सूर्यकांत त्रिपाठी
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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला' का जन्म 1896 में वसंत पंचमी के दिन हुआ था। आपके जन्म की तिथि को लेकर अनेक मत प्रचलित हैं। निराला जी के कहानी संग्रह ‘लिली' में उनकी जन्मतिथि 21 फरवरी 1899 प्रकाशित है। निराला अपना जन्म—दिवस वसंत पंचमी को ही मानते थे। आपके पिता पंडित रामसहाय तिवारी उन्नाव के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। ‘निराला' जी की औपचारिक शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। तदुपरांत हिन्दी, संस्कृत तथा बांग्ला का अध्ययन आपने स्वयं किया। तीन वर्ष की बालावस्था में माँ की ममता छीन गई व युवा अवस्था तक पहुंचते—पहुंचते पिताजी भी साथ छोड़ गए। प्रथम विश्वयुध्द के बाद फैली महामारी में आपने अपनी पत्नी मनोहरा देवी, चाचा, भाई तथा भाभी को गँवा दिया। विषम परिस्थितियों में भी आपने जीवन से समझौता न करते हुए अपने तरीके से ही जीवन जीना बेहतर समझा।
इलाहाबाद से आपका विशेष अनुराग लम्बे समय तक बना रहा। इसी शहर के दारागंज मुहल्ले में अपने एक मित्र, रायसाहब के घर के पीछे बने एक कमरे में 15 अक्टूबर 1971 को आपने अपने प्राण त्याग इस संसार से विदा ली। निराला ने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद भी किया। निराला सचमुच निराले व्यक्तित्व के स्वामी थे। निराला का हिंदी साहित्य में विशेष स्थान है।
भिक्षुक
वह आता —
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।
पेट—पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी—भर दाने को — भूख मिटाने को
मुँह फटी—पुरानी झोली का फैलाता —
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया—दृष्टि पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख होंठ जब जाते
दाता—भाग्य—विधाता से क्या पाते?—
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए।
प्राप्ति
तुम्हें खोजता था मैं,
पा नहीं सका,
हवा बन बहीं तुम, जब
मैं थका, रुका ।
मुझे भर लिया तुमने गोद में,
कितने चुम्बन दिये,
मेरे मानव—मनोविनोद में
नैसर्गिकता लियेय
सूखे श्रम—सीकर वे
छबि के निर्झर झरे नयनों से,
शक्त शिराएँ हुईं रक्त—वाह ले,
मिलीं — तुम मिलीं, अन्तर कह उठा
जब थका, रुका ।
तोड़ती पत्थर
वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर—
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकारय
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म—रत मन,
गुरू हथौड़ा हाथ,
करती बार—बार प्रहार—
सामने तरू—मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूपय
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूपय
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगी छा गयीं,
प्रायरू हुई दुपहर —
वह तोड़ती पत्थर
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतारय
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा —
श्मैं तोड़ती पत्थर।श्
निराला जी की हस्तलिपि में लिखी हुई उनकी रचना देखें
साभार — निराला रचनावली
राजकमल प्रकाशन
