मेरी - २६ कविताएँ
मुझे नहीं पता जो मैं लिखता हूँ, वो कविता है भी या नहीं। लेकिन ये २६ कविताएँ आपके सामने है।
***
माँ को, खुदको, और
भोपाल की हसीं रातों को समर्पित
***
1) पारस
2) ईश्वर हो भी सकता है
3) बचपन
4) है नहीं वो अकेली
5) बाबा वाली धुप
6) दहन
7) सवाल
8) घर
9) रंगीन धुप
10) फ़ासला
11)महक
12) रंगरस
13) याद आती हो तुम
14) यूँ न करना।
15) वो समय
16) लाल रंग
17) द्वार
18) सीधी सादी लड़की
19) कविराज
20) चांदनी
21) तुम क्या हो।
22) कहो क्या जीवन है
23) कबूतर
24) होना
25) थोड़ा इश्क़
26) भोपाल की शाम
***
पारस
चित पहुचे
उस चमक पर
ठहरा जहा पारस
ख्वाईशो की चहचहाहट
मिट्टी से सोना होना,
चाहता ये मन डगमग
आफ़ताफ होना,
जीवन से कलह
किस राह तक,
अच्छी, सच्ची, अपनी,
कहना होगा ही ज़िन्दगी,
क्युं ना किसी की
गरूड़ सी नीव
चपाती तक मे
कामयाबी का चेहरा हो,
अकिंनचन ना हो कोई
कमठ सी चाल ना रह जाए
छली दुनिया से न रख वास्ता
सब अपनी मंज़िल को जाए।
***
ईश्वर हो भी सकता है
अपनी हथेली से समुन्द्र को
उठाकर बहा सकता है
उँगलियों से धर पवन कंठ
उसे तड़पा सकता है
गगन को अपने आँसुओ में
डुबोकर निचोड़ सकता है
सूर्य को मुठ्ठी में छुपाकर
आँखों से रौशनी कर सकता है।
चाँद को थामकर कुछ देर
मरोड़कर फिर नभपर
उछालकर तारे बना सकता है
बंद है आँख, तु आँख खोलकर
पृथ्वी को पलको के केश पर
रख सकता है
ईश्वर को पा भी सकता है
ईश्वर हो भी सकता है
और ईश्वर कर भी सकता है
***
बचपन
पगडंडी, धुप, कंकर,
और पाँव नंगे,
तितली, पतंगा, भंवरा,
नीम की छड़ी,
गुलाब की खुशबु,
चुभते कांटे और लहू,
सौंधी मिट्टी,
आँगन में चिड़ियाँ,
खिलोने की चाहत,
हम अलग, दुनिया अलग,
बचपन की धुँधली तस्वीर,
***
है नहीं वो अकेली
है नहीं वो अकेली
वादियां उसकी सहेली
आस के आँखों में मेले
चाँद सितारे साथ खेले
इक गुड़ियाँ हाथो में
लेके दौड़े रेत पर
उसकी सीपियाँ भी दौड़ी
बनके घोड़े रेत पर
इक चिड़ियाँ वो लगे
अधकटे पंख जिसके
बनके तिनका उड़े
आसमां संग उसके
देख उसके ख्वाब पिघले
वादियों में पीर है
हवा के ज़ख्मो पर लगे
सिसकियाँ तीर है
लौट गई वो
कुछ देर खेलकर
रेत पर निशां छोड़कर
***
बाबा वाली धुप
बाबा वाली धुप में
तुम प्रेम वाली ना
ठहरो,
बुंदे बरसात की
तुमपर सजे
पसीने की नही,
छाया वाले बरगद
में बैठे,
चलो तुम्हारी
तारीफ़-तारीफ़ खेले,
***
दहन
चमकती पन्नी से
सजी वो लकड़ी
की तलवार
और बांस की
छड़ी का धनुष
को पाने का
बचपन का युध्द
निकल चले
दहन की और चले
***
सवाल
घर को पास
लाने वाली आख़री
बस निकल जाती थी
सात बजे वाली घड़ी
जब जल्दी-जल्दी नौ
बजा देती थी
एक लड़की बस-स्टेंड
पर विश्व युध्द
हार जाती थी
माथे पर कभी
पापा वाला डर
कभी मम्मी वाला
चैन आता था
सहेली का जब
हर बार फ़ोन नही
लगता था
तब बगल में खड़ा
लड़का लिफ़्ट ऑफर करता था
ना चाहकर भी जब
बाईक पर बैठकर
घर आ जाती थी
और.....घर में आते ही
सवाल होता था
कहा गई थी महारानी।
***
घर
कूड़े-दान के कचरे
के बिच में पड़ी वो
क्या सोचती होगी
उसका घर कहा
होगा...और....!
