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क्षण भर जीवन मेरा परिचय

क्षण भर जीवन मेरा परिचय

आशीष कुमार त्रिवेदी

"मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन मेरा परिचय"

इन पंक्तियों में जीवन का सार छिपा है। मिट्टी का तन जीवन की क्षणभंगुरता की ओर इशारा करता है। संदेश देता है कि यह एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। किंतु मस्ती भरा मन इस क्षणभंगुरता में भी जीवन का पूरी तरह रसपान करना चाहता है। भले ही जीवन क्षण भर हो वह उसे पूर्णता में जीना चाहता है। सारी तकलीफों परेशानियों को स्वीकार कर जीवन को गले लगाना चाहता है।

उपरोक्त पंक्तियों द्वारा हिंदी साहित्य के एक महान कवि ने अपना परिचय दिया है। वह कवि जिसकी कविताएं कठिनाइयों की बात करते हुए भी जीवन से भागने की बजाय उसे गले लगाने की प्रेरणा देती हैं। जहाँ सपनों का मधुर संसार तो है किंतु पांव पूरी दृढ़ता से ज़मीन पर चिपके रहते हैं। जहाँ आप जीवन की सच्चाइयों के बीच भी मधु का आस्वादन कर सकते हैं।

वह कवि हैं 'मधुशाला' के रचयिता श्री हरिवंश राय बच्चन। बच्चन जी हालावादी काव्य के अग्रणी कवि हैं। हालावाद में व्यक्ति की प्रधानता होती है। जिसमें कवि अपने प्रेम के स्वप्निल संसार में रहता है। बच्चन जी ने जीवन के सारे अवसादों के साथ जो भी मधुर या आनंददायक है उसे अपनाने की सीख दी है। अपनी कमियों पर विजय प्राप्त कर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है।

उनके पूर्व की कविता में छायावाद की बाहुलता थी। जिसके कारण हिंदी कविता केवल उपदेश मात्र बन गई थी। उसमें समाज सुधार की बातें व्यापक रूप से की जाती थीं। नैतिकता की प्रधानता के कारण कविता में शुष्कता आ गई थी। अतः हिन्दी कविता जनमानस और जन रुचि से बहुत दूर थी।

ऐसे में बच्चन जी एक ऐसे कवि के रूप में उभरे जो जीवन की विसंगतियों की बात तो करते हैं लेकिन इसकी आड़ में पलायनवाद को बढ़ावा नहीं देते। बच्चन जी की कविताओं में विरोध का स्वर सुनाई पड़ता है। वह अपनी कविताओं के माध्यम से समाज की कुरीतियों, रूढ़ियों व जड़ परंपराओं को उखाड़ फेकना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए केवल उपदेश नहीं देते बल्कि इन सब के बीच जीवन का आनंद लेते हुए इनसे लड़ने की प्रेरणा देते हैं। उनकी कविताओं में वास्तविक जीवन की शुष्कता को जिजीविषा से सींच कर हरा भरा कर देने की क्षमता है।

बच्चन जी ने अवसाद से भरे युग में जनसाधारण को उनके द्वारा समझी जा सकने वाली सरल भाषा में वह कविताएं दीं जो वह गा या गुनगुना सकते थे। जिनमें शुष्क उपदेश नहीं थे। जो भावनाओं से पूर्ण थीं और दुखी मन को जीने की, अपनी कठिनाइयों से लड़ने की प्रेरणा देती थीं। हिंदी कविताओं के चाहने वालों के लिए यह एक सुखद बदलाव था।

जीवन परिचय

हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 में इलाहाबाद के निकट प्रतापगढ़ जिले के एक गाँव बाबूपट्टी में हुआ था। उनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव तथा माँ का नाम सरस्वती देवी था। बाल्यकाल में इन्हें बच्चन कह कर बुलाते थे। जिसका अर्थ है बच्चा। यही बाद में उनके नाम के साथ जुड़ गया।

