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अथ चरण स्पर्श कथा
चरण स्पर्श करना या पैर छूना हमारी महान भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है। इसीलिये हमें सुशील और संस्कारी बनाने के लिए बचपन में ही सिखा दिया गया था कि हमेशा अपने से बड़ों के पैर छूना चाहिए। क्योंकि बड़ों के आशीर्वाद में बड़ी बरक्कत होती है। और अपने जीवन में जो व्यक्ति जितना अधिक आशीर्वाद बटोरता है, वह जि़ंदगी में उतना ही सफल और सुखी रहता है। फिर क्या था? हम भी पैर छूने और आशीर्वाद बटोरने के पुनीत कार्य में जी-जान से लग गए। हमारे लिए तब हर बड़ा, हर बुजुर्ग एक आशीर्वाद-दाता था। और हम आशीर्वाद-याचक। तब हम न जाति देखते थे न धरम। न औरत देखते थे न मर्द। यहाँ तक कि एक बार हमने नेग बटोरने वाले हिन्जड़ों के भी पैर छू लिये थे। और सबकी हंसी के पात्र बन गए थे। पर इससे क्या? हमें तो बस आशीर्वाद चाहिए था। जीवन में सफल और सुखी होना था।
वाकई, तब हमें पैर छूने और आशीर्वाद लेने में बड़ा मज़ा आता था। तरह तरह के लोग। तरह तरह के आशीर्वाद। कोई कहता कि खूब जियो। कोई कहता कि मोटे हो जाओ। कोई खूब पढ़ने की दुआ देता। और कोई बड़ा आदमी बनने का आशीष। सबसे ज्यादा मज़ा तो तब आता था जब कोई बुआ, मौसी या दीदी लोगों को दूधो नहाओ और पूतो फलों का आशीर्वाद देता था। हालांकि हमें इसका अर्थ बिलकुल नहीं पता था, पर हम दीदी, मौसी और बुआ-अम्मा को दिन भर दूधो-पूतो कह कर खूब चिढ़ाते और हंस-हंस कर लोट-पोट होते थे।
वे वाकई बहुत सुहाने और कबूतरों की गुटरगूं वाले दिन थे। उन दिनों हमारे अन्दर न जातिवाद की भावना थी। और न ही धार्मिक वैमनस्यता और साम्प्रदायिकता की। तब हमारे लिए कोई गैर नहीं था। सभी अपने और सभी एक सामान थे। धीरे-धीरे हम बड़े हुए। और आस-पड़ोस, गली-मोहल्ले, स्कूल-कॉलेज और अखबार-रेडियो-टीवी को देख-पढ़ और सुन-सुन कर सीखने लगे कि कौन अपना है और कौन पराया। कौन ऊंची जाति का है। और कौन नीची जाति का। कौन हमारे धर्म का है। और कौन दूसरे मज़हब का। किसके पैर छूने चाहिए। और किसके नहीं। मतलब यह कि समय, समाज और राजनीति ने हमें ठोक-बजा कर पक्का दुनियादार बना दिया।
बचपन में हमें सिखाया-पढ़ाया गया था कि जब गुरू और गोविन्द दोनों सामने खड़े हों, तो गोविन्द को छोड़ कर गुरू के पैर छूने चाहिए। लेकिन जाति-बिरादरी और धर्म के चक्कर में पड़ कर गुरुओं ने हमें और हमने गुरुओं को भी धर्म और जाति के छोटे-बड़े खानों में बांट दिया। फिर तो जोड़-घटाना-गुणा और भाग के चक्कर में फंस कर हमने न तो गोविन्द के पैर छुए और न ही गुरू के। वैसे भी, अब न तो द्रोणाचार्य की तरह के गुरू हैं। और न ही एकलव्य की तरह के शिष्य। गुरुजी पहले मास्टर साहब हुए, फिर मास्साब और अब तो वे सिर्फ सर जी बन कर रह गए हैं। और शिष्य लोग डूड, कूल, हंक, सेक्सी और प्लेब्वाय। और पैर छूना तो दूर, प्रणाम-नमस्ते, आदाब और सत श्री अकाल की जगह हाय-हेलो और हग ने ले लिया है।
ग्लोबलाईजेशन के इस चकाचौंधी दौर में लोग बाग अब अगर पैर छूते भी हैं, तो सिर्फ अपने स्वार्थ और फायदे के लिए। जरुरत पड़ने पर फुल साष्टांग दंडवत, नहीं तो ठेंगा। और पैर छुआने वाले भी कुछ कम थोड़े ही हैं। पैर छुआने भर से नहीं, अपने आशीर्वादों की कृपा भी वे तभी करते हैं, जब भरपूर चढ़ावा चढ़वा लेते हैं। कहते हैं कि खाली-पीली पैर छुआई से तो ऊपर के भगवान भी नहीं पिघलते, तो ये धरती के भगवान क्या ख़ाक खुश होंगे? इसीलिये आजकल चरण छूने, चढ़ावा चढ़ाने और अपना काम निकलवाने वालों की भीड़ सबसे अधिक नेताओं, मंत्रियों, बाबाओं, पुजारियों, ज्योतिषियों, महंथों, इमामों और औघड़ों के यहाँ लगती है। हमारी हताशा, हमारी आस्था और सुखी-सफल होने की हमारी लालसा हमें अंततः इनको ही भगवान मान कर इन के कदमों में गिरने के लिए मजबूर कर देती है।
बसपा सुप्रीमों मायावती के बारे में तो कहा जाता है कि उनको अपना पैर छुआने का बहुत शौक है। इससे उनको एक आध्यात्मिक किस्म का सुख प्राप्त होता है। वे अपने पार्टी जनों से भी तभी प्रसन्न होतीं हैं, जब वे चढ़ावा चढ़ा कर उनके पैर छूते हैं। इसलिए एक ज़माने में उनके दरबार में पैर छूने वालों का ताँता लगा रहता था। कहते हैं कि उनके शासन काल में उनकी चरण वंदना कर-कर के कई ऐसे लोग भी मंत्री बन गए, जो कहीं से चपरासी बनने लायक भी नहीं थे। अब आज कल चूंकि वे मीडिया के फोकस से बाहर हैं, इसलिए पता नहीं चल पा रहा है कि लोग-बाग अभी भी उनके पैर छू रहे हैं या अपने इन बुरे दिनों में वे लोगों के पैर छू रही हैं ?
