आशा Ravi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आशा

1

(सटाक..की आवाज़)"शर्म नहीं आती सरेआम एक लड़की को छेड़ते हो। तुम जैसे लोगों को न खुदखुशी कर लेनी चाहिए" मेरे सब्र का घड़ा फुट चूका था।

"तुम समझते क्या हो खुद को, एक नंबर के नल्ले-आवारा होते हो तुम लोग" वो बस से उतारकर वहां से खसक लिया था। और मैं जैसे चलता फिरता ताज-महल हो रह थी। जिसे देखने के अच्छे-खासे पैसे मिल जाते।

मैं वहां से घर चली आई। जहाँ जाना था, अब वहां जाने का मन नहीं था। या यो कहो के हर बस से नफरत सी होने लगी थी।

***

2

हल्की ठंडी-ठंडी हवा जब मेरे गालों को छूकर गुज़रती तो पृकृति के स्पर्श का अहसास होता।

मैं झील के किनारे बैठ लहरों को देख रहीं थी।हमारे शहर की रातों में एक अजीब बात है। कुछ तो ऐसा है जो पत्थर से या तो कविता करवा लेती है। या यहाँ आने वाले हर इंसान के दिल से शादी कर लेती है। बोहोत प्यारी है ये रातें।

आसमां में मुझे प्रेम का एक आकार दिख रहा था। जो बोहोत बड़ा है। चारो तरफ फैला हुआ प्रेम का आकार। और झील की एक-एक लहर से पीछा छुड़ाती रूहें ऊपर जाती दिख रहीं थी। जाने कौन सी रूहें है ये, जो इन रातों से प्यार नहीं करती। हम्म… येभी उस बस टॉप वाले लड़के की तरह होगी।

मैं लगातार आसमां और पानी के बीच जो हिस्सा था इसे देख रहीं थी। जहाँ था तो कुछ नहीं पर देखकर सुकून मिल रहा था। तभी एक रुह उड़ते हुए मेरी ओर आती दिखी मैं डरी नहीं, वो ठीक मेरे चेहरे के पास आ गई। उसकी आँख में कुछ था। पूरा एक शहर। सड़के,गाड़ी, घर, लोग सब कुछ था। उसने कहा पानी पीना है, मैंने कहा यहाँ पानी की क्या कमी। वो मेरे और नज़दीक आई। और मेरे होंठों में थप्प की आवाज़ के साथ समा गई।

मैंने जब आंखें खोली तो रात के दो बजकर तेरह मिनट्स हो रहे थे। मुझे याद आया कल एक फिल्म के लिए मेरा ऑडिशन है। मैंने सोने की कोशिश की। और नींद भी आ गई। पर वो रात वाली रूहें फिर नहीं आई।

***

3

"पत्थर एक बार मंदिर में गया,और भगवान बन गया। इंसान हर दिन मंदिर में जाता है, फिर भी इंसान नहीं बन पाता..!!

"कट। ठीक है। तुम्हें Msg या call कर देंगे"

मेरे ठीक-ठाक डायलॉग के बाद, और उस कास्टिंग डिरेक्टर के कॉल वाली बात के बाद मैं सिर्फ मुस्कुरा सकि,

मैं सब की तरह talented नहीं हूँ। मैं सिर्फ कविताएँ लिखती हूँ। वो भी जब बोहोत खुश रहु तब, या बेहद दुखी।

"वैसे आप बेहद खूबसूरत हो।

"थैंक्स" मैंने कास्टिंग डिरेक्टर से नज़रें चुराते हुए कहा। वो मेरे करीब आया और बोला "चाहो तो सीधे एक फिल्म में रोल दिलवा सकता हूँ"।

मुझे कुछ-कुछ उसकी बातें समझ आ रहीं थी। उसने फिर कहा "बस एक बार....।।

सटाक..एक तमाचे की आवाज़ गुंजी, मेरे गाल पर उसने अभी अभी एक ऊँगली रखी थी। जो मेरे हाथ को ठीक नहीं लगा। मैं जितनी जल्दी वहाँ से निकल सकती थी निकल आई।

मैं लगातार दौड़ रही थी। मेरी आँख में जैसे समंदर उछल रहा था। जो लगातार रिस रहा था। मैं आज एक कविता लिखने वाली थी। एक स्त्री के संवेदनाओ पर।

