दो गधों की सैर वार्ता Arvind Kumar द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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दो गधों की सैर वार्ता

परिचय

जन्म तिथि- 16 जुलाई 1956

पेशे से चिकित्सा भौतिकीविद एवं विकिरण सुरक्षा विशेषज्ञ। पूरा नाम तो वैसे अरविन्द कुमार तिवारी है, पर लेखन में अरविन्द कुमार के नाम से ही सक्रिय। आठवें दशक के उत्तरार्ध से अनियमित रूप से कविता, कहानी, नाटक, समीक्षा और अखबारों में स्तंभ लेखन। लगभग तीस कहानियाँ, पचास के करीब कवितायें और तीन नाटक बिभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित और चर्चित। सात कहानियों के एक संग्रह "रात के ख़िलाफ" और एक नुक्कड़ नाटक "बोल री मछली कितना पानी" के प्रकाशन से सहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में एक विशिष्ट पहचान बनी। आजकल विभिन्न अख़बारों और वेब-पत्रिकाओं में नियमित रूप से व्यंग्य लेखन। अब तक करीब सौ से ऊपर व्यंग्य रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। एक कविता संग्रह “आओ कोई ख्वाब बुनें” और एक व्यंग्य संग्रह “राजनीतिक किराना स्टोर” अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है।

सम्प्रति—चिकित्सा महाविद्यालय, मेरठ (उ० प्र०) में आचार्य (चिकित्सा भौतिकी)

ई-मेल:

(एक)

दो गधों की सैर वार्ता

वे दो गधे थे। और दोनों अब जान-पहचान से आगे बढ़ कर अच्छे दोस्त बन चुके थे। दोनों दिन भर लादी लादते। अपने-अपने मालिक की चाकरी करते। और शाम को थोड़ा आराम करने के बाद जब उनके मालिक उन्हें घास चरने के लिए खुला छोड़ देते, तो वे अपने अपने जंजालों से पिंड छुड़ा कर घास भरे मैदानों की ओर सरपट भाग निकलते। इस तरह उनकी चराई भी हो जाती। सैर भी। और कुछ देर आपस में बात-चीत कर लेने से उनका मन हल्का भी हो जाता था। आज भी जब वे रोज़ की तरह मिले, तो रोज़ की औपचारिक हाय-हैलो के बाद पहले वाले ने दूसरे से पूछा---“कैसे हो यार?”

---“ठीक ही हूँ।” दूसरे ने रोज़ की तरह मुंह लटका कर जवाब दिया।

---“इसका मतलब है कि तुम अभी भी दुखी चल रहे हो?”

---“हाँ यार, क्या बताऊं? सब कुछ कर के देख लिया, पर मेरी ज़िंदगी में कोई बदलाव आ ही नहीं रहा। इस बीच ससुरे कितने घूरों के दिन बहुर गए, पर मेरी ज़िंदगी तो वैसी की वैसी ही है, बल्कि दिन पर दिन और खराब होती जा रही है।

---“तो भाग क्यों नहीं जाते? बहुत मालिक मिल जायेंगे। वैसे भी, आज कल मार्किट में गधों की कमी चल रही है। मालिकों की नहीं।”

---“यार, भाग तो जाऊं। पर...अच्छा यह बताओ कि यह दुनिया किस चीज़ पर टिकी हुयी है?”

पहले वाला चौंका---“क्या मतलब?”

---“बताओ न, यह दुनिया किस चीज़ पर टिकी हुयी है?”

