पंचामृत - ५ व्यंग कथाएँ Arvind Kumar द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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पंचामृत - ५ व्यंग कथाएँ

पंचामृत

५ व्यंग कथाएँ

अरविन्द कुमार

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अनुक्रमणिका

1ण्अपने अपने गांधी

2ण्परेशान आत्माओं की परेशानी

3ण्तू मुझे बाबा बना दे

4ण्अगर मैं भैंस, तो बाकी सब क्या

5ण्अन्नदाता दुखी हैं

अपने अपने गांधी

मेरे ख्याल से उस समय रात के बारह बज कर कुछ मिनट हो चुके थे। मैंने जैसे ही राजघाट पार किया, मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं। अरे बापू! मैं चौंका। पत्नी भी चौंकी। पर हमेशा की तरह उसने फौरन ही अपनी समझदारी दिखाई। और बोली—लग तो गांधी जी ही रहे हैं। पर वे कैसे हो सकते है?...अच्छा, अब समझ में आया। आज उनका जन्म दिन है न, इसलिए शायद कोई गांधी भक्त उनके गेटअप में घूम—घूम कर लोगों को उनकी याद दिला रहा है।

पर मैंने गौर से देखा, वे कोई और नहीं, स्वयं बापू ही थे। सौ फीसदी महात्मा गांधी। न बेन किंगस्ले वाले। न मुन्ना भाई वाले। एकदम खांटी चल पड़े जिधर दो डग मग वाले। वही आधी लिपटी, आधी ओढ़ी हुयी धोती। कमर से उसी तरह लटकती हुई घड़ी। आंखों पर वही ऐनक। हांथ में लाठी। वही तेज—सधी हुई चाल। वही मूंछें। और मूंछों के नीचे वही निश्छल बच्चों वाली मुस्कान। वे वाकई गांधी जी ही थे।

मैंने पत्नी से कहा क्या बात करती हो? गौर से देखो, ये असली वाले गांधीजी हैं। अपने बापू, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी। पर इस समय, इतनी रात को अपनी समाधि से निकल कर ये कहां जा रहे हैं? रुको पूछता हूँ।

पर पत्नी ने फौरन ही मेरा हांथ पकड़ लिया—पागल हो क्या? इस तरह सूनसान सड़क पर। तुम्हारे इस गांधी दर्शन से हम किसी अनचाही बड़ी मुसीबत में भी पड़ सकते हैं। चुपचाप गाड़ी चलाते रहो। पता नहीं, यह कौन है? और इस सुनसान सड़क पर, इस तरह पता नहीं कौन सा स्वांग रच रहा है? पत्नी भले ही मुझे पागल समझे, पर मैं पागल नहीं हूँ। और मेरी आंखें भी अभी इतनी कमजोर नहीं हुई हैं कि मैं एक असली गांधी और नकली फैन्सी ड्रेस वाले गांधी में कोई फर्क न कर पाऊँ। लिहाजा मैंने पत्नी को अनसुना किया। और गाड़ी से उतर गया। और तेजी से उनके करीब पहुँच कर पूछा———”बापू, आप इतनी रात को, यूं अकेले कहाँ जा रहे हैं?“

———”अरे, आज मेरा जन्मदिन है न? वही देखने जा रहा हूँ कि मेरे बच्चों ने इस बार उसको मनाने की कैसी तैयारी कर रखी है?“

अचानक मुझे याद आया कि अपनी उत्तेजित जिज्ञासा में मैं यह बिलकुल भूल गया था कि प्रणाम—व्रणाम के तुरंत बाद ही मुझे उनको जन्मदिन के लिए विश करना चाहिए था। इसलिए मैंने फौरन ही उनको विश किया———”हैपी बर्थडे, बापू।“

पर थैंकयू—वैंक्यू कहने के बजाय उन्होंने अपनी बाल सुलभ मुस्कान के साथ मुझे झिड़का—”नहीं बेटे, हैपी बर्थडे नहीं। यह तो विशुद्ध अंग्रेजियत का प्रतीक है। और क्या तुम्हे याद नहीं कि मैंने अंग्रेजों और उनकी अंग्रेजियत से लड़ते—लड़ते ही अपना जीवन न्योछावर किया था? तुमको जन्मदिन की बहुत—बहुत बधाई या फिर जन्मदिन मुबारक बोलना चाहिए।“

