2. इंडिया थ्री जी पर बिजी
परिचय
जन्म तिथि- 16 जुलाई 1956
पेशे से चिकित्सा भौतिकीविद एवं विकिरण सुरक्षा विशेषज्ञ। पूरा नाम तो वैसे अरविन्द कुमार तिवारी है, पर लेखन में अरविन्द कुमार के नाम से ही सक्रिय। आठवें दशक के उत्तरार्ध से अनियमित रूप से कविता, कहानी, नाटक, समीक्षा और अखबारों में स्तंभ लेखन। लगभग तीस कहानियाँ, पचास के करीब कवितायें और तीन नाटक बिभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित और चर्चित। सात कहानियों के एक संग्रह "रात के ख़िलाफ" और एक नुक्कड़ नाटक "बोल री मछली कितना पानी" के प्रकाशन से सहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में एक विशिष्ट पहचान बनी। आजकल विभिन्न अख़बारों और वेब-पत्रिकाओं में नियमित रूप से व्यंग्य लेखन। अब तक करीब सौ से ऊपर व्यंग्य रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। एक कविता संग्रह “आओ कोई ख्वाब बुनें” और एक व्यंग्य संग्रह “राजनीतिक किराना स्टोर” अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति—चिकित्सा महाविद्यालय, मेरठ (उ० प्र०) में आचार्य (चिकित्सा भौतिकी)
ई-मेल: tkarvind@yahoo.com
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अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब धरती पर सात अरबवां बच्चा पैदा होने वाला था। और दुनिया भर की तामाम सनसनियों ने अपने अपने पिटारों से अपनी गर्दनें निकाल कर पूरी दुनिया को सनसना दिया था। सभी अचानक से ही यह चाहने लगे थे कि वह बच्चा उनके घर में पैदा हो। पर हरेक की ऐसी किस्मत कहाँ? पहले सुना गया था कि यह मुबारक मौका जिला बागपत को मिलेगा। फिर पता चला कि खुशियों का वह यादगार पल बागपत को ठेंगा दिखाते हुए और यमुना एक्सप्रेस-वे से बाहर ही बाहर होते हुए लखनऊ की नर्गिस से मिलने के लिए चला गया। पर आखिर में जब खुशियों की हांडी में से पर्ची निकाली गयी, तो सबके अरमानों पर पानी फिर गया। सम्मान की उस नायाब ट्राफी को फिलिपीन्स, रूस और भारत में बराबर बराबर बाँट दिया गया। सब का दिल टूट कर टोटे-टोटे हो गया। याद कीजिये, आप का भी ज़रूर टूटा होगा। पर क्या करें? छप्पर फाड़ कर खुशियाँ और गड़ा हुआ खज़ाना हरेक को इतनी आसानी से थोड़े ही मिल जाता है।
पर थैंक गॅाड, हमें तो यह सुन कर तसल्ली हुयी कि नयी जनगणना के अनुसार हमारे देश की आबादी उतनी नहीं बढ़ी, जितनी कि बढ़ने की आशंका थी। अब इसका कारण लोगों की जागरूकता थी या कि परिवार नियोजन के साजो-सामान का ग्लैमराइज्ड प्रचार-प्रसार। भूकंप, सुनामी, ट्रेन दुर्घटनाओं, हारी-बीमारी और ज़हरीली शराब की खुले आम मेहरबानी थी या कि पेट्रोल पम्पों आदि पर एक-से-एक जायकेदार फ्लेवर और डिजाइन के कंडोम आदि की आसानी से उपलब्धता या फिर कुछ और? कहना मुश्किल है। पर कुछ ज्ञानी मनुष्यों का कहना है कि यह सब कुछ “थ्री जी” के कारण हुआ है। क्योंकि अचानक से ही सारे काम-काज छोड़ कर इंडिया वासी थ्री जी पे बिजी हो गए थे।
वैसे इंडिया के कुछ लोग तो टू जी पर भी बिजी हुए थे। पर वे आबादी को घटाने के लिए नहीं, अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए हुए थे। उन में से अधिकांश तो बाद में तिहाड़ जेल में जाकर सन्यासी हो गए। राजा रंक बन गया। और धूप का चश्मा धारी एक वृद्ध पिता अपनी आँखों की पुतली की सलामती के लिए बाबुल की दुआएं लेती जा वाला गीत घूम घूम कर गाने लगा। पर क़ानून तो कानून, ऊपर वाले और जनता की अदालत में भी उस बाबुल की कहीं कोई सुनवाई नहीं हुयी। ठीक ही कहा गया है कि किसी का भी समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता। आसमान पर उड़ने वाले भी एक न एक दिन जमीन पर आ ही गिरते हैं।
