरत हैं..."

"हमे मनाने की कोशिश ना करे" हमने कहा।

"चलिए कल हम बात कर लेंगे" फ़राज़ ने कहा।

"और कल भी नहीं कहा तब?" हमने पूछा।

"तो आप जो सजा दोगे हुस्न हाज़िर हैं"

और हम दोनों हँस पड़े।

फिर फ़राज़ दूर जाकर कुछ सोचने लगा। हमने जब पूछा तो कहा।

"हमे बीस हज़ार रुपयों की ज़रूरत हैं। एक एक्टिंग स्कूल में जमा करना हैं। फ़िलहाल कोई काम भी नहीं हैं।"

"मेरे अल्लाह! बस इतनी सी बात। तो, हम किस दिन काम आएंगे" हमने कहा।

"हम आपसे पैसे नहीं ले सकते" फ़राज़ ने कहा।

"क्यों नहीं ले सकते हम तो पहली दफ़ा ही आपकी मदत कर रहे हैं,

कब चाहिये पैसे" हमने पूछा।

"शाम को"

हम अम्मी से कह ही नहीं पा रहे थे। और कहते भी कैसे हमारे हालात उतने अच्छे नहीं थे। सुबह फ़राज़ सच में इतने सदमे में था कि उसने हमसे पूछा ही नहीं कि हम रुपयों का इंतजाम कहाँ से करेंगे। हमने होसला रख कह ही दिया।

“अम्मी..वो! हमे..मतलब फ़राज़ को बीस हज़ार रुपयों की ज़रूरत है, क्या हम उसकी मदत कर सकते हैं?" हमने कहा।

“ज़ेबा तुम्हे पता ही है हमारी कमाई कितनी हैं। लोगों के घर की साफ़-सफाई और एक छोटी किराने की दूकान से हम ज़्यादा नहीं कमा पाते। लेकिन तुम्हे कभी किसी बात के लिए ना नहीं कहा, हमारे पास अलमारी में कुछ पुराने ज़ेवरात रखे हैं, जो पचास हज़ार के है तुम्हे जितनो की ज़रूरत हो ले सकती हो”

अम्मी ने कहा और चाबी हमारे हाथों में देदी। हमने अम्मी को गले लगा लिया। हमे अब बाज़ार जाकर फ़राज़ के पास जाना था।

“आप कितनी प्यारी है” फ़राज़ ने कहा।

“अब आपका काम हो जाएगा न” हमने पूछा।

“ज़रूर हो जाएगा”

“बस हम जल्द ही एक स्टार बन जायेंगे, सुपर-स्टार, फिर देखना हम आपको शहज़ादी की तरह रखेंगे।“ फ़राज़ ने कहा “वैसे आपका भी कुछ ख़्वाब रहा होगा। या अभी होगा” फ़राज़ ने पूछा।

“हमे तो पढ़-लिखकर कुछ बनना था। लेकिन ज़्यादा पढ़ नहीं सके। फिर अम्मी ने अपने साथ हमे भी लगा लिया काम पर” हमने कहा।

“आप भी फिल्मों में काम कर सकती हो, इतना खुबसूरत चेहरा दिया है अल्लाह ने आपको" फ़राज़ ने कहा।

“हम और एक्टिंग! रहने दीजिये हमसे ये सब नहीं होगा”

“क्यूँ नहीं होगा, देखों ज़ेबा आप खुबसूरत भी हैं और आपको..हमे पैसों की ज़रूरत भी है, हम दोनों मिलकर काम करेंगे। आपकी अम्मी और हम आगे की जिंदगी ख़ुशी से जी पाएंगे।“ फ़राज़ ने अपनी बात पूरी की।

“अम्मी हमे कभी इजाज़त नहीं देगी” हमने कहा।

“अम्मी से हम बात करेंगे, आप फ़िक्र न करे” फ़राज़ ने कहा।

“फ़राज़ हमे ये काम बिलकुल नहीं आता”

“ज़ेबा हमे देखों, इन आँखों में देखों...हम आपको सब कुछ सिखा देंगे। अब बस मन बना लीजिये ये सब करने का” फ़राज़ ने कहा।

हमारा मुस्कुराना मतलब हां था।

“हमे आप पर भरोसा है फ़राज़” हमने कहा।

"देखो ज़ेबा हमने आज तक किसी चीज के लिए ना नहीं कहा, और न आज कहेंगे" अम्मी ने अपनी बात खत्म की।

"अम्मी हम ज़िद नहीं करेंगे। जैसा आप...."

"मैं मना नहीं कर रही हूं बेटा, हमे भरोसा है तुम उस जगह जाकर अपना नाम बनाओगी।" अम्मी ने कहा।

"अम्मी! हम ऐसा कोई भी काम नहीं करेंगे जिससे आपको तोहमत झेलना पड़े" हमने कहा।

"मेरी प्यारी बच्ची" अम्मी ने हमे गले लगा लिया। तभी फ़राज़ हमारे घर आए।

"लगता है अम्मी को आपने मना लिया" फ़राज़ ने कहा। हमने मुस्कुराकर अम्मी की ओर देखा।

"ज़ेबा! हमे कल ही मुम्बई जाना होगा।" फ़राज़ ने कहा। और कुछ देर खामोशी छाई रही।

"क्या यहां दिल्ली में रहकर यह सब नहीं किया जा सकता" अम्मी ने कहा।

"यहाँ काम मिलना मुश्किल है अम्मी। हमे मुम्बई जाना ही होगा। और फिर एक-न-एक दिन हमें वहां जाना ही पड़ेगा।"

फ़राज़ ने अपनी बात पूरी की। लेकिन वो हमें फिर किसी ख्याल में खोया हुआ नज़र आया।

"क्या बात है फ़राज़! सब खैर से है न?" हमने पूछा।

"वो..." फ़राज़ हमारी ओर मुड़ा "हम वहां किस जगह रहेंगे, हमारे पास तो रुपये ही नहीं है" फ़राज़ ने कहा।

"तुम दोनों रुपयों की फिक्र मत करो।" अम्मी ने कहा। "जाओ और अपना और हमारी कौम का खूब नाम करो। अल्लाह हमेशा तुम्हारे साथ है।"

हम और फ़राज़ कुछ कह तो न सके, अम्मी से जाकर लिपट ज़रूर गए। अम्मी, अब्बा की ही तरह है। जो हमे किसी बात के लिए ना नहीं कहते थे। हमारा मन अम्मी से दूर जाने को नहीं करता। लेकिन फ़राज़ भी तो ये सब हमारे लिए ही कर रहे है। हम घर के बाहर आए। हमारी आंखों में आंसू थे। हमने कुछ देर फ़राज़ की आंखों में देखा, और उनके गले लग गए।

हमने मुम्बई में एक किराये का घर लिया। जिसमें दो कमरे, वाशरूम, और एक छोटी बालकनी है। हमे किराये की जगह ढूंढने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। एक ऐसा शहर जो लगातार दौड़ रहा है। यहां के लोग केवल अपनी ज़िंदगी जीना चाहते है। हम उस मुम्बई में है,जहां हर रोज सैकड़ों लोग कुछ बनने का ख्वाब साथ लेकर आते हैं।