———”सौरी, बापू...आई मीन माफ कीजिये।“

———”मुझे इसी बात का तो दुःख है। तुम लोग मुझे याद तो खूब करते हो, पर सिर्फ रस्मी तौर पर। कोई मेरे जीवन को, मेरे विचारों को न तो याद करता है और न ही उसके मर्म को समझने की कोशिश करता है। इस राष्ट्र ने मुझे राष्ट्रपिता तो बना दिया, पर वास्तविक पिता का दर्जा कभी नहीं दिया। मुझे इस बात को महसूस करके दुःख होता है कि लोगों ने मुझे सिर्फ संग्रहालयों, किताबों, स्मारकों, सरकारी दफ्तरों, कचहरियों, मूर्तियों, रूपयों और दो अक्टूबर के दिन तक सीमित करके रख दिया है। और अब तो सुना है कि मुझे रुपयों के ऊपर से भी हटाने की तैयारी चल रही है।“

मैंने देखा कि उनके चेहरे पर एक अजीब सी पीड़ा उभर आयी है। और वे वाकई उदास हो गए हैं। हालांकि मैं खांटी गांधीवादी नहीं हूँ। पर कहीं से भी गोडसेवादी भी नहीं हूँ। इसीलिये बापू का अपने जन्मदिन पर इस तरह से उदास हो जाना मुझे अन्दर तक चीर गया। मैंने उन्हें ढांढस बंधाने की पूरी कोशिश की———”ऐसा नहीं है, बापू। ऐसा बिलकुल नहीं है। गोडसे परिघटना के बाद कुछ लोगों ने आपके नाम, आपके जीवन दर्शन और आपके विचारों को धूमिल करने की कोशिश जरूर की है। पर वे चंद मुट्ठी भर लोग हैं। इस देश की व्यापक जनता तो आज भी आपको दिल से राष्ट्रपिता मानती है। विदेशों में भी आपकी बड़ी इज्जत है। नेलशन मंडेला और आंग सान सू की जैसों ने तो अपने—अपने देशों में आपके विचारों की ताकत से ही वहां लोकतंत्र का झंडा खूब बुलंद किया है। और तो और संयुक्त राष्ट्र संघ ने तो आपके जन्मदिन को पूरी दुनिया में अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय भी लिया है।“

मुझे लगा कि मेरी इस दलील पर वे खुश हो जायेंगे। पर वे तो क्रोधित से हो कर और तेज—तेज चलने लगे———”विदेशों और संयुक्त राष्ट्र आदि की बातें करके मुझे भरमाओ मत। स्वदेश की बात करो। क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह देश मुझे सिर्फ दो अक्टूबर, तीस जनवरी और चुनाओं के समय ही याद करता है? वरना तो मुझे और मेरे वाद को सिर्फ फायदे के लिए इस्तेमाल किया जाता है। वरना मेरी व्यक्तिगत चिट्ठियों को इस तरह से सार्वजनिक करके छापा नहीं जाता। मेरी चीजें इस तरह से नीलाम नहीं की जातीं। आज लोग मेरी चीजें एक—एक नीलाम कर रहे हैं। देखना, कल को ये मुझे भी नीलाम कर देंगे।“

———”नहीं बापू, ऐसी बात नहीं है।“

———”तो फिर तुमलोग सरकार पर दबाव क्यों नहीं डालते कि वह मेरी चीजों की नीलामी न होने दे? मेरे जीवन दर्शन को समझ नहीं पाए, तो कम से उसका मखौल तो न उड़ाने दें।“

———”हम ऐसा जरूर करेंगे, बापू। और हमें पूरा विश्वास है कि हमारी सरकार जरूर हमारी बातें मानेंगी। यह सरकार तो आपकी भक्त है। तभी तो, आपके कहे अनुसार इस देश को पूरी तरह से साफ और स्वच्छ बनाने के लिए कृत संकल्प है। और आज सुबह से ही यह अभियान शुरू भी कर दिया जायेगा।“

———”तो क्या अब मैं सिर्फ सफाई अभियान तक ही सीमित कर दिया जाऊंगा? मेरे सत्य, अहिंसा, सादगी, सहिष्णुता, स्वदेशी और शांति के विचारों का क्या होगा? अरे पहले अपने शौचालय को तो खुद साफ करो। सिर पर मैला उठाने की प्रथा को तो तत्काल बंद करवाओ। और सबसे बड़ी बात पहले इस देश से गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार की सच्ची सफाई तो करवाओ। यह देश खुद—ब—खुद साफ हो जायेगा।“

