Shaadi se pahle aur shaadi ke baad books and stories free download online pdf in Hindi

शादी से पहले और शादी के बाद

शादी से पहले और शादी के बाद

उसका नाम रतना था। फिलहाल तो वो अपने सामान के साथ बोगी में घुस रही थी और उसे घुसता हुआ देख मैं ईश्वर से यह प्रार्थना कर रही थी कि मेरी सामने वाली सीट पर वही आए। तब मैं नहीं जानती थी कि उसका नाम क्या है और क्या नहीं। मैं बस इतना जानती थी कि वह वो एक विवाहिता है; जाहिर है उसके उन भिन्न चिह्नों से जो हमारे समाज ने एक विवाहिता को पहचानने के लिए तय कर दिए हैं और यह जानती थी कि किसी आदमी के इस सीट पर आने से कहीं बेहतर यही होगा कि वह इस सीट पर आए। वरना चारों तरफ से आदमियों से घिरा होना अजीब लगता है और फिर टी.टी. से सीट बदलवाने का झंझट अलग होगा।

वैसे दरवाजों से लगे बर्थों का एक फायदा है तो एक नुकसान भी है। फायदा यह है कि आप किसी को उतरते-चढ़ते देख सकते हैं, जैसे मैंने रतना को देखा; साथ ही उतरने-चढ़ने की सहूलियत भी है। नुकसान यह है कि सबसे ज़्यादा भीड़ भी यहीं होती है। जिसके पास टिकट नहीं होता या वेटिंग लिस्ट में है वो सबसे पहले यहीं टिकने का प्रयास करते हैं। जब वेटिंग लिस्ट वालों का कोटा यहां पूरा हो जाता है तभी वे अंदर कहीं घुसने का प्रयास करते हैं। और बेटिकट.....बेटिकट वाले तो अंदर घुसने का प्रयास ही नहीं करते कि सामने से टी.टी. दिख जाए तो सीधे शौचालय रूपी आलय में शरण लें।

फिलहाल तो मैं रतना को ट्रेन में चढ़ते हुए देख रही थी। गाढ़े हरे रंग की साड़ी और उसके किनारों पर किया हुआ बारीक ज़री का काम और तिस पर बड़े सलीके से पहनी हुई साड़ी, जिसके प्लेट खूब खिलकर सामने बिखर जाते थे, मैं इस समय यही सब देख रही थी। उसके पीछे जब उसका भाई मंजुनाथ सामान लेकर चढ़ा; हाँ मंजुनाथ ही कह कर बुलाया था, उसने अपने छोटे भाई को; तो मैं प्रत्याशा से मंजुनाथ का मुंह देखने लगी जिसने मेरी आशा के अनुकूल सामान सीट नंबर 1 के नीचे सरका दिया और खिड़की की तरफ इशारा करके रतना को बैठने के लिए कहा।

मैं खुश कि मुझे पूर्वविदित कष्ट नहीं झेलने पड़ेंगे और बातें करते हुए समय भी अच्छे से कट जाएगा।

जब मंजुनाथ और रतना बैठ गए तो मंजुनाथ रतना को कुछ समझाने लगा। मैंने अपना मुंह खिड़की की ओर घुमा लिया क्योंकि किसी को ज्यादा देर टुकुर-टुकुर ताकना भी अच्छा नहीं लगता। मगर खिड़की से बाहर भी क्या देखूँगी, सटकर खड़ी मालगाड़ी का डिब्बा देखूँ या नीचे नाली की गंदगी देखूँ जिसमें हर तरह के चिप्स के पैकेट और कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलें मिलेंगी।

जब मालगाड़ी के डिब्बे पर लिखा “दपू” पढ़-पढ़कर थक गई तो फिर रतना के मंगलसूत्र का डिजाइन और साड़ी के ब्रोच को और फिर मंजुनाथ के चेहरे पर की बेचैनी देखने लगी जो ठीक वैसी ही थी जैसी मेरे चेहरे पर कि आख़िर यह ट्रेन कब चलेगी। हम सबको पता है कि बीस मिनट का हाल्ट है तो बीस मिनट बाद ही चलेगी। मगर फिर भी यह ट्रेन जाने कब चलेगी। हमारी बेचैनी से बेखबर ट्रेन ने अपने टाइम पर ही सीटी दी और हल्के-हल्के अपने सैकड़ों कदम एक साथ बढ़ाने लगी।

सीटी सुनते ही मंजुनाथ उठ खड़ा हुआ और रतना को टा-टाकर नीचे उतर गया। रतना उसे जाते हुए देखती रही। जब वह सामने वाली खिड़की से भी ओझल हो गया तो उसने पीछे छूटते प्लेटफार्म से नज़र हटाकर मेरी तरफ देखा। मैं मुस्कुराई और जवाब में वो भी मुस्कुराई। ये हुई दोस्ती की शुरूआत।

मैंने पूछा “कहाँ तक जा रही हो?”

