Mishra ji ka manch-moh books and stories free download online pdf in Hindi

मिश्रा जी का मंच-मोह

मिश्रा जी का मंच-मोह

रितिका बचपन से ही अपने पिता शांति प्रसाद को अपना आदर्श मानती थी । पिता के साथ उनकी मित्र मंडली में बैठकर उनके बीच चलने वाली सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर गरमागरम बहस का आनंद लेते हुए उसका बचपन कब बीत गया, पता ही नहीं चला । दिल्ली में सरकारी विद्यालय में कार्यरत उसकी माँ मालती यूँ तो प्रायः नपे-तुले शब्दों में, किसी अति आवश्यक कार्य हेतु आवश्यकता पड़ने पर ही बोलती थी । परंतु, कभी-कभार शांति प्रसाद मिश्र के लिए बहुत तीखे और कटु शब्दों में उसके भावोद्गार प्रकट होते थे, जिन्हें सुनकर सहज ही आभास होता था कि वे शब्द उसके हृदय की कुंठा का साकार रूप हैं, जो दीर्घकालीन पीड़ा और गहन अनुभूति से सामग्री लेकर निर्मित हुए हैं । रितिका के लिए निश्चय ही माँ का यह व्यवहार कभी सुखकारक और संतोष देने वाला नहीं हो सकता था । इसके विपरीत माँ के उस अप्रिय उग्र व्यवहार के बावजूद रितिका के साथ पिता का सहज सरल सोम्य व्यवहार एक ओर उनके जीवन में प्रसन्नता का संचार करता था, तो दूसरी ओर रितिका के हृदय में पिता के प्रति विश्वास और श्रद्धा को दृढ़ता प्रदान करता था ।

ज्यों-ज्यों रितिका बड़ी होती जा रही थी, त्यों-त्यों वह समाज में पिता के बढ़ते प्रभाव से और उनकी उपलब्धियों से अभिभूत होती जाती थी । कठोर परिश्रम और अपने कार्य के प्रति समर्पण-भाव के परिणामस्वरुप धीरे-धीरे मालती भी सहअध्यापिका से प्रधानाचार्या के रूप में पदोन्नत हो चुकी थी । किंतु, माँ की सफलता - असफलता का रितिका पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था । रितिका माता-पिता के व्यवहारिक विरोधाभास को शैशव-अवस्था से ही गंभीरतापूर्वक अनुभव करने लगी थी, परंतु कभी उसने इस विषय में अपने भावों को प्रकट नहीं किया था । अपने उन भावों को उसने पहली बार तब प्रकट किया, जब वह अठ्ठारह वर्ष की अपनी जीवन-यात्रा कर चुकी थी ।

उस समय शहर में 'ह्यूमन सर्विस फाउंडेशन' के तत्त्वावधान में 'दो दिवसीय समाज-उत्सव' कार्यक्रम के भव्य आयोजन की चर्चा जोर-शोर से चल रही थी । क्षेत्रीय स्तर पर किंग-मेकर के रूप में अपनी पहचान बना चुके लब्धप्रतिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता शांति प्रसाद मिश्र उस कार्यक्रम में बतौर विशिष्ट अतिथि सपरिवार आमंत्रित थे । रितिका कार्यक्रम में जाने के लिए अत्यधिक उत्साहित थी, तो मालती अत्यंत उदासीन । वह उस कार्यक्रम में कदापि नहीं जाना चाहती थी । माँ की उदासीनता देखकर बेटी का उत्साह भी ठंडा पड़ने लगता था और उसके मासूम चेहरे पर उदासी छा जाती थी । कई दिनों तक ऊहापोह की स्थिति रहने के पश्चात् अंत में मालती ने अपनी बेटी के चेहरे पर प्रसन्नता बनाए रखने के लिए कार्यक्रम में जाना स्वीकार कर लिया ।