छोड़ो तुम भी
कुछ भी कह रहे हो
एक प्लास्टिक की गुड़ियाँ
ही तो है,
अभी एक प्यारा सा डॉगी
आएगा और उसे ले जाएगा।
थोड़ा समय और
बस...अपना
घर आने वाला है।
***
रंगीन धुप
खिड़की पर पहरेदार थी
गेंदे की छोटी-छोटी
परछाईयां
उन्हे कुचलते हुए
आ पहुची हथेली पर
रंगीन धुप
धुप पर सवार
तुम आ ही गई
तन पर मन पर
क़िताब पर
जिसके पन्ने
रंगीन कर दिए
मुझ तक को
कर आई,
रंगीन
***
फ़ासला
में सुबह के
सात बजकर
पच्पन मिनट हूँ
तु आठ बजकर
दस मिनट है,
फ़ासला पन्द्रह
मिनट का है।
ये कभी ख़त्म
ना होगा,
युही दरमियां
मोजुद रहेगा
हमेशा आख़री
काल तक,
***
महक
भीगे बालो से
गीरी बुंद के आखरी
हिस्से मे एक अदृश्य
सीलब्बट्टे मे चाँद
पीसकर, चुपके से
गुलाब पर सो जाता है,
दबे कदम आकर सुरज
उसी गुलाब पर लाली
घोलकर दुर खड़ा हो जाता है,
फिर वही भीगे बालो वाली
उस गुलाब पर हाथ फैर कर
गुज़रती है, और उसके हाथो
पर इक मेहंदी बेताब हो जाती है,
दुर तक महक जाने के लिए,
किसी को करीब खिच लाने को।
***
रंगरस
तुम हवा को पकड़कर
निचोड़ती हो
और उसमे से बह
चलता है, गीरता है,
योवन-रस,
और तुम उस रस से
एक तस्वीर बनाती हो,
तस्वीर उस लड़की की
जो काबू कर लेती है
बाबा के घोड़ो को,
उन पर बैठकर
दौड़ाती है उन्हे और
खुले बाल तक
आ जाते है जोश में,
बाबा के घोड़े भी
उसका साथ देते है,
घोड़े....सुरज बाबा के
***
याद आती हो तुम
तोड़ के वो खट्टी-मीठी बेरियां तुम हाथो से अपने मुझको खिलाती थी
कुंवे का मीठा-मीठा पानी तुम छानके दुपट्टे से मुझको पिलाती थी
कोई हाथो को जब भी मेहँदी से रचते हुए मैं यूँ पाता हूँ
याद आती हो तुम,
धुप हो या हो कोई मौसम, मुझसे मिलने तुम आती थी
डर था ना दुनिया का कोई फिर भी चुपके तुम आती थी
बैठ कर पास मेरे चिन्ताओ को मारकर खुश रहना सिखाती थी
हंसती खुद कभी मुझको हंसाती और दुनिया जैसे भूल जाती थी
किताबों में जब भी राजा को रानी से मिलते हुए मैं पाता हूँ
याद आती हो तुम,
***
यूँ न करना
कमरे में सजाकर,
मुझे यूँ भुला न देना।
ख़त जला भी दो लेकिन,
मुझे खुदसे भुला न देना।
भुला देना मुलाकातें लेकिन,
वो पीतल के छल्ले भुला न देना।
जिस्म तोड़कर रूहें मिली थी,
वो इत्र की खुशबुएँ भुला न देना।
मुमकिन है, कब्रे भूल जाएं,
मैं रोमियो याद रखूंगा,
तुम जूलियट भुला न देना।
***
वो समय
दुप्पटे का कोना चबा-चबा कर
गिला करने पर थपकी
पड़ती माथे पर,
उंगली
और हथेली के बीच वाला
हिस्सा टकराता।
बचपना और प्रेम,
एक ही जैसे लगे उस दिन।
माँ की तरह उसका लाड़,
और उसका, उसकी तरह प्रेम।
वो समय जो था
माथे पर एक भी लकीर नहीं थी।
***
लाल रंग
तुम्हारे माथे की लकीरों में
जो लाल रंग बैठा है।
यह हमारा जीवन भर
मुस्कराने का संकेत है
ये चूड़ियां हर दिन
घर बुला लाती है,
बाहर की छल-कपट से।
ये बिंदी और मुस्कान
ज़िंदा रखती है,
मेरे मरने को।
मेहंदी वाले हाथ
हमेशा मेरे पीछे खड़े है,