वसन्त आया
सखि, वसन्त आया ।
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय—वसना नव—वय—लतिका
मिली मधुर प्रिय—उर तरु—पतिका,
मधुप—वृन्द बन्दी—
पिक—स्वर नभ सरसाया।
लता—मुकुल—हार—गन्ध—भार भर
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन—
यौवन की माया।
आवृत सरसी—उर—सरसिज उठे,
केशर के केश कली के छुटे,
स्वर्ण—शस्य—अञ्चल
पृथ्वी का लहराया।
ध्वनि
अभी न होगा मेरा अंत
अभी—अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसंत—
अभी न होगा मेरा अंत।
हरे—हरे ये पात,
डालियाँ, कलियाँ, कोमल गात।
मैं ही अपना स्वप्न—मृदुल—कर
फेरूँ गा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर।
पुष्प—पुष्प से तंद्रालस लालसा खींच लूँगा मैं,
अपने नव जीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,
द्वार दिखा दूँगा फिर उनको।
हैं मेरे वे जहाँ अनंत—
अभी न होगा मेरा अंत।
—सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निरालाश्
निराला का जीवन परिचय व रचनाएं
पद्मा और लिली
लिली कहानी—संग्रह कथानक—साहित्य में निराला का प्रथम प्रयास था। निरालाजी ने इसकी भूमिका में लिखा है —यह कथानक—सहित्य में मेरा पहला प्रयास है। मुझसे पहलेवाले हिंदी के सुप्रसिद्ध कहानी—लेखक इस कला को किस दूर उत्कर्ष तक पहुँचा चुके हैं, मैं पूरे मनोयोग से समझने का प्रयत्न करके भी नहीं समझ सका। समझता, तो शायद उनसे पर्याप्त शक्ति प्राप्त कर लेता, और पतन के भय से इतना न घबराता। अतरू अब मेरा विश्वास केवल लिलीपर है, जो यथा—स्वभाव अधखिली रहकर अधिक सुगंध देती है।
1)
पद्मा के चन्द्र—मुख पर षोडश कला की शुभ्र चंद्रिका अम्लान खिल रही है। एकांत कुंज की कली—सी प्रणय के वासंती मलयस्पर्श से हिल उठती,विकास के लिए व्याकुल हो रही है।
पद्मा की प्रतिभा की प्रशंसा सुनकर उसके पिता अॉनरेरी मैजिस्ट्रेट पंडित रामेश्वरजी शुक्ल उसके उज्ज्वल भविष्य पर अनेक प्रकार की कल्पनाएँ किया करते हैं। योग्य वर के अभाव से उसका विवाह अब तक रोक रखा है। मैट्रिक परीक्षा में पद्मा का सूबे में पहला स्थान आया था। उसे वृत्ति मिली थी। पत्नी को योग्य वर न मिलने के कारण विवाह रुका हुआ है, शुक्लजी समझा देते हैं। साल—भर से कन्या को देखकर माता भविष्य—शंका से काँप उठती हैं।
पद्मा काशी विश्वविद्यालय के कला—विभाग में दूसरे साल की छात्रा है। गर्मियों की छुट्टी है, इलाहाबाद घर आई हुई है। अबके पद्मा का उभार, उसका रूप—रंग, उसकी चितवन—चलन—कौशल—वार्तालाप पहले से सभी बदल गए हैं। उसके हृदय में अपनी कल्पना से कोमल सौन्दर्य की भावना, मस्तिष्क में लोकाचार से स्वतन्त्र अपने उच्छृंखल आनुकूल्य के विचार पैदा हो गए हैं। उसे निस्संकोच चलती—फिरती, उठती—बैठती, हँसती—बोलती देखकर माता हृदय के बोलवाले तार से कुछ और ढीली तथा बेसुरी पड़ गई हैं।
एक दिन सन्ध्या के डूबते सूर्य के सुनहले प्रकाश में, निरभ्र नील आकाश के नीचे, छत पर, दो कुर्सियाँ डलवा माता और कन्या गंगा का रजत—सौन्दर्य एकटक देख रही थी। माता पद्मा की पढाई, कॉलेज की छात्राओं की संख्या, बालिकाओं के होस्टल का प्रबन्ध आदि बातें पूछती हैं, पद्मा उत्तर देती है। हाथ में है हाल की निकली स्ट्रैंड मैगजीन की एक प्रति। तस्वीरें देखती जाती है। हवा का एक हल्का झोंका आया, खुले रेशमी बाल, सिर से साड़ी को उड़ाकर, गुदगुदाकर, चला गया।