मैं कुछ और बोलूँ इससे पहले ही पत्नी ने कार का हौर्न जोर—जोर से बजाना शुरू कर दिया। बापू ने मेरे कंधे पर हाँथ रखा———”जाओ, तुम्हारी पत्नी अकेले बैठे—बैठे उकता गयी है।“ मैंने मुड़ कर पत्नी को थोड़ी देर और रुकने का इशारा किया। उसने हौर्न बजाना बंद कर दिया। पर बापू से और बहुत सी बातें करने के लिए जब मैं उनकी तरफ मुड़ा, तो देखा वे वहां नहीं थे। वाकई बापू वहां कहीं नहीं थे।

परेशान आत्माओं की परेशानी

आजकल हमारे शहर का हाल भी पूरे देश की तरह हो गया है। यहाँ भी कुछ खुश हैं, तो कुछ बहुत ही खुश हैं। कुछ दुखी हैं, तो कुछ बहुत ही दुखी हैं। पर कुछ न तो खुश हैं, न दुखी हैं, बस परेशान हैं। खुश और बहुत खुश होने वाले तो इसलिए खुश हैं कि देश में इस बार उनकी पसंद की ऐसी सरकार आयी है, जो इस देश के रूप और रंग को बदल कर इस तरह कर देगी, जिस रूप और रंग के भारत की कल्पना वे लम्बे अरसे से करते चले आ रहे थे। और दुखी और बहुत दुखी होने वाले इस लिए दुखी हैं कि उनकी पसंद की पार्टी इस बार इस कदर हारी है कि पता नहीं, आने वाले समय में अब कभी दुबारा जीत भी पायेगी या यूं ही हारते—हारते गुम हो जायेगी।

और जहाँ तक परेशान होने वालों की बात है, तो ये वे लोग हैं जो हर हाल में परेशान रहते हैं। जाड़ा हो तो परेशान। गर्मी हो तो परेशान। बरसात न हो तो परेशान और अगर जम कर बरसात होने लगे तो परेशान। पीके रिलीज हो तो परेशान और एमएसजी रिलीज हो तो परेशान। दिल्ली विधानसभा के चुनाव न हों तो परेशान और चुनाव होने लगें तो परेशान। परेशान होना तो जैसे इनकी फितरत है। ऐसा लगता है कि जब ईश्वर ऐसे लोगों को बना रहा होता है, तो जैसे ही उनकी खोंपड़ी में दिमाग डालने का वक्त आता है, हवा जोरों से चलने लगती है और दैवी प्रयोगशाला की सारी बत्तियां गुल हो जाती है। और वे गलती से दिमाग की जगह उनकी खोंपड़ी में परेशानी का टोकरा डाल देते हैं। इसीलिये ये लोग हमेशा परेशान रहते हैं। इस तरह के लोगों को परेशान या बेचौन आत्माएं भी कहा जाता है।

आजकल हमारे शहर की ये परेशान आत्माएं कुछ ज्यादा ही परेशान दीख रही हैं। और परेशानी से उपजे दुःख के दरिया को यत्र—तत्र—सर्वत्र बहाती हुयी पायी जा रही हैं कि यार कहीं कुछ हो ही नहीं रहा। क्या—क्या सोच कर पुरानी सरकार को हरवाया था? क्या—क्या सोच कर, किन—किन सपनों को देखते हुए यह नयी सरकार बनवाई थी? पर मिला क्या? हुआ क्या? चलो मान लिया कि उन सपनों को पूरा होने में अभी काफी वक्‌त लगेगा। पर यार, झलक जैसी कोई चीज भी तो होती है। पकिस्तान को अभी तक कोई सबक नहीं सिखाया गया। चीन भी अपने नक्‌शे में हमारा यह—वह लेकर दिखा रहा है, पर उसको भी मुंह तोड़ जवाब नहीं दिया जा रहा। बांग्लादेशी भी अभी तक यहीं पर जमे हुए हैं। श्रीलंका भी बेखौफ होकर मजे से चुनाव बाद का जश्न मना रहा है। तमाम जुगत भिड़ाने के बाद चुनाव हुए सूबों में दो—तिहाई बहुमत की सरकार नहीं बन पा रही। न चाहते हुए भी ऐरों—गैरों को गले लगाना पड़ रहा है। कश्मीर में सरकार बनाने का पेंच भी जाकर टेढ़ा फंस गया है। और तो और अभी तक न मंदिर, न तीन सौ सत्तर और न ही कॉमन सिविल कोड के लिए कोई सुगबुगाहट कोई संकेत। महंगाई भी ससुरी न घटी, बल्कि बढ़ ही गयी। विदेशों में छिपे कालेधन ने भी ठेंगा दिखा कर साफ—साफ कह दिया कि आखिर हम आपके हैं कौन?