फ़राज़ हमे फिल्मों की शूटिंग दिखाने ले जाते। फ़राज़ की कुछ लोगों से जान-पहचान है। पर उतनी नहीं कि वो लोग फ़राज़ को कुछ काम देदे। शायद वो लोग हर अनजान इंसान से भी इसी तरह मिलते है। फ़राज़ केवल उन लोगों के इर्दगिर्द मंडराते रहते थे। हम इसी तरह हर रोज शूटिंग देखने जाते। फ़राज़ कभी कहते कि कल काम मिलेगा, कभी कहते कि अगले महीने मिलेगा।

एक शूटिंग देखने के बाद हम खाना खाने के लिए। एक छोटे होटल में पहुँचे।

"फ़राज़ हमने सही फ़ैसला तो किया है न?" हमने कहा।

"एक दम सही फैसला है ज़ेबा! और आप फिक्र छोड़ो। सिर्फ कुछ दिनों की बात है। हमे जल्द ही काम मिलने लगेगा। यहां बस थोड़ा सा स्ट्रगल करना पड़ता है। फिर पूरी ज़िंदगी आराम से गुजरती है।" फ़राज़ ने कहा।

"लेकिन पता नहीं हमे यहां ठीक महसूस नहीं हो रहा। हमे अपने घर की याद आ रहीं है रह-रहकर।" हमने कहा।

"ज़ेबा! हम है न आपके साथ। कुछ दिनों बाद यहां की आदत हो जाएगी। फिर देखना कैसे आपको इस शहर में मजा आने लगेगा।" फ़राज़ ने कहा।

हमने कुछ नहीं कहा। खाना खाकर हम अपने रूम पर आए।

फ़राज़ और पैसों के इंतजाम के बारे में सोच रहे है। शायद हमारा दिमाग थका हुआ है। इतनी उलझनों में भी हमारी आंख लग गई।

अगले दिन

हमारी आंखें खुली, हम मुम्बई के एक अस्पताल में थे। पिछली रात हमारे रूम में कुछ लोग आए थे। जिन्होंने हमपर हमला किया था। और अभी हमे मालूम हुआ कि हमारे रूम से सारा पैसा चोरी हो गया। हमे आस-पास के कुछ लोगों ने अस्पताल पहुँचाया। हमे सिर पर एक जगह चोट आई है। फ़राज़ के एक हाथ में पट्टी बंधी है।

वो लोग कौन थे और हमसे क्या चाहते है। यह अभी पता नहीं चल सका। हमसे पूछताछ करने के बाद पुलिस ने हमे अपने रूम पर छोड़ दिया। उन्होंने रिपोर्ट दर्ज करना ज़रूरी नहीं समझा। हम अपने रूम पर पहुँचे।

"ज़ेबा! हमे कुछ पैसों का इंतज़ाम करना होगा।"

"कहाँ से करेंगे फ़राज़। हमे यहां कुछ ठीक नहीं लग रहा। हम अपने घर लौटना चाहते है।" हमने कहा।

"ज़ेबा! हमपर यकीन रखो। सब ठीक होगा। कुछ दिनों की बात है सिर्फ। और पैसों की फिक्र मत करो। हम कुछ करते है।" फ़राज़ ने कहा।

"क्या करेंगे फ़राज़ आप! आप भी तो मज़बूर है। उसपर हम आपके सिर का बोझ बने हुए है।"

"आप बोझ नहीं हो आप छोटी सी पूड़ियाँ हो। बेहद हल्की सी।" फ़राज़ ने हमे छेड़ते हुए कहा। "हम अभी आते है ज़ेबा" फ़राज़ जाते हुए बोले।

"लेकिन कहाँ जा रहे है आप"

"हम कुछ रुपयों का इंतज़ाम करके आते है। यहां एक दोस्त का दोस्त है। शायद वो कुछ मदत कर दे।" फ़राज़ रूम से निकल गए।

"ज़ेबा! ज़्यादा पैसो का इंतज़ाम तो नहीं हो पाया। लेकिन ये पांच हज़ार रुपये हमने जमा कर ही लिए।" फ़राज़ ने कहा और हमारे हाथों में पांच हज़ार रुपये रख दिए। अचानक हमारा सिर चकराया हमे फ़राज़ ने थाम लिया और अंदर लाकर लेटा दिया। "हमारा सिर फटा जा रहा है" हमने दवाई ली और सो गए।

जागने पर फ़राज़ हमारे नज़दीक ही थे। हम कुछ घंटे सोकर जागे थे।

"फ़राज़ आपने उन पांच हज़ार रुपयों का इंतज़ार कहां से किया।" हमने मुस्कुराकर पूछा।

"वो.… आपको बताया था हमारे एक दोस्त...." फ़राज़ ने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि हमने उसे एक तमाचा रसीद कर दिया।

"क्या था ये....क्या कर रही हो...." फ़राज़ चिल्लाया।

"वो हमारे ही नोट है फ़राज़! हमने पर्स में रखे थे। और उसी पर्स में हमारा इत्र भी था," हमने नोटों को उसके मुंह पर फेंका। "लो सुंघलो" फ़राज़ खामोश रहा।

"फ़राज़ हम.… हम आपको माफ़ कर देंगे, आप सच-सच बताइये आपने ऐसा क्यूं किया।" हमने कहा।

"हमे रुपयों की ज़रूरत थी"

"फ़राज़ हम दोनों को इस वक्त रुपयों की ज़रूरत है, ये सब क्या था।" हमने कहा।

"हम आपको मारना चाहते थे।" फ़राज़ ने बड़ी आसानी से कहा।

"क्या...!" हम उस से दूर हो गए। "फ़राज़! ये क्या कह रहे हो आप।"

"देखो ज़ेबा! आपको इन हाथों से नहीं मार सकते, इस लिए वो गुंडे...और हम आपको सब सच बताने ही वाले थे। हमारी ज़िंदगी में कोई और है, उसका नाम निशा है, और वो एक फ़िल्म डायरेक्टर की बेटी है। हमे उसके लिए कुछ सामान खरीदना था। इस लिए ये सब..। और जो बीस हज़ार लिए थे वो भी उसके लिए.....।" हमे यकीन नहीं हो रहा अभी जो फ़राज़ ने कहा वो सच है।

"लेकिन हमारा आपको क़त्ल करने का इरादा तब था, अब नहीं है। ज़ेबा हम आपके सारे रुपये लौटा देंगे। सिर्फ हमे कुछ बन जाने दो। और आप अपना फ़ैसला ले लो। यहीं रुक जाओ या दिल्ली चली जाओ। आपकी मर्ज़ी। खुदा हाफ-हिज़।" फ़राज़ ने कहा और हमारे उस छोटे से कमरे के दरवाजे को धड़ाम की आवाज़ के साथ लगाकर चला गया।

हम अब भी सदमे में है। क्या सच में आपका अपना ही भरोसा तोड़ता है। हमारा एक हिस्सा कह रहा है हम दिल्ली चले जाएं। और एक हिस्सा यहां रुकने के लिए कह रहा है। हम दीवार से सिर टिकाकर बैठ गए। हम हमारे लड़कपन की मोहब्बत को याद करने लगे। मुहब्बत से ज़्यादा बिछड़ना याद आया। जब भी वो याद आता हम ग़ज़ल सुनते। लेकिन यहां वो ग़ज़लें नहीं है। ना वो गली है। ना टी.वी , ना अम्मी न फ़राज़..। फ़राज़ का ना होना ही अच्छा है।

