प्रपंची लाल की प्रपंच कथा Arvind Kumar द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

प्रपंची लाल की प्रपंच कथा

(1)

प्रपंची लाल की प्रपंच कथा

पिछले कई दिनों से हम महसूस कर रहे थे कि प्रपंची लाल काफी चिंतित और परेशान हैं। अब वे परेशान थे, तो हम सब भी परेशान थे। आखिर पुराने परिचित थे। हमारे मोहल्ले के एकमात्र प्रपंची लाल थे। रोज़ सुबह के मेरे और कई पड़ोसियों के चाय के साथी थे। हम प्याला और हम निवाला प्रकार के मित्र थे। पर न जाने क्यों, इधर काफी दिनों से वे एक लुटा-पिटा और उजड़ा हुआ चमन बन कर घूम रहे थे। रास्ते में आते-जाते मिल तो जाते थे, पर सूखी सी हाय-हैलो करके धीरे से खिसक लेते थे। उनके इस उखड़े हुए व्यवहार ने हम सभी प्रपंच पसंद लोगों को भी काफी कुछ उखाड़ कर रख दिया था।

अब औरों के बारे में तो मैं दावे के साथ कुछ नहीं कह सकता। पर सचमुच मुझे बहुत अच्छा लगता था, जब वे सुबह की चाय मेरे साथ लिया करते थे। मैं चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पलटता था। और वे मोहल्ले भर के धुएं और आग वाली खबरों से मेरे सामान्य ज्ञान का वर्धन किया करते थे। मसलन किसके घर आज आया नहीं आयी। किसका आज अपने दूधवाले से झगड़ा हो गया। किसका बेटा फेल हो गया। किसकी बेटी ने अपनी मर्जी से गैर बिरादरी में शादी तय कर ली। और किस साहब की किस कामवाली ने मोहल्ले भर में किस-किस तरह की बातें फैला रखी हैं। वगैरह-वगैरह।

पर अचानक ही न जाने क्या हुआ कि वे हमारे दैनिक जीवन से लगभग लापता हो गए। पहले आना कम किया। फिर रास्ते में दिखलाई देना। फिर मिलना जुलना कम कर दिया। और अब तो एकदम से गुमशुदा ही हो गए। और हम मोहल्लाई सूचनाओं के डेली अपडेट से पूरी तरह से वंचित हो गए। सुबह की चाय बे-स्वाद बे-मज़ा हो गयी। और अखबार की सारी खबरें बासी और रसहीन। कुल मिला कर सुबहें गुड होने के बजाय नीरस, बोरिंग और बैड हो गयीं।

वाकई मोहल्ले के हर घर से खबरों और कानाफूसियों को इकठ्ठा करना, फिर उन में नमक मिर्च लगा कर उनको चटपटा बनाना और फिर उनको लेकर घर-घर में इस्टाईल से बांचना कोई मामूली काम थोड़े ही है। इस के लिए विशेष दक्षता की जरूरत पड़ती है। अंगरेजी में इस कला को गॉसिप मास्टरी कहा जाता है। और आम बोलचाल की भाषा में प्रपंच वाचन। प्रपंच की यह कला हरेक को मयस्सर नहीं होती। यह किसी किसी को ही भगवान के मेहर के रूप में मिलती है।

वैसे तो, यह किशोरावस्था के कुछ अन्य रोमांचकारी शौकों की तरह निहायत ही निजी तौर पर शुरू होती है। फिर धीरे-धीरे एक लत बन जाती है। यह आम तौर पर नाजुक अंगों की उस खुजली की तरह होती है, जिसको खुजलाने में इंसान को पहले तो थोड़ा मज़ा आता है। फिर धीरे-धीरे करके ज्यादा मज़ा आने लगता है। लेकिन बाद में खुजलाते-खुजलाते वह एक ऐसे खाज में तब्दील हो जाती है, जिसको खुजलाते रहना इंसान की मजबूरी हो जाती है।

शोध कर्ताओं का मानना है कि प्रपंच का इतिहास बहुत पुराना है। प्राचीन काल में इस विधा पर सिर्फ महिलाओं का राज था। अतीत में अन्तःपुर की बांदियां या गाँव-जवार की दाइयां अन्दर खानें की तमाम रंगीन खबरों को नमक मिर्च लगा कर इधर-उधर सुनाती थीं। और प्रपंच पसंद लोगों से वाह-वाही और इनाम लूटती थीं। पर समय बदलने के साथ-साथ इस काम में धीरे धीरे पुरुषों की भी घुसपैठ होने लगी। अगर आंकड़ों पर यकीन करें, तो प्रपंच की इस कला में आजकल गाँव और शहर में कुल मिला कर जितनी औरतें लगी हुयी हैं, उससे कहीं ज्यादा मर्द सक्रिय हैं। इस तरह से देखें, तो यह आज कल पुरुषों की विधा बनती जा रही है। और अगर स्त्री-पुरूषों का लिंगानुपात इसी तरह से घटता रहा, तो जैसा कि अनुमान है कि आने वाले समय में जिस प्रकार से पुरूष ही पुरूषों की पत्नी बनेंगें और विज्ञान माता की कृपा से पुरुष ही गर्भ धारण करके संतान को जन्म देंगे, ठीक उसी प्रकार प्रपंच के क्षेत्र पर भी पूरी तरह से पुरूषों का एक छत्र राज हो जायेगा।