प्रारंभिक शिक्षा कायस्थ पाठशाला में हुई। यहाँ बच्चन ने उर्दू पढ़ना सीखा। बच्चन जी को बचपन से ही पढ़ने का शौक था। जहाँ छोटे बच्चे खेलते हुए अपना समय बिताते थे वह एकांत में बैठ कर पढ़ रहे होते थे।

बच्चन जी ने 1938 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अँग्रेज़ी साहित्य में एम. ए किया व 1952 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवक्ता रहे। 1952 में वह आगे की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गए। वहाँ उन्होंने अंग्रेज़ी के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएच. डी. पूरी की।

1955 में कैम्ब्रिज से वापस आने के बाद बच्चन जी की भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त हो गई। यहाँ उन्होंने बहुत सालों तक सेवा की। हिंदी भाषा के विकास में भी बहुत योगदान दिया। उन्होंने अपने कई लेखो द्वारा हिंदी भाषा को बढ़ावा दिया।

बच्चन जी को उनकी कृति 'दो चट्टाने' के लिए 1968 में हिन्दी कविता के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसी वर्ष उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बिड़ला फाउण्डेशन ने उनकी आत्मकथा के लिये उन्हें सरस्वती सम्मान प्रदान किया था। बच्चन जी को भारत सरकार द्वारा 1976 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया था।

बच्चन जी राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे।

18 जनवरी 2003 को मुंबई में उनका निधन हो गया।

साहित्यिक कृतियां

बच्चन जी का विधार्थी जीवन से ही लेखन के प्रति झुकाव था। जब वह एम.ए. कर रहे थे तब उन्होंने फ़ारसी के प्रसिद्ध कवि ‘उमर ख्य्याम' की रुबाईयों का हिन्दी में अनुवाद किया। यह अनुवाद नौजवानों का प्रिय बन गया। इसने बच्चन जी को उनका चहेता बना दिया था।

इस अनुवाद की सफलता से उत्साहित होकर बच्चन जी ने 'मधुशाला' 'मधुबाला' 'मधुकलश' में अनेक मौलिक रचनाएं संग्रहित कीं। इनमें मधुशाला सर्वाधिक प्रचलित रही। इसमें एक सौ पैंतीस रूबाइयां यानी चार पंक्तियों वाली कविताएं हैं। मधुशाला बीसवीं सदी की शुरुआत के हिन्दी साहित्य की अत्यंत महत्वपूर्ण रचना है, जिसमें सूफीवाद का दर्शन होता है।

मधुशाला में मदिरा को आधार बना कर बच्चन जी ने बहुत बेबाकी से समाज की कुरीतियों, रूढ़ियों, अमीर गरीब व धर्म के भेद आदि पर प्रहार किया। है। यही कारण है कि मधुशाला साहित्य के दिग्गजों के साथ ही साथ आम जनता में भी लोकप्रिय है।

दरअसल बच्चन जी का मदिरालय तो यह दुनिया है। जिसमें वह सभी को जीवनरूपी मदिरा का प्याला पीने के लिए आमंत्रण देते हैं। बच्चन जी की मदिरा नशे में डूब कर जीवन के दुखों से छुटकारा पाने के लिए नहीं है। बल्कि इस मदिरा का प्याला पीकर व्यक्ति सभी मुश्किलों के बावजूद भी जीवन को गले लगाने को तैयार हो जाता है। जीवन से भागने की नहीं बल्कि उसे जीने की उत्कट इच्छा उसमें जाग्रत हो जाती है।

मधुशाला की पंक्तियों में जीवन के कई संदेश छिपे हैं।

'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'

सब मधुशाला के अलग अलग पथ बताते हैं। लेकिन पीने की चाह रखने वाला एक राह तय नहीं कर पाता है। बच्चन जी का कहना है कि सभी राह मधुशाला तक पहुँचती हैं। बस उस पर पूरे विश्वास के साथ चलो।