पिछले दिनों हमारी अम्मी का इंतकाल हो गया। हम बस कुछ दिन पहले ही मुम्बई लौटे। हम ज़्यादा नहीं टूटे, पता नहीं क्यों हम इस सदमे से जल्द ही उभर गए। शायद अम्मी यही चाहती थी। उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। हम उनसे मिल भी नहीं पाए।

अब हमारा इस दुनिया में कोई नहीं था। दूर के रिश्तेदार दूर ही होते है। हमे एक फ़िल्म में काम मिलने वाला है। जिसे हम शिद्दत से करेंगे। हम हमारी ज़िंदगी का सबसे बड़ा ग़म भुलाना चाहते है। हा.. हम भूल जाना चाहते है कि हमारा अब कोई नहीं।

हमारे फ़ोन की घंटी बजी। उस तरफ विकास है। विकास एक फ़िल्म निर्देशक है। जो हमसे मिलना चाहते है।

"सो..क्या आप यह रोल करेंगी" विकास ने पूछा।

"हम ये करना चाहेंगे। क्या हमें कुछ पैसा मिल सकता है" हमने पूछा।

"आपको दस हज़ार मिलेंगे" विकास ने कहा।

कुछ दिनों बाद ही फ़िल्म की शूटिंग थी। सभी को हमारा काम पसंद आया। हमे कुछ और छोटे रोल मिले। जिस से मुम्बई में हमारा गुज़ारा हो रहा है। कभी-कभी किसी शूटिंग में फ़राज़ भी मिलता। लेकिन ना ही हम उस से बात करते, और ना ही उसकी ओर देखते। कुछ ऐसे फ़ोन भी हमे आए, जिसमें हमे एक रात में ही लीड रोल देने वाले मेहरबान हो रहे थे। खुदपर यकीन, और अल्लाह पर भरोसा कर ज़ाहिर है जिसे हमने ठुकरा दिया।

हमे एक टी.वी. कार्यक्रम, और कुछ फिल्मों में छोटे रोल मिल चुके है। हम एक फ़िल्म की शूटिंग कर रहे है। जिसमें हमारा रोल मुश्किल से कुल मिलाकर चार मिनटों का है। हमे न ही कोई अंदाज़ा था। और न ही हम ऐसा सोच सकते थे। हमे "कट" की आवाज़ आई। अचानक हमारे सेट पर थोड़ी अफरा-तफरी होने लगी। सब यहाँ-वहां होने लगे। शायद कोई बड़े अभिनेता आए है। "रेहान खान..." हमे सुनाई दिया।

रेहान खान! हम भी चौक पड़े इनके तो हम बचपन से दीवाने है। इनके गाने हमे बेहद पसंद है।

एक समय था जब हमें दो ही चीजे अच्छी लगती थी, एक क़ुरआन की तिलावत और दूसरे रेहान खान। वो हमारे नज़दीक से गुज़रे उनसे एक बेहतरीन इत्र की खुशबू आई। वो हमारे डायरेक्टर के पास जाकर बैठ गए। शायद वो और उनके डायरेक्टर उनकी अगली फिल्म के लिए कलाकार ढूंढने आए है। काश उनकी फिल्म में मुझे....."ज़ेबा" हमे हमारे डायरेक्टर की आवाज़ सुनाई पड़ी। वो हमें बुला रहे थे। हम जैसे-जैसे उनके करीब पहुँच रहे थे ऐसा लग रहा था हमारा ख्वाब पूरा हो रहा है। जिनसे मिलने का हम कभी ख्वाब देखा करते थे आज हम उनके पास जा रहे थे। हमारा सुपरस्टार रेहान खान से मिलने का ख्वाब पूरा होने वाला था।

"ज़ेबा तुम इनकी फ़िल्म के लिए ऑडिशन दे दो" डायरेक्टर ने कहा। "नेचुरल एक्टिंग तुम अच्छी कर लेती हो। इन्हें तुम्हारे जैसी ही किसी एक्ट्रेस की तलाश है"

हम हम तो सिर्फ रेहान जी को देख रहे थे। रेहान जी ने प्यार से हमारे सिर पर हाथ रखा। और मुस्कुराने लगे। हमने ऑडिशन दिया, और हमे तीसरा मुख्य रोल मिला। हमे लग रहा था, हमारी ज़िंदगी में कुछ बड़ा होने वाला है। पर हमें एक डर भी था। क्या हम रेहान जी के सामने एक्टिंग कर पाएंगे। ऑडिशन में तो सिर्फ डायरेक्टर थे। हम डर भी रहे थे। और खुश भी थे। हम हमारे ख्वाब से कहीं ज़्यादा मिलने वाला था। दिल्ली की गली में, एक छोटे से घर में बैठकर मुशायरा सुनने वाली ज़ेबा और हम एक ही है।

हमे डायरेक्टर के आफिस बुलाया गया। वहां सिर्फ डायरेक्टर और कुछ लड़के-लड़कियां थी। जो हमे हर थोड़ी देर में "आपको कुछ चाहिए" पूछ रहे थे। और हम ना कह देते।

"तो ज़ेबा! ये है आपका साइनिंग अमाउंट, और यहां साइन करदो" डायरेक्टर ने कहा। एक लड़की हमारा वीडियो बना रही थी। हमने उस ओर देखा।

"ऐसा अक्सर करते है" डायरेक्टर ने कहा।

"पांच लाख रुपये" हमने रूम पर आकर इन्हें गिना। हमे यकीन नहीं हुआ। हमने डायरेक्टर से फ़ोन पर बात की। उन्होंने बताया अभी और रुपये मिलेंगे। अगले महीने से फ़िल्म की शूटिंग शुरू होगी। और दस महीने चलेगी। बारहवें महीने में सब यह फ़िल्म देख पाएंगे। हमारे साथ हमारी एक नई दोस्त रहने आ गई है। जिसका नाम शिवानी है। इस बीच कई बार फ़राज़ ने हमसे मिलने की कोशिश की। क्योंकि अब हम मीडिया में नोटिस किये जाने लगे थे।

एक साल बाद

हमारी फ़िल्म ने बेहद अच्छा कारोबार किया। और लोगों को यह 'एक ऐसे इंसान की कहानी जो अपनी पत्नी का क़त्ल कर देता है। और फिर उसकी पत्नी की आत्मा उस से बदला लेती है' फ़िल्म बहुत पसंद आई। हमारी मेहनत सफल हुई। सभी हमारे काम की तारीफ कर रहे थे।

हमे कुछ और फिल्में मिली है। जिनमें हम लीड रोल करेंगे। यहां फ़राज़ को भी काम मिलने लगा है। लेकिन छोटा-मोटा। वो खुदको साबित नहीं कर पा रहा है। उसने हमसे मिलने की हर कोशिश की। लेकिन हम नहीं मिले। हम नहीं मिलना चाहते। हम अब मिल ही नहीं सकते। हम फ़राज़ को भुला देना चाहते है हमेशा के लिए।

