किसिम किसिम के जिन्न Arvind Kumar द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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किसिम किसिम के जिन्न

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किसिम किसिम के जिन्न

जिन्न इंसान नहीं होते, पर इंसानों के बहुत काम आते हैं। खास करके ऐसे इंसानों के जो या तो सत्ता में होते हैं या फिर सत्ता पर काबिज़ होने की फ़िराक में रहते हैं। इंसानों की तरह जिन्न भी कई प्रकार के होते हैं। बड़े जिन्न, छोटे जिन्न, मोटे जिन्न, पतले जिन्न, लम्बे जिन्न, नाटे जिन्न, गोरे जिन्न और काले जिन्न। अब पुराने ज़माने के राजा-महाराजा या सुल्तान-बादशाह तो रहे नहीं। आज के राजा-बादशाह होते हैं, देश के नेता और मंत्री। इसलिए आज कल के जिन्न भी काफी रजनितिया गए हैं।

इनको राजनीतिक जिन्न कहते हैं। कोई जिन्न कांग्रेसी है, तो कोई भाजपाई। कोई सपाई जिन्न है, तो कोई बसपाई। कम्युनिस्ट पार्टी तो आज कल खुद ही गुमनामी के अंधेरों में भटक रही है, इसलिए बेचारों के पास आजकल कोई जिन्न नहीं है। पर इधर कुछ नए किस्म के अति उत्साही जिन्नों ने एक नयी नवेली पार्टी का दामन कुछ इस तरह से थाम रखा है कि पार्टी के आला आकाओं का इशारा मिलते ही वे फ़ौरन झाड़ू परेड चालू कर देते हैं।

जिन्न पहले चिरागों में बंद रहते थे। और चिराग घिसने पर ही बाहर निकलते थे। अलादीन के पास भी एक ऐसा ही चिराग था। वह जैसे ही उस चिराग को घिसता था, जिन्न तुरंत बाहर निकल आता था। और हाँथ बाँध कर पूछता था कि क्या हुक्म है मेरे आका? उस जिन्न ने अलादीन की बड़ी सेवा की। लेकिन जल्दी ही अलादीन का दिल उससे भर गया। क्योंकि वह एक अति चापलूस और चाटू किस्म का जिन्न था। लगभग भेजा फ्राई टाईप का। वह अक्सर बिना चिराग घिसे ही प्रगट हो जाता था। और ‘क्या हुक्म है मेरे आका’ पूछ-पूछ कर सिर खाने लगता था। कई बार तो वह वाकई हद कर देता था। अलादीन के नितांत अन्तरंग पलों में या फिर गुसल के वक़्त भी वह बेधड़क घुस जता था और ‘क्या हुक्म है, मेरे आका’ की रट लगा-लगा कर उसकी नाक में दम कर देता था। पहले तो अलादीन ने उसको लम्बे समय तक बिजी रखने के लिए ऐसे-ऐसे काम दिए कि वह उन्हें जल्दी पूरा न कर सके। लेकिन वह इतना स्मार्ट था कि उन कामों को भी निपटा कर फ़ौरन आ जाता था। और फिर नया काम माँगने लगता था। इसलिए तंग आकर अलादीन ने उसे चिराग में बंद करके उसका ढक्कन जोर से बंद कर दिया। और उस चिराग को ले जाकर समंदर में फेंक दिया।