कार्यक्रम के द्वितीय-सत्र में शांति प्रसाद मिश्र का वक्तव्य था । हाथ हिलाकर प्रशंसकों का अभिवादन करते हुए मिश्र जी मंच पर आये । मंच पर मिश्र जी की उपस्थिति सुनिश्चित होते ही प्रेक्षागृह तालियों से गुंजायमान हो उठा । तत्पश्चात् मिश्र जी ने अपना वक्तव्य आरंभ किया । वक्तव्य के बीच-बीच में कई बार ऐसा भी अवसर आया, जब प्रेक्षागृह में उपस्थित अपने प्रशंसकों की करतल ध्वनि के सम्मानस्वरूप मिश्र जी को अपना वक्तव्य कुछ क्षणों के लिए रोकना पड़ा । रितिका समाज में अपने पिता के प्रभाव से प्रफुल्लित होकर उत्साह के साथ तालियाँ बजा रही थी । मालती किसी अज्ञात विचारलोक में विचरण कर रही थी । उसकी भावशून्य मुद्रा को देखकर प्रतीत होता था कि न उसको कुछ दिखाई पड़ रहा है, न ही सुनाई पड़ रहा है । एक बार रितिका ने माँ को झिंझोड़ते हुए संकेत से पिता के लिए ताली बजाने का आग्रह किया, लेकिन बेटी के आग्रह पर मालती कुछ क्षणों के लिए अपनी विचार-तन्द्रा से बाहर निकलकर निर्निमेष भावशून्य दृष्टि से रितिका को घूरती रही और कुछ क्षणोपरांत वह पुनः अपने अतीत के पन्ने पलटने लगी -

बीस वर्ष पहले इसी प्रकार के एक कार्यक्रम में मालती का शांति प्रसाद मिश्र के साथ प्रथम परिचय हुआ था । मालती उस कार्यक्रम में 'नारी चेतना' नामक संस्था की प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित होने के लिए आयी थी । स्त्रियों और दलितों के हितार्थ आंदोलनों में शांति प्रसाद मिश्र की भूमिका और सामाजिक संघर्ष के विषय में वह थोड़ा-कुछ पहले भी सुन चुकी थी । उस दिन शांति प्रसाद मिश्र को उसने प्रत्यक्षतः देखा भी और सुना भी । लंबा, गठा हुआ हष्ट-पुष्ट शरीर, व्यवहार में विद्रोह और वाणी मे ओज से उसका व्यक्तित्व और भी अधिक आकर्षक हो गया था । धीरे-धीरे शांति और मालती का प्रथम परिचय घनिष्ठ मित्रता में परिवर्तित हो गया । मित्रता में मंच साझा होने लगे । तार्किक विचार और सुस्पष्ट भाषायुक्त सशक्त भाषण के बल पर मालती का प्रभाव बढ़ने लगा । एक दिन दोनों ने अनुभव किया कि एक-दूसरे के बढ़ते प्रभाव से पोषित वातावरण में परस्पर अनुकूल मनोभावों की ऊष्णता पाकर मित्रता के बीज में प्रेम का अंकुर प्रस्फुटित होने लगा है । विवाहेतर प्रेम के प्रति समाज की तिरस्कार पूर्ण दृष्टि के बावजूद शांति और मालती अपने हृदय की भूमि पर प्रस्फुटित प्रेम के अंकुरण को अपनी पवित्र-कोमल भावनाओं के जल से लगनपूर्वक सींचने लगे ।

शांति का परिवार परंपरानुगामी और रुढ़िवादी होने के कारण जाति-धर्म के बाहर वैवाहिक संबंधों के विरुद्ध था । अतः शांति के समक्ष यह चुनौती आ खड़ी हुई कि वह परंपरा का पालन करके परिवार को प्रसन्न रखें अथवा प्रगति के जिन सिद्धांतों का वह आज तक मंच पर व्याख्यान देता रहा है और समाज में जिन नारों का उद्घोष करता रहा है, उनका निर्वाह करे ? शांति ने पर्याप्त विचार-मंथन करके दूसरा विकल्प चुना और मालती के साथ प्रेम-विवाह करके एक तीर से दो शिकार साध लिये । इस निर्णय से शांति को एक ओर, समाज में उसकी कथनी-करनी में भेद न करने वाले आंदोलनकर्ता की छवि का लाभ मिला, तो दूसरी ओर, अपने व्यक्तिगत प्रेम की पुष्टि सहज संभव हो सकी ।