---“पता नहीं यार, पर इस मसले को लेकर बड़ा कन्फ्यूजन है। कोई कहता है कि दुनिया गाय की सींग पर टिकी हुयी है। कोई कहता है कि कछुए की पीठ पर। कोई कहता है कि दुनिया शेषनाग के फन पर टिकी हुयी है। और कुछ वैज्ञानिक टाईप के लोग कहते हैं कि दुनिया गुरुत्वाकर्षण के बल पर टिकी हुयी है।”

---“यह तो बड़ी-बड़ी किताबी बातें हैं...पर मेरा व्यवहारिक ज्ञान तो यह कहता है कि यह दुनिया केवल और केवल उम्मीद पर टिकी हुयी है। और यह दुनिया ही क्यों? हर जीती-जागती चीज़ उम्मीद पर ही टिकी हुयी है। मैं भी टिका हुआ हूँ। और सच-सच बताना, तुम भी तो किसी न किसी उम्मीद पर ही टिके हुए हो? इतना सब कुछ सहने के बावजूद।”

---“हाँ यार, बात तो तुम पते की कह रहे हो़। अगर उम्मीद न होती, तो एडिसन बल्ब जलाने के काम में यूं जी-जानसे नहीं जुटता। उम्मीद न होती, तो कोलंबस अमेरिका की खोज नहीं करता। दुनिया मंगल ग्रह पर जीवन की तलाश में इस तरह दर-दर नहीं भटकती। उम्मीद है, तो दुनिया है। उम्मीद है, तो ज़िंदगी है। उम्मीद नहीं, तो कुछ भी नहीं। सब गुड़ गोबर। लोग तो उम्मीद टूट जाने के बाद कभी कभी इतने निराश हो जाते हैं कि आत्महत्या तक कर लेते हैं।”

---“वे कायर होते है...इसीलिये तो मैं जान-बूझ कर इस मालिक की नौकरी नहीं छोड़ रहा। क्योंकि मान लो मैंने मालिक बदल दिया, तो इस बात की क्या गारंटी कि वह इस वाले मालिक से अच्छा ही होगा। न मारेगा, न पीटेगा, न ज्यादा लादी लादेगा और भर पेट खाना भी देगा। देखो न, लोगबाग़ कितनी उम्मीदों से सरकार बदलते हैं। बड़ी बड़ी उम्मीदें लगा कर नयी सरकार का बाहें फैला कर स्वागत करते हैं। पर अगर वही नयी सरकार भी जब पुरानी वाली की तरह या उससे भी ज्यादा ख़राब साबित होने लगती है, तो कितना कष्ट होता है। फिर अगले पांच सालों तक रोने और आसूं पीने के अलावा कोई कुछ नहीं कर सकता।”

---“हाँ यार, तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो। अपने अच्छे समय, अच्छे दिनों और दिन बहुरने की उम्मीद में लोग बाग़ कड़ुई से कड़ुई दवाइयां भी खा लेते है। पर जब वह उम्मीदें पूरी नहीं होती हैं, तो दिल टूटा जाता है। जैसे कि उस बन्दे का टूट गया था।”

---“किस बन्दे का?’’

---“अरे उसी बन्दे का, जिसने ईनाम की उम्मीद में जाड़े की पूरी रात ठन्डे पानी में नंगे बदन खड़े हो कर गुज़ार दिया था। पर हुआ क्या? बाद में बादशाह सलामत ने उसे बेवक़ूफ़ तो बना ही दिया।”

---“अच्छा वो? लेकिन यार, बाद में बीरबल ने अपनी खिचड़ी वाले प्रयोग से बादशाह की आँखें खोल तो दी थीं। और तब बादशाह सलामत ने माफी मांगते हुए उस बन्दे को घोषित किया हुआ ईनाम दे तो दिया था।”

---“हाँ...पर आज कल बीरबल जैसे लोग कहाँ हैं? आज कल तो हर तरफ अंध भक्त, प्रवक्ता और प्रचारक भरे पड़े है। आजकल तर्कों से नहीं, कुतर्कों से आम जनता को समझाया जा रहा है।”

---“हैं यार, तर्क वाले लोग भी हैं। पर अभी वे सब नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बने हुए हैं?”

---“खैर छोड़ो। तुमने क्या सोचा है? ऐसे ही चुपचाप मालिक के लात-डंडे खा कर दिन रात रोते रहोगे या कि ज़िंदगी बदलने के लिए कुछ करोगे भी?”

---“करूंगा। पर अभी नहीं। मैं अभी कुछ दिनों तक और इंतज़ार करूंगा।”

---“किस चीज़ का? क्या तुमको अभी भी उम्मीद है कि तुम्हारा मालिक कुछ दिनों बाद बदल जायेगा?”