फेसबुक और व्हाट्‌सऐप के गंदे भड़काऊ मेसेजेज, वीडियोज और नापाक इरादों वाले नापाक लोगों की तमाम सारी नापाक कोशिशों के बावजूद समाज का अमन—चौन भी ज्यों का त्यों बरकरार है। तमाम बयानबीरों के अग्निबाण भी टांय—टांय फिस्स साबित हो रहे हैं। ऐसे लोग दुःख के मारे विलाप करते फिर रहे हैं कि कितने अरमानों से यार—दोस्तों—रिश्तेदारों से रार—बिगाड़ करके वोट दिया था कि जल्दी ही कोई न कोई हाजमा दुरुस्ताऊ काम होगा। पर उसके तो दूर—दूर तक कोई आसार ही नजर नहीं आ रहे। यार, इस तरह का विकास तो कई भी देसी विदेशी कार्पोरेट परस्त यूपीए थ्री—फोर वाली सरकार भी कर लेती। वे कहते हैं और फ्रस्ट्रेशन में ऊपर मुंह करके चिल्लाने लगते हैं।

तू मुझे बाबा बना दे

ऐ आसमानी ताकत, तू मुझ पर और कोई रहम कर चाहे मत कर, पर इतना रहम जरूर कर दे कि मैं बस किसी तरह से एक बाबा बन जाऊँ। बहुत हो गयी नौकरी—वौकरी। बहुत हो गया जोड़—तोड़। एड़ियों की रगड़ घिसाई। चादर के हिसाब से टांगों की सिकुड़ाई। और भ्रूण में ही सपनों की गला घोंटाई। आधी से ज्यादा जिंदगी तो बस यूं ही निकल गयी। पर ढाक के वही तीन पात। न तो घर बदला और न ही बदले घर के हालात। जहाँ से चले थे, आज भी वहीं खड़े हैं। दुःख, मुफलिसी और बीमारी की हालत में कभी—कभी तो ऐसा लगता है कि हम चल तो आगे की तरफ रहे हैं, पर सरक पीछे के ओर रहे हैं। मानों जिंदगी की गाड़ी बैक गीयर में चल रही हो। वैसे भी, जीडीपी के इस अफरातफरी वाले जमाने में भला एक अदद बिसुखी गाय जैसी नौकरी से होता ही क्या है? नौकरी का असली मजा तो वे लूटते हैं, जिनकी नौकरी दुधारू होती है। जर्सी गाय या डेन्मार्की भैंस की तरह। इसलिए या तो तू मुझे डाईरेक्ट एक बाबा बना दे या फिर वह फंडा—गुर सिखा दे, ताकि मैं भी कुछ भोंपू चेलों और चौनलों का जुगाड़ करके ठीक—ठाक सा एक बाबा बन जाऊं।

तू तो जनता ही है कि बाबागिरी में जो बात है, वह कहीं नहीं है। न बिजनेस में, न ठेकेदारी में, न नेतागिरी में और न ही स्मगलिंग और ह्यूमन ट्रैफिकिंग में। कहीं पैसा है, तो इज्जत नहीं है। कहीं इज्जत है, तो पैसा नहीं है। कहीं कहीं दोनों हैं भी, तो मल्टीनेशनल के इस दौर में इस बात की कोई गारंटी नहीं कि छप्पर ससुरा आगे भी ऐसे ही फटा का फटा रहेगा। और मुनाफा ऐसे ही बरसता रहेगा। भागा—भागी के इस युग में कुछ भी स्थिर और स्थाई नहीं है। अब सब की किस्मत को तूने टाटा—बिरला या अदानी और अम्बानी बंधुओं की तरह सोने की कलम से तो लिखी नहीं है। इसलिए हरेक दिन दूनी और रात चौगुनी गति से उनकी तरह अमीर और रसूखदार तो बन नहीं सकता। इसलिये तू बस मुझे बाबा बना दे।