सिर ढक लिया करो, तुम बेहया हुई जाती हो। माता ने रुखाई से कहा।
पद्मा ने सिर पर साड़ी की जरीदार किनारी चढ़ा ली, आँखें नीची कर किताब के पन्ने उलटने लगी।
पद्मा! गम्भीर होकर माता ने कहा।
जी! चलते हुए उपन्यास की एक तस्वीर देखती हुई नम्रता से बोली।
मन से अपराध की छाप मिट गई, माता की वात्सल्य—सरिता में कुछ देर के लिए बाढ—सी आ गई, उठते उच्छ्वास से बोलीं, कानपुर में एक नामी वकील महेशप्रसाद त्रिपाठी हैं।
हूँ, एक दूसरी तस्वीर देखती हुई।
उनका लड़का आगरा युनिवर्सिटी से एम. ए. में इस साल फर्स्ट क्लास फर्स्ट आया है।
हूँ, पद्मा ने सिर उठाया। आँखें प्रतिभा से चमक उठीं।
तेरे पिताजी को मैंने भेजा था, वह परसों देखकर लौटे हैं। कहते थे, लड़का हीरे का टुकड़ा, गुलाब का फूल है। बातचीत दस हजार में पक्की हो गई है।
हूँ, मोटर की आवाज पा पद्मा उठकर छत के नीचे देखने लगी। हर्ष से हृदय में तरंगें उठने लगीं। मुसकुराहट दबाकर आप ही में हँसती हुई चुपचाप बैठ गई।
माता ने सोचा, लड़की बड़ी हो गई है, विवाह के प्रसंग से प्रसन्न हुई है। खुलकर कहा, मैं बहुत पहले से तेरे पिताजी से कह रही थी, वह तेरी पढ़ाई के विचार में पड़े थे।
नौकर ने आकर कहा, राजेन बाबू मिलने आए हैं। पद्मा की माता ने एक कुर्सी डाल देने के लिए कहा। कुर्सी डालकर नौकर राजेन बाबू को बुलाने नीचे उतर गया। तब तक दूसरा नौकर रामेश्वरजी का भेजा हुआ पद्मा की माता के पास आया, कहा, जरूरी काम से कुछ देर के लिए पंडित जल्द बुलाते हैं।
2)
जीने से पद्मा की माता उतर रही थीं, रास्ते में राजेन्द्र से भेंट हुई। राजेन्द्र ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। पद्मा की माता ने कंधे पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और कहा— चलो, पद्मा छत पर है, बैठो, मैं अभी आती हूँ।
राजेन्द्र जज का लड़का है, पद्मा से तीन साल बड़ा, पढ़ाई में भी। पद्मा अपराजिता बडी—बडी आँखों की उत्सुकता से प्रतीक्षा में थी, जब से छत से उसने देखा था।
आइए, राजेन बाबू, कुशल तो है? पद्मा ने राजेन्द्र का उठकर स्वागत किया। एक कुर्सी की तरफ बैठने के लिए हाथ से इंगित कर खड़ी रही। राजेन्द्र बैठ गया, पद्मा भी बैठ गई।
राजेन, तुम उदास हो! तुम्हारा विवाह हो रहा है? राजेन्द्र ने पूछा।
पद्मा उठकर खड़ी हो गई। बढ़कर राजेन्द्र का हाथ पकडकर बोली— राजेन, तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं! जो प्रतिज्ञा मैंने की है, हिमालय की तरह उस पर अटल रहूंगी।
पद्मा अपनी कुर्सी पर बैठ गई। मेगजीन खोल उसी तरह पन्नों में नजर गढ़ा दी। जीने से आहट मालूम दी।
माता निगरानी की निगाह से देखती हुई आ रही थीं। प्रकृति स्तब्ध थी। मन में वैसी ही अन्वेषक—चपलता।
क्यों बेटा, तुम इस साल बी.ए. हो गए? हँसकर पूछा।
जी हाँ। सिर झुकाये हुए राजेन्द्र ने उत्तर दिया।
तुम्हारा विवाह कब तक करेंगे तुम्हारे पिताजी, जानते हो?
जी नहीं।
तुम्हारा विचार क्या है?