एक नारी के साथ हुए हादसे केवल फाइल बन कर रह जाते है। हमारे भारत की सिर्फ ऊपरी परत तरक्की कर रही है। लेकिन भीतर हम अपनों को ही तोड़ मरोड़ देते है। एक स्त्री के"मैं" पर गैर "उस" का स्पर्श आसमां जितना घिनोना लगता है। मैं कमरे में आकर घंटो रोती रही। मैं इस लिए नहीं रो रही थी कि इस दुनिया में मैंने जनम क्यों लिया। बल्कि इस लिए की ऐसा सिर्फ मेरे नहीं सारी स्त्रियों के "मैं" के साथ होता है।

***

4

हम गुनाह नहीं है। हम सब भी तो दुनिया बदल सकती है। हमारा होना क्यों बुरा लगता है। हमारा नहीं होना भी तो चुभता है। हम जिये या नहीं जिये। हम जीते जी मरते है। हमे आसमां नहीं, बारिश का गंदा पानी समझा जाता है।

मैं अपनी डायरी को भर रह थी। पर मेरा हाथ कांपने लगा था। इस बारे में डॉक्टर से भी बात हुई थी। उसने कांपने का कारण हाई ब्लड-प्रेशर या दिमाग की नसों पर प्रेशर बताया। इस टेबल-लैम्प की रौशनी जैसे मेरी त्वचा को चूम रही थी। साथ में रेडियो भी मुझे निहार रहा था। जो धीमी आवाज़ में बज रहा था। मैं दीवार से टिक कर इस दुनिया को समझने की कोशिश कर रही थी।

कुछ किताबें उनके खोले जाने का इंतज़ार कर रहीं है। आज एक स्त्री का होना, लैम्प की रौशनी में उड़ते छोटे-छोटे कण जितना छोटा लग रहा था। मैंने अपनी हारी हुई और थकि हुई आंखों को, और लैम्प को एक साथ बंद कर दिया।

***

5

पंखे की आवाज़ एक सुर में आ रही है। डायरी को खोले रख कविता हो रही थी। डायरी के पन्नों पर लिखने से जो सुख मिलता है। मेरे लिए यही सुख सबसे बड़ा है।

ये लगातार घूमती पृथ्वी।

लगातार मरते दिन और

लगातार क़त्ल होती रातें।

जो, अभी हूँ मैं,तो खलता मेरा होना,

मेरे बाद मेरा होना, तो क्या मेरा होना।

तिनके से पहाड़ बनकर फिर

टूट जाना,

सभी चेहरे बस

पहचानते,जानता सिर्फ मेरा "मैं"।

बज रहा डमरू डम डम डम,

जब थक जाएगा वानर,

सो जायेगा पोटली पर।

***

6

पैदल, मोटर-साइकिल वाले, दूध वाले,

कार वाले, किसी को वो नज़र नहीं आता।

सड़क पर गिरे उस फूल को हर वर्ग का इंसान

कुचलते हुए निकल रहा था।

वो बस गिरे रह जाता है,उठकर दौड़ना

चाहता भी होगा, पर उसे यहाँ नहीं तो,

कहीं और कुचले जाने का डर था।

साधारण फूल ही समझा जाता है उसे।

उसक खुशबु सड़क

पर विलाप कर रही होती है।

***

7

मैं इस पेड़ के नीचे खुदको मेहफ़ूज़ मान सकती हूँ। ये ठीक वैसी फीलिंग है जैसे एक बुज़ुर्ग के कदमों में बैठकर होती है। इस पेड़ की छाया मुझे सुकून दे रही है। मेरे आस-पास जैसे एक शुरक्षा-चक्रबन सा गया है।

मेरे मोबाइल की रिंग बजी, उस तरफ से माँ बोल रही है।

"सब अच्छा है माँ,पढ़ाई भी अच्छी चल रहीं है। मैंने कहा। "माँ मुझे अभी शादी नहीं करनी है,लड़का गूगल में काम करता है तो उसे बोलो क्या उसका गूगल मंदिर, मस्जिद के बाहर से चोरी हुए जूते चप्पल ढूंढ सकता है" मैं माँ से ज़बान लड़ा रही थी। मैं उन्हें अपनी शादी का सर्प्राइज़ देना चाहती थी। फिर उन्होंने कहा पूजा पाठ करो सब अच्छा होगा, दिमाग ठिकाने आ जायेगा। अब मैं अपना शांत पना इस हवा के साथ उड़ा चुकी थी।

"माँ अपने उस ऊपर वाले से कहना जब वो हम जैसी लाखों लड़कियों को बचाने आया करेंगे तब मैं पूजा पाठ करना शुरू कर दूंगी। उनसे पूछना जब हमारी इज़्ज़त लूटी जाती है तब वो क्यों नहीं आते। ठीक है माँ और अब मैं रखती हूँ, फिर कॉल करूँगी" मैंने फ़ोन काट दिया। मुझे याद भी नही है कि अभी-अभी मैंने माँ से क्या बात की। उठकर आते वक्त वहां पेड़ो की शाखों पर कई सवाल लटके देखे।

***

8

"सॉरी... सॉरी लेट हो गई....वो.…!