विभिन्न मत ईश्वर तक पहुँचने के अलग मार्ग बताते हैं। किंतु आस्थावान किसी पर भी चल कर उस तक पहुँच सकता है।

“दुत्कारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीने वाला,

ठुकराया ठाकुर द्वारे ने देख हथेली पर प्याला,

कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफ़िर को ,

शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।"

यह मधुशाला उन ठुकराए हुए लोगों की शरणस्थली है जो धार्मिक रूढ़ियों व बंधनों के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं।

“बैर बढाते मंदिर मस्जिद, मेल कराती मधुशाला”

इस पंक्ति के माध्यम से उन्होंने सामाजिक एकता को बढ़ावा दिया है।

1935 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में जब उन्होंने पहली बार मधुशाला का सार्वजनिक पाठ किया तो उन्होंने श्रोताओं का दिल जीत लिया। सभी तरफ बस वाह वाह ही सुनाई पड़ रहा था।

जहाँ मधुशाला के बहुत से चाहने वाले थे वहीं उसका विरोध करने वाले भी थे। विरोधियों का कहना था कि मधुशाला के ज़रिए बच्चन शराब को बढ़ावा दे रहे हैं। यह शिकायत गाँधी जी तक भी पहुँची। उन्होंने बच्चन जी को बुला कर इस बारे में पूँछा। बच्चन जी ने उन्हें स्वयं ही मधुशाला सुनाई। उसका अर्थ समझ कर गाँधी ने कहा कि मधुशाला में आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है।

मधुशाला' इस शताब्दी की सर्वाधिक बिकने वाली काव्य कृति है। अब तक 'मधुशाला' के पचास से अधिक संस्करण निकल चुके हैं। मधुशाला का जादू युवा पीढ़ी पर भी वैसे ही छाया है जैसा पहले था।

बच्चन जी ने हिंदी की विभिन्न विधाओं में लगभग पांच दर्जन रचनाएं लिखी हैं। अपनी प्रत्येक रचना में उन्होंने अपनी निष्ठा और अपनी कर्मठता से अपनी अनुभूतियों को शब्दों का जामा पहनाया है। उनकी भाषा बहुत सरल थी जो सीधे पाठकों के मन में उतर जाती है। उनकी भाषा बोलचाल की भाषा होते हुए भी प्रभावशाली है। लोकधुनों पर आधारित भी उन्होने अनेकों गीत लिखें हैं। सहजता और संवेदनशीलता उनकी कविता का एक विशेष गुण है।

मधुशाला के अतिरिक्त उनकी अन्य रचनाएं निम्न हैं

तेरा हार (1932) मधुकलश (1937), निशानिमंत्रण (1938), एकांतसंगीत (1939), आकुलअंतर (1943), सतरंगिनी (1945), हलाहल (1946), बंगाल का काव्य (1946), खादी के फूल (1948), मिलन यामिनी (1950), प्रणय पत्रिका (1955), धार के इधर उधर (1957), आरती और अंगारे (1958), बुद्ध और नाचघर (1958), त्रिभंगिमा (1961), चार खेमे चौसठ खूंटे (1962), दो चट्टानें (1965), बहुत दिन बीते (1967), कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968), उभरते प्रतिमानों के रूप (1969) और जल समेटा (1973).

बच्चन जी ने गद्य में भी अनेक रचनाएं की हैं।

बच्चन के साथ क्षण भर (1934), खैय्याम की मधुशाला (1935), सोपान (1953), कवियों में सौम्य पंत (1960) (निबंध), नए-पुराने झरोखे (1962) (निबंध), टूटी-फूटी कड़ियां (निबंध)

इसके अतिरिक्त बच्चन जी ने कई अनुवाद भी किए हैं।

खैय्याम की मधुशाला (1935), मैकबेथ (1957), जनगीता (1958), आथेलो (1959), उमर खैय्याम की रुबाइयाँ (1959), चौंसठ रूसी कविताएँ (1964), नागरगीता (1965), हेमलेट (1969), किंगलियर (1972)