---“नहीं यार, यह बात नहीं है। मैंने तुमको बताया था न? अपनी उस उम्मीद के बारे में।”

---“क्या बताया था? और किस उम्मीद के बारे में?”

---“भूल गए? मैंने बताया था न कि मेरा मालिक जब भी अपनी बेटी से नाराज़ होता है, तो उसको मारते-पीटते हुए हमेशा धमकाता है कि अगर वह नहीं सुधरी, तो वह उसकी शादी किसी गधे से कर देगा। और मुझे उम्मीद है कि अगर हालात ऐसे ही रहे, तो एक न एक दिन मैं उस घर का दामाद ज़रूर बन जाऊँगा। खैर मेरी छोड़ो, अपनी सुनाओ।”

---“मैं तो सोच रहा हूँ कि घोड़ा बन जाऊं।”

---“घोड़ा? पर वह कैसे?”

---“सुना है कि सरकार बाहर से कोई ऐसी टेक्नालौजी इम्पोर्ट कर रही है कि जिससे गधों को खच्चर बनाये बगैर सीधे घोड़ा बनाया जा सकता है। मैं तो भगवान से रोज़ प्रार्थना कर रहा हूँ कि जल्दी से वह टेकनालौजी आये और मुझे इस नरक से छुटकारा मिले।”

---“अरे वाह! यह तो बड़ा अच्छा है। चलो, फिर मैं भी कुछ दिन और इंतज़ार करता हूँ। और अगर इस बीच मालिक ने अपनी कथनी को करनी में नहीं बदला, तो फिर मैं भी तुम्हारे साथ चल कर घोड़ा बन जाऊंगा।”

(दो)

पर मेढकों का क्या

पहले मेढकों का भी एक खास मौसम हुआ करता था। गर्मीं ख़त्म होते ही ये नज़र आते थे। और बरसात आते-आते हर तरफ तादात में उछलने, कूदने और टर्राने लगते थे। पर इधर जब से ओज़ोन की परत में छेद हुआ है और पर्यावरण असंतुलन के कारण मौसमों के मिजाज़ में फर्क आया है, तब से सब्जियों और फलों की तरह मेढकों का भी अब कोई अपना मौसम नहीं रहा। ये अब कहीं भी और कभी भी नज़र आ जाते हैं। और भाँति-भांति के और विभिन्न आकार-प्रकार के होते हैं।

चुनावों के मौसम में नज़र आने वाले मेढकों को चुनाव बाज़ मेंढक कहते हैं। ये ठीक चुनावी मौसम में पैदा होते हैं। और चुनाव ख़त्म होते ही अगले चुनाव तक के लिए लापता हो जाते हैं। ये जब पैदा होते हैं, तो एक या दो नहीं, सैकड़ों और हजारों की संख्या में पैदा होते हैं। और वो भी तरह-तरह के रूप और रंग वाले मेंढक। ऊपर से सीधे-सादे, भोले-भाले, मासूम, विनम्र और अन्दर से चतुर, चालाक और स्वार्थी मेंढक। धोती-कुर्ता, कुर्ता-पैजामा, सफारी सूट और रंग-बिरंगी टोपियों वाले मेंढक। और इस प्रकार के मेंढक सिर्फ पैदा ही नहीं होते, घर-घर जाकर दस्तक भी देते हैं। और “मुझको वोट दे दो...आल्ला के नाम पर दे दो...राम के नाम पर दे दो...जाति के नाम पर दे दो...कुनबे के नाम पर दे दो” टर्राने लगते हैं। उनकी नकली मासूमियत और फिर से झांसा देने के लिए पांसा फेंकने के नए अंदाज़ से प्रेरित होकर चुटकुले बाजों, हास्य कवियों और व्यंग्यकारों की प्रजाति के मेंढकों की भी एक नयी जमात पैदा हो जाती है। और वे भी मौके को भुनाने के चक्कर में कागज़, कलम, दावात और कम्यूटर-टैब लेकर मेढकों की तरह उछलने, कूदने और टर्राने लगते हैं।