“बस पंपापुरी तक”

मुझे लगा अकेले चार घंटे का रास्ता तय करने से शायद डर रही होगी। सोचा सांत्वना दे दूँ और यह दिलासा कि मैं साथ हूँ और डरने वाली कोई बात नहीं है।

“पहली बार अकेले जा रही हैं?”

“नहीं शादी से पहले तो कई बार कई जगहों पर गई हूँ। पर शादी के बाद पहली बार अकेले जा रही हूँ।”

याने मेरे दिलासे की आवश्यकता ही नहीं है।

समय काटना ज़रूरी था इसलिए मैने अगला सवाल किया।

““वैसे मैंने आपका नाम नहीं पूछा।”

“रतना शर्मा..... ओह सॉरी रतना मिश्रा।”

“क्या?”

“वो शादी से पहले शर्मा और शादी के बाद मिश्रा।”

“ओह! अच्छा! वैसे पंपापुरी में कहाँ रहती हैं?”

“शादी से पहले गांधी रोड पर रहती थी और शादी के बाद कोर्ट रोड के पास रहने लगी।”

“अच्छा! मेरे ताऊजी गांधी रोड पर ही रहते थे। बताते थे वहाँ दीक्षित ब्राह्मण बहुत रहते हैं।”

“हां हां! मैं भी शादी से पहले दीक्षित थी।”

“और अब?”

“कश्यप”

“ओह”

बातों-बातों में मुझे अचानक याद आया कि मेरी पहचान के एक व्यक्ति अपनी लड़की के लिए एक लड़का ढूँढ रहे हैं। और याद आते ही मंजुनाथ की छवि मेरे ध्यान में कौंधी।

“आपका गोत्र क्या होगा?”

“कौशिक”

“शादी से पहले या बाद में?”

“शादी के बाद तो वत्स।”

“ओह!”

फिर मुझे ध्यान आया कि उन व्यक्ति का कहना था कि कौशिकों में हमारे यहाँ लड़की नहीं दी जाती है। अत: इस विषय पर बात करना बेकार था।

थोड़ी देर मैं चुप रही। मगर मेरी ये खासियत है कि मैं ज्यादा देर चुप नहीं रह सकती। मुझे बोलते या सुनते रहना होगा वरना मुझे बेचैनी काट खाएगी। अक्सर मैं सामने वाले के लिए कोई विषय छेड़ देती हूँ और लोग अक्सर उस विषय पर घंटों मुझे सुनाते रहते हैं और मैं सुनती रहती हूँ। इस प्रकार मुझे बेचैनी का कीड़ा प्रताड़ित नहीं करता। पर अभी-अभी, थोड़ी देर हुई कि इस कीड़े ने मुझे ज़ोर से काटा और मैं फिर बेचैन हो उठी। मैंने इलाज के लिए रतना की तरफ देखा। वह अपना पल्लू सेट कर रही थी।

“बहुत खूबसूरत साड़ी है। शायद किसी फिल्म में देखी थी मैंने।”

“अच्छा कौन सी फिल्म में? किसी नई फिल्म में क्या? इधर बहुत दिनों से फिल्में नहीं देखी।”

“कुछ ठीक-ठीक याद नहीं कौन सी फिल्म या शायद किसी सीरियल में देखी थी।”

“अच्छा, याद आएगा तो बताइएगा।”

“वैसे तुम्हें सीरियल कौन से पसंद हैं?”

“अब तो मैं सीरियल उतने नहीं देखती। मगर पहले वो बींदणी वाला सीरियल है न। उसका नाम क्या था? मुझे याद नहीं आ रहा। वो ही बहुत देखती थी। उसका रीपीट टेलेकास्ट भी नहीं छोड़ती थी। मगर अब केवल रिएलिटी शोज़ ही देखती हूँ।“

“अब मतलब?”

“मतलब शादी के बाद से।”

“ओह!”

मेरे दिमाग में बातों का पिटारा फिर खत्म हो गया था, इसलिए मैं अब फिर चुप थी और अब चुप ही रही जब तक कि कोई और विषय न मिले।