हम रूम पर आए। शिवानी अपने घर गई है, जो मुम्बई से बाहर है। हमने एक कार खरीदी है, हमारे आने-जाने के लिए। हमने कार को लॉक किया, और रूम की ओर चल दिये। हमने दरवाज़ा खोला हम जैसे ही अंदर आए किसी ने हमे खिंचा और दरवाज़ा बंद कर लिया। "फ़राज़..." हम हैरान थे। "फ़राज़.. तुम अंदर कैसे आए" हम चिल्लाये, लेकिन वो हमें छोड़ नहीं रहा था। "हमारी बात सुनो ज़ेबा!, सिर्फ दस मिनट पक्का। उसके बाद हम चले जाएंगे।"

"पहले हमारा मुँह छोड़ो!.." हमने उसे दूर करते हुए कहा।

"फ़राज़ ये हमारे हाथ में नहीं है" हमने कहा। फ़राज़ चाह रहा था, कि हम किसी फिल्म में उसे एक बड़ा रोल दिलवा दे।

"ज़ेबा हमे माफ करदो। हम बेहद बुरे है। हमे वो सब नहीं करना चाहिए था। सिर्फ एक रोल दिलवा दो, जब हम भी सफल हो जाएंगे तब आपसे निकाह...."

"निकाह...चलो उठों और यहां से निकलो.."

"ज़ेबा हमारी बात सुनो, सिर्फ एक रोल....."

"हमने कहा न वो हमारे बस में नहीं"

"क्यों नहीं है बसका। एक बार बात तो करो"

"फ़राज़ निकलो यहां से....."

फ़राज़ ने अचानक हमे पीछे धकेल दिया। और दरवाज़ा बंद कर लिया। "फ़राज़ ये क्या बदतमीजी है" हम पीछे हटे।

"हम आपको प्यार से समझा रहे है, आपको समझ नहीं आता। एक रोल...सिर्फ एक रोल नहीं दिलवा सकती आप। आप भूल रहीं है अगर हम नहीं होते तो आपके पास ये दौलत ये शोहरत नहीं होती।"

फ़राज़ हम पर टूट पड़ा। हम उससे बचने के लिए सब कुछ कर रहे थे।

"फ़राज़! दूर रहो हमसे" उसने हमारे गालों को नोच दिया। हमारे माथे और बाहों पर भी खरोंचे आई। उस से बचने के लिए हम बालकनी में दौड़े। वो हमारे पीछे आया।

"ज़ेबा! सिर्फ एक रोल....उसके बाद हम आपसे निकाह करेंगे। और आपको हमेशा खुश रखेंगे" वो बालकनी के दरवाजे पर खड़ा था। जिससे बालकनी की दूरी चार फीट थी।

"फ़राज़ हमसे दूर हो जाओ" हम लगातार रो रहे थे।

"कैसे दूर हो जाऊ... तुमसे ज़ेबा!" फ़राज़ तेजी से हमारी ओर लपका हम अपनी जगह से हट गए और फ़राज़ एक मंज़िली इमारत से नीचे जा गिरा।

"फ़राज़!!!" गिरने की आवाज़ के साथ हमारी चीख निकल पड़ी।

"बोल उसे बालकनी से नीचे क्यों धकेला तूने" उस महिला हवलदार ने कहा और हमारे गाल पर अपने हाथ का एक लाल निशान बना दिया।

"हम सच बोल रहे हैं, हमने फ़राज़ को धक्का नहीं दिया" हमने कहा।

"देख! तेरे जैसी लड़कियों से रोज पाला पड़ता हैं मेरा, चुपचाप सब कुछ बता दे, वरना वो हालत करूँगी ज़िन्दगी में कभी एक्टिंग नहीं कर पायेगी, बोल" उसने कहा, और ज़ोर से मेरे बाल खेचे।

"हम सच कह रहे है..आप मानती क्यू नहीं"

हमने कहा।

उसने बोलने के लिए मुँह खोला ही था कि किसी की आवाज़ आई।

"छोड़ दो उसे" इस्पेक्टर ने कहा।

हमने बाहर आकर देखा हमारी एक फ़िल्म के डिरेक्टर खड़े थे, जिन्होंने शायद हमारी बेल करवाई हैं। हम पुलिस स्टेशन से निकल कर डिरेक्टर के घर गए, हम हॉल में कुर्सी पर बैठ गए। उन्होंने हमे पानी दिया और कहा "तुम अंदर जाकर फ्रेश हो सकती हो, एक मिनट, रुचिका!!" उन्होंने आवाज़ लगाई। अंदर से एक औरत हमारे पास आई। "ज़ेबा ये मेरी वाइफ रुचिका हैं, और रुचिका यही वो ज़ेबा है जिनके बारे में मैंने तुम्हें बताया था" डिरेक्टर ने कहा।

"ज़ेबा जी" हमे देखकर वो वाकई खुश लग रही थी। "आइये" हम दोनों अंदर आ गए, हम वहाँ फ्रेश हुए और चाय पी। हम पुलिस स्टेशन में पूरा एक दिन बिता चुके थे। अपनी ज़िंदगी में पहली बार पुलिस स्टेशन। वो भी फ़राज़ की वजह से। फ़राज़!! हमे अचानक याद आया वो तो बालकनी से गिरा था। हम तुरंत बाहर डिरेक्टर के पास आ कर बैठ गए। "अब कैसा महसूस कर रही हो ज़ेबा" डिरेक्टर ने मुस्कुराकर कहा।

"हम ठीक है, फ़राज़ कहां हैं, कैसे है वो" हमने पूछा।

"वो लड़का तुम्हारा शौहर है?" डिरेक्टर ने पूछा।

हमने इंकार में सिर हिला दिया।

"ज़ेबा!! मुझे पूरी बात बताओ, शायद मैं तुम्हारे कोई काम आ सकू" उन्होंने कहा।

हमने उन्हें अब तक जो भी हमारे साथ हुआ था वो सब बता दिया। हमारे घर से लेकर यहां रूम तक सबकुछ।

"ज़ेबा तुम्हे जो भी हेल्प चाहिए हमसे एक बार ज़रूर कहना। इसे अपना ही घर समझो। और हा, वो फ़राज़ अब ठीक है, लेकिन कुछ महीने उसे बिस्तर पर ही बिताने होंगे। तुम उससे मिल सकती हो" डिरेक्टर ने कहा।

"नहीं हमे रूम पर जाना हैं। हम कल से शूट शुरू कर सकते हैं" हमने पूछा।

"मैं तुमसे यही कहने जा रहा था, आज तुम आराम करो हम कल शूट करेंगे"

"शुक्रियां सर! हम..."

