आजाद-कथा - खंड 1 - 55 Munshi Premchand द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आजाद-कथा - खंड 1 - 55

आजाद-कथा

(खंड - 1)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 55

आजाद का जहाज जब इस्कंदरिया पहुँचा, तो वह खोजी के साथ एक होटल में ठहरे। अब खाना खाने का वक्त आया, तो खोजी बोले - लाहौल, यहाँ खानेवाले की ऐेसी तैसी चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, मगर हम जरा सी तकलीफ के लिए अपना मजहब न छोड़ेंगे। आप शौक से जायँ और मजे से खायँ; हमें माफ ही रखिए।

आजाद - और अफीम खाना मजहब के खिलाफ नहीं?

खोजी - कभी नहीं! और, अगर हो तो भी क्या यह जरूरी है कि एक काम मजहब के खिलाफ किया, तो और सब काम मजहब के खिलाफ ही करें?

आजाद - अजी, तो किस गधे ने तुमसे कहा कि यहाँ खाना मजहब के खिलाफ है? मेज-कुर्सी देखी और चीख उठे कि मजहब के खिलाफ है? इस खब्त की भी कोई दवा है!

खोजी - अजी, वह खब्त ही सही। आप रहने दीजिए।

आजाद - खाओ, या जहन्नुम में जाओ।

खोजी - जहन्नुम में वे जायँगे, जो यहाँ खायँगे। यहाँ तो सीधे जन्नत में पहुँचेंगे।

आजाद - वहाँ अफीम कहाँ से आएगी?

इतने में दो तुर्की आए और अपनी कुर्सियों पर बैठ कर मजे से खाने लगे। आजाद की चढ़ी बनी। पूछा, ख्वाजा साहब, बोल गीदी, अब शरमाया या नहीं? खोजी ने पहले तो कहा, ये मुसलमान नहीं हैं। फिर कहा, शायद हों ऐसे-वैसे! मगर जब मालूम हुआ कि दोनों खास तुर्की के रहनेवाले हैं, तो बोले - आप लोग यहाँ होटल में खाना खाते हैं? क्या यह मजहब के खिलाफ नहीं?

तुर्की - मजहब के खिलाफ क्यों होने लगा?

आखिर, खोजी झेंपे। फिर होटल में खाना खाया। थोड़ी देर के बाद आजाद तो एक साहब से मिलने चले और खोजी ने पिनक लेना शुरू किया। जब नींद खुली, तो सोचे कि हम बैठे-बैठे कब तक यहीं मक्खियाँ मारेंगे। आओ देखें, अगर कोई हिंदुस्तानी भाई मिल जाय, यो गप्पें उड़ें। इधर-उधर टहलने लगे। आखिरकार एक हिंदुस्तानी से मुलाकात हुई। सलाम-बंदगी के बाद बातें होने लगीं। ख्वाजा साहब ने पूछा - क्यों साहब, यहाँ कोई अफीम की दुकान है? उस आदमी ने इसका कुछ जवाब ही नहीं दिया। खोजी तीखे आदमी। उनका भला यह ताब कहाँ कि किसी से सवाल करें और वह जवाब न दे? बिगड़ खड़े हुए न हुई करौली, खुदा की कसम! वरना तमाशा दिखा देता।

हिंदुस्तानी ने समझा, यह पागल है। अगर बोलूँगा, तो खुदा जाने, काट खाय, या चोट करे। इससे यही अच्छा कि चुप ही रहो। मियाँ खोजी समझें कि दब गया, और भी अकड़ गए। उसने समझा, अब चोट किया ही चाहता है। जरा पीछे हट गया। उसका पीछे हटना था कि मियाँ खोजी और भी शेर हुए। मगर कुंदे तौल-तौल कर जाते थे। फिर रोब से पूछा - क्यों बे, यहाँ ठंडा पानी मिल सकता है? वह गरीब झट-पट ठंडा पानी लाया। खोजी ने दो-चार घूँट पानी पिया और अकड़ कर बोले - माँग, क्या माँगता है? उस आदमी ने समझा, यह जरूर दीवाना है! आपकी हालत तो इतनी खराब है, पल्ले टका तो है नहीं और कहते हैं - माँग, क्या माँगता है? खोजी ने फिर तन कर कहा - माँग कुछ। उस आदमी ने डरते-डरते कहा - यह जो हाथ में है, दे दीजिए।

खोजी का रंग उड़ गया। जान तक माँगता, तो देने में दरेग न करते; मगर चीनिया बेगम तो नहीं दी जाती। उससे पूछा - तुम यहाँ कब से हो, क्या नाम है? उसने जवाब दिया - मुझे तहौबरखाँ कहते हैं!

खोजी - भला, उस होटल में मुसलमान लोग खाते हैं?

तहौवरखाँ - बराबर! क्यों न खायँ?

होटलवालों ने मिसकोट की कि खोजी को छेड़ना चाहिए। इस होटल में काहिरा का रहने वाला बौना था। लोग सोचे, इस बौने और खोजी से पकड़ हो तो अच्छा। बौना बड़ा शरीर था। लोगों ने उससे कहा - चलो, तुम्हारी कुश्ती बदी गई है। वह देखो, एक आदमी हिंदोस्तान से आया है। कितना अच्छा जोड़ है। यह सुन कर बौना मियाँ खोजी के करीब गया और झुक कर सलमा किया। खोजी ने देखा कि एक आदमी हमसे भी ऊँचा मिला, तो अकड़ कर आँखों से सलाम का जवाब दिया। बौने ने इधर-उधर देख कर एक दफा मौका जो पाया, तो मियाँ खोजी की टोपी उतार कर पड़ाक से एक धौल जमाई और टोपी फेंक कर भागा। मगर जरा-जरा से पाँव, भाग कर जाता कहाँ? खोजी भी झपटे। आगे-आगे बौना और पीछे-पीछे मियाँ खोजी। कहते जाते थे - ओ गीदी, न हुई करौली, नहीं तो इसी दम भोंक देता। आखिर बौना हाँफ कर खड़ा हो गया। तब तो खोजी ने लपककर हाथ पकड़ा और पूछा - क्यों बे! इस पर बौने ने मुँह चिढ़ाया। खोजी गुस्से से भरे तो थे ही, आपने भी एक धप जड़ी।

खोजी - और लेगा?