आप लोगों से आज्ञा लेकर विदा होने के लिए आया हूँ, विलायत भेज रहे हैं पिताजी। नम्रता से राजेन्द्र ने कहा।
क्या बैरिस्टर होने की इच्छा है? पद्मा की माता ने पूछा।
जी हाँ।
तुम साहब बनकर विलायत से आना और साथ एक मेम भी लाना, मैं उसकी शुद्धि कर लूँगी। पद्मा हँसकर बोली।
आँखे नीची किए राजेंद्र भी मुसकराने लगा।
नौकर ने एक तश्तरी पर दो प्यालों में चाय दी—दो रकाबियों पर कुछ बिस्कुट और केक। दूसरा एक मेज उठा लिया। राजेन्द्र और पद्मा की कुर्सी के बीच रख दी, एक धुली तौलिया ऊपर से बिछा दी। सासर पर प्याले तथा रकाबियों पर बिस्कुट और केक रखकर नौकर पानी लेने गया, दूसरा आज्ञा की प्रतीक्षा में खडा रहा।
3)
मैं निश्चय कर चुका हूँ, जबान भी दे चुका हूँ। अबके तुम्हारी शादी कर दूँगा। पंडित रामेश्वरजी ने कन्या से कहा।
लेकिन मैंने भी निश्चय कर लिया है, डिग्री प्राप्त करने से पहले विवाह न करूंगी। सिर झुकाकर पद्मा ने जवाब दिया।
मैं मजिस्ट्रेट हूँ बेटी, अब तक अक्ल ही की पहचान करता रहा हूँ, शायद इससे ज्यादा सुनने की तुम्हें इच्छा न होगी। गर्व से रामेश्वरजी टहलने लगे।
पद्मा के हृदय के खिले गुलाब की कुल पंखड़ियां हवा के एक पुरजोर झोंके से काँप उठीं। मुक्ताओं—सी चमकती हुई दो बूँदें पलकों के पत्रों से झड़ पड़ी। यही उसका उत्तर था।
राजेन जब आया, तुम्हारी माता को बुलाकर मैंने जीने पर नौकर भेज दिया था, एकान्त में तुम्हारी बातें सुनने के लिए। — तुम हिमालय की तरह अटल हो, मैं भी वर्तमान की तरह सत्य और दृढ। रामेश्वरजी ने कहा— तुम्हें इसलिए मैंने नहीं पढ़ाया कि तुम कुल—कलंक बनो।
आप यह सब क्या कह रहे हैं?
चुप रहो। तुम्हें नहीं मालूम? तुम ब्राह्मण—कुल की कन्या हो, वह क्षत्रिय—घराने का लड़का है— ऐसा विवाह नहीं हो सकता। रामेश्वरजी की साँस तेज चलने लगीं, आँखें भौंहों से मिल गईं।
आप नहीं समझे मेरे कहने का मतलब। पद्मा की निगाह कुछ उठ गईं।
मैं बातों का बनाना आज दस साल से देख रहा हूँ। तू मुझे चराती है? वह बदमाश.......!
इतना बहुत है। आप अदालत के अफसर है! अभी—अभी आपने कहा था, अब तक अक्ल की पहचान करते रहे हैं, यह आपकी अक्ल की पहचान है! आप इतनी बड़ी बात राजेन्द्र को उसके सामने कह सकते हैं? बतलाइए, हिमालय की तरह अटल सुन लिया, तो इससे आपने क्या सोचा?