कि मुझे कोई दुख ना हो,
दुख को रोक लेते है।
***
द्वार
क्या तुम्हें गिरजा के सामने वाली मुलाक़ात याद हैं,
तुम आसमां अपनी हँसी में भर लेती थी।
और हवा की तरह दुखी।
और क्या तुम्हें मंदिर के सामने वाली मुलाक़ात याद हैं,
तुम लाल रंग का एक टिका लगाती थी,
हर दिन प्रेम को लाल रंग में ढलना पड़ता था।
तुम्हें वो मस्जिद के सामने वाली मुलाक़ात याद हैं,
तुम कहती थी, प्रेम भी इन इत्रों की तरह हैं,
दोनों रूह तक महकते है, और तुम
दुआ के बदले सिर्फ हंस देती थी।
और हाँ, क्या तुम्हें गुरुद्वारे के सामने वाली मुलाक़ात याद हैं,
धुप से बचने के लिए तुमने दुपट्टा सिर पर रखा था,
एक पल में धुप खूब-सारे प्रेम में छन गई थी।
तुमने खींचकर पुछा था, ये प्रेम क्या बला हैं,
वो हवा ज़रूर चारो जगह से टकराकर आई होगी,
जिसने तुम्हारे चेहरे से बिखरे बाल हटा दिए थे।
***
सीधी सादी लड़की
बसंत सी चंचल, मादक खुशबु,
मदमस्त हवा सी।
अमृत कुंड सी, शीतल, सुरभित,
इंद्रधनुषी आभा सी।
नीलाम्बर, नवयौवन वो,
कण-कण में झर-झर बहती।
किसलय पर बूंदो के जैसी,
मुक्ता सी रौनक उसकी।
सुधा-चन्द्रिका, झरनो का अंत,
लहलहाते वृक्षों सी।
शाखाओ पर मैना सी जैसी,
फूलो पर तितली, भँवरे की गुन-गुन।
संध्या सुंदरी, तन सुगन्धित,
लीलाएँ कान्हा जैसी।
देवलोक की नर्तकी वो,
मानव सा न सौंदर्य!
पग-पग जब चलती वो जाती,
बरसे बून्द-बून्द चांदनी।
गगन मण्डल, स्वर्णिम दृश्य,
गंगा का जल उसमे दीखता।
सीता की मोहकता
स्वर्ण मृग पर उसमे दिखती।
रूप की रानी, मृगनयनी सा तन,
मस्तक बिंदी चन्द्रमा।
झूम-झूम गाए गीत,
ऋत छेड़े रह-रह कर।
कौन है आखिर ये इतनी
सीधी-सादी सी लड़की।
***
कविराज
तुम चांद और आफ़ताफ की
बातें करते हो,
ज़मीं पर पैर हैं की नही,
युं तो तुमने कल्पनाओ में खुब
चावल के दानो से मृगनयनी
की मुरते बनाई होगी,
क्या तुम मृगनयनी की आँखो
मे कभी गुम हुए हो,
तुमने कभी परीयों को
आंगन लिपते लिखा है,
तुमने कभी किसी लड़की को
दो के पहाड़े की तरह भोली-भाली
लिखा है, या एक से पांच तक की तरह
सरल लिख पाएं।
क्या चाँद को कभी घर के अंदर
किचन के कटोरे मे लिखा है,
क्या सिपीयों मे कभी महल को
लिखकर देखा है,
क्या सुरज से चुल्हा जलवाया है,
फिर तुम क्यों कवि हो।
***
चांदनी
एक शब्द में समाई वो कहानी लगती हैं,
नदियों का वो ठहरा चमकता पानी लगती हैं,
छत पर जब वो आती हैं चांदनी लगती हैं,
जैसे धरती पर आई एक परी सी हुबहू लगे,
कोमल हांथों में रचाई मेहंदी की खुशबु लगे,
उड़ती हँवा और गिरता पानी, पंछी का आकाश लगे,
शायर की सुन्दर रचना तो जीने का आभास लगे,
बाग़ में कलियाँ और फूलों की रानी लगती हैं,
अम्बर में जो बिना डोर के उड़ती उन पतंगों सी,
दिवाली की रौनक सी और होली के उन रंगों सी,
दिखे जिसमे प्यार का चेहरा अपनों की उन नज़रो सी,
कवि की पहली पंक्ति जैसी, गीतों सी उन गज़लों सी,