वो अपने पर्स का सारा सामान निकालकर व्यवस्थित कर रही थी। मैं भी खिड़की के बाहर गुज़रते हुए पेड़ों को, खेतों को देखने लगी और सोचने लगी कि हम अक्सर कहते हैं कि प्लेटफार्म आ गया, या फिर जैसा कि मैंने अभी-अभी कहा कि पेड़ और खेत गुज़र रहे थे जबकि सच तो यह है कि प्लेटफार्म नहीं आता बल्कि गाड़ी प्लेटफार्म पर पहुँचती है और खेत और पेड़ नहीं गुज़रते हैं बल्कि हम या यों कहें कि ट्रेन में बैठे हम इन खेतों और पेड़ों से गुज़रते हैं। जीवन भी मुझे इस समय कुछ ऐसा ही प्रतीत हुआ। हमें लगता है कि हम केन्द्र में है और दूसरे हमारे चारों ओर गुज़र रहे हैं, उसी तरह दूसरों को लगता है कि वे अपने-अपने केन्द्र पर स्थित हैं और हम गुज़र रहे हैं। हमें लगता है कि हम जो सोचते हैं, हम जो समझते हैं, जितना जानते हैं बस वही सही है, सत्य है। जबकि सामने वाले को लगता है कि उसका ज्ञान, उसका एहसास, उसकी समझ के अनुसार जो सही है वही सही है, वही सत्य है बाकी नहीं और इस भ्रम में ही रहते हैं जब तक कि कोई हमारी समझ के दायरे को बढ़ाकर इस दृष्टिकोण की तरफ नहीं ले जाता है कि सामने वाले के दृष्टिकोण में हम क्या है? मेरे दृष्टिकोण से मैं सामने वाली बर्थ की औरत से केवल समय गुजारने के लिए बातें कर रही थी। मेरे केन्द्र से केवल यही दिख रहा था। उसके केन्द्र से वह वो जीवन जी रही थी जो वह बता रही थी। दो जीवन थे उसके – शादी से पहले और उसके बाद। वह शादी के बाद वाले हिस्से में जी रही थी मगर शादी के पहले वाले हिस्से को अपनी आँखों से गुजरते हुए देख रही थी, इन पेड़ों की तरह।

“चाय-चाय, कॉफी-कॉफी।”

मेरी तंद्रा टूटी।

बोगी में आईआरसीटीसी की यूनिफार्म में चाय वाला आया।

बर्थ नं.1 से आवाज़ आई।

“आप चाय लेंगी या कॉफी?”

“नहीं-नहीं; मेरी तरफ से प्लीज़।”

उसने हथियार डाल दिए।

“अच्छा बताओ। चाय पसंद है या कॉफी?”

“अब तो मैं कॉफी पीती हूँ।”

इस बार मुझे पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि ‘अब’ का क्या मतलब था। मैंने चाय वाले को दो कॉफी के लिए कहा।

कॉफी का सिप लेते हुए मैंने पूछा –“चाय क्यों छोड़ी?”

उसने पहला सिप लिया और बोली-

“उनको कॉफी पसंद है। शुरू-शुरू में अपने लिए चाय और उनके लिए कॉफी बनाती थी। देखा कि चाय बनाने में झंझट ज्यादा है और अलग से बनानी भी पड़ती है। सो धीरे-धीरे आलस के मारे कॉफी पीनी शुरू कर दी। और अब तो कॉफी ही अच्छी लगती है।”

“वैसे कॉफी बनी भी अच्छी है।”

“हाँ।”

“तुम्हारा स्टेशन आनेवाला है। कोई आनेवाला है लेने के लिए?”

“हां। ये आएंगे न।”

मैं मुस्कुरा दी, वो भी और अपना सामान समेटने में लग गई। स्टेशन आया और मेरा मन हुआ कि उसे अलविदा करने के लिए ट्रेन से नीचे उतरूँ। इसलिए जबरन उसका थोड़ा सामान लिए मैं भी प्लेटफार्म पर उतर गई।

उसकी निगाहें चारों ओर ढूँढ रही थी। मैंने भी इधर-उधर देखा, पर मेरे देखने का कोई मतलब नहीं था क्योंकि मैं उसके पति को पहचानती नहीं थी। इसलिए मैंने इधर-उधर देखना छोड़ दिया और उसके चेहरे की ओर देखती रही। काफी देर यहाँ-वहाँ देखने के बाद उसने मेरी तरफ देखा। मेरे आंखों में प्रश्नचिह्न देखकर उसने जवाब दिया -

“अब देखिए न! शादी से पहले तो हर जगह दो घंटे पहले ही पहुंच जाते थे और अब देखिए ...हुंह।”

जैसे ही यह कहकर उसने मुंह घुमाया दो घटनाएं एक साथ हुई। सामने से उसने पति को आते देखा और इधर ट्रेन ने सीटी दे दी। मैंने ट्रेन में चढ़ने की प्राथमिकता निभाई और दरवाजे से ही उसे टाटा किया। चलती ट्रेन से उसे देख रही थी। शायद उससे देरी के लिए माफी मांगी जा रही थी और वो मुस्कुराकर माफ कर रही थी। वो ही....उसका क्या नाम था। मैं भूल गई। अब तो मैंने उसका नाम रख दिया है –“शादी के पहले और शादी के बाद।”

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