बहरहाल, जहाँ तक आबादी के बढ़ने का सवाल है, हमारी सरकार हमेशा से ही उसको नियंत्रित करने के बंदोबस्त में लगी रहती है। पुराने किसी ज़माने में नसबंदी का प्रोग्राम लागू किया गया था। और वह भी प्यार मोहब्बत से प्रेरित करके नहीं, ज़बरन करके ज्यादा। फिर क्या था? सरकारी डाक्टरों को तब उस ज़बरन नस काटने के पुनीत कार्य में इतना आनंद आने लगा था कि उन्होंने जवान पुरुषों और मर्द की नसें तो काटीं ही काटीं, बूढें-बूढ़ियों, कुत्ते-बिल्लियों और बन्दर-बन्दरियों तक की नसबंदी कर दी। और कईयों की तो कई-कई बार कर दी। अब उससे आबादी कितनी घटी, इसकी जानकारी तो आरटीआई से भी नहीं मिल रही। पर यह सभी जानते हैं कि उस ताबड़-तोड़ नसबंदी से तब की केंद्र की सरकार ज़रूर गिर गयी थी। आज भी नसबंदी वाला कार्यक्रम लागू तो है, पर ताबड़-तोड़ नहीं, कोटा पूरा करने के नाम पर औरतों को गिनी पिग बना कर। उन्हें जान से मार कर। बीच-बीच में कई और नुस्खे भी आजमाए गए। लोगों को ब्रह्मचर्य और संयम का पाठ पढ़ाने से लेकर घर-घर लंघोट बांटने और सिर्फ दो ही बच्चों वालों को कुछ अतिरिक्त सरकारी सुविधायें प्रदान करने का लालच देने तक। पर आबादी उतनी नहीं घटी जितनी कि अनुमानतः उसे घट जानी चाहिए थी। पर अबकी तो थ्री जी के कारण उसकी वृद्धि की दर काफी थम सी गयी है।
इसलिए अब सरकार को चाहिए कि वह स्कूलों कॉलेजों में सेक्स एजूकेशन दिलवाए या न दिलवाए। परिवार नियोजन के उपकरणों को हर जगह आसानी से उपलब्द्ध करवाये या न करवाये। मैनफ़ोर्स जैसी कंपनियों को प्रोत्साहित करे या न करे। लोगों को अनुशासित और पार्टनर के प्रति वफादार रहने के लिए सांस्कृतिक पाठ पढ़ाये या न पढ़ाये। गावों से होकर गुजरने वाली रात की ट्रेनों को बंद करे या न करे। पर लोगों को मुफ्त में मोबाईल फोन ज़रूर बाँट दे। और वह भी थ्री और फोर जी वाला स्मार्ट फोन। क्योंकि तब लोग-बाग़ बात चीत, चैटिंग, इंटरनेट, मेसेजिंग, व्हाट्स ऐप और डाक्टर-डाक्टर टाईप के खेल खेलने में इतने मशगूल हो जायेंगे कि उनको संतान उत्पत्ति के असंयमित कार्यों के लिए समय ही नहीं मिल पायेगा। और अगर मिलेगा भी, तो मोबाईल का रेडिएशन उन्हें यह सब सफलता पूर्वक करने भी नहीं देगा।
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3. कहीं मैं असंवैधानिक तो नहीं
परिचय
जन्म तिथि- 16 जुलाई 1956
पेशे से चिकित्सा भौतिकीविद एवं विकिरण सुरक्षा विशेषज्ञ। पूरा नाम तो वैसे अरविन्द कुमार तिवारी है, पर लेखन में अरविन्द कुमार के नाम से ही सक्रिय। आठवें दशक के उत्तरार्ध से अनियमित रूप से कविता, कहानी, नाटक, समीक्षा और अखबारों में स्तंभ लेखन। लगभग तीस कहानियाँ, पचास के करीब कवितायें और तीन नाटक बिभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित और चर्चित। सात कहानियों के एक संग्रह "रात के ख़िलाफ" और एक नुक्कड़ नाटक "बोल री मछली कितना पानी" के प्रकाशन से सहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में एक विशिष्ट पहचान बनी। आजकल विभिन्न अख़बारों और वेब-पत्रिकाओं में नियमित रूप से व्यंग्य लेखन। अब तक करीब सौ से ऊपर व्यंग्य रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। एक कविता संग्रह “आओ कोई ख्वाब बुनें” और एक व्यंग्य संग्रह “राजनीतिक किराना स्टोर” अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति—चिकित्सा महाविद्यालय, मेरठ (उ० प्र०) में आचार्य (चिकित्सा भौतिकी)
ई-मेल: tkarvind@yahoo.com
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अच्छा खासा जी रहा था। खा रहा था। पी रहा था। कभी कभार ही सही ज़िंदगी के मजे भी ले रहा था। पर बुरा हो उन आकाओं का जिन्होंने अभी-अभी संविधान को नए सिरे से व्याख्यायित करने का बीड़ा उठा लिया है। और दिन-रात ज्ञानवर्धक गोलियों का सेवन करके जो ज्ञान अर्जित किया है उसे घूम घूम कर बांचते फिर रहे हैं। लेकिन अवतरित हुए इन नव विशेषज्ञों के ज्ञान ने मुझे बुरी तरह से डरा दिया है। मेरे कांफीडेंस की सारी चूलें हिल गयी हैं। दिमाग पूरी तरह से चकरा