"हा, तुम बिल्कुल।। जाओ और आराम करो" उन्होंने मुस्कुराकर कहा।

हम उठकर दरवाज़े तक पहुचे ही थे कि, "ज़ेबा" हमे डिरेक्टर की आवाज़ सुनाई पड़ी।

हमने पलटकर देखा, उन्होंने कहा "ज़ेबा तुम बहुत बहादुर हो"।

- -

डिरेक्टर सर हमसे लगभग पंद्रह साल बड़े होंगे, उनसे मिलकर हमे बेहद हिम्मत मिली। उनका हम ठीक से शुक्रियां भी नहीं कर पाए। रुचिका जी ने भी बेहद हौसला बढ़ाया। हमने रूम अच्छी तरह साफ-सुथरा कर दिया। हमे बार-बार याद आ रहा था। पुलिस ने हमारी एक बात नहीं सुनी थी। उन्हें लग रहा था, हमने फ़राज़ को!! जबकि फ़राज़ ने हमारे साथ बदसलूकी की थी। हम तैयार हो कर फ़राज़ से मिलने निकल गए।

हम फ़राज़ से मिलने हॉस्पिटल पहुचे। वो पलंग पर लेटा हुआ है। हमने देखा उसे अच्छी-खासी चोटें आई थी। उसके शरीर के बहुत कम हिस्से होंगे जहां प्लास्टर नहीं लगा था। हमने देखा वो अपने मोबाइल में शायद कोई गेम खेल रहा हैं। हम उसके नज़दीक पहुचे।

"अब मोबाइल में भी गेम खेलोगे" हमने कहा।

हमे देखकर वो कुछ देर बस युही नज़रे जमाये रहा। फिर कहा "ज़ेबा! हमे पता था तुम आओगी, ज़रूर आओगी। हम...."

"हम सिर्फ एक इंसान से मिलने आये है, जो हमारी बालकनी से गिर गया था। गिर तो वो वैसे पहले ही गया था" हमने उसके बोलने से पहले कहा।

"ज़ेबा.." उसने उठने की कोशिश की, मगर दर्द इतना था कि उसे फिरसे लेटना पड़ा। "माफ करदो ज़ेबा, हमे माफ करदो, हमसे बड़ी ख़ता हुई ये हम मानते है, तुम नाराज़ न रहो हमसे" उसने कहा और आंखों से कुछ दो चार आंसू टपक पड़े।

"अपने घर से दूर एक दूसरे शहर में, वो भी एक लड़की पर अपना ज़ोर दिखाते हो, उससे माफी की गुंजाइश क्या होगी फ़राज़। हमने तो आपको सबकुछ समझा था, लेकिन आपतो बड़े चालक और बेहद खटिया किस्म के इंसान निकले" हमने कहा।

"हमने होश खो दिए थे ज़ेबा, हमे भी कुछ बनना है, आपको तो बड़े काम भी मिलना शुरू हो गए। हमारा क्या होगा, और आपको हम ही तो इस शहर में लेकर आए है, आप हमारे लिए इतना भी नहीं कर सकती हैं" उसने कहा और हमारी तरफ जवाब के इंतज़ार में देखने लगा।

"तुमने ये बात अगर प्यार से कही होती फ़राज़ तो हम ज़रूर करते, और हमने तुमसे कहा था कि यह सब हमारे बसका नहीं। तुम खुद प्रोड्यूसरों से, कास्टिंग डिरेक्टरों से मिल सकते हो। तुम कुछ करना ही नहीं चाहते फ़राज़, तुम हमसे चाहते हो कि हम तुम्हारी सिफारिश करे। फ़राज़ हमे ही काम मिलना बंद हो जाएगा" हमने कहा और उठ खड़े हुए।

"तो आप चाहती है, हम आपको युही छोड़ दे, हमने जो इतना सबकुछ किया आपके लिए, वो! वो सब कहां गया, और तुम जैसी खटिया लड़की को यहां लाया, एक्ट्रेस बनाया, इन एहसानों का क्या ज़ेबा" उसका चेहरा लाल होने लगा था।

"तुम्हारा खटिया पन हमने देख लिया रूम पर फ़राज़, और हमने यहां आने की रकम अदा की है, मुफ्त में तुम्हारे सिर पर नहीं चढ़े हुए है। और ये एहसान है तुम्हारे, ये खरोचें, ये एहसान है तुम्हारे, फ़राज़ हमारी यहां इतनी पहचान हो चुकी है, कि तुम्हारे बदले कोई और होता तो हम उसे अच्छा सबक सिखाते" हमने उसे धमकी दी।

"क्या करोगी मरवा दोगी हमे" वो चिल्लाने लगा "बोलो, मरवा दो हमे यहां अपने किसी नए आशिक़ के हाथों" उसने कहा

"फ़राज़ अपनी ज़बान संभालो, हम.." हम उसकी तरफ पीठ करके खड़े हो गए "हमे तुम्हारी शक्ल ही नहीं देखनी, हमे नहीं मालूम था तुम इतना बदल जाओगे फ़राज़। हमे लगा तुम ज़िन्दगी भर साथ दोगे, और तुम हो कि.." हम पलटे "फ़राज़" हमारी चीख निकल पड़ी, फ़राज़ ने अपनी हाथ की नस काट ली। कुछ लोग दौड़कर अंदर आए। वो कुछ समझ पाते उससे पहले ही हम होश खोकर गिर पड़े।

"तुमपर बड़ी मुसीबत आ सकती थी। हॉस्पिटल के उस कमरे में सीसीटीवी कैमरे लगे है, जिससे तुमपर कोई इल्ज़ाम नही आया। हम वैसे भी आंखों देखी पर विश्वास करते है।" उस पुलिस अधिकारी ने कहा।

हम और डिरेक्टर सर पुलिस स्टेशन में है। हम ठीक दो घंटो बाद होश में आए थे। हम झूठे आंसू नहीं बहा रहे थे। हमे फ़राज़ की खुदकुशी का बिल्कुल ग़म नहीं था। शायद एक लड़की जिसे कुछ मानना छोड़ चुकी होती है, उसके जीने या मरने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। पुलिस हमे यहां लेकर आई है, डिरेक्टर सर को पता चला तो वो भी आ गए थे।

"क्या हम जा सकते है सर?" डिरेक्टर सर ने कहा।

"जी तुम जा सकते हो, ज़रूरत हुई तो हम आपको फिर बुलाएंगे।

हम वहां से हमारे रूम पर आए। डिरेक्टर सर ने हमे बेहद समझाइश दी कि हम फ़राज़ के खयालों से बाहर निकले। लेकिन हमारा दिमाग हर पल उसके खयालों में ग़ुम हो जाता।

"और अब तुम मुझे सर नहीं, अजय कहा करो" डिरेक्टर सर ने कहा।

"नहीं आप हमसे बड़े है..हम कैसे..."