बौना - (अपनी जबान में) छोड़, नहीं मार ही डालूँगा।

खोजी - दे मारूँ उठा कर?

बौना - रात आने दो।

खोजी ने झल्ला कर बौने को उठा कर दे मारा। चारों खाने चित्त, और अकड़ कर बोले - वो मारा। और लेगा! खोजी से ये बातें?

इतने में आजाद आ गए। खोजी तने बैठे थे, उम्र भर में उन्होंने आज पहली ही मर्तबा एक आदमी को नीचा दिखाया था। आजाद को देखते ही बोले - इस वक्त एक कुश्ती और निकली!

आजाद - कुश्ती कैसी?

खोजी - कैसी होती है कुश्ती? कुश्ती और क्या?

आजाद - मालूम होता है, पिटे हो।

खोजी - पिटनेवाले की ऐसी-तैसी! और कहनेवाले को क्या कहूँ?

आजाद - कुश्ती निकाली!

तहौवरखाँ - हाँ हुजूर यह सच कहते हैं।

खोजी - लीजिए, अब तो आया यकीन!

आजाद - क्या हुआ क्या?

तहौवरखाँ - जी, यहाँ एक बौना है। उसने इनके एक धौल लगाई।

आजाद - देखा न! मैं तो समझा ही था कि पिटे होगे।

खोजी - पूरी बात तो सुन लो।

तहौवरखाँ - बस, धौल खा कर लपके। उसके कई चपतें लगाईं और उठा कर दे पटका।

खोजी - वह पटखनी बताई कि याद ही तो करता होगा। दो महीने तक खटिया से न उठ सकेगा।

तहौवरखाँ - वह देखिए, सामने खड़ा कौन अकड़ रहा है? तुम तो कहते थे कि दो महीने तक उठ ही न सकेगा।

रात को कोई नौ बजे खोजी ने पानी माँगा। अभी पानी पी ही रहे थे कि कमरे का लैंप गुल हो गया और कमरे में चटाख-चटाख की आवाज गूँजने लगी।

खोजी - अरे, यह तो वही बौना मालूम होता है। पानी इसी ने पिलाया था और चपत भी इसी ने जड़ी। दिल में कहा - क्या तड़का न होगा? जिंदा खोद कर गाड़ दूँ तो सही।

खोजी पानी पी कर लेटे कि दस्त की हाजत हुई। बौने ने पानी में जमाल-गोटा मिला दिया था। तिल-तिल पर दस्त आने लगे। मशहूर हो गया कि खोजी को हैजा हुआ। डॉक्टर बुलाया गया। उसने दवा दी और खोजी दस्तों के मारे निढाल हो कर चारपाई पर गिर पड़े। आजाद एक रईस से मिलने गए थे। होटल के एक आदमी ने उनको जा कर इत्तला दी। घबराए हुए आए। खोजी ने आजाद को देख कर सलाम किया, और आहिस्ता से बोले - रुख्सत! खुदा करे, तुम जल्द यहाँ से लौटो। यह कह कर तीन बार कलमा पढ़ा।

आजाद - कैसी तबीयत है?

खोजी - मर रहा हूँ, एक हाफिज बुलवाओ और उससे कहो, कुरान शरीफ पढ़े।

आजाद - अजी, तुम दो दिन में अच्छे हो जाओगे।

खोजी - जिंदगी और मौत खुदा के हाथ है। मगर भाई, खुदा के वास्ते जरा अपनी जान का ख्याल रखना। हम तो अब चलते हैं। अब तक हँसी-खुशी तुम्हारा साथ दिया; मगर अब मजबूरी है। आब-दाने की बात है, हमको यहाँ की मिट्टी घसीट लाई।

आजाद - अजी नहीं आज के चौथे रोज दनदनाओगे। देख लेना। डंड पेलते होगे।

खोजी - खुदा के हाथ है।

आजाद - देखिए, कब मुलाकात होती है।

खोजी - इस बूढ़े को कभी-कभी याद करते रहना। एक बात याद रखना, पर देस का वास्ता है, सबसे मिल-जुल कर रहना। जूती-पैजार, लड़ाई-झगड़ा किसी से न करना। समझदार हो तो क्या, आखिर बच्चे ही हो। यार, जुदाई ऐसी अखर रही है कि बस, क्या बयान करूँ।

आजाद - अच्छे हो जाओ, तो हिंदोस्तान चले जाना।

खोजी - अरे मियाँ, यहाँ दम भर का भरोसा नहीं है।

दूसरे दिन आजाद खोजी से रुख्सत हो कर जहाज पर सवार हुए। इतने दिनों के बाद खोजी की जुदाई से उन्हें बहुत रंज हो रहा था। थोड़ी देर के बाद नींद आ गई, तो ख्वाब देखा कि वह हुस्नआरा बेगम के दरवाजे पर पहुँचे हैं और वह उन्हें फूलों का एक गुलदस्ता दे रही हैं। एकाएक तोप दगी और आजाद की आँख खुल गई। जहाज कुस्तुनतुनिया पहुँच गया था।

***