आग लग गई, जो बहुत दिनों से पद्मा की माता के हृदय में सुलग रही थी।
हट जा मेरी नजरों से बाहर, मैं समझ गया। रामेश्वर जी क्रोध से काँपने लगे।
आप गलती कर रहे हैं, आप मेरा मतलब नहीं समझे, मैं भी बिना पूछे हुए बतलाकर कमजोर नहीं बनना चाहती। पद्मा जेठ की लू में झुलस रही थी, स्थल—पद्म—सा लाल चेहरा तम—तमा रहा था। आँखों की दो सीपियाँ पुरस्कार की दो मुक्ताएँ लिए सगर्व चमक रही थीं।
रामेश्वरजी भ्रम में पड गये। चक्कर आ गया। पास की कुर्सी पर बैठ गए। सर हथेली से टेककर सोचने लगे। पद्मा उसी तरह खड़ी दीपक की निष्कंप शिखा—सी अपने प्रकाश में जल रही थी।
क्या अर्थ है, मुझे बता। माता ने बढ़कर पूछा।
मतलब यह, राजेन को संदेह हुआ था, मैं विवाह कर लूँगी — यह जो पिताजी पक्का कर आए हैं, इसके लिए मैंने कहा था कि मैं हिमालय की तरह अटल हूँ, न कि यह कि मैं राजन के साथ विवाह करूँगी। हम लोग कह चुके थे कि पढ़ाई का अन्त होने पर दूसरी चिंता करेंगे। पद्मा उसी तरह खड़ी सीधे ताकती रही।
तू राजेन को प्यार नहीं करती? आँख उठाकर रामेश्वरजी ने पूछा।
प्यार? करती हूँ।
करती है?
हाँ, करती हूँ।
बस, और क्या?
पिता!—
पद्मा की आबदार आँखों से आँसुओं के मोती टूटने लगे, जो उसके हृदय की कीमत थे, जिनका मूल्य समझनेवाला वहाँ कोई न था।
माता ने ठोढ़ी पर एक उँगली रख रामेश्वरजी की तरफ देखकर कहा— प्यार भी करती है, मानती भी नहीं, अजीब लड़की है।
चुप रहो। पद्मा की सजल आँखें भौंहों से सट गईं, विवाह और प्यार एक बात है? विवाह करने से होता है, प्यार आप होता है। कोई किसी को प्यार करता है, तो वह उससे विवाह भी करता है? पिताजी जज साहब को प्यार करते हैं, तो क्या इन्होंने उनसे विवाह भी कर लिया है?
रामेश्वरजी हँस पड़े।
4)
रामेश्वरजी ने शंका की दृष्टि से डॉक्टर से पूछा, क्या देखा आपने डॉक्टर साहब?
बुख़ार बड़े जोर का है, अभी तो कुछ कहा नहीं जा सकता। जिस्म की हालत अच्छी नहीं, पूछने से कोई जवाब भी नहीं देती। कल तक अच्छी थी, आज एकाएक इतने जोर का बुख़ार, क्या सबब है? डॉक्टर ने प्रश्न की दृष्टि से रामेश्वरजी की तरफ देखा।
रामेश्वरजी पत्नी की तरफ देखने लगे।
डाक्टर ने कहा— अच्छा, मैं एक नुस्खा लिखे देता हूँ, इससे जिस्म की हालत अच्छी रहेगी। थोडी—सी बर्फ मँगा लीजिएगा। आइस—बैग तो क्यों होगा आपके यहाँ? एक नौकर मेरे साथ भेज दीजिए, मैं दे दूँगा। इस वक्त एक सौ चार डिग्री बुख़ार है। बर्फ डालकर सिर पर रखिएगा। एक सौ एक तक आ जाय, तब जरूरत नहीं।
डॉक्टर चले गए। रामेश्वरजी ने अपनी पत्नी से कहा— यह एक दूसरा फसाद खडा हुआ। न तो कुछ कहते बनता है, न करते। मैं कौम की भलाई चाहता था, अब खुद ही नकटों का सिरताज हो रहा हूँ। हम लोगों में अभी तक यह बात न थी कि ब्राह्मण की लड़की का किसी क्षत्रिय लड़के से विवाह होता। हाँ, ऊँचे कुल की लड़कियाँ ब्राह्मणों के नीचे कुलों में गयी हैं। लेकिन, यह सब आखिर क़ौम ही में हुआ है।
तो क्या किया जाय? स्फारित, स्फुरित आँखें, पत्नी ने पूछा।
जज साहब से ही इसकी बचत पूछूंगा। मेरी अक़्ल अब और नहीं पहु़ँचती। — अरे छीटा!