इन दिनों प्री-पोल सर्वेक्षणों और राजनीतिक ज्योतिषियों का टर्राना भी काफी तेज़ हो जाता है। जितने चैनल उतने तरह के आंकड़ें। उतनी भविष्यवाणियां। उतने प्रकार की टर्राहटें। सुनते-सुनते कान पक जाता है। लेकिन उनकी टर्राहट जब एक बार शुरू होती है, तो फिर चुनावों के परिणाम आने तक बिलकुल बंद नहीं होती। वैसे, चैनलों के ये सर्वेक्षण या चुनाव नतीजों को लेकर इन ज्योतिषियों द्वारा की गयी भविष्यवाणियां यदा कदा ही सच होती हैं। और वह भी ठीक अंधे के हाँथ लगी किसी बटेर की तरह। और सच हों भी कैसे? एसी कमरे में बैठ कर या कुछ हज़ार लोगों से बात-चीत करके या फिर कम्प्यूटर पर ग्रहों-नक्षत्रों की चालें देखकर अगर जनता के मिजाज़ को ठीक-ठीक पढ़ा जा सकता, तो दुनिया भर की तमाम सत्ता विरोधी मुहिमों को शासकों ने गर्भ में ही मार दिया होता। फिर तो न कभी सीरिया में तख्ता पलटता, न ही कभी गद्दाफी की सत्ता जाती। और न ही किसी देश में कभी राजशाही का अंत होता।

बोर्ड की परीक्षाओं के करीब आते ही जब प्रतियोगी परीक्षाओं का गला काटू दौर दस्तक देने लगता है, तब अपनी कमीज़ को दूसरों की कमीज़ से अधिक सफ़ेद बनाने और दिखलाने के चक्कर में बच्चे तो बच्चे पैरेंट्स बेचारे भी तनावग्रस्त हो जाते हैं। और फिर मौका और दस्तूर देख कर जगह-जगह काउंसलिंग करने वाले मेढकों की एक नयी जमात पैदा हो जाती है। गली के हर नुक्कड़ पर रोज़ कोई न कोई नया काऊंसलर प्रगट हो जाता है। जिसको देखो वही काउंसलर बन कर पैरेंट्स व बच्चों को परीक्षा में सफलता पाने, एकाग्रता व स्मरण शक्ति बढ़ाने और तनाव को कम करने के गुर सिखाने लगता है। हलाकि इनमें से अधिकांश खुद तनाव ग्रस्त, असफल और भुलक्कड़ होते हैं।

इन मौसमी काउंसलरों की खास पहचान यह होती है कि वे कहीं से भी असली काउंसलर नहीं होते। वे काउंसलिंग का काम पार्ट टाईम के तौर पर करते हैं। बाकी के फुल टाईम में वे या तो कहीं क्लर्क होते हैं या मास्टर या अकेलेपन से बोर हुयी पत्नियां या छोटे-मोटे व्यापारी या फिर पूरे साल मनोविज्ञान से इतर किन्हीं अन्य कार्यों में संलग्न रहने वाले हारे-थके इंसान। एक काउंसलर हमेशा खुद को खरा और दूसरे को फर्जी बताता है। इस लिहाज़ से हिसाब लगाने पर पता ही नहीं चलता कि कौन असली है और कौन नकली? पर इन काउंसलरी मेंढकों का यह सीजनल धंधा उनके लिए बड़ा लाभप्रद साबित होता है।

मौके पर चौका-छक्का लगाने के लिहाज़ से ज़ल्दी ही कुछ बिजनस मैन टाईप के मेंढक भी बहती गंगा में सशरीर कूद पड़ते हैं। और कुंजी, गाईड, गेस-पेपर, मॉडल पेपर, याददाश्त बढ़ाने और नींद न आने की दवाइयों की दुकानें सजा-सजा कर टर्राने लगते हैं। और जिस तरह ‘सान्डे का तेल’ और 'मर्दाना कमजोरी का शर्तिया इलाज' वाली दवाइयां लोगों को बेवक़ूफ़ बना-बना कर बेची जाती हैं, उसी तरह से ये मेंढक भी अपने टिप्स, नुस्खे और दवाइयां छात्रों और अभिभावकों को भेड़ने लगते हैं।