बच्चन जी की आत्मकथा

बच्चन जी की आत्मकथा हिंदी साहित्य की सबसे सफल व महत्वपूर्ण आत्मकथा मानी जाती है। यह आत्मकथा चार खंडों में लिखी गई है।

1- क्या भूलू क्या याद करूँ (1969)

2- नीड़ का निर्माण फिर (1970)

3- बसेरे से दूर (1977)

4- दशद्वार से सोपान तक (1985)

'क्या भूलूं क्या याद करूँ' में बच्चन जी ने अपने बचपन से यौवन तक के दिनों के शाब्दिक चित्र खींचे हैं।

'नीड़ का निर्माण फिर से' के अंतर्गत बच्चन जी ने अपनी पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी पत्नी तेजी बच्चन के साथ पुनः घर बसाने का आत्मविश्लेषणात्मक वर्णन है।

तृतीय खंड 'बसेरे से दूर' में अपने विदेश प्रवास के बारे में बताया है।

अंतिम खंड 'दशद्वार से सोपान तक' अन्य तीन भागों की अपेक्षा विस्तृत है। सुविधा की दृष्टि से बच्चन जी ने इस पुस्तक के दो भाग कर दिये है। प्रथम पड़ाव में 1956 से 1971 तक की घटनाओं का वर्णन है। दूसरे पड़ाव में सन् 1971 से 1983 तक की घटनाओं का वर्णन है। यहाँ बच्चन जी ने विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषाधिकारी के पद पर तथा राज्य सभा के मनोनीत सदस्य के रूप में अपने कार्यकाल का जिक्र किया है। उन्होंने यहाँ अपने नाट्य-सृजन, अनुवाद, विदेश यात्राओं का उल्लेख भी किया है।

अपने घर 'सोपान' में पत्नी, बेटों, बहुओं के साथ बिताए गए दिनों को भी इस खंड में जगह दी है।

डॉ. धर्मवीर भारती ने बच्चन की इस आत्मकथा को हिन्दी के हज़ार वर्षों के इतिहास में ऐसी पहली घटना बताया जब अपने बारे में सब कुछ इतनी बेबाकी, साहस और सद्भावना से कह दिया है।

निजी जीवन

19 साल की उम्र में बच्चन जी का विवाह श्यामा के साथ हुआ था। दोनों के बीच बहुत प्रेम था। श्यामा क्षयरोग से ग्रसित अपनी माँ की सेवा करती थीं। दिसके कारण वह भी क्षयरोग की चपेट में आ गईं। बीमार श्यामा को बच्चन जी गौना करा कर अपने घर ले आए। श्यामा को अक्सर ज्वर रहता था। बच्चन जी उनकी सेवा करते थे।

इसी दौरान उन्होंने बी.ए. पास कर इलाहाबाद के हाईस्कूल में अध्यापक के रूप में काम करना शुरू कर दिया। बीमारी के कारण 17 नवंबर 1936 को पत्नी श्यामा का देहांत हो गया। इस घटना से बच्चन जी भीतर से बुरी तरह टूट गए। पत्नी श्यामा की मृत्यु के बाद लिखना-पढ़ना, कवि सम्मेलनों में जाना छोड़ दिया था। लेकिन उन्हें कवि सम्मेलनों से लगातार निमंत्राण मिलते रहते थे। अतः अपने दुख से उबरने के लिए उन्होंने कवि सम्मेलनों में जाना आरंभ कर दिया। किंतु पत्नी की मृत्यु का शोक मन ही मन उन्हें पीड़ित करता रहा। इस मनःस्थिति में उन्होंने द्वितीय श्रेणि में एम.ए. की परीक्षा पास की तथा विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे।

इसी समय में उनकी मित्रता कवि सुमित्रानंदन पंत से हुई। अपने दुख के दिनों में बच्चन जी ने एक गीत लिखा 'क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी'। यह गीत उनकी दूसरी पत्नी तेजी से विवाह का कारण बना।

