मुझे क्यूँ डाँटा Neetu Singh Renuka द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मुझे क्यूँ डाँटा

मुझे क्यूँ डाँटा?

देवीलाल दफ्तर से अभी लौटे ही थे। घर में घुसते ही भुनभुनाते हुए हाथ की फ़ाइल टेबल पर दे मारी।

’काम करते-करते मर जाओ। मगर कहते हैं कि सारा दिन किया ही क्या तुमने?’

शब्द तो कान में नहीं पड़े पर श्रीमती जी ने उनका भुनभुनाना सुन लिया और रसोईघर से बाहर आ गईं।

’अरे! आप आ गए? चाय बना दूँ?’

’तीस साल बाद भी यह बताना पड़ेगा, तुम्हें खुद से नहीं पता कि क्या करना है?’

श्रीमती जी समझ गई कि अब उनका रसोईघर में ही रहना बेहतर रहेगा। इसलिए चुपचाप रसोईघर की ओर प्रस्थान कर गईं।

देवीलाल अब हाथ-मुंह धोकर इधर-उधर तौलिया ढूंढ रहे थे। तौलिया तो मिल गया मगर उनकी नजऱें अभी भी कुछ ढूंढ रही थी। आज उन्हें दफ्तर में बॉस का गुस्सा सहना पड़ा। बहुत चाहकर भी ज़बान से कुछ अपशब्द न निकाल पाए। बस घुटकर रह गए। दफ्तर से लौटते हुए सारे रास्ते बॉस को कोसते आए। यहाँ तक की रास्ते में एक कुत्ते को आराम करते हुए भी उनसे नहीं देखा गया। उसे भी ज़ोर से एक लात मार दी। अचानक हुए हमले से कुत्ता भी सकपका गया। उसे राहगीरों से ऐसी अपेक्षा नहीं थी। फिर कूँ-कूँ कराहते हुए रास्ते से दूर हट कर बैठ गया। देवीलाल को कुछ शांति तो अवश्य मिली होगी। मगर पूर्ण शांति अभी नहीं मिली थी। शायद इस व$क्त उनकी नजऱें राहत का अगला ज़रिया तलाश रही थीं।

बड़ा बेटा संजय वहीं लेटा था। घर के सब लोग एक दूसरे की दिनचर्या अच्छी तरह से जानते थे। पहले भी कई बार वे बेटे को शाम को नहीं सोने के लिए टोक चुके थे। मगर आज टोकने का काम नहीं था। आज तो उन्हें कई भड़ासें एक साथ निकालनी थीं।

’अबे गधे। कितनी बार गला फाड़ चुका हूँ कि संध्या समय नहीं सोते, अपशगुन होता है। और कितना अपशगुन कराएगा। अपनी पढ़ाई तो चौपट कर ही चुका है। तेरी उम्र के लौंडे अपने-अपने बाप के कंधे का भार अपने ऊपर ले चुके हैं। और एक तू है.… इतने इत्मीनान से लेटा है जैसे मेरी अर्थी कंधे पर उठाने का इंतज़ार कर रहा हो।’

संजय उठ के बैठ गया और सिर झुका के सुनने लगा। देवीलाल ने देखा कि उनके बोलने-चिल्लाने का वो असर नहीं हो रहा है जो वो चाहते थे। उन्हें लगा कि हर बार की तरह यह दोनों कान खोल के बैठा है ताकि एक कान से सुन, दूसरे कान से बात को हवा कर सके। क्योंकि अब तक तो नौ साल का ङ्क्षचटू भी सहम गया था और दोनों को एकटक देख रहा था।

’मैं दीवारों से बात नहीं कर रहा हूँ.... इधर देख, तुझसे ही बातें कर रहा हूँ। कुछ बोलेगा भी।’

संजय ने मुंह उठाकर गुस्से से बाप की ओर देखा और मुंह खोल के यह बोलना चाहा कि ’अगर मैं कुछ भी बोलूँगा तो बोलोगे कि बाप से ज़बान लड़ाता है, लडक़ा बेशर्म हो गया है।’