अब इन काऊंसलारों के टिप्स वाकई कितने किताबी या कितने व्यावहारिक हैं या इन दवाइयों का असर कितना लाभदायक या हानिकारक होता है, यह तो कभी कोई नहीं बताता। पर यह एक सच है कि जिस तरह भूत-भूत कह कर बच्चों को डराने से उनके दिमाग में भूत का डर ज़िंदगी भर के लिए घर कर लेता है। उसी तरह पढ़ाई और कम्पटीशन को नाक का सवाल बना कर बच्चों को भयभीत कराने से वे न सिर्फ तनावग्रस्त हो जाते हैं, बल्कि छोटी-मोटी असफलतों से हताश हो कर आत्महत्या भी कर लेते हैं। पर उससे इन मेंढकों को क्या? उनको तो बस अपने टर्राने और टर्रा-टर्रा कर माल काटने से मतलब है।

(तीन)

ये ससुरी अफवाहें भी न

मेरी समझ में आज तक यह बात नहीं आयी कि यह क्यों कहा जाता है कि झूठ के पैर नहीं होते। अब अगर झूठ के पैर नहीं होते, तो फिर वह चलता कैसे है? और झूठ सिर्फ चलता ही नहीं, सरपट भागता कैसे है? अगर वाकई झूठ के पैर नहीं होते, तो वह पलक झपकते ही एक जगह से दूसरी जगह, एक इलाके से दूसरे इलाके और दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक कैसे पहुँच जाता है? क्या झूठ उड़ता है? लेकिन अगर वह उड़ता है, तो फिर यह क्यों नहीं कहा जाता कि झूठ के पंख होते हैं? वाकई झूठ को लेकर बहुत सारी झूठी भ्रांतियां फ़ैली हुयी हैं। लेकिन इसमें कहीं कोई भ्रम नहीं है कि झूठ जब अफवाहों की शक्ल अख्तियार कर लेता है, तो इंसानों की सारी बुद्धि, सारे विवेक और सारी सोच-समझ तेल लेने चली जाती है। वह लोगों की आँखों पर काली पट्टी बाँध देता है। और उसके नज़रबंदी के खेल में फंस कर तब उन्हें हर अगला आदमी बेधर्मी, काफिर और दुश्मन नज़र आने लगता है। पेड़ों की परछाइयां भूत। और रस्सी सांप बन कर डंसने के लिए पीछे-पीछे दौड़ने लगती है।

मैंने पढ़ा तो नहीं, पर सुना जरूर है कि हार्वर्ड यूनिवार्सिटी में किसी ने यह शोध किया है कि अगर किसी एक बात को एक साथ तीन लोगों से कहा जाये, तो वह आज के मोबाइल, व्हाट्स ऐप और इन्टरनेट के ज़माने में कुछ ही घंटों में तीन लाख लोगों तक आसानी से पहुँच जाती है। अब यह शोध कितना सही है, यह तो नहीं जानता। पर इतना जरूर जानता हूँ कि इस तरह के शोध प्रायः हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में ही कराये जाते हैं। और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका में है। उस अमेरिका में, जो बड़ा भारी समर्थ देश है। और समर्थ को नहीं दोष गुसाईं तो होता ही होता है। इसीलिए अमेरिका आज महानों में महान है। और वह भी इतना महान है कि कभी गलत हो ही नहीं सकता। न वह कभी ईराक में गलत था और न अब गलत है। न वह वियतनाम में कभी गलत था। न वह स्नोडेन के मामले में गलत था। और न ही गाजा हमास और सीरिया के मसले में अब गलत है।

