मेरा गगन Neetu Singh Renuka द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मेरा गगन

मेरा गगन

यह कहानी काल्पनिकता पर आधारित है इसका सत्य घटनाओं से कोई संबंध नहीं है। इस कथा के पात्र काल्पनिक हैं और इनका किसी भी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं है। इस कथा को शुरू करने से पहले मैं यह डिसक्लेमर अवश्य देना चाहूँगी, क्योंकि मुझे डर है कि मेरे पति इस कथा को सत्य मानकर दिल पर न ले लें और उन्हें किसी प्रकार का दु:ख पहुँचे। कहानी कुछ इस प्रकार है- एक समय की बात है। साहित्य के राज्य में बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं का शासन था। उसी राज्य के एक छोटे से गाँव में मेरी कुटिया थी जहां मेरा गगनने जन्म लिया।

हर लेखक की तरह मैंने बड़े-बड़े सपने देखे थे। रिकार्ड तोड़ कमाई के सपने, अपार यश और बड़े-बड़े सम्मानों और पुरस्कारों के सपने, रातों-रात प्रसिद्ध कवयित्री हो जाने के सपने। संक्षिप्त में मैंने अपने बड़े-बड़े सपनों का सारा भार नए-नए जन्म लिए मेरा गगनपर डाल दिया, जिसने इस बोझ तले लंबी-लंबी सांसें लेना शुरू कर दिया और लगा अब दम तोड़ देगा, तब दम तोड़ देगा।

मगर ऐसा कैसे हो सकता है। पुस्तक तो कोई पढ़ेगा नहीं इसलिए एक ब्लॉग लिखना शुरू किया। सोचा बहुत से फैन होंगे और मैं अपनी कविताओं को ब्लॉग पर डाल कर बहुत प्रसिद्धि हासिल करूंगी। ब्लॉग भी खोला और उसे बहुत सजाया भी। मगर कई महीने बीत गए और ऐसा लगा की सारा ब्लॉग खुद के लिए ही लिखा हो। फिर ब्लॉग छोड़ असली दुनिया में मैंने मेरा गगनफैलाने की बात सोची।

हमारे देश में शुभ काम की शुरुआत बड़े-बूढ़ों से करवाए जाने की परंपरा है। सो मैंने सोचा पहले बुजुुर्गों तक अपनी कविताएं पहुंचानी शुरू करूँ। बुजुर्ग लोग ब्लॉग को कम पढ़ेंगे इसलिए मेरा गगनका प्रिंट लिया। अपनी जान-पहचान के सभी बुज़ुर्गों को एक-एक प्रति बांटी और हफ्तों तक अपनी प्रशंसा की प्रतीक्षा करती रही।

जब इन बड़े-बूढ़ों की ज़बान पर कुछ भी नया सुनने को नहीं मिला तो मुझे मुंह खोल के खुद पूछना पड़ा, ’आपने मेरी किताब पढ़ी’ ’आपने मेरी किताब तो अवश्य पढ़ी होगी।’ ’आपको याद होगा पिछले महीने मैंने आपको किताब दी थी... हाँ वही नीले रंग के कवर वाली... पढ़ी आपने?’ ’अरे बेटा... वो टाइम ही नहीं मिला...।’ ’वो तो मैं गाड़ी में रख के भूल ही गया’ ’हाँ खोली तो थी लेकिन कुछ काम याद आ गया तो उसे बंद किया और फिर खोल ही नहीं पायी।

अब क्या करूँ? मैंने सोचा था इन बड़े-बूढ़ों के पास सबसे ज़्यादा टाइम होगा इसलिए ये इत्मीनान से मेरी पुस्तक पढ़ेंगे और मेरी खूब प्रशंसा करेंगे, मगर मैं यह भूल गई थी कि कविताओं का स्वाद वे क्या लेंगे, उसके लिए तो मेरे हमउम्र साथी-संगी ही ठीक रहेंगे।

यही ठीक रहेगा। लेकिन शुरू कहाँ से करूँ? यह शुरुआत तो वहीं से होनी चाहिए जो मेरे सबसे करीब हो। सबसे करीब तो पति-परमेश्वर ही हैं। तो मेरे मन ने धीरे-धीरे जाल बुनना शुरू किया जिसमें उन्हें फंसाया जा सके और यह जाल मोह या रूप का न होकर किताब पढ़वाने का था।

मैंने सोच लिया की घर में घुसते ही वे हाथ-मुंह धोकर चाय पिएंगे, तो एक प्रति चाय की टेबल पर रख दी और कल्पना की कि चाय की प्याली आने तक उनकी नजऱ इस प्रिन्ट आउट पर पड़ ही जाएगी और वे लपक कर उठा लेंगे और चाय की चुस्कियों के साथ मेरी कविताओं का मज़ा लेंगें। हो सकता है वे इतने मग्न हो जाएँ कि चाय कि चुस्कियाँ लेना ही भूल जाएँ। सोच-सोच कर मन खिल उठा।