31 दिसंबर 1941 को बच्चन जी अपने एक मित्र ज्ञानप्रकाश जौहरी के घर बरेली में थे। वहीं तेजी सूरी भी उपस्थित थीं। नए साल ते आगमन पर सबने इनसे कविताएं सुनाने का आग्रह किया। बच्चन जी ने अपनी कविताएं सुनाईं। तब उनसे 'क्या करूँ....' गीत सुनाने को कहा गया।

यह गीत बच्चन जी ने अपनी परेशान मनःस्थिति में लिखा था। जब किसी की भी संवेदना मन की पीड़ा हरने की बजाय उसे और बढ़ाती थी। वह एक पलंग पर बैठे थे। सामने उनके मित्र बैठे थे। उनके पीछे तेजी खड़ी थीं। गीत सुनाते हुए बच्चन जी भावुक हो गए। भावावेश में तेजी की आँखों से भी अश्रु बहने लगे। इसी बीच उनके मित्र व परिवार के लोग दोनों को कमरे में एकांत छोड़ कर चले गए। बच्चन जी तथा तेजी दोनों की आँखों से आंसुओं की धारा बह रही थी। दोनों एक दूसरे से लिपटे हुए थे। उसके बाद दोनों एक दूसरे के नज़दीक आ गए।

24 जनवरी 1942 को दोनों ने विवाह कर लिया। सिख परिवार में जन्मी तेजी बहुत ही योग्य तथा खुले विचारों की महिला थीं। उन्हें अभिनय और गायिकी का भी शौक़ था। कॉलेजों के दिनों में उन्होंने कई नाटकों में अभिनय तथा गायन आदि किया था।

बच्चन जी अपने कामों के लिए उन पर ही भरोसा करते थे। जब वह शोध करने विदेश गए थे तब उनके पीछे घर की सारी ज़िम्मेदारी तेजी ने ही संभाल ली थी। बच्चन जी तेजी बच्चन का बहुत खयाल रखते थे और उनका बहुत सम्मान करते थे। हरिवंश राय बच्चन और तेजी बच्चन अपने युवा दिनों में साहित्य सम्मेलनों में बहुत मशहूर हुआ करते थे। दोनों की आवाज़ और कवि बच्चन की दिल को छू लेने वाली कविताएँ लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती थीं।

बच्चन जी के दो पुत्र हैं। बड़े पुत्र अमिताभ बच्चन और छोटे पुत्र अजिताभ बच्चन। अमिताभ बच्चन हिंदी सिनेमा के प्रतिष्ठित कलाकार हैं। दूसरे पुत्र अजिताभ व्यवसायी हैं।

बच्चन जी का नेहरू जी तथा श्रीमती इंदिरा गाँधी से अच्छे संबंध थे। इसमें भी तेजी बच्चन की अहम भूमिका रही। तेजी अपने सामाजिक कार्यों के कारण आनंद भवन जाती रहती थीं। वहीं उनकी मुलाकात पंडित जवाहर लाल नेहरू से हुई थी। श्रीमती बच्चन ने ही हरिवंश राय बच्चन का परिचय नेहरु जी से कराया था। पंडित नेहरू ने ही इंग्लैंड जाकर शोध करने में बच्चन जी की सहायता की थी। इंदिर जी की शादी में हरिवंश राय तथा तेजी बच्चन ने एक युगल गीत गाया था। पंडित नेहरू ने ही उन्हें विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषाधिकारी का पद दिवनाया था। इस पद पर रहते हुए उन्होंने हिंदी के प्रचार प्रसार का महत्वपूर्ण काम किया।

उन्होंने सदैव सादगीपूर्ण जीवन बिताया। उन्हें ईश्वर पर आस्था थी और रामचरित मानस का पाठ करते थे। उनका मानना था कि यदि मन की हो तो अच्छा है लेकिन यदि ना हो तो और भी अच्छा है क्योंकी यह ईश्वर की इच्छा है।