"ज़ेबा मैं तुम्हे कह रहा हूँ, मुझे अच्छा लगेगा,

और ये फ़ील्ड ऐसी है, यहां सबकुछ चलता है। ओके।"

"जी..अजय जी" हमने कहा।

"हा! अब ठीक है" अजय जी ने मुस्कुराकर कहा।

ज़ेबा! मैं एक फ़िल्म बना रहा हूँ, कमर्शियल है।

मैं चाहता हूं, उसमे जो लीड कैरेक्टर है वो तुम प्ले करो।"

"क्या!! सर मतलब! ऐसे-कैसे बिना किसी ऑडिशन के!!" हमने कहा।

"तुम ऑडिशन की चिंता मत करो ज़ेबा।" सर ने कहा और हमारे एक हाथ को छूआ।

"सर!! ये क्या कर रहे है आप।" हम उठ खड़े हुए, हम बस अपने रूम को छोड़कर भागने वाले थे। कि सर अचानक जोरो से हँसने लगे।

"तुम डर गई ज़ेबा!! मैं मज़ाक कर रहा था। भई आखिर डिरेक्टर हूँ, एक्टिंग तो आनी चाहिए" सर ने कहा।

"उफ्फ!! सर आपने तो डरा ही दीया।" हमने कहा और चैन की सांस ली। तभी सर का मोबाइल बजने लगा।

"हेलो…जी ज़रूर!! Ok डन।" सर ने मोबाइल रख दिया "ज़ेबा वो तुम्हारा कल का डिनर हमारे घर होगा" सर ने कहा।

"सर इसकी क्या ज़रूरत थी..!!" हमने कहा।

"हमने कुछ नहीं किया जो भी किया है वो तुम्हारी सहेली ने किया। और कल तुम ठीक समय पर आ जाना, हम इंतज़ार करेंगे, अब चलता हूँ।" सर ने हमारे गालो को छुआ, और मुस्कुराते हुए रूम से बाहर चले गए। हम उन्हें बताना चाहते थे कि हम छोटे बच्चे नहीं है। किस तरह छुआ जा रहा है हमे सब पता चलता है।

इस वक्त अगर हम रोकते नहीं, तो हमारी आंखों से कई समंदर बह निकलते। ये क्या हो रहा है हमारे साथ। इन सितारों की दुनिया में ये सब होता है, हमे नहीं पता था। हमे अम्मी की बेहद याद आ रही है। वो होती तो आज भी येही कहती, सबकुछ ठीक होगा। हमारे दिमाग में कई सारे सवाल यहां-वहां दौड़ रहे है। कि हमने जो किया, या जिसने भी करवाया ये सही है या बेहद ग़लत।

हम अगले दिन अजय जी के यहां डिनर पर पहुंचे। रुचिका ने बेहद लज़ीज़ खाना बनाया था। खाने के बाद हम हॉल में ही दूसरी जगह बैठ गए।

रुचिका हमारे साथ वाली कुर्सी पर, और अजय जी सामने बैठे थे।

"ज़ेबा! तुम्हे आने वाली फिल्म के लिए ऑल द बेस्ट!" रुचिका ने कहा।

"शुक्रियां" हमने मुस्कुराकर कहा।

"तुम्हें फिल्मो में एक्टिंग करना अच्छा लगता है, मतलब यहाँ तुम कैसे हो, कुछ बनने का सपना या सिर्फ मजबूरी" रुचिका ने कहा।

"जी! किसी के कहने पर हम यहां...."

"हम्म...पता है पता है....फ़राज़!" रुचिका ने कहा।

"तुम्हें जब सब पता है फिर क्यों पूछ रही हो" हमने सवाल किया।

"बस! तुम्हारे मुँह से सुनना चाहती थी" रुचिका बोली।

"भई झगड़ा छोड़ो!! अच्छा ज़ेबा एक बात बताओ, तुम्हें किस तरह के किरदार पसंद है।

जैसे खूनी, पागल औरत या बदचलन औरत" अजय जी ने कहा और वे दोनों हँसने लगे।

हमने जवाब नहीं दिया। हम तय नहीं कर पा रहे थे। ये असली अजय जी है। या वो जिन्होंने हमे मुश्किलों से निकाला। हो सकता है इनके दिमाग में ऐसा कुछ चल रहा हो जिसके तहत ये हमे कुछ गलत करने पर मजबूर करे। हम क्या करे यहाँ से भाग जाए।

"ज़ेबा! किस खयालों में खो गई" अजय जी की आवाज़ आई।

"नहीं! हम बस युहीं..!" हमने कहा।

"देखो ज़ेबा! यह मुम्बई है। और यहाँ... मैं तुम्हें सीधे तौर पर कहना चाहूंगा। अब तुम्हे और काम करना है यहाँ। और एक बड़ी स्टार बनना है। तो तुम्हें.... कोम्प्रोमाईज़ करना होगा!" अजय जी ने अपनी बात खत्म की।

"ये क्या कह रहे है सर आप! मतलब! क्यों कोम्प्रोमाईज़ करना होगा। मैं ठीक काम करती हूं। दिखने में भी बुरी नहीं हूं। फिर किस बात का कोम्प्रोमाईज़!" हमने कहा।

"सोच लो! मैं तो तुम्हें मुम्बई के एक हिस्से की सच्चाई बता रहा था। खैर! देखते है तुम कहा तक और कितनी देर तक उड़ पाती हो। तुम्हें सहारा तो लेना ही पड़ेगा यहाँ। वरना तुम ज़्यादा आगे नहीं जा पाओगी। गिर जाओगी।" अजय ने कहा।

"मैं गिरना पसंद करूँगी सर। लेकिन नज़रों में गिरना नहीं। मैंने आपसे काफी उम्मीदें लगा रखी थी। और वैसे रुचिका जी! तुम तो इस महान इंसान के साथ रहती हो तुमने अब तक क्यों नहीं किया कोम्प्रोमाईज़!"

"तुम अपनी हद में रहो समझी" रुचिका दहाड़ी। "और चलो निकलो अब यहां से, एहसान फरामोश! तुझे इज़्ज़त अच्छी नहीं लगती न! अभी बताती हूँ" रुचिका उठी और हमारे बाल पकड़ लिए।

"ये क्या रही हो...तुम! रुको..."

"चल निकल यहाँ से.."

वो हमे बालो से खेचते हुए बाहर ले आई। और हमे धक्के मारकर घर से निकाल दिया। हम कुछ सोच ही नहीं पा रहे थे। शायद कुछ देर दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। ये क्या हो रहा हैं। हम बस सड़क पर खड़े होकर लगातार रोये जा रहे थे। हम अंदर से इतने मर चुके थे कि जिस्म सिर्फ हालातों के इशारों पर खुदको यहाँ-वहां ले लेजा रहा था।

हमने अचानक रोना बंद किया। और वहां कोई रिक्शा तलाशी। हम रूम पर आए और अपना सामान पैक करने लगे। जब यह दुनिया हमारे लिए है ही नहीं फिर हम यहां क्या कर रहे हैं। हम लौट जाना चाहते थे। शायद यहीं खुदा को भी मंज़ूर था।

हम अपने कुछ सामान के साथ रिक्शा में सवार हुए। "अरे! आप ज़ेबा जी! हमने आपकी फ़िल्म देखी है। बहुत अच्छी है" रिक्शा वाले ने कहा।

"शुक्रिया! हमने कहा। "चलिए'

"ज़ेबा जी बड़ी जल्दी में लगती है" हमे रेहान जी की आवाज़ सुनाई पड़ी। रिक्शा के ठीक बगल में वो एक कार में है। "रेहान जी" हम रिक्शा से उतरे। उन्होंने कार में बैठने के लिए कहा। "इनका सामान साथ लेलो" रेहान जी ने एक आदमी से कहा। और कार चल पड़ी।

"देखों ज़ेबा! मुझे सिर्फ इतनी खबर है कि तुमपर हमला हुआ था। तुम मुझे सारी बातें बताओ जो अब तक तुम्हारे साथ हुई है" रेहान जी ने कहा। हमने एक ही सांस में उन्हें हमारे यहां आने से लेकर अब तक की सारी बातें बता दी।

"उस अस्पताल का नाम क्या था" रेहान जी ने पूछा।

"नाम तो हमे याद नहीं। पर हमें याद है वो कहाँ है..वो अस्पताल एक बड़े ग्राउंड के पास है। जिस वक्त हम फ़राज़ से मिलने पहुँचे थे। वहां कुछ सामान पड़ा था। पर हमें पता नहीं वो क्या सामान था।" हमने कहा।

"तुम वो जगह बताओ"

"जी!" हमने उन्हें अस्पताल का रास्ता बताया। जो ठीक से तो याद नहीं था लेकिन याद आता जा रहा था।

"क्या यहीं जगह थी" जब कार रुकी तो रेहान जी ने पूछा।

हम देखकर बेहद चौक पड़े। वहां अब अस्पताल नही था। एक इमारत को सजाया जा रहा था। "ये...हम सच कह रहे है! यहां...!"