कर चकरघिन्नी बन गया है। अब तो खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते और नहाते-गुसल करते समय भी मैं भयभीत रहने लगा हूँ। समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूँ? और क्या न करूँ? दाहिने हाँथ से खाऊँ कि बायें हाँथ से? बाईं करवट लेटूं कि दायीं करवट? बच्चों को और खास कर के पत्नी को पहले की तरह प्यार करूँ कि न करूँ? कहीं ऐसा न हो कि अचानक से ही कोई दहाड़ता हुआ आये और कहने लगे कि पत्नी को इस तरह से प्यार किया जाता है क्या? यह तो पूरी तरह से असंवैधानिक है।
हालाँकि मैंने भारतीय संविधान को पढ़ा है। बहुत गहराई से तो नहीं, पर मोटा-मोटी तो पढ़ा ही है। लेकिन अब लग रहा है कि उन मोटी-मोटी बातों के पीछे काफी कुछ बारीक-पतली ऐसी बातें भी निहित थीं, जिनको या तो मैं पढ़ नहीं पाया था या फिर पढ़ा भी था, तो समझ नहीं पाया था। और समझा भी था, तो उसको अपने हिसाब से कब, कहाँ कैसे लागू करना है, यह कला नहीं सीख पाया था। वैसे भी, कहते हैं कि आधा-अधूरा और बिना गुना हुआ ज्ञान अज्ञानता से भी अधिक खतरनाक होता है। अपने उसी आधे-अधूरे ज्ञान से मुझे यह तो पता था कि हम एक स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं। और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारा संवैधानिक मौलिक अधिकार है। पर नए ज़माने के इन नए राष्ट्रभक्त विद्वानों ने मुझे बता दिया है कि कैसी अभिव्यक्ति? कैसी मौलिकता? और कैसी स्वतंत्रता? आप की आजादी का दायरा तो वहां ख़त्म हो जाता है, जहाँ से दूसरों का दायरा शुरू होता है। और आपका अपना दायरा आप नहीं, दूसरे तय करते हैं। और यह उन पर निर्भर करता है कि वे अपना दायरा कितना बड़ा या कितना छोटा रखना चाहते हैं। हो सकता है कि उनका दायरा इतना बड़ा हो कि आपका दायरा ही गोल हो जाये। आप लाख समझते रहें कि आप आज़ाद हैं। पर आप हैं नहीं। पता नहीं, संविधान सम्मत कौन सी धारा, कौन सा क़ानून, कौन सा फतवा और कौन सा खाप कब आकर आपकी गर्दन उड़ा दे।
उन्होंने मुझे अच्छी तरह से समझा दिया है कि आप हरे आतंक के खिलाफ बोल सकते हैं। सफ़ेद और लाल आतंक की आलोचना कर सकते हैं। पर आप कभी भी असीमानन्दी बाबा आदि के खिलाफ कुछ नहीं बोल सकते। क्योंकि वह असंवैधानिक होगा। आप राहुल को आऊल और अरविन्द को खुजली वाल कह सकते हैं। लेकिन नमो के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोल सकते। आप उनके भाषणों पर तालियाँ तो खूब पीट सकते हैं, पर ज़रूरी संवेदनशील मसलों पर उनकी चुप्पी के खिलाफ बिल्कुल नहीं बोल सकते। नहीं तो, तमाम वेल ट्रेन्ड दिग्गज संविधानवेत्ता पूरा का पूरा संविधान लेकर आपके ऊपर चढ़ जायेंगे।
आप टोल टैक्स के विरोध में मार-पीट और दंगा-फसाद कर सकते हैं। सदन में चाकू लहरा सकते हैं। मिर्ची पाउडर फेंक सकते हैं। माईक तोड़ कर तमाम मर्यादाएं लांघ सकते हैं। ज़बरिया या बहला-फुसला कर धर्म-परिवर्तन करा सकते हैं। पर नेताओं, मंत्रियों और अधिकारियों के किसी भी कृत्य के खिलाफ उंगली नहीं उठा सकते। आप सरकारी भ्रष्टाचार पर तो पूरे देश में घूम-घूम कर फर्जी अलख जगा सकते हैं। लेकिन कार्पोरेट खास कर के अम्बानी और अदानी के भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ भी नहीं बोल सकते। आप टूटे फूटे लोकपाल बिल की शान में जम कर कशीदे तो काढ़ सकते हैं, लेकिन उसी लोकपाल के गठन की न तो मांग कर सकते हैं और न ही जनलोकपाल बिल के बारे में सोच सकते हैं। आप साम्प्रदायिकता की आग भड़का कर जलते हुए देश में नीरो की तरह बैठ कर चैन की बंशी तो बजा सकते हैं, पर साम्प्रदायिकता निरोधक क़ानून लाने के लिए सरकार पर कोई दबाव नहीं डाल सकते। क्योंकि वह पूरी तरह से असंवैधानिक होगा। लेकिन क्यों और कैसे? मैं वाकई नहीं समझ पा रहा हूँ। और जो देश का लिखा हुआ स्वीकृत संविधान है, वह भी मुझे इस बात को ठीक से समझा नहीं पा रहा।