जी! छीटा चिलम रखकर दौडा।
जज साहब से मेरा नाम लेकर कहना, जल्द बुलाया है।
और भैया बाबू को भी बुला लाऊँ?
नहीं—नहीं। रामेश्वरजी की पत्नी ने डाँट दिया।
5)
जज साहब पुत्र के साथ बैठे हुए वार्तालाप कर रहे थे। इंग्लैंड के मार्ग, रहन—सहन, भोजन—पान, अदब—क़ायदे का बयान कर रहे थे। इसी समय छीटा बँगले पर हाजिर हुआ, और झुककर सलाम किया। जज साहब ने आँख उठाकर पूछा, कैसे आए छीटाराम?
हुजूर को सरकार ने बुलाया है, और कहा है, बहुत जल्द आने के लिए कहना।
क्यों?
बीबी रानी बीमार हैं, डाक्टर साहब आए थे, और हुजूर..... बाकी छीटा ने कह ही डाला था।
और क्या?
हुजूर.... छीटा ने हाथ जोड लिये। उसकी आँखें डबडबा आईं।
जज साहब बीमारी कड़ी समझकर घबरा गए। ड्राइवर को बुलाया। छीटा चल दिया। ड्राइवर नहीं था। जज साहब ने राजेन्द्र से कहा— जाओ, मोटर ले आओ। चलें, देखें, क्या बात है।
6)
राजेन्द्र को देखकर रामेश्वरजी सूख गए। टालने की कोई बात न सूझी। कहा— बेटा, पद्मा को बुख़ार आ गया है, चलो, देखो, तब तक मैं जज साहब से कुछ बातें करता हूँ।
राजेन्द्र उठ गया। पद्मा के कमरे में एक नौकर सिर पर आइस—बैग रखे खडा था। राजेन्द्र को देखकर एक कुर्सी पलंग के नजदीक रख दी।
पद्मा!
राजेन!
पद्मा की आँखों से टप—टप गर्म आँसू गिरने लगे। पद्मा को एकटक प्रश्न की दृष्टि से देखते हुए राजेन्द्र ने रूमाल से उसके आँसू पोंछ दिए।
सिर पर हाथ रखा, सिर जल रहा था। पूछा —सिर दर्द है?
हाँ, जैसे कोई कलेजा मसल रहा हो।
दुलाई के भीतर से छाती पर हाथ रखा, बड़े जोर से धड़क रही थी।
पद्मा ने पलकें मूँद ली, नौकर ने फिर सिर पर आइस—बैग रख दिया।
सिरहाने थरमामीटर रखा था। झाड़कर, राजेन्द्र ने आहिस्ते से बगल में लगा दिया। उसका हाथ बगल से सटाकर पकड़े रहा। नजर कमरे की घड़ी तरफ थी। निकालकर देखा, बुखार एक सौ तीन डिग्री था।
अपलक चिन्ता की दृष्टि से देखते हुए राजेन्द्र ने पूछा— पद्मा, तुम कल तो अच्छी थीं, आज एकाएक बुखार कैसे आ गया?
पद्मा ने राजेन्द्र की तरफ करवट ली, कुछ न कहा।
पद्मा, मैं अब जाता हूँ।
ज्वर से उभरी हुई बडी—बडी आँखों ने एक बार देखा, और फिर पलकों के पर्दे में मौन हो गईं।
अब जज साहब और रामेश्वरजी भी कमरे में आ गए।
जज साहब ने पद्मा के सिर पर हाथ रखकर देखा, फिर लड़के की तरफ निगाह फेरकर पूछा, क्या तुमने बुख़ार देखा है?
जी हाँ, देखा है।
कितना है?