बच्चन जी ने आत्मबल और परिश्रम के कारण जीवन में ऊंचाइयों को छुआ। उन्होंने वह सब प्राप्त किया जिससे उनके जीवन को सफल कहा जा सकता है।

हिंदी साहित्य पर बच्चन जी का प्रभाव

हरिवंश राय बच्चन जी का हिंदी साहित्य में विशेष स्थान है। उन्होंने गद्य एवं पद्य दोनों ही विधाओं में बहुत खूबसूरती के साथ अपनी कलम चलाई है। उनकी लेखन शैली में एक सहजता है। भाषा बहुत सरल है तथा ह्रदय को स्पर्श करने वाली है।

अपनी कविताओं के माध्यम से बच्चन जी पाठक के भीतर छिपी भावनाओं को उद्वेलित करते हैं। पाठक उन कविताओं में अपनी ही भावनाओं की अभिव्यक्ति पाता है। जिन तकलीफों को वह झेलता है उन्हें बच्चन जी की कविताएं स्वीकार्य बना देती हैं। वह उनसे प्रेरणा लेकर पीड़ा में भी आनंद लेना सीखता है।

बच्चन जी “पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले” के द्वारा लोगों को संदेश देते हैं कि कोई भी काम जाँचे परखे बिना नहीं करना चाहिए। “हो जाए न पथ में रात कहीं,

मंजिल भी तो है दूर नहीं,

यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी जल्दी चलता है,

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है”

इन पंक्तियों के ज़रिए वह एक कर्म योगी, एक मर्मयोगी, एक आकांक्षी की वास्तविक मनोदशा को उजागर करते हैं।

"मै जग जीवन का भार लिए फिरता हूँ, फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ।"

इन पंक्तियों में बच्चन जी के व्यक्तित्व के उस हिस्से की झलक है जिसमें वह सदैव दूसरों का भला सोंचते थे। सभी को अपना बनाने की बात करते थे।

उनकी कविताओं में आम बोलचाल के शब्दों का लयात्मक उपयोग किया गया है।

बच्चन जी ने कई लोक गीतों को भी कलमबद्ध किया है।

एक कवि के रूप में बच्चन जी को सर्वाधिक लोकप्रियता एवं सफलता मिली किंतु वह एक संपूर्ण लेखक थे। उनहोंने सामान रूप से कहानी नाटक, डायरी तथा बेहतरीन आत्मकथा भी लिखी हैं। यह रचनाएं ना केवल अपने आप में पूर्ण हैं बल्कि अपनी सरल शैली के कारण निरंतर पढ़ी जा रही हैं।

बच्चन जी के समकालीन साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामधारी सिंह दिनकर, रमेशचंद्र झा, भगवती चरण वर्मा, धर्मवीर भारती, शिवमंगलसिंह सुमन, सुमित्रा नंदन पंत आदि सभी महान विभूतियों ने उनकी मुक्त कंठ से तारीफ की है।

बच्चन जी के बारे में पंत जी कहते हैं “बच्चन की मदिरा चैतन्य की ज्वाला है जिसे पी कर म्रत्यु भी जीवित हो उठती है।"

हजारी प्रसाद द्विवेदी कहतें हैं “बच्चन की रचनाओं में समूचा काल और क्षेत्र भी अधिक गहरे रंगों में उभरा है।"

गणपति चंद्रगुप्त का कहना है "जब तक मानव हृदय में रागात्मकता का अवशेष रहेगा तब तक बच्चन की कविता का आकर्षण चिरंतन एवं चिरस्थाई रहेगा"

बच्चन जी के साहित्य में झलकने वाला जीवन दर्शन आशा से परिपूर्ण है। कविताओं के माध्यम से बच्चन जी ने संदेश दिया है कि जीवन की हर बूंद का आनंद लेना चाहिए। वेदना में भी सुख तलाशना चाहिए।

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