विवाह के पश्चात् एक वर्ष तक मालती का जीवन सुखमय व्यतीत हुआ । किंतु, सार्वजनिक मंचों पर मालती का बढ़ता हुआ प्रभाव शांति को स्वयं के लिए संकट का संकेत अनुभव होने लगा । अपनी इसी आशंका के चलते शांति प्रसाद के हृदय में असुरक्षा का भय भर गया । अपने पद, प्रतिष्ठा और प्रभाव को सुरक्षित रखने के लिए उसने सार्वजनिक मंचों की ओर जाने वाले मालती के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करना आरम्भ कर दिया और शनैः शनैः उसकी स्वतंत्रता का अपहरण करने लगा । शांति को अपने मित्रों के साथ मालती का हँसना, बोलना, सामाजिक महत्त्व की बातें करना और सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाना भी अखरने लगा । यहाँ तक कि आत्मतुष्टि के लिए शांति ने अपने मित्रों-परिचितों को घर बुलाना और पत्नी के साथ मित्रों-परिचितों के घर तथा सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाना कम कर दिया । शीघ्र ही एक दिन ऐसा आ गया, जब एक बेटी को जन्म देकर मालती सामाजिक सरोकारों से दूरी बनाने और सार्वजनिक मंचों का त्याग करने के लिए विवश हो गयी । शांति ने मालती के समक्ष दो विकल्प प्रस्तुत कर दिये - तलाक के साथ सामाजिक मंच अथवा बेटी-पति के साथ गृहस्थी ? मालती ने दूसरा विकल्प चुना । वह नहीं चाहती थी, बेटी के बचपन को अपनी स्वतंत्रता और महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ा दे ! मालती को उसके पिता का स्नेह मिले, इसलिए मालती ने अपनी स्वतंत्रता का त्याग करके परतंत्रता का वरण कर लिया । खुले आकाश में चहचहाने वाली मालती पारिवारिक-सामाजिक प्रतिबंधों की अदृश्य शृंखलाओं में बंदी बनकर अब प्रायः कुंठाग्रस्त रहने लगी थी, किंतु उसकी व्यथा को समझने वाला कोई नहीं था । बेटी रितिका इस विषय में अबोध थी और पति शांति प्रसाद मिश्र कुछ समझना नहीं चाहते थे ।

अतीत की यात्रा करते-करते कितना समय बीत गया ? मालती को पता ही नहीं चला । कार्यक्रम समाप्त हो चुका था । भीड़ छँटने लगी थी, परंतु मालती अभी तक यथावत् बैठी हुई थी । मालती को विचार-मग्न देखकर रितिका ने दोनों हाथों से माँ के कंधे पकड़कर हिलाते हुए बताया, "कार्यक्रम का समापन हो चुका है !" बेटी के रूखे व्यवहार को देखकर क्षणभर के लिए मालती का हृदय व्यग्र हो उठा । अगले ही क्षण उसकी चेतना ने सकारात्मक दृष्टिकोण ग्रहण कर लिया कि इसके पिता के लिए इसकी माँ ने तालियाँ नहीं बजायी हैं, इसलिए यह अप्रसन्न है, और माँ से अप्रसन्न होना इसका अधिकार है !

घर लौटकर रितिका ने मालती से कहा -

"माँ ! आखिर आपकी समस्या क्या है ? इतना बड़ा समाज पापा की प्रशंसा करता है ; इनका सम्मान करता है, लेकिन आज तक मैंने पापा के प्रति आपको कभी संतुष्ट नहीं देखा ! जब देखा, पापा के प्रति कड़वाहट उगलते ही देखा है ; सदा ही कटु वाणी से उनका विरोध करते देखा है ! क्यों माँ ? आखिर क्यों ? मैं तो आज तक नहीं समझ पायी !"

"समझ जाएगी ! समय आने पर सबकुछ समझ जाएगी !"

"ठीक है, माँ ! मैं तो समझ जाऊँगी, पर माँ आपको भी तो समझना चाहिए ! आप अपनी सीमित परिधि और व्यक्तिगत घरेलू कार्यों से बाहर निकलकर सामाजिक कार्यों में सक्रिय सहभागिता करेंगी, तो शायद समझ सकेंगी कि पापा ने यह मान-प्रतिष्ठा कितने त्याग-तपस्या से अर्जित की है ?"