लेकिन यह तो प्रपंची पुरुषों के लिए खुश होने की बात है। फिर अचानक से ऐसा क्या हो गया कि हमारे अपने प्रपंची लाल दुखी हो गए? अचानक से उनकी जुबान क्यों बंद हो गयी? और क्यों अचानक ही उन्होंने वीआरएस ले लिया? उनके इस तरह से अचानक गायब होने से मेरी बेचैनी और चिड़चिड़ाहट तो इतनी बढ़ गयी थी कि सुबह की चाय देखते ही मैं बड़बड़ाने, झुंझलाने और पत्नी पर ख्वामख्वाह बरसने लगता था। प्रपंची लाल ने मुझे वाकई एक विचित्र किस्म का एडिक्ट बना दिया था। और सूचना क्रांति के इस दौर में मैं तमाम मोहल्लाई सूचनाओं से वंचित रह जाने के कारण पिछड़ेपन के एक विचित्र काम्लेक्स से ग्रस्त होता जा रहा था।

मुझे मालूम था कि अखबारों और चैनलों से मुझे यह तो पता चल जायेगा कि केंद्र की नयी सरकार अबकी जनहित में कार्य कर रही है कि राष्ट्रहित में? और उसके राष्ट्र का मतलब लोग-बाग़ हैं कि कार्पोरेट्स और बड़े घराने? मीडिया वालों का रुख विपक्षी पार्टियों के प्रति बदला है या कि वे अभी भी सरकारी पार्टी के प्रवक्ता या प्रचारक की भूमिका निभा रहे हैं? औरों की तरह मुझे भी नेट या मोबाईल से यह तो मालूम हो जायेगा कि हालीवुड या वालीवुड में क्या कुछ नया हो रहा है? कैटरीना की शादी रणवीर कपूर से हो रही है या किसी और से? अब अन्ना हजारे का अगला कदम क्या होगा?

पर प्रपंची लाल के बिना मुझे यह कैसे पता चलेगा कि ठीक मेरी कालोनी में आज कल कौन-कौन सा गुल खिल रहा है? कोने वाले लाल बंगले में आजकल जुआ खेलने कौन-कौन आता है? किसका चक्कर किससे चल रहा है? ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के घोटाले में फंसे डाक्टर बेनिया अपने खिलाफ होने वाली खुफिया इंक्वाइरी को कैसे सलटा रहे हैं? और आजकल किस की मैडम किस क्लब में किस अधिकारी के साथ कौन सी शराब पी रही हैं? वगैरह-वगैरह।

हमारी दिनचर्या से अचानक ही हुयी उनकी यह अनुपस्थिति और अनके यूं अचानक अंतर्ध्यान हो जाने के कारण ने हमारे मन में कई-एक सवाल पैदा कर दिए थे। कहीं उनको किसी ने किसी बात को लेकर हड़का तो नहीं दिया? कहीं उनकी तबीयत ज्यादा तो नहीं खराब हो गयी? कहीं उन्होंने अपना पेशा तो नहीं बदल दिया? अगर कहीं ऐसा हुआ तो फिर मेरा क्या होगा? मेरे जैसे मोहल्ले के अन्य लतियों का क्या होगा? कौन सुनाएगा हमें रोज नए-नए किस्से? और कौन बुझाएगा हमारे लत की दैनिक प्यास को? प्रपंच करना कोई बच्चों का खेल तो है नहीं कि ईश्वर की कृपा और सरकार की इच्छा से जनहित में कल उनकी जगह कोई दूसरा प्रपंची लाल नियुक्त कर दिया जायेगा। और वह फ़ौरन ही प्रपंच की कथा को उसी अंदाज़ में घर-घर जा कर बांचना शुरू कर देगा, जिस तरह और जिस अंदाज़ से हमारे अपने प्रपंची लाल बांच कर हमारी क्षुधा शांत करते थे।

हम सब इस गुत्थी की जड़ तक पहुंचने की कोशिश कर ही रहे थे कि तभी किसी ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह हमें सूचना मिली कि मोहल्ले में एक नया नौसिखिया और ट्रेनी टाईप प्रपंची लाल अवतरित हो गया है, जो घूम-घूम कर और चटकारे ले ले कर सब को यह बताता फिर रहा है कि पुराने प्रपंची लाल जी जब रोज घर-घर जाकर मोहल्ले भर के प्रपंच बतियाया करते थे, ठीक उसी समय खुद उन्हीं के घर में कोई रोज बिना नागा एक नए प्रपंच की रचना कर रहा था।