हिटलर ने कहा था कि अगर किसी झूठ को जोर देकर दस बार कहा जाये, तो लोग उसे सच मान लेते हैं। पर उसने तो सिर्फ कहा था। इसका सही और सटीक इस्तेमाल तो अमेरिका ने किया। और कर के दिखा भी दिया। आज भी दुनिया के तमाम वैज्ञानिकों को इस बात का संदेह है कि अमेरिका ने अपोलो-11 को वाकई चन्द्रमा पर भेजा भी था या यूं ही बस जोर देकर दस बार से ज्यादे बार रेडियो और ट्रांजिस्टर से प्रचारित कर करा के दुनिया को भरमा दिया था। अब तो खैर नील आर्मस्ट्रांग महोदय स्वर्गवासी हो चुके हैं। इसलिए चाँद का वह कृष्ण पक्षीय सच हमेशा ही एक रहस्य ही बना रहेगा। पर यह रहस्य नहीं है कि अमेरिका झूठ के खेलों का बड़ा खिलाड़ी है। और अपनी इसी कला के दम पर वह पूरी दुनिया का बिग ब्रदर बना हुआ है। कभी वह केमिकल और बायोलोजिकल हथियारों का सवाल उठा कर दुनिया को डराता है। तो कभी आतंकवाद, लोकतंत्र पर आसन्न खतरे और परमाणु बम का भय दिखा कर सबको अपनी-अपनी पूंछ सटकाने के लिए मजबूर करता है। कुछ सालों पहले गणेश जी की दूध पिलाई के रस्म की पूरी पटकथा भी अमेरिका में ही लिखी गयी थी। अब आप मानें या न मानें, पर यह सच है कि पूरी दुनिया में फैले हुए तमाम अंधविश्वास, भूत-प्रेत और पुनर्जन्म जैसे अवैज्ञानिक विचारों को ज़मीन और खाद पानी देने का काम भी अमेरिका ही करता है।

पर हम भी किसी से कम थोड़े ही है। कौआ कान ले गया सुनते ही अपने कानों को देखने के बजाये ससुरे कौआ के पीछे लट्ठ लेकर दौड़ पड़ते हैं। और तब तक दौड़ते रहतें हैं जब तक कि थक हार कर गिर नहीं पड़ते। हाँथ, मुंह और घुटने फूट नहीं जाते। अब झूठ के पैर हों या न हों, अफवाहें तो जिन्न बन कर सच के चेहरे पर मिस्मैरिजम की पट्टी कस कर बांध ही देती हैं। इसीलिये धार्मिक ध्रुवीकरण के रास्ते फूट डाल कर निष्कंटक राज करने वाली ताकतें हमेशा इस वेल टेस्टेड फार्मूले यानि कि झूठ और अफवाहों का ही सहारा लेती हैं। और हम ऊल्लू बनावईंग के इस खेल में जाने-अनजाने किसी न किसी रूप में कोइ न कोई पार्टी बन ही जाते।

(चार)

उफ़ यह मोबाईल फोन

यह जो मोबाईल फोन है न, इसने पूरी दुनिया की जान को सांसत में डाल रखा है। इसका इस्तेमाल करो, तो मुसीबत। और न करो, तो और भी बड़ी मुसीबत। अच्छे भले इंसान आज चक्कर घिन्नी बनें फिर रहे हैं कि करें तो आखिर क्या करें? चक्करों के लिहाज़ से इसको लेकर पूरी दुनिया दो हिस्सों में बंट गयी है। आधे हिस्से के लोगों का मानना है कि मोबाईल फोन बहुत ज़रूरी है। क्योंकि यह सूचना क्रांति का दौर है। पर दूसरे आधे हिस्से का मानना है कि जब इस दुनिया में अभी भी अस्सी प्रतिशत लोग गरीब हैं, तो पहले उनकी गरीबी दूर की जानी चाहिए न कि उनके हाँथ में सूचना क्रांति का यह झुनझुना पकड़ा दिया जाये। गरीबों को चाहिए रोटी, कपड़ा और मकान। मोबाईल फोन नहीं।