हम अक्सर इसी जगह कॉफी पीने आते है।

दौड़-भाग के बाद यहां बोहोत सुकून मिलता है।

"इट्स ok आशा"

अभिमन्यु ने यूँ कहा जैसे ये मेरा हरबार का जवाब है। अभिमन्यु! मैं और अभिमन्यु पिछले चार सालों से एक दूसरे को जानते है। इस शहर में मेने अभिमन्यु के बाद किसी इंसान पर भरोसा नहीं किया। मैं खुदको उसके पास मेहफ़ूज़ और खुश महसूस करती हूँ। पर आज वो किसी बात से परेशान है ऐसा लगता है।

"अभि!! क्या बात है....!

उसने कुछ नहीं कहा बस अपनी उंगलियों को मोड़ते हुए शून्य में खोया हुआ।

अभि!! मैंने फिर थोड़ा ज़ोर देकर कहा"

"हुं" वो जैसे अचानक जागा।

"बात क्या है" मैंने कहा।

"आशा सिर्फ मेरी बात सुनो...कुछ कहना नहीं"

और वो बस बोलता गया।

"देखो.….हर परिवार का एक सपना होता है। खासकर

माँ का, कि उनका एक लौता बेटा किसी अच्छी..… तुम समझ रहीं हो न। मतलब उन्हें एक बड़े घर की बहु चाहिए। और तुम.… मतलब तुम अच्छी हो लेकिन...."

"लेकिन मैं अमीर नहीं हूँ"

"नहीं.…वो बात..आशा मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता।

मैं अपनी माँ के फैसले के खिलाफ नहीं जाऊंगा"

उसने इस तरह बोला जैसे मैं अब और उस पर बोझ ना बनु।

मुझे इस वक्त क्या फील हो रहा था मैं बता नहीं सकती।

अभिमन्यु ने वादा किया था कि हम कुछ महीनों में शादी कर लेंगे। और हमारा भी परिवार होगा। कितनी सारी खुशियां मिलेगी। इस तरह के जाने कितने ख़्वाब एक पल में चकना-चुर हो गए थे। मैंने वहां से आते वक्त एक बार भी पलटकर नहीं देखा। न ही देखना चाहती थी।t

***

End

मुझमे अब और जीने की चाह नही रही थी। ये दुनिया तो बोहोत बड़ी है, शायद मैं इस दुनिया के लायक नहीं। मैं इस उचाई से कूद जाना चाहती हूँ। नीचे ओझल गहराई में हमेशा के लिए खो जाना चाहती हूँ। मर जाना चाहती हूँ।

"जब यूँही जाना था तो आई क्यों"

मैंने मुड़कर देखा। एक बूढ़ा आदमी ठीक मेरे पीछे खड़ा था।

"इतनी आसानी से तो नही मरना चाहिए तुम्हे"

उसने फिर कहा।

"मैं एक नारी के यथार्थ को स्वीकार नही कर पा रही हूँ"

मैंने कहा।

"एक तरफ का स्वीकारना तुम्हारे बस में नही,

वो समाज के हाथ में है"।

उसने कहा।

"मैं हर दिन भीतर से नही मरना चाहती, एक बार मर जाना चाहती हूँ" मेरी आँख की कोर में नमी आ चुकी थी।

"तेरे ही जैसी थी मेरी बेटी, उसका चेहरा जला दिया था कुछ लोगों ने,तेज़ाब को उस के चेहरे....वो मरी नहीं ...जीना चाहती थी, एक दिन उसको..... माँ ने फ़ोन लगाया उसको… उठाया नही ...होटल के छत से… छत से गिर गई थी...." उसने कुछ देर रुककर कहा।

" क्यों मरना है तुमको ..लोग आधे शरीर के साथ जीते है ।अरे इन कीड़े-मकोड़ो से डरकर कोई मरता है।...तेरी ज़रूरत है रे इस दुनिया को..लौट जा...लौट जा..."।

मैं कुछ बोल न सकि, मैं बस उसे जाते हुए देख रही थी। अगर सच में इस दुनिया को मेरी ज़रूरत है तो फिर मुझे सब के बराबर क्यों नहीं समझा जाता। स्त्री को कम, पुरुष को ज़्यादा क्यों समझा जाता है। मैं फिर से इस उलझी हुई दुनिया को समझने की कोशिश कर रही थी।

और समझते हुए फिरसे चल पड़ी थी

उसी दुनिया की ओर।

***