फिर ध्यान आया कि हो सकता है कि उनका ध्यान न जाए या वे रोज़ कि तरह किसी दफ्तरी समस्या पर ङ्क्षचतामग्न हों और मेरा गगनउन्हें दिखे ही नहीं। तो अब अगला जाल... मेरा मतलब प्रिन्ट आउट वहाँ फैलाया, जहां टीवी का रिमोट था। रिमोट के ठीक नीचे मैंने प्रिन्ट आउट रख दिया और कल्पना करने लगी कि अवश्य वे रिमोट की जगह प्रिन्ट आउट उठाएंगे और मेरी कविताओं में ऐसे खो जाएंगे कि दुनियाभर का समाचार देखना भूल जाएंगे। आखिर क्या रखा है न्यूज में, बेकार की बकवास ही तो है। रोज़ कहीं न कहीं शांति वार्ता होती है, ज़्यादातर तो हमारे देश और पड़ोसियों में ही होती है, लेकिन अन्य देशों और आतंकवादी संगठनों और कई असामाजिक ताकतों के बीच भी होती है। रोज़ कहीं कोई प्राकृतिक आपदा आई रहती है।

रोज़ किसी न किसी खेल में इंडिया हारता है और कभी-कभी जीत भी जाता है। रोज़ शहरों में जाने कितने अपराध होते हैं। यह न्यूज वाले तो ऐसे दिखाते हैं जैसे सब अपराध इनके सामने ही होते हैं और इन से कोई अपराध बचा ही नहीं। इन्हें क्या पता कि किस-किस के घर में घरेलू ङ्क्षहसा हो रही है? बस इनके पड़ोस में जो ये देख लेते हैं, उसे तुरंत न्यूज़ पर दिखा देते हैं। क्रिकेट की जीत-हार ऐसे दिखाते हैं जैसे इनको पता ही न हो कि ये मैच फिक्स भी हो सकते हैं।

बड़े-बड़े स्टार्स के बीच झूठ-मूठ के अफेयर्स दिखा कर लोगों को हैरान करते हैं। ऐसे आधे-अधूरे समाचार से तो अच्छा है कि वे मेरी कविता ही पढ़ लें, उसमें कुछ रस तो है, हो सकता है कहीं-कहीं उनके प्रति मेरा प्रेम भी प्रकट होता हो। कम से कम इन नीरस समाचारों से तो बेहतर ही है।

इतने में मेरी दृष्टि लैपटाप पर गई और ख्याल आया कि कहीं वे टीवी देखने की बजाए ऑफिस का कोई काम करने लगे तो? तो इसमें सोचना क्या है, एक पी डी एफ लैपटाप पर भी टिका दिया। बस अब पूछना क्या है वे तो अब अपने दफ्तर का सारा काम छोडक़र ज़रूर मेरी कविताएं ही पढेंग़े। आखिर उनका काम नीरस हो सकता है मेरी कविताएं थोड़े ना, लेकिन अगर उन्होंने ना पढ़ी तो? आखिर पिछली बार अपने ब्लॉग का एड्रैस उन्हें दिया था तो क्या हुआ था? उन्होंने कौन सा उसे पढ़ा था।

रोज़ रात को लैपटाप लेकर बैठते थे तो लगता था की आज मेरा ब्लॉग खोलेंगे। मगर नहीं उन्होंने हमेशा ऑिफस का ही काम किया है। पर ऐसा भी तो हो सकता है कि मेरी किताब उन्हे आकर्षक लगे और वे उसे उठा के पढ़ें क्योंकि ब्लॉग तो जब तक खोलेंगे नहीं तब तक उसका आकर्षण क्या समझेंगे, जबकि प्रिन्ट आउट तो सामने पड़ा उन्हें लुभा रहा होगा। और यह मान लिया जाए की उन्हें सच में कुछ ऑफिस का अर्जेंट काम करना हो तो?

तो एक आआखिरी काम और कर सकती हूँ। सोते समय तो वे अवश्य ही दिन के सारे कामों से छुट्टी पाकर निङ्क्षश्चत हो जाएंगे तब उनके तकिये पर रखी किताब वे अवश्य पढ़ेंगे। लो तो ये एक प्रति उनके तकिये पर भी टिका दी। और यह लो इसी के साथ बेल भी बज उठी।

दिन भर के थके-हारे बेचारे मेरे प्राण-प्यारे दरवाज़े पर खड़े थे। मैंने कुटिल मुस्कान के साथ उनके हाथ से बैग ले लिया और उन्हें गुसलखाने की ओर रवाना कर दिया। फिर फटाफट चाय बना ली। मगर किचन से झाँकती भी रही कि टेबल पर पड़े मेरे गगनको वे अब उठाएंगे तब उठाएंगे, जब तक चाय खौल-खौल के काढ़ा हो गई तब तक उनका खून भी खौल-खौल कर काढ़ा हो गया और उन्होने मेरा गगनउठाने के बजाए मेरा घर सर पर उठा लिया और वहीं से बैठे-बैठे चिल्लाए चाय मिलेगी या किचन में कफ्र्यू हैअभी लाई