फिर भी, तब के जिन्न बड़े संवेदनशील, तमीजदार और अनुशासित हुआ करते थे। बिना ना-नुकूर किये आकाओं के हर हुक्म को फ़ौरन बजा लाते थे। लेकिन अब समय बदल गया है। तब के समय में जो ज़मीन हुआ करती थी, आजकल वह आसमान है। और तब जो आसमान हुआ करता था, अब वह ज़मीन हो गया है। तब इच्छाएं हुआ करती थीं। अब महत्वाकांक्षाएं होती हैं। इच्छा सीधी-सादी होती है। छोड़ी या दबाई जा सकती है। लेकिन महत्वाकांक्षा एक खूंखार दैत्य की तरह होती है, जिसे छोड़ना या दबाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता है। इच्छा इंसान को त्यागी और बलिदानी बनाती है, पर महत्वाकांक्षा इंसान को भोगी-विलासी, क्रूर और दमनकारी बना देती है। इच्छा देवदास की तरह होती है। प्रेमिका का प्यार न मिलने पर घुट घुट कर अपनी जान दे देती है। लेकिन महत्वाकांक्षा क-क-किरन की भांति खूंखार होती है। प्रेमिका के न पटने पर उस का बलात्कार करती है। या फिर उसका एमएमएस बनाकर उसे बदनाम करती है। या फिर उस पर तेजाब फेंक कर उसका जीवन तबाह करती है। अब के जिन्न मूर्ख, उदंड और असंवेदनशील होते हैं। तब के जिन्नों को इच्छाओं की पूर्ति के लिए हुक्म दिया जाता था। परन्तु अब के जिन्न महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। तब के जिन्न चिरागों में रहते थे। लेकिन अब के जिन्न बोतलों में बंद रहते हैं। और मौका व माहौल देख कर बड़े शातिराना अंदाज़ में बाहर निकाले जाते हैं। जैसे भ्रष्टाचार का जिन्न, काले धन का जिन्न, लोकपाल और जन लोकपाल का जिन्न।

किसी ज़माने में बोफोर्स का एक दमदार जिन्न हुआ करता था, जो यूं तो सालों-साल बोतल में पड़ा-पड़ा सोता रहता था, पर उसे चुनावों के समय बोतल से निकाल कर तुरुप के पत्ते की तरह इस्तेमाल किया जाता था। वह जिन्न बेचारा इतनी बार बोतल में घुसाया और निकाला गया कि जनता तो उससे चटी तो चटी, बाद में वह खुद ही इरिटेट हो कर अज्ञातवास को चला गया। अब उसका कहीं कोई अता पता नहीं है। आपातकाल के जिन्न ने भी किसी ज़माने में बड़ी धूम मचाई थी। और बहुतों के बहुत काम आया था। पर बाद में वह भी बूढा होकर अशक्त हो गया। और अब असरहीन हो कर एक ऐसे बोतल में बंद हो चुका है, जिसका ढक्कन कभी कोई खोले तो खोले, वरना वह वहीं पड़ा-पड़ा अपनी मृत्यु का इंतज़ार कर रहा है। बीच बीच में राम मंदिर, बाबरी मस्जिद, मंडल-कमंडल और दलित-शोषित के जिन्नों को भी बोतलों से निकाल-निकाल कर खूब पेरा, खूब छकाया और खूब इस्तेमाल किया गया। लेकिन वे भी अब नख-दन्त विहीन होकर किसी काम के नहीं रह गये हैं। लगभग आऊट डेटेड हो गए हैं।

लेकिन अभी भी देश में तीन ऐसे तगड़े-तगड़े जिन्न मौजूद हैं, जो कि रिश्ते में अब तक के सारे जिन्नों के बाप लगते हैं। ये तीन जाईंट किलर टाईप के जिन्न हैं, उन्नीस सौ चौरासी, दो हज़ार दो और दामाद जी की कमाई की मलाई। इनको ठीक चुनावों के समय मौका देख कर छक्का मारने के लिए निकाला जाता है। बोतलों से इनके निकलते ही अच्छे-अच्छों की हवा ख़राब हो जाती है। कोई बगलें झाँकने लगता है, तो कोई कानून की दुहाई देने लगता है। पर चुनाव ख़त्म होते ही इनको उठा कर फिर से बोतलों में बंद कर दिया जाता है। न उन्नीस सौ चौरासी का कोई हल निकलता है और न ही दो हज़ार दो का। जांच-फांच होने-कराने की तो छोड़िये, लोगों के छलछला आये घावों पर फिर से उनकी मजबूरी की पपड़ियाँ जमाई जाने लगती हैं। और दामाद जी तो खैर दामाद जी ही है। वे फिर से एक राष्ट्रीय दामाद बन कर वीआईपी ट्रीटमेंट पाने लगते हैं।