बाबागिरी में धन, दौलत, शोहरत, रौब, रुतबा और ताकत का कम्प्लीट पैकेज है। आल इन वन। बड़े—बड़े धन्ना, सेठ, पूंजीपति, नेता, मंत्री, अफसर, संतरी और कानून के रखवाले हाँथ बाँधे हरदम आगे—पीछे डोलते रहते हैं। नाना प्रकार की महिलायें सजदे में झुक कर बाबा—बाबा करती रहती हैं। बाबा लोग चाहें, तो सरकार बना सकते हैं। चाहे तो गिरा सकते हैं। लिहाजा सारी सरकारें वोट सेक्योर करने के जुगाड़ और जन—आस्था की आड़ में उनके आगे दंडवत रहती हैं। बाबा भगवान का रूप होता है। धर्म और धार्मिक आस्था का प्रतीक होता है। वह कानून और संविधान से ऊपर होता है। उसके वचन प्रवचन होते हैं। और उसके कृत्य अनुष्ठान। उसके द्वारा की गयी हत्या, बलात्कार और अवैध हड़प अपराध बिलकुल नहीं होते।

हे सातवें आसमान के मालिक, आप तो सर्वज्ञ—अन्तर्यामी हैं। आप को तो पता ही है कि आनेवाला समय सिर्फ और सिर्फ बाबाओं का समय होगा। वह न तो किसी हाईटेक—सुपरटेक और स्मार्ट सिटियों का युग होगा, न विकास—विज्ञान, टेक्नोलॉजी और बुलेट ट्रेनों का। वह न गांधी मार्का सेकुलर स्वराज के पुराने मॉडल का समय होगा और न ही अरविन्द मॉडल के नए स्वराज का। वह न तो किसी तीसरे मोर्चे का समय होगा और न ही किसी चौथे—पांचवे का। वह होगा सिर्फ और सिर्फ बाबाओं का समय। देश में सरकार चाहे जिस किसी की भी हो, चलाएंगे उसको बाबा लोग ही। न प्रधानमंत्री मंत्री, न मंत्री, न संत्री सिर्फ बाबाओं की तंत्री।

बाबा लोग कहेंगे उठ, तो उठ। बाबा लोग कहेंगे बैठ, तो बैठ। काला धन वापस लाना है, तो बाबा जी। भ्रष्टाचार मिटाना है, तो बाबा जी। कश्मीर समस्या का हल बाबा जी। चीन की घुड़की की दवा बाबा जी। बाढ़ का समाधान बाबा जी। आंधी—तूफान—भूकंप की राहत बाबा जी। महंगाई का इलाज बाबा जी। आतंकवाद का निदान बाबा जी। गरज यह कि सिर्फ भक्तों का ही नहीं, देश की हर समस्या का समाधान और हर बीमारी की चिकित्सा भी अब बाबा जी लोग ही करेंगे। काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक। कच्छ से लेकर सुदूर पूर्वी प्रान्तों तक। बाबा जी ही बाबा जी।

इसीलिये हे नीली छतरीवाले, तू मुझे भी कोई बाबा बना दे, ताकि मैं भी अपनी बची—खुची जिंदगी को मौज से गुजार सकूं। और सत्ता और सरकारों को अपनी ऊंगली पर नचाते हुए अपनी अगली सात पीढि़यों के लिए भरपूर मौज करने का कोई मुकम्मिल जुगाड़ छोड़ जाऊं।

अगर मैं भैंस, तो बाकी सब क्या

हमारे स्कूल में एक मास्टर साहब हुआ करते थे। साइंस मास्टर। वैसे तो वे साइंस पढ़ाते थे, पर उनके व्यक्तित्व को देख कर यह बिलकुल नहीं लगता था कि विज्ञान से उनका कोई दूर दूर तक कोई रिश्ता है। वे विज्ञानी कम और महंत ज्यादा लगते थे। बालों के बीच बड़ी सी चुड़की। गले में रुद्राक्ष की माला। माथे पर त्रिपुंड छाप तिलक। और हाँथ की दसों उँगलियों में पत्थर जड़ित अंगूठी।