"तेरा समझना ही पर्याप्त है ! जिस दिन तू समझ जाएगी, उस दिन तुझे तेरे सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा और तेरे सारे तर्क धराशायी हो जाएँगे !"

कुछ दिन पश्चात् रितिका ने सक्रिय राजनीति में भाग लेने की अपनी इच्छा पिता के समक्ष व्यक्त की । संयोगवश रितिका को उसके प्रश्नों का उत्तर मिलना आरंभ हो गया और उसके तर्क खंडित होने लगे । रितिका की राजनीति में सक्रिय होने की बात सुनते ही शांति प्रसाद मिश्र के चेहरे के भाव परिवर्तित होने लगे -

"बेटी, राजनीति से दूर ही रहो ! राजनीति में बहुत गंदगी है । राजनीति गंदगी की ऐसी दलदल है कि एक बार इसमें आदमी फँस जाए, तो फँसता ही चला जाता है !"

"कुछ भी हो पापा ! मैं राजनीति में सक्रिय होना चाहती हूँ और उस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहती हूँ, जिसे आप प्राप्त नहीं कर सके !"

"नहीं बेटी, यह संभव नहीं है !"

"क्यों संभव नहीं है ? पापा, मेरा विचार है कि राजनीति की गंदगी को दूर करने के लिए ईमानदार और स्वच्छ छवि के लोगों का राजनीति में सक्रिय होना बहुत जरूरी है !"

"बेटी, तेरा पिता एक सामाजिक कार्यकर्ता है, जो समाज को भी समझता है, और बेटी के शिकायत को भी समझता है !" अपनी बात को मनवाने के लिए मिश्र जी ने दूसरा पाँसा फेंका । उनका यह उत्तर रितिका की आशा के नितांत विपरीत था । इसलिए क्षण भर के लिए वह व्याकुल हो उठी । अगले ही क्षण उसकी दयनीय दृष्टि मालती की दृष्टि से जा टकरायी । माँ ने बेटी के हृदय की व्यग्रता को अनुभव करके उसका समर्थन करने का संकेत कर दिया । माँ का समर्थन पाकर रितिका का आत्मविश्वास उत्तरोत्तर बढ़ने लगा था । शांति प्रसाद का मूक क्रोध निरंतर उनके विवेक पर हावी होने लगा । वर्षा ऋतु के काले बादलों की भाँति शांति प्रसाद का क्रोध बरस पड़ने के लिए उपयुक्त समय और साधन पाने के लिए छटपटाने लगा । जब जहाँ जैसे अवसर मिला मालती पर आरोपों के विषय में पहाड़ों के रूप में एक सप्ताह तक मिश्रा जी का क्रोध बरसता बाहर रहा-

सुरक्षा की चिंता नहीं है एक सप्ताह तक मिश्र जी के शब्द-बाणों को सहन करते-करते मालती का हृदय चीत्कार कर उठा । उसके होंठ अनायास ही बड़बड़ाने लगे - "बस ! बहुत हो चुका, अब और नहीं !"

अगले ही दिन उसने निर्णायक मुद्रा ग्रहण करते हुए रितिका को पुकारा । माँ का आदेश सुनकर रितिका तुरंत माँ के निकट आकर खड़ी हो गयी । मालती ने बेटी के हाथ में अपना स्मार्टफोन थमाते हुए कहा -

"लो ! इस वीडियो को देखो और सुनो ! शायद इसको देख-सुनकर तुम्हें समझ में आ जाए कि मैं क्यों तुम्हारे पापा से संतुष्ट नहीं रहती ? क्यों उनके विरुद्ध विष-वमन करती रहती हूँ ?" रितिका ने माँ के हाथ से मोबाइल फोन लेकर वीडियो ऑन किया, मालती तथा शांति प्रसाद मिश्र का पारस्परिक वार्तालाप सुनाई पड़ने लगा -

"मालती ! मैं अंतिम बार कह रहा हूँ, तुम मेरी बेटी को राजनीति में आने की अनुमति नहीं दोगी !"

"उसको राजनीति में सक्रिय होने की अनुमति आप देंगे, मैं नहीं ! मैं तो केवल उसको सहयोग करूँगी !"