लो जी चाय भी गटक ली और प्रिन्ट आउट की ओर देखा तक नहीं। चाय पिलाई ही क्यों, कह देती की कफ्र्यू ही लगा है। तब पता चलता। चाय तो खत्म कर दी। अब? अब टीवी के सामने बैठे और बड़ी ही बेपरवाही से न्यूज चैनल लगा दिया। प्रिन्ट आउट की ओर तो देखा ही नहीं। टेढ़ी आँख से भी नहीं। मैंने कहा भी-

ये क्या न्यूज दिखाते हैं... रोज़-रोज़ एक ही चीज़ ... तीन दिन से देख रही हूँ... मुख्यमंत्री का बयान लेकर रो रहे हैं। आगे बढ़ते ही नहीं। कहीं मुख्यमंत्री की ज़बान खींच के बाहर न निकाल लें।

हूँ! यह तो है

मुझे तो मौका चाहिए था।

फिर आप क्या यह घिसी-पिटी न्यूज़ देखते रहते हैं

अरे यही तो राजनीति है। अभी देखो इस बयान पर क्या-क्या बखेड़ा होता है। और वो तो मुख्यमंत्री है; उसे सोच समझ के बयान देना चाहिए था न। देश की सारी राजनीति बातों से ही तो होती है, कामों से थोड़े न। अभी देखो सब काम छोड़-छाड़ कर बातों की कितनी राजनीति होती है। शी... चुप देखो विपक्ष ने क्या बयान दिया है।

लो अब मैं क्या करूँ। चलो खाना ही बना लेती हूँ। खाना तो बनाना ही है। अभी कुकर सीटी देने की बजाए छींक रहा था कि मैंने सोचा क्यों न चाय के बाद डाइङ्क्षनग टेबल से उठाया हुआ प्रिन्ट आउट वापस रख दूँ। चाय के वक्त ध्यान नहीं गया शायद खाने के वक्त ही चला जाए।

मगर कहाँ? इतनी मेहनत से बनाए खाने को, झट से खा लिया और पट से बिस्तर की ओर बढ़ गए। प्रिन्ट आउट की ओर देखा तक नहीं। मैंने उनका ध्यान ले जाने के लिए बार-बार उनसे नमक की शीशी तो कभी अचार का डिब्बा पास करने को कहा जो प्रिन्ट आउट के पास रखे थे। मगर ना, क्या मजाल उनकी आँखों की, जो शीशी-डिब्बे को छोड़ किताब देख लें।

आखिर सोने जाएंगे तो देखेंगे ही। अभी जूठी थालें उठा ही रही थी कि उनकी आवाज़ आई। मैं लगभग भागते हुए बेडरूम में पहुँची।

क्या हुआ?’

ये घर का क्या हाल बना रखा है। इतना अस्त-व्यस्त क्यों है। तुम अपना गगन अपने पास सँभाल के क्यों नहीं रखती?’

मैंने चुपचाप प्रति उनके तकिये से उठाई और किचन में चली गई। सारे मंसूबों पर पानी फिर गया, आँख तो गीली होनी ही थी। रात को नींद भी ठीक से नहीं आई।

सो सुबह उठने में भी देर हो गई। फटाफट नाश्ता बनाकर टिफिन उनके बैग में रखने गई। तभी नासूर की तरह फिर ख्याल आया कि क्यों न किताब इनके बैग में रख दूँ। डांटें तो डांटे… रात को तो डांट ही चुके हैं अब और कितना डाँटेंगे।

मेरी इस मनोस्थिति की कल्पना अगर कभी प्रेमचंद ने की होती तो वे अवश्य ही टिप्पणी करते कि आशा बड़ी बलवती होती है। खैर अभी प्रेमचंद तो हैं नहीं तो मैं ही कहे देती हूँ कि हाँ बलवती तो होती है वरना कल रात के बाद फिर मेरा गगनका जाल बुनने का साहस किसी शेर के माँद में घुसने से कम थोड़े ही है, वो भी इस आशा के साथ कि शायद इस बार वे मेरी कविताएं पढ़ेंगे।

इतने में वे आ गए और अपने बैग में एक फाइल रखने लगे। किताब निकाल कर बोले-

यह मेरे बैग में क्या कर रही है?’

अरे इनको इतना भी नहीं पता है कि यह प्रिन्ट आउट है तो आपके बैग में फुटबाल तो खेल नहीं रहा होगा।

ताकि आप पढ़ें।

इसमें तो वे कविताएं ही हैं न जो तुमने ब्लॉग पर लिखी थीं। तुम्हारा ब्लॉग तो मैं पढ़ चुका हूँ। और तो और मेरे दफ्तर में भी सबको पढ़ाया था मैंने। इतनी अच्छी कविताएँ लिखी हैं तुमने कि दफ्तर में मुझे तुम्हारा पति होने पर बधाई दी जा रही थी।

मन ही मन झुंझलाहट हुई कि पहले नहीं बता सकते थे। नाहक जान दे रही थी मैं।

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