वे घोर अन्धविश्वासी थे। भूत—प्रेत, आत्मा और पुनर्जन्म में विश्वास करते थे। और बिना पंचांग देखे अपना कोई काम नहीं करते थे। वे जब भी हमारे सामने पड़ते या हमें क्लास में पढ़ाने आते, तो हम सारे खुराफाती छात्र विज्ञान की गुत्थियों को समझने और सुलझाने में दिमाग खपाने के बजाय इस गुत्थी को सुलझाने में जुट जाते थे कि जब इन्होंने अपनी दसों उँगलियों में अंगूठी पहन रखी है, तो सुबह—शाम निवृत होने के बाद ये पवित्र कैसे होते होंगे? और यह कि क्या ये अपनी सारी नित्य क्रियाएं, जिनमें पत्नी के साथ का अन्तरंग सानिद्ध्‌य भी शामिल था, पंचांग देख कर ही करते हैं? मास्टर साहब बड़े थे और हम छोटे। वे गुरू थे और हम शिष्य। इस पर तुर्रा यह कि वे दुर्वासा ऋषि की तरह क्षणे रुष्टा, क्षणे तुष्टा प्रकृति और प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। इसीलिये निवृत होकर पवित्र होने और पंचांग वाली गुत्थी आज भी हमारे लिए वारामूडा ट्रेंगल के रहस्य की तरह एक रहस्य ही बनी हुयी है।

मास्टर साहब की एक खास आदत थी। वे चाहे गुस्से में हों या खुश, कभी भी हमें हमारे नाम से नहीं, अपने द्वारा दिए गए किसी न किसी जानवर के नाम से पुकारते थे। किसी को गधा। किसी को कुत्ता। किसी को बिल्ली। किसी को सूअर। किसी को बकरी। और किसी को बन्दर। मुझे तो वे भैंस कह कर पुकारते थे। हालांकि न तो मैं मोटा था और न ही काला। और दूध देने का तो सवाल ही नहीं उठता था। इसी तरह कुत्ता, बिल्ली, सूअर, बकरी, मगरमच्छ और भालू आदि भी कहीं से भी वो नहीं लगते थे, जिस नाम से मास्टर साहब उनको पुकारा करते थे।

हम समझ नहीं पाते थे कि ऐसा करके वे जानवरों का मान बढ़ाते थे या कि हमें जलील करते थे। पर इस बात से हम किलसते जरूर थे। लेकिन इसका भी उनके पास एक विचित्र सा तर्क था। वे कहा करते थे कि विज्ञान तो कहता है कि हम सब बंदरों या चिम्पैंजियों की संतान हैं। पर चौरासी लाख योनिओं के सिद्धांत के अनुसार हमारे इस जन्म में भी पिछले जन्म का बहुत ज्यादा असर रहता है, जो गौर से देखने पर पता चलता है। इसलिए वे हमारे हाव—भाव और बात—व्यवहार को देख कर फौरन समझ जाते हैं कि अपने पिछले जन्म में हम क्या थे? तो क्या मैं पिछले जन्म में भैंस था? और क्या इस जन्म में मेरे हाव—भाव और बात—व्यवहार से ऐसा ही प्रतीत होता है?

मैंने सोचा। मुझे बहुत बुरा लगा। मैं दुखी हो गया। और रोने लगा। रोते—रोते अम्मा के पास गया। और उनको अपने रोने का कारण बताया। अम्मा ने सुना, तो हंसने लगीं———”तो इसमें रोने की क्या बात है? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मास्टर साहब ने तुमको भैंस कहा है। गधा, सूअर या कुत्ता नहीं।“

———”पर क्या मैं भैंस की तरह भद्दा लगता हूँ?“

———”नहीं बेटा, तुम तो दुनिया में सबसे सुन्दर हो।“

———”तो फिर?“

———”भैंस बहुत अच्छी होती है। गाय की बहन। गाय की तरह वह भी हमें दूध देती है। हमें पालती है। अगर गाय हमारी माँ है, तो भैंस हमारी मौसी।“

———”पर हम लोग तो गाय की पूजा करते हैं। भैंस की पूजा क्यों नहीं करते? गाय का गोबर तो बहुत पवित्र माना जाता है, भैंस का क्यों नहीं माना जाता? गोमूत्र तो पंचामृत और न जाने कितनी दवाइयों में डाला जाता है, पर भैंस का क्यों नहीं? और तो और लोग—बाग तो हमेशा गौ रक्षा गौ रक्षा की बातें करते हैं, पर भैंस रक्षा की बातें कोई क्यों नहीं करता? क्या जानवरों के बीच भी कोई वर्ण या जाति व्यवस्था लागू है?“

