जुबान की जुबानी जंग Arvind Kumar द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जुबान की जुबानी जंग

जुबान की जुबानी जंग

अरविन्द कुमार

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जुबान की जुबानी जंग

इंसान की जुबान भी बड़ी कमाल की चीज होती है। बत्तीस दांतों के बीच बिना किसी हड्डी के बिंदास अकेली रहती है। और सिर्फ रहती ही नहीं, बेखौफ विचरती भी है। चीजों को चख कर उनका स्वाद पहचानती है। और तालू के इर्द गिर्द घूम घूम कर आवश्यकता अनुसार कंठ को निश्चित स्वर भी प्रदान करती है। अगर किसी कारण से जुबान का यह घूमना—फिरना बंद हो जाए या अगर वह कट फट जाए तो शब्दों का उच्चारण बंद। इंसान एकदम से गूंगा शब्दहीन हो जाता है।

वैसे तो अपने मूल आकार—प्रकार में यह सिर्फ कुछ इंच लम्बी और छटांक भर वजनी होती है। पर इसके असली आकार प्रकार को लेकर दुनिया भर के तमाम वैज्ञानिकों के बीच अभी भी भारी मतभेद बना हुआ है। क्योंकि जिस तरह गिरगिट का कोई असली रंग नहीं होता, उसी प्रकार जुबान का असली रूप—रंग और कार्य—व्यवहार भी प्रायः अनिश्चित होता है। यह समय, स्थिति, परिस्थिति और स्वास्थ्य के हिसाब से अपना रंग—रूप बदलती रहती है। कभी यह गज भर लम्बी हो जाती है, तो कभी तालू से चिपक कर एकदम छोटी बन जाती है। कभी यह काली हो जाती है, तो कभी यह दुर्गा काली की जीभ की तरह लाल होकर लपलपाने लगती है।

कभी यह कैंची की तरह चलने लगती है, तो कभी इसको लकवा मार जाता है। कभी यह तीखी कड़ुवी हो जाती है, तो कभी इससे शहद टपकने लगता है। और यह मीठी हो जाती है। कभी तो यह सोच—सोच कर एक—एक शब्द को मुंह से बाहर निकालती है, पर कभी कभी ऐसा फिसलती है कि बस पूछिए मत। अच्छे भले शरीफ से दिखने वाले आदमी के अन्दर की असली नंगई फटाक से बाहर आ जाती है। इसीलिये बड़े बुजुगोर्ं ने कहा है कि अगर लम्बे समय तक अपनी शराफत के झांसे में दुनिया को रखना है, तो हमेशा अपनी जुबान को लगाम दो। बेहतर तो यह होगा कि उस पर हमेशा ताला मार कर रखो। नहीं तो, पल भर में ही सारी की सारी पोल खुल कर तुम्हारी पोलमपोल हो जायेगी।

वैसे तो लोग—बागों की पोल अक्सर खुलती ही रहती है। पर असली पोल खुलने का अद्‌भुत नजारा हमें चुनावों के दौरान देखने को मिलता है। और इसके लिए किसी ओपिनियन पोल की जरुरत नहीं पड़ती। क्योंकि अब चुनावों में मुद्दे नहीं, घोषणा पत्रों की बातें नहीं, सिद्धांत और नीतियां नहीं, खुद को उठाओ और अगले को गिराओ का चौपड़ी खेल खेला जाता है। अगले की कमीज कभी भी अपनी कमीज से ज्यादा सफेद न होने पाए, इसके लिए अपनी कमीज चमकाने के बजाय दूसरों की कमीज गंदी की जाती है। तकोर्ं को एक किनारे रख कर अतार्किक बातें की जाती हैं। आधार हीन तथ्यों और आंकड़ों को पेश किया जाता है। अपने को ऊंचा साबित करने के लिए विपक्षियों को बौना बनाया जाता है। और इसके लिए जुबान को तलवार की तरह भांज भांज कर दूसरे को बेतरतीब से कांट छांट दिया जाता है।

चुनावी दंगल के इस दौर में जुबानों के सरपट दौड़ने और फिसलने के एक से बढ़ कर एक नायाब मंजर देखने को मिलते हैं। कोई किसी को शहजादा और खूनी पंजा कह कर नीचा दिखाता है, तो कोई किसी को सत्ता का भूखा और कट्टर हिन्दूवादी कह कर दूषित—प्रदूषित साबित करता है। कोई किसी को वंशवादी, भ्रष्टाचारी, लुटेरा और तुष्टिकर्ता बताता है, तो कोई किसी को मुस्लिम विरोधी बता कर मुसलमानों को भयभीत करने की पूरी कोशिश करता है। वैसे तो इसको आम जुबान में जुबानी जंग कहते हैं। पर विद्वान और सुधिजन इसे सांपनाथ और नागनाथ की चुनावी नूरा कुश्ती भी कहते है। क्योंकि चुनावों के बाद सत्ता पाते ही ये दोनों आम जनता के लिए अंततः एक ही सिक्के के दो पहलू साबित हो जाते हैं।

पहले और दूसरे के अलावा एक तीसरा भी होता है, जो सिर्फ चुनावों के मौसम में ही अवतरित होता है। न उसके पहले दिखाई पड़ता है, न उसके बाद। अवतार लेते ही यह रट्टू तोते की तरह थर्ड फ्रंट थर्ड फ्रंट की टांय टांय करने लगता है। जुबानी जमा खर्च में तो यह गरीबों और मजदूरों किसानों के हितों की बातें खूब बहुत करता है, पर हकीकत में गरीब लोगों को गजब हिकारत की निगाह से देखता है। और अपने भाई बंधुओं के कद को ऊपर उठाने के लिए अगले को ठीक उसी तरह से चिढ़ाता है, जैसे गाँव के गंवार बच्चे बिना आँख वाले को अँधा और बिना पैर वालों को लंगड़ा कह कर चिढ़ाते हैं। और ताली बजा—बजा कर उछलते हैं। इस तरह की जुबान को गंदी और घटिया जुबान कहा जाता है।

अब जब इस देश के कर्णधर नेताओं का यह हाल है तो भला उनके अफसरान और जज—माईबाप भी भला पीछे क्यों रहें? थोड़ा मौका और थोड़ी सी आजादी मिलते ही वे भी खुल कर बेपर्दा हो जाते हैं। और उनकी तोतिया जुबान बिना किसी हिचक के बदजुबानी करने लगती है। खास करके महिलाओं के बारे में। ये तोंदियल सरकारी तोते अपनी जुबान से गाहे—बगाहे महिलाओं की इज्जत से तो खेलते ही है, पर मौका मिलने पर उनके साथ जुबानी बलात्कार भी खूब करते हैं। लेकिन अपनी बदगुमानी में ये यह भूल जाते हैं कि यह जुबान ही है, जो अक्सर पान खिलाती है, पर कभी कभी तबीयत से पनही भी खिलवा देती है।

अरविन्द कुमार