"मुझे पता है तुम सच कह रही हो। ये एक शूटिंग की जगह हैं। और तुमने ज़रूर लाइटे और बड़े रिफ्लेक्टर देखे होंगे" रेहान जी ने मुस्कुराकर कहा। और कार आगे बढ़ गई।

"मेरे कुछ सवालों के जवाब दो ज़ेबा। तुम एक बड़ी मुसीबत से बाहर निकली हो" रेहान जी ने कहा।

"पूछिये" हमने घबराकर कहा।

"क्या तुमने अपनी आंखों से फ़राज़ को गिरते हुए देखा था" रेहान जी ने पूछा।

"हां! मतलब...गिरा तो था वो...!

"तुमने अपनी आंखों से उसे ज़मीन से टकराते हुए देखा था"

"नहीं! लेकिन हमने आवाज़....!

"ज़ेबा! ये फ़िल्म इंडस्ट्री है। यहां कई ऐसी चीजें है जिससे इंसान को गुमराह किया जा सकता है। तुमने ज़रूर एक स्पीकर से निकली हुई आवाज़ सुनी होगी।" रेहान जी कहा।

"लेकिन जब हम कार लॉक कर आए थे, तब वहां कोई नहीं था।" हमने कहा।

"हो सकता है वो लोग नीचे एक नरम गद्दा और साउंड सिस्टम लेकर एक जगह छुपे हो। जब उन्हें संकेत हुआ हो तब उन्होंने अपना काम शुरू किया हो।"

हम बस रेहान जी को ताकते रह गए। हम समझ नही पा रहे थे। ये सब क्या हो रहा है। रेहान जी हमे अपने बंगले ले आए। और हमे अपनी पत्नी, बच्चो से मिलाया। एक बेहद दिल के नर्म और सभी को इज़्ज़त देने वाला परिवार।

अगली रात रेहान जी हमे एक जगह लेकर आए। मुम्बई का एक बेहद बड़ा बार। हम उसके दरवाज़े के ठीक सामने खड़ी कार में बैठे है।

"जाओ! और सिर्फ दो मिनट वहां रुकना। तुम्हें ठीक काउंटर के कोने वाली टेबल पर एक भूत दिखाई देगा।" रेहान जी मुस्कुराते हुए बोले।

हम अंदर पहुँचे हमने सीधे वहीं देखा। एक शख्स जिसकी बढ़ी हुई दाढ़ी और लंबे बाल। एक हाथ में गिलास और एक में सिगरेट। हमे पहचानने में देर नहीं लगी। फ़राज़! ज़िंदा है। रंगबिरंगी किरणों के बीच उसकी नज़र हम पर पड़ी। एक पल वो देखता रहा। फिर हमारी ओर लपका। हम पलटे और तेज कदमों से चलते हुए कार में सवार हो गए। कार चल पड़ी।

हमने देखा वो बार के बाहर हमे जाता देख रहा था।"तुम्हारे अब्बा का इंतकाल कैसे हुआ था" रेहान जी ने पूछा।

हम उनके बंगले के बरामदे में बैठे है।

"एक दफा अम्मी ने बताया था, कि वो बेहद बीमार थे। और उन्हें अच्छे से अच्छे अस्पताल में दिखाया था पर...नहीं बच सके। फिर हमने अम्मी से कभी इस बारे में बात नहीं की।" हमने कहा।

तभी एक काफी बूढ़े आदमी हमारे पास आकर बैठ गए।

"ज़ेबा ये अशोक जी है। इन्हें काफी जानकारी है।" रेहान जी ने कहा।

"तुम्हारी अम्मी ने तुमसे झूठ कहा था। ठीक बारह साल पहले तुम्हारे पिता की हत्या हुई थी। उन्हें पहले गायब किया गया। फिर उन्हें मार कर एक नदी में फैक दिया गया। आम कत्लों की तरह।" अशोक जी ने कहा। उन्होंने हमें हमारे बचपन की, अब्बा की और अम्मी की कुछ तस्वीरें दिखाई। हमे अब भी यकीन नहीं हो रहा है। ये हमारे साथ क्या हो रहा हैं।

"और जानती हो तुम्हारे अब्बा का क़ातिल कौन है" अशोक जी ने पूछा।

"फ़राज़ के अब्बा.."हम अपने आप ही बोल पड़े।

"मैं अशोक हूँ। मुझे कभी इसी काम के लिए रखा गया था। मैं तुम्हे और कुछ तो अपने बारे में नहीं बता सकता। लेकिन तुम्हे तुम्हारे बारे में काफी बता सकता हूँ।" अशोक जी ने कहा।

"अब बताने के लिए बचा ही क्या है" हमने कहा।

"यही की तुम्हारी अम्मी का भी क़त्ल हुआ था" अशोक जी ने कहा और हमे जैसे ज़ोर का करंट लगा।

"क्या कह रहे है आप"

"यही सच है। फ़राज़ ने तुम्हारी अम्मी का क़त्ल किया। और तुम्हे बताया गया कि उन्हें हार्ट अटैक आया था। जबकि उन्हें ज़हर दिया गया था। ये खानदानी दुश्मनी है। फ़राज़ का इरादा यही था, कि वो तुम्हे बरबाद करदे।"

"अब हम क्या करे" हमने पूछा।

"तुम अब वैसा करो जैसा हम कहते है" अशोक जी ने कहा।अशोक जी और रेहान जी ने हमे फ़राज़ से मिलने के लिए कहा। उसके खिलाफ सारे सबूत जमा हो चुके थे। अशोक जी जानते थे अब फ़राज़ हमे मारने की कोशिश करेगा। उसने हमें फ़ोन किया।

"ज़ेबा! हम आपसे मिलकर माफी मांगना चाहते है। हमने जो भी किया उसका हम हर्जाना भुगतने को तैयार है। सिर्फ एक बार मिल लो" फ़राज़ ने कहा।

"हम सोच भी नहीं सकते एक इंसान इस हद तक गिर सकता है। तुमने हमारी ज़िंदगी तो बरबाद करदी फ़राज़, लेकिन हम चुप नहीं बैठेंगे। तुम्हे तुम्हारे गुनाहों की सज़ा ज़रूर मिलेगी" हमने कहा।

"तुम्हे जो सज़ा देनी है देदो। लेकिन एक बार! अल्लाह की खातिर एक बार मिल लो हमसे" फ़राज़ ने कहा।