पहले वाले आधे हिस्से के लोगों की दलील है कि मोबाईल फोन में इतनी ताकत है कि वह रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित लोगों को भी इतना समझदार, इतना प्रगतिशील और इतना क्रांतिकारी बना देगा कि वे रोटी, कपड़ा और मकान तो क्या पूरी दुनिया को भी अपनी मुट्ठी में कर लेंगे। और अगर उनके हाँथ में इंटरनेट वाला स्मार्ट मोबाईल फोन दे दिया जाये, तो न कोई उनको उल्लू बना पायेगा और न ही कोई उनको रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित रख पायेगा। यही नहीं, वे जब चाहें तब अपनी ज़रुरत की सारी चीज़ें आसानी से उससे डाऊनलोड कर लेंगे। चीज़ें खरीद पायेंगे। चीज़ें बेच पायेंगे। और अगर कहीं खुदा-न-खास्ते सारी दुनिया स्मार्ट और डिजिटल हो गयी, तब तो बस मौजा ही मौजा।

अब बहसें तो बहसें होती हैं। वे तो यूं ही हमेशा चलती रहती हैं। और सब से बड़ी मजेदार बात तो यह होती है कि जिन मुद्दों को लेकर ये बहसें चलती हैं, वे मुद्दे भी इनकी या इनसे निकलने वाले संभावित निष्कर्षों की परवाह किये बगैर लगातार चलते रहते हैं। और जब तक कोई ठोस नतीजा निकलता है, वे चलते-चलते इतनी दूर तक जा चुके होते हैं कि उनको पीछे खींच कर ला पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जता है। अब देखिये न, दोनों हिस्सों की ये बहसें अरसे से लगातार चल रहीं हैं। निष्कर्ष कुछ निकल नहीं रहा। पर मोबाईल फोन्स का प्रयोग दिन पर दिन लगातार बढ़ता जा रहा है। और अब तो हमारे यहाँ की सरकारें भी कहने लगी हैं कि मोबाईल फोन, इंटरनेट और वाई-फाई का प्रयोग खूब करो। दुनिया को अपनी मुट्ठी में बंद कर लो। और महंगाई, बेरोजगारी, बीमारी और भ्रष्टाचार की चिंता छोड़कर रूखा सूखा खाओ। ठंडा पानी पियो। और प्रभु के गुण गाओ।

वाकई मोबाईल फोन ने ऐसा कर भी दिया है। उसने हरेक की अपनी अपनी दुनिया को उसकी मुट्ठी में लाकर बंद कर दिया है। मालिक की दुनिया को मालिक की मुट्ठी में। नौकर की दुनिया को नौकर की मुट्ठी में। डाक्टर, मरीज़, सब्जी वाला, दूधवाला, कामवाली, सफाईवाला, स्कूल बस वाला, प्यार करने वाले, नफ़रत करने वाले, गरज यह कि हरेक की जेब में मोबाईल है। और हरेक की दुनिया उसकी मुट्ठी में। पति की दुनिया पति की मुट्ठी में। और पत्नी की दुनिया पत्नी की मुट्ठी में। आज के समय में मोबाईल फोन के कारण ही पत्नी को यह आसानी से पता चल जाता है कि जब उसका पति परमेश्वर घर पर नहीं होता है, तो हमेशा किसी न किसी ज़रूरी मीटिंग में ही क्यों होता है? अगर मोबाईल फोन न होता, तो पत्नियां अपने खाली समय का उपयोग कैसे करतीं? तब तो वे न तो पाक कला में निपुण होतीं और न ही सौंदर्य कला में। अब तो पूरा सरकारी मोहकमा भी मोबाईल फोन मय हो गया है। मुख्य मंत्रियों से लेकर प्रधानमंत्री तक ने यह साफ़-साफ़ कह दिया है कि हर अफसर और हर मंत्री हर समय अपने मोबाईल फोन पर उपलब्ध रहेगा। रोज़ शाम को अपने-अपने विभाग का फीडबैक देगा। और अगर किसी का मोबाईल फोन कभी बंद पाया गया, तो वह गया काम से। इसलिए आजकल मंत्री-अफसर जनता का फोन उठायें या न उठायें, अपने अपने आकाओं का फोन वे घंटी बजने से पहले ही उठा लेते हैं।