पर इतना ज़रूर दिखलाई पड़ रहा है कि राजनीति के मैदान में अभी-अभी उतरे कुछ भैया लोगों को भी अब इस छुआ-छुई के खेल में धीरे-धीरे आनंद आने लगा है। किसी ज़माने में भाजपा के अध्यक्ष रहे नितिन गडकरी भी पैर छुआते समय गदगद हो कर किसी जेनेटिकली विकसित टमाटर की तरह सुर्ख-लाल हो जाया करते थे। और कैमरे को देख कर ऐसे मुस्कुराते थे कि मानों वे ही देश के भावी प्रधानमंत्री हों। पर बुरा हो भंडाफोड़ करने करवाने वाले भीतरघातियों का कि अध्यक्ष पद तो हाँथ से गया ही गया, बामुश्किल तमाम एक मंत्री पद मिला भी, तो लोगों ने उनके पीछे जासूस लगवा दिए। आज कल बेचारे खुद ही मोदी, राजनाथ सिंह और मोहन भगवत के पैर छू-छू कर आशीर्वाद बटोरते फिर रहे हैं, ताकि मंत्री पद तो फिलहाल महफूज़ रहे। वैसे, पैर छुआने के मामले में अपनी दीदी और अरविन्द केजरीवाल भी किसी से कम नहीं हैं। पैर छुआते ही एक के सख्त चेहरे पर हल्की सी एक ममता मयी मुस्कान उभर आती है, तो दूसरे को खुशी के मारे जोरों की खांसी आने लगती है।
साधुओं-सन्यासियों, साईं बाबा, शंकराचार्य और जैन मुनि महाराज आदि को अपना पैर छुआते समय शायद इतना आनंद नहीं मिलता होगा, जितना कि निर्मल बाबा को मिलता है। वे खुलेआम गदगदा उठते हैं। अपनी इसी गदगदाहट के कारण टीवी वाले ये बाबा आज एक अरब पति बाबा बन गए हैं। पर सुना है कि आजकल वे भी भीतर से डरे हुए हैं। क्यों? यह तो वे ही जानते होंगे। पर हमें तो इधर-उधर से यह पता चला है कि जब से नित्याद स्वामी, आसाराम बापू और रामपाल बाबा जेल गए हैं, कई बाबाओं की हवा टाईट हुयी पड़ी है।
वैसे, किसी ज़माने में आसाराम बापू और नारायण साईं भी खूब पैर छुआते थे। छुआते क्या, वे तो खुलेआम दबवाते भी थे। और वो भी विशेष तौर पर कुछ कोमल और कुआंरी कन्याओं से। बाबा राम देव का पैर भी जब कोई छूता है, तो वे अन्दर तक आनंदित हो जाते हैं। इतनी खुशी तो उनको न योगा सिखाने में मिलती है, न दोनों हाथों से मुनाफा कमाने में। और न ही काले धन के बारे में गाहे-बगाहे हो-हल्ला काट कर मीडिया में सुर्खियाँ बटोरने में। शायद इसीलिये उन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण किया हुआ है। उन्हें पता है कि चरण स्पर्श करने वाले लोग इस रंग के वस्त्रों से इस कदर सम्मोहित होते हैं कि न आगे देखते हैं, न पीछे, न वस्त्र के अन्दर देखते हैं न बाहर। बस आँख मूँद कर धड़ाम से कदमों में गिर कर अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं। लेकिन अब सबको पता चल गया है कि बाबा ने सिर्फ गेरुआ वस्त्र धारण ही नहीं किया है, मौका पड़ने पर वे इसे त्याग कर स्त्री-वस्त्र भी धारण कर लेते हैं। और योग गुरू से गुरू रणछोड़ बाबा बन जाते हैं।