———”बेटा, मैं यह सब नहीं जानती। यह सब धर्म और राजनीति की बड़ी और ऊंची बाते हैं। मैं तो सिर्फ इतना जानती हूँ कि जिस तरह गाय हमारे लिए जरूरी है, उसी तरह से भैंस भी जरूरी है।“

———”पर माँ, लोग भैंस को लेकर मजाक उड़ाते हैं। उस पर मुहावरे छोड़ते हैं। जैसे———‘भैंस के आगे बीन बजायो, भैंस रही पगुराय', ‘गयी भैंसिया पानी में' और ‘मेरे भैंस को डंडा क्यों मारा' आदि—आदि।“

———”पता नहीं। हो सकता है कि चूंकि भैंस सीधी होती है। नाजुक होती है। ज्यादा डिमांडिंग नहीं होती। और ढेर सारा दूध देती है। इसीलिये।“

———”पर माँ...“

———”पर वर छोड़ो। और अपने मास्टर साहब की तरह मौज लेना सीखो। हर आदमी के हाव—भाव और बात—व्यवहार को देख कर मन ही मन सोचो कि अपने पिछले जन्म में वह कौन सा जानवर था? कल्पना करो और मजे लो।“

माँ की आज्ञानुसार मैं आज भी लोगों के चेहरे—मोहरे, बोल—चाल और कथनी—करनी को बहुत ही गौर से देखता हूँ। उनका विश्लेषण करता हूँ। और कल्पना के घोड़ों को बेलगाम छोड़ कर अंदाजा लगाता हूँ कि वे लोग अपने पिछले जन्म में कौन से जानवर रहे होंगे? बड़ा मजा आता है।

आप भी यही कीजिये। अपने आस—पास देखिये। और सोचिये कि फलां भ्रष्ट अधिकारी कैसा लगता है? पैसे लेकर प्रैक्टिकल में अच्छे नंबर दिलवाने वाला मास्टर किस जानवर की तरह दीखता है? अखबार में छपी किसी चोर, डकैत, डाकू और बलात्कारी की शक्ल को देख कर आपको किस जानवर का ख्याल आता है? बलात्कार की रिपोर्ट न लिखने वाला थानेदार या फिर बलात्कार के मामलों में बलात्कारी टाईप का बयान देने वाले नेता, मंत्री और अधिकारी की शक्ल आपको किस जानवर से मिलती जुलती प्रतीत होती है? टीवी का कोई बिका हुआ एंकर और जनता को बेवकूफ बना कर और उनके बीच फूट डाल कर सत्ता हथियाने वाले वोट खाऊ नेताओं की शक्ल से आपको किस—किस जानवर की याद आती है? खूब कल्पना कीजिये। और खूब मजे लीजिये।

अन्नदाता दुखी हैं

उन्होंने तले हुए नमकीन काजुओं को मुंह में डाला और स्कॅाच व्हिस्की के चौथे पेग से दो घूंट गले के नीचे उतारते हुए कहा———आज मैं दुखी हूं। बहुत ही दुखी। तब तक उनके सभी दरबारी भी उनकी देखा—देखी काजू चबा कर दो—दो घूंट व्हिस्की गटक चुके थे। सब एक साथ पूछ बैठे———लेकिन क्यों, सर? दरबारियों की इस बात ने उन्हें और दुखी कर दिया। उनका चेहरा गम के सागर में इतना डूब गया कि लगा कि वे बस अब या तब रो देंगे। उन्होंने शोकाकुल भाव से चिली कबाब के दो टुकड़ों को उदरस्थ किया और पेग में बची हुई शराब को घूंट—घूंट पीते हुए बोले———क्योंकि आज हमारा ग्राम देवता दुखी है। देश का अन्नदाता दुखी है। हमारे किसान भाई दुखी हैं। वे दनादन आत्महत्या कर रहे हैं। क्या तुम लोग इस बात से दुखी नहीं हो? सबने एक साथ एक स्वर में कहा ———हैं सर, हम लोग भी दुखी हैं। और आप को इस तरह इतना दुखी देख कर तो और भी दुखी हो गये हैं। ———तो क्या तुमलोग मुझसे ज्यादा दुखी हो? उन्होंने अपनी भृकुटियों को थोड़ा टेढ़ा कर के पूछा।