आज मोबाईल फोन ने बैंकिंग, बिल पेमेंट, रिचार्ज और ट्रेडिंग को सिर्फ मुट्ठी में ही नहीं, उँगलियों पर कर दिया है। दुनिया जहान की खबरों का एलर्ट फ़ौरन मिल जाता है। अध्यापकों को पढ़ाई के नोट्स और छात्रों को पूरी दुनिया में मित्र-मंडली बना कर उनसे बात-चीत करने की सुविधा आसानी से मिल जाती है। रंगीन मिजाज़ लोग जब चाहें तब डर्टी लिंक्स का मज़ा तो ले ही सकते हैं, डर्टी चैट्स और व्हाट्सऐप वीडियो के ज़रिये खुश और मस्त भी रह सकते हैं। दूसरी तरफ कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्होंने अपने मोबाईल फोन में देवी-देवताओं की इतनी तस्वीरें डाल रखी हैं, ताकि लोग बाग़ उनके बारे में और कुछ सोचने से पहले ही उनको शाकाहारी, सात्विक और धार्मिक ज़रूर मान लें। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने अपने मोबाईल में कई हीरो-हीरोइनों और देश और प्रदेश की सरकारी पार्टी के कुछ ख़ासम ख़ास नेताओं के साथ अपनी खुद की मॉर्फ की हुयी तस्वीरें भर रखी हैं। और जिनको दिखा-दिखा कर वे गाहे-बगाहे सामने वाले पर अपना रोब ग़ालिब करते हैं या फिर अपना ऊल्लू सीधा करते हैं।

मोबाईल फोन के ज़रिये जहां अपराधियों का अपराध करना आसान हो गया है, वहीं पुलिस के लिए भी अब अपराधियों को पकड़ पाना बहुत आसान हो गया है। लेकिन आतंकवादियों के सेटेलाईट फोन्स ने ज़रूर थोड़ा नाक में दम कर रखा है। वरना तो मोबाईल फोन के ज़रिये यह दुनिया अब तक पूरी तरह से अपराध मुक्त हो जाती। वैसे भी, अपराध और ज़रायम की दुनिया क़ानून की दुनिया से दो कदम आगे चलती है। तभी तो कानून हमेशा ही उसका पीछा करता रहता है। कभी तो वह अपने लम्बे हांथों की वजह से उस तक आसानी से पहुँच जाता है। और कभी सिर्फ हाँथ मलता रह जाता है।

आजकल तो बलत्कार की घटनाओं पर कोई भी अंकुश लगा पाने में असमर्थ कानून के रखवाले और क़ानून बनाने वाले अपने-अपने अनुभव और ज्ञान चक्षुओं की गहराइयों से एक ऐसी थ्योरी खोज कर ले आये हैं कि सारी दुनिया एक तरफ और उनकी थ्योरी एक तरफ। उनका कहना है कि यह जो रोज़-रोज़ बलात्कार की घटनाएँ हो रही हैं, उसकी वज़ह सिर्फ और सिर्फ मोबाईल फोन है। इसलिए मोबाईल फोन के चलन पर फ़ौरन ही बैन लगा देना चाहिए।

अब उनसे यह कौन पूछे कि आप सरकार में रह कर सरकार विरोधी बातें क्यों कर रहे हैं? एक तरफ तो आप ही की सरकार सौ नंबर और ढेर सारे इमरजेंसी हेल्प नंबर आदि बाँटती फिर रही है। और कहती फिर रही है कि निर्भया तुम डरो मत। तुम चलो संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। और दूसरी तरफ आप लोग मोबाईल फोन पर रोक लगवाना चाहते हैं। भाई मेरे अगर सिर्फ मोबाईल फोन और छोटे-आड़े-तिरछे कपड़ों की वजह से ही बलात्कार हो रहा है, तो फिर बच्चियों और प्रौढ़ महिलाओं का बलात्कार क्यों हो रहा है? बोलिए न हुज़ूर।