मीर और ग़ालिब की वो भी दीवानी लगती हैं,
धुप में ठंडी छाव के जैसी, सर्द हँवा में गर्मी सी,
धड़कन की आवाज़ के जैसी साँसों में एक नरमी सी,
साल की पहली तारीख जैसी, बच्चो का अवकाश लगे,
क्या कहू उसको देखकर दिल में क्या एहसास जगे,
बात में जिसकी करता हूँ एक गाँव की लड़की हैं,
***
तुम क्या हो
कभी बनारस की सुबह बन जाती हो।
तो भोपाल की शाम हो जाती हो।
तुम रास्तें के दृश्य हो या,
दोनों पर एक आसमां।
तुम चेतन की किताब का किरदार
तो नहीं हो, तुम जो हो
हमेशा हो। चार कोनो में नहीं
होती तुम, तुमने ही तुम्हें रचा हैं।
अब प्रेम का क्या वर्णन करूँ,
मेरा प्रेम तो तुम्हारा हँसना हैं।
और तुम्हारी भीगी कोर
मेरा मर जाना हैं।
शुरू हुआ प्रेम और अमरता का
प्रेम, दोनों के बीच का
तुम प्रश्न हो। उत्तर भी तुम।
***
कहो क्या जीवन हैं
प्यार भरी हैं नज़र तुम्हारी, रातें आंखों में समाई,
माथे पर जैसे पृथ्वी, इतनी सोच में गहराई,
देखो सबकी काया-काया दर्पण हैं,
प्रेम नहीं हैं तो कहो क्या जीवन हैं।
रुप, कि आगे पानी-पानी हो जाए जवानी,
बालपन कि पुस्तक में परियों जैसी रानी।
जिनपे चलते जाएं, वो राहें पावन हो जाए,
पत्थर-पत्थर मांगे पानी, मिट्टी पागल हो जाएं।
दिल जिसकी पगधूलियों पर अर्पण हैं,
प्रेम नहीं हैं तो कहो क्या जीवन हैं।
***
कबूतर
पर उनमें भी होते हैं वो भी उड़ सकती हैं।
थोड़ा सहारा तो दो, दो या नहीं भी दो,
बस उछाल तो दो
कबूतर सा उन्हें।
वो खुद ही तारे, दीवारे,
मुंडेरे ढूंढ लेती हैं।
उन्हें तुम्हारे साथ होना,
वजह देता हैं पृथ्वी
से भी ऊँचा उड़ने की।
***
होना
प्यार से सहलाती हैं। वो उस
खिलखिलाती अधखिली कली को।
कोमलता पर स्त्री का
चाहा हुआ स्पर्श।
स्त्री पर चाहा अनचाहा स्पर्श
जगह लेता हैं। दोनों को
तोड़ देते है।
स्त्री होना उतना भारी ही होगा,
जितना झूलती पृथ्वी का,
जिसका मापदंड असंभव।
इनका होना जीवन होना हैं।
इनका नहीं होना पृथ्वी
का नहीं होना हैं।
***
थोड़ा इश्क़
तुम समय काटने के लिए,
इश्क़ का सहारा लेते हो!
ग़ालिब की ग़ज़ले सुनकर
बड़े हुएं, और अब
ग़ालिब से बड़ा होना चाहते हो!
तुमने कुछ इश्क़ किया,
कुछ चाय पी,
थोड़ा इश्क़ किया, थोड़ा सुट्टा मारा!
ग़ज़ल की महक को भी
धुंए में छोड़ दिया!,
तुम नहीं जानते तुमने इश्क़
करके ग़ज़ल सुनी या
ग़ज़ल सुनकर इश्क़ हुआ!,
इश्क़ ग़ज़ल होना हैं और
ग़ज़ल ग़ालिब होना!
तुम ग़ज़ल नहीं लिख पाये,
तुम्हें इश्क़ नहीं हुआ,
अगर इश्क़ होता, तो
तुम्हें इश्क़ हो जाता!
***
भोपाल की शाम
गीत का मन में अंकुर हो,
प्रेम का तुम कोई धाम हो!
भोर हो तुम मेरे प्राण की,
मेरे भोपाल की शाम हो!
थोड़ी अल्हड़, चंचल अदा,
रुह वाली मूरत हो तुम!
आम्रपाली सा चन्दन लिपे,
ख़ुद से भी ख़ुबसुरत हो तुम!
मेरे दिल ने ये माना के तुम
प्यार का दुसरा नाम हो!!
भोर हो तुम मेरे प्राण की,
मेरे भोपाल की शाम हो!
***