उनके टेढ़े हाव—भाव को देख कर वे सब सहम गये। उनकी समझ में यह नहीं आया कि क्या कहें? कम या कि ज्यादा? उनके बीच मौजूद सबसे बड़े दरबारी ने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा———नहीं सर, ऐसा कैसे हो सकता है? आप हमारे लीडर हैं। हमारे अन्नदाता है। हमारे भगवान हैं। हम आप से ज्यादा दुखी कैसे हो सकते हैं? ———यही तो रोना है। यह दुःख की घड़ी है, घोंचुओं। दुःख की। इस समय तो तुम लोगों को मुझसे अधिक दुखी होना चाहिए। खुशी और गम के मामले में फौलोअर्स को हमेशा अपने लीडर से आगे रहना चाहिए। इससे जनता में सही राजनीतिक संदेश जाता है। तुम लोग जब ज्यादा दुखी रहोगे, तभी तो लोग समझेंगे कि हम किसानों की समस्या से बहुत बहुत ज्यादा दुखी हैं।———आप ठीक कह रहे हैं। आगे से हम इस बात का हमेशा खयाल रखेंगे। ———हां, तुम लोगों को रखना भी चाहिए। यह हमारी और हमारे सरकार की अच्छी इमेज के लिए बहुत जरूरी है। और तुमलोगों की सेहत के लिए भी। ———जी, समझ गये सर। ———अच्छा यह बताओ कि ऐसा क्या किया जाए कि किसानों की हालत सुधरे। और वे कभी भी दुखी हो कर आत्महत्या करने के लिए मजबूर न हों।

उन्होंने अपना पेग खाली किया। दरबारियों ने भी उनकी देखा—देखी फटाक से अपना—अपना पेग खाली किया। और बोले———सर, अगर आप सरकार से कह कर उनको खाद—बीज पर सब्सिडी दिलवा दें, सब्सिडी का पैसा सीधे उनके खाते में डलवा दें, उनको सस्ती बिजली, सस्ता पानी सस्ता कर्ज दिलवा दें, मौसम की मार से बरबाद हुई फसलों का उचित मुआवजा दिलवा दें, फसलों का बीमा करवा दें और सबसे बड़ी बात यह कि उनकी फसलों का सही बाजार मूल्य तय करवा दें, तो उनकी हालत काफी कुछ सुधर सकती है। और इस देश की अर्थव्यवस्था भी। ———पगला गये हो क्या? अरे कोई सही और सटीक तरीका बताओ। यह सब तो बड़ा झंझट का काम है। इससे तो सरकार पर भारी आर्थिक और राजनीतिक बोझ आ जायेगा। कोई ऐसी तरकीब बताओ कि जिससे हमारे ग्राम देवता, हमारे अन्नदाता, हमारे किसान भाइयों का कष्ट परमानेंटली दूर हो जाए। मुझसे तो अब उनका दुख देखा नहीं जाता।

वे फिर दुखी हो गए। और दुखी भाव से सबके लिए अगला पेग बनाने लगे। बाकी दरबारी भी दुखी हो गए। और दुखी मन से चुप—चाप प्लेटों को खाली करते हुए सोचने लगे। तीन—चार पेग के बाद उनकी तन्द्रा टूटी और वे उछल कर खड़े हो गए———अच्छा यह बताओ कि अगर किसानों को पैसे देकर अमीर बना दिया जाये, तो कैसा रहेगा? ———बहुत अच्छा रहेगा, सर। अगर किसानों के पास पैसें आ जाये, तब तो सारा टंटा ही खत्म हो जायेगा। दिलवा दीजिये न सर, उनको एक बढ़िया सा राहत पैकेज। ———भाग बुड़बक, हम उनके परमानेंट राहत की बात कर रहे हैं। और तुम लोग उनके लिए राहत पैकेज की बात कर रहे हो। किसान कोई उद्योगपति या कार्पोरेट थोड़े ही हैं। अच्छा यह बताओ, अगर सरकार बाजार रेट से दोगुनी—चौगुनी कीमत देकर उनकी सारी जमीनें अधिग्रहीत कर ले तो? कैसा रहेगा? ———बहुत ही बढ़िया रहेगा, सर। बहुत ही क्रांतिकारी। तब तो न खेत रहेंगे, न किसानी रहेगी और न ही किसान। सर आप वाकई महान हैं। किसानों के हमदर्द हैं। उनके सच्चे मसीहा हैं। उन्होंने एक साथ कहा और जल्दी—जल्दी बचे हुए काजू—कबाब—पनीर और स्कॉच को निपटाने में जुट गए।

अरविन्द कुमार

बध्व प्रो. ए. के. तिवारी

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