"कहा मिलना है" हमने पूछा।

फ़राज़ ने हमे रेलवे स्टेशन के पास एक जगह मिलने को कहा। हम अपने रूम से निकले। अशोक जी और रेहान जी ने जैसा कहा था हम वैसा ही कर रहे थे। हम अपनी अल्ट्रो कार में सवार हुए और निकल पड़े। पहले हमें एहसास नहीं हुआ। लेकिन अब जबकि कार की स्पीड 40 से 50 पहुँची हमे मालूम हुआ ब्रेक काम नहीं कर रहे। हम बेहद घबरा गए।

कार बस अपना संतुलन खोने ही वाली थी कि हमे बगल में रेहान जी की कार दिखी। उन्होंने अपनी कार की स्पीड हमारी कार के बराबर की। हम कार की खिड़की से बड़ी मुश्किल से निकल पाए। रेहान जी की कार रुकी। हमारी कार आगे एक पुलिस द्वरा लगाए कुछ लोहों की ब्रेकेट में जा धसी।

हम बेहद घबरा गए। "ज़ेबा! ये समय घबराने का नहीं है। अपनी मंज़िल की ओर बढ़ो। उस क़ातिल को सज़ा दिलवानी है।" रेहान जी ने कहा। "जाओ उसके बताएं पते पर पहुँचों।

हमने खुदको संभाला और उस ओर चल दिए।

एक दो मंजिला इमारत। जिसमें केवल इतनी रोशनी है कि पास से देखने पर ही कोई नज़र आए। हम अंदर आए। हमे कोई नज़र नहीं आया। हम थोड़ा आगे बढ़े। ऊपर जाती एक सीढ़ी नज़र आई जिसपर ऊपर के हिस्से से कुछ रोशनी पड़ रही हैं। "फ़राज़" हमने आवाज़ दी। यूँ लगा उस रोशनी में कोई हिला। एक साया हमे नीचे उतरता नज़र आया। वही शख्स बार वाला यानी फ़राज़!

"तुम आखिर बच ही निकली" फ़राज़ ने कहा।

"और तुम इस बार भी नाकाम हो गए" हमने कहा। वो आहिस्ता-आहिस्ता हमारे नज़दीक आ रहा है।

"लेकिन इस बार नाकाम नहीं होंगे हम ज़ेबा!" उसने कहा।

"फ़राज़! तुम एक अच्छे इंसान हो सकते थे। तुमने अपनी ज़िंदगी के साथ हमारी ज़िंदगी भी बरबाद करदी। क्या मिला तुम्हे फ़राज़!" हमने कहा।

"हमने अपने खानदान का नाम किया है। तुम क्या समझोगी। खानदानी दुश्मनी क्या होती है" उसने कहा।

"खानदानी दुश्मनी! फ़राज़ आज इंसान इसी घटिया सोच से बाहर निकलना चाहता है और तुम....तो फ़राज़ तुम पहले ही मुझे क़त्ल कर देते। मेरे सारे अपने तो तुमने मार दिए।"

"तुम मेरे लिए वो...क्या कहते है, सोने के अंडे देने वाली मुर्गी बन सकती थी। इस लिए तुम्हे सिर्फ दो चार ज़ख्म दिए। मेरा इरादा तुम्हें बेचने का था, जिस्म के बाज़ार में लेकिन तुम मुझे अपना काम करने ही नहीं दे रहीं थी।" उसने अपने पीछे छुपाई एक पिस्तौल निकाली। एक पल को हम होश खो बैठने वाले थे। लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी।

"लो करदो हमारा क़त्ल फ़राज़। और क्या बाकी है" हमने कहा।

"हमारे अब्बा ने तुम्हारे अब्बा को मुहब्बत से कहा था.." वो कहते-कहते एक टूटी हुई कुर्सी पर बैठ गया। "कि चालीस प्रतिशत हिस्सा तुम्हारा। और साठ प्रतिशत हमारा। एक मामूली ज़मीन का ही तो मामला था। तब तो हमारे अब्बा कुछ न कह सके। देश तुम्हारा! लोग तुम्हारे। क्या कर सकते थे" उसने पिस्तौल वाला हाथ ही अपने माथे पर रखा। लेकिन अम्मी को हमने बड़े प्यार से क़त्ल करवाया था। चाय में एक चुटकी ज़हर सिर्फ!" और वो हंसने लगा।

"फ़राज़ तुम खुदको कानून के हवाले करदो" हमने कहा।

"ज़रूर करूँगा! ज़रूर लेकिन पहले तुम्हे इस दुनिया से रुखसत करदु। तुम तो सिर्फ एक पुड़िया हो हल्की सी" उसने हंसते हुए कहा। और पिस्तौल हमारी ओर तान दी।

"फ़राज़!" हम घबराएं नहीं "अगर हिम्मत है तुममें तो चलाओ गोली। मेरी आँखों में देखों और गोली चलाओ"

वो अपनी पूरी ताकत से चिल्लाने लगा। हमने अपनी आंखें बंद करली। "ज़ेबा" चिल्लाने के बाद हमे एक बेहद नर्म आवाज़ सुनाई पड़ी। वो पिस्तौल ताने अब भी खड़ा है। दरवाजे से कुछ पुलिस वाले अंदर आ गए। सबने एक साथ फ़राज़ पर बंदूके तान दी। "पिस्तौल नीचे रखदो और अपने हाथ खड़े करदो" उनमें से एक पुलिस वाले ने कहा।

"ज़ेबा" फ़राज़ ने फिर कहा। उसके गालों पर आंसुओं की लकीरें बन गई। "हमे कभी माफ मत करना"

उसने पिस्तौल अपने माथे पर लगाई और एक गोली की आवाज़ गूंज गई। फ़राज़ ज़मीन पर गिर पड़ा। एक खामोशी छा गई। रेहान जी पहुँचे और हमे बाहर ले आए। हमने देखा बाहर पुलिस की वर्दी में शिवानी भी खड़ी है। "हाय! इंस्पेक्टर शिवानी!" उसने कहा और मुस्कुराने लगी।

हम रेहान जी के बंगले पर पहुँचे। अगली सुबह हमे कुछ शोर सुनाई दिया। हम, रेहान जी और उनकी की वाइफ एक बेहद ऊंची बालकनी में पहुँचे। उनके बंगले के बाहर सैकड़ों मीडिया कर्मी जमा थे। सब एक साथ चिल्लाए। जैसे हमने कोई बड़ी जंग जीत ली हो। शायद ये जंग बड़ी ही थी। जिसने हमे हिम्मत और ज़ज़्बा क्या होते है ये सिखाया। "ज़ेबा! तुम एक हिम्मत वाली लड़की हो। हमारी दुनिया में तुम्हारा स्वागत है!" रेहान जी ने कहा। और अपना एक हाथ हवा में लहरा दिया। सामने से सारे लोग एक साथ शोर करने लगे।

हमें किसी शायर का एक शेर याद आ गया।

"मुश्किल कोई आन पड़ी तो घबराने से क्या होगा,

जीने की तरकीब निकालो, मर जाने से क्या होगा।"

और हमने भी अपना एक हाथ भीड़ की ओर उठा दिया।

समाप्त