एक सौ तीन डिग्री।
मैंने रामेश्वरजी से कह दिया है, तुम आज यही रहोगे। तुम्हें यहाँ से कब जाना है? — परसों न?
जी।
कल सुबह बतलाना घर आकर, पद्मा की हालत—कैसी रहती है। और रामेश्वरजी, डॉक्टर की दवा करने की मेरे खयाल से कोई जरूरत नहीं।
जैसा आप कहें। सम्प्रदान—स्वर से रामेश्वरजी बोले।
जज साहब चलने लगे। दरवाजे तक रामेश्वरजी भी गए। राजेन्द्र वहीं रह गया। जज साहब ने पीछे फिरकर कहा— आप घबराइए मत, आप पर समाज का भूत सवार है। मन—ही—मन कहा— कैसा बाप और कैसी लड़की।
7)
तीन साल बीत गए। पद्मा के जीवन में वैसा ही प्रभात, वैसा ही आलोक भरा हुआ है। वह रूप, गुण, विद्या और ऐश्वर्य की भरी नदी, वैसी ही अपनी पूर्णता से अदृश्य की ओर, वेग से बहती जा रही है। सौन्दर्य की वह ज्योति—राशि स्नेह—शिखाओं से वैसी ही अम्लान स्थिर है। अब पद्मा एम.ए. क्लास में पढ़ती है।
वह सभी कुछ है, पर वह रामेश्वरजी नहीं हैं। मृत्यु के कुछ समय पहले उन्होंने पद्मा को एक पत्र में लिखा था— मैंने तुम्हारी सभी इच्छाएँ पूरी की हैं, पर अभी तक मेरी एक भी इच्छा तुमने पूरी नहीं की। शायद मेरा शरीर न रहे, तुम मेरी सिर्फ एक बात मानकर चलो— राजेन्द्र या किसी अपर जाति के लड़के से विवाह न करना। बस।
इसके बाद से पद्मा के जीवन में आश्चर्यकर परिवर्तन हो गया। जीवन की धारा ही पलट गई। एक अद्भुत स्थिरता उसमें आ गई। जिस गति के विचार ने उसके पिता को इतना दुर्बल कर दिया था, उसी जाति की बालिकाओं को अपने ढंग पर शिक्षित कर, अपने आदर्श पर लाकर, पिता की दुर्बलता से प्रतिशोध लेने का उसने निश्चय कर लिया।
राजेन्द्र बैरिस्टर होकर विलायत से आ गया। पिता ने कहा— बेटा, अब अपना काम देखो। राजेन्द्र ने कहा— जरा और सोच लूँ, देश की परिस्थिति ठीक नहीं।
8)
पद्मा! राजेन्द्र ने पद्मा को पकड़कर कहा।
पद्मा हँस दी। तुम यहाँ कैसे राजेन? पूछा।
बैरिस्टरी में जी नहीं लगता पद्मा, बडा नीरस व्यवसाय है, बडा बेदर्द। मैंने देश की सेवा का व्रत ग्रहण कर लिया है, और तुम?
मैं भी लड़कियाँ पढ़ाती हूँ — तुमने विवाह तो किया होगा?
हाँ, किया तो है। हँसकर राजेन्द्र ने कहा।
पद्मा के हृदय पर जैसे बिजली टूट पडी, जैसे तुषार की प्रहत पदि्मनी क्षण—भर में स्याह पड़ गई। होश में आ, अपने को सँभालकर कृत्रिम हँसी रँगकर पूछा— किसके साथ किया?
लिली के साथ। उसी तरह हँसकर राजेन्द्र बोला।
लिली के साथ! पद्मा स्वर में काँप गई।
तुम्हीं ने तो कहा था—विलायत जाना और मेम लाना।
पद्मा की आँखें भर आईं।
हँसकर राजेन्द्र ने कहा— यही तुम अंगेजी की एम.ए. हो? लिली के मानी?
— सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
साभार — लिली कहानी—संग्रह
प्रकाशक — गंगा पुस्तकमाला, लखनऊ