लेकिन इससे पहले ही उसकी माँ ने स्थिति भाँपकर रसोईघर से बाहर झाँका और संजय के खुले हुए मुंह को देख ज़ोर से ना में सिर हिलाया। माँ का इशारा पाकर संजय का खुला हुआ मुंह बंद हो गया और फिर उसने मुंह लटका लिया और देवीलाल फिर चक्रवाती तूफान की तरह थोड़ी देर रुक के फिर शुरू हो गए जबकि श्रीमती वापस रसोईघर में गईं।

’सब आवारा दोस्त इक_े कर रखे हैं। सारा दिन आवारागर्दी करते रहते हो। पैसे कहाँ से लाते हो? कहीं चोरी-वोरी तो नहीं करते? बुढ़ापे में थाने का मुंह दिखाओगे क्या? सब अपने माँ-बाप को तीर्थ कराते हैं इस उम्र में और तुम ....’

संजय ने सोचा कि अब तो हद हो गई है। अब यह चोरी की बातें कहाँ से होने लगीं। कुछ बोल नहीं रहा तो बैठे-बैठे ये मुझे जेल भिजवा रहे हैं। ऊपर से माँ भी इनको रोकने की बजाए मुझ पर ही बंदिश लगा रही हैं। संजय ने पिता के पीछे झांक कर देखा। माँ नहीं थी। रसोई में थीं, शायद। मैदान खाली देख उसने भी बाप से दो-चार होने का मन बना लिया। अभी मुंह फिर खोला ही था कि पीछे से माँ की आवाज़ आई।

’सुनिए! चाय रख दी है टेबल पर ...पी लीजिये वरना फैन के नीचे ठंडी हो जाएगी।’

संजय का मुंह फिर खुला का खुला रह गया। देवीलाल कुर्सी पर बैठ कर चाय पीने लगे और अपने आप में ही कुछ भुनभुनाने लगे। संजय चारपाई पर बैठा-बैठा ही बेचैन हो रहा था कि कुछ तो बोलूँ वरना ये मेरा जीना मुहाल कर देगें। अभी बेवज़ह में चोरी का इल्ज़ाम लगा रहे हैं आगे बेवज़ह में अरैस्ट करा देगें। भींचते हुए संजय ने पूरी हिम्मत जुटाई और मुंह खोला ही था कि फिर उसका मुंह खुला ही रह गया, क्योंकि देवीलाल रसोईघर की ओर मुंह कर के बोल रहे थे।

’सुन रही हो। मैं नुक्कड़ तक टहल के आता हूँ... थोड़ी देर में आता हूँ।’

देवकी ने मन ही मन सोचा ’चलो भगवान अभी के लिए तो बला टली।’

’सुन रही हो’

’जी! सुन लिया’

देवीलाल तो दहलीज़ के बाहर निकल गए लेकिन संजय का गुस्सा भी अब तक अपनी दहलीज़ पार कर चुका था। उसने चारपाई से उठते हुए सामने के टेबल को लात मारी और उठ कर खड़ा हो गया। ङ्क्षचटू आगे आनेवाले तूफान से अंजान होकर बोल बैठा ’टेबल को क्यों लात मारा? उसपर मेरी पेंसिल रखी थी, देखो गिर गई।’

’अबे गधे! तुझे पेंसिल की पड़ी है। गिर गई तो उठा नहीं सकता। पिद्दी भर का तो है और बड़े ज्ञान बांटने चला है। एक कान के नीचे दूँगा ना खींच के तो सारी चतुराई बाहर आ जाएगी। अपनी दो किलोमीटर की ज़बान न.… मुंह में ही रखा कर वरना किसी दिन खींच के बाहर कर दूंगा और तब मां-बाबूजी भी नहीं बचा पाएंगे। यह मत सोचना कि हर बार छोड़ देता हूँ तो आगे भी छोड़ दूँगा। अबकी मेरे मुंह लगेगा तो बचेगा नहीं।’

इतना कह के संजय घर से बाहर चला गया। लेकिन ङ्क्षचटू बैठा सोच रहा था कि भैया तो काम-धंधा नहीं करते और शाम को सोते हैं इसलिए पिताजी ने उन्हें डांटा। वो विस्फारित दरवाज़े की ओर देख यह सोच रहा था कि ’भैया ने मुझे क्यों डांटा’।

***