"नहीं ! तुम यह नहीं करोगी ! तुम्हें नअपने बेटी की सुरक्षा की चिंता है, न ही उसके भविष्य की चिंता है ! हमारे समाज और संस्कृति की कुछ सीमाएँ हैं ; कुछ मर्यादाएँ हैं ! उनको लाँघने का परिणाम जानती हो तुम ?... मेरी बेटियों का हाथ थामने के लिए किसी भी सभ्य और सम्मानित परिवार का लड़का नहीं मिलेगा ! तब तुम क्या करोगी ?"

"मिश्र जी ! यह इक्कीसवीं शताब्दी है । किसी सभ्य-सम्मानित परिवार के लड़के के हाथ में अपना हाथ थमाने के लिए अपने स्वर्णिम सपनों का त्याग करने का युग बीत चुका !"

"मालती ! कहने को युग बदला है, वास्तव में न समाज बदला ! न ही समाज की सोच बदली है ! रितिका अभी बच्ची है ; अपना हित-अहित नहीं समझती है !"

"ठीक है ! रितिका मेरी भी बेटी है ! आप मेरे रहते समाज के नाम पर मेरी बेटी के अरमानों का गला नहीं घोंट सकते ! मेरी बेटी को पिता का स्नेह मिले, इसलिए मैं आज तक अपना जीवन आपकी शर्तों पर व्यतीत करती रही हूँ, परंतु आज जब मेरी बेटी के सपनों का प्रश्न है, तब मुझे आपकी शर्तें स्वीकार नहीं हैं !"

वीडियो में माता-पिता का वार्तालाप सुनकर रितिका के चेहरे पर आशा-निराशा और असमंजस के मिश्रित भाव उभरने लगे । आज पहली बार उसने अपने पिता का यह रुप देखा था । मालती ने रितिका को बताया कि पिछले आठ दिनों से उसके पिता यही सब बातें अलग-अलग शैली में अलापते रहे हैं । माँ की बातें सुनकर रितिका को आशंका होने लगी कि उसके पिता उसको राजनीति में सक्रिय होने की अनुमति नहीं देंगे । वह समझ नहीं पा रही थी, अपने निर्णय पर दृढ़ रहने वाले पिता के निर्णय को परिवर्तित करना कैसे संभव होगा ? बेटी की मनःस्थिति को भाँपकर मालती ने रितिका को बताया, "मिश्र जी ने महिलाओं और दलितों के हित में संघर्ष करके समाज में जिस मंच से अपनी यह विशिष्ट पहचान बनायी है, वह मंच ही उनकी शक्ति है और यही उनकी सबसे बड़ी दुर्बलता है । मोबाइल की वीडियो रिकॉर्डिंग दिखाकर जब उन्हें एहसास कराया जाएगा कि ईमानदारी से जिन मुद्दों पर कार्य करने के लिए समाज ने उनको विश्वासपूर्वक किंग मेकर बनाया है, उन्हुं मुद्दों पर दोहरे मानदंड रखने के लिए समाज उन्हें अर्श से फर्श पर भी पटक सकता है । तब वे अपना निर्णय अवश्य बदल सकते हैं !

अगले दिन मालती ने वही किया, जिसका संकेत वह रितिका को पहले ही दे चुकी थी । मालती ने मिश्र जी को वीडियो रिकॉर्डिंग दिखाते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा -

"अठ्ठारह वर्ष पूर्व अपनी बेटी के हित के लिए मैंने आपके साथ एक समझौता करके सार्वजनिक मंचों से दूरी बना ली थी । आज अपनी बेटी के हित के लिए मैं उस समझौते को तोड़ दूँगी और इस वीडियो को लेकर सार्वजनिक मंच पर तुम्हें समाज के कटघरे में खड़ा करूँगी !"

मालती का तीर लक्ष्य पर लगा था । वर्षों की त्याग-तपस्या से संचित अपनी प्रतिष्ठा को दाँव पर लगाकर संकुचित मर्यादा का पालन करना मिश्र जी को कदापि स्वीकार्य नहीं हो सकता था । इस विषय पर सभी प्रकार से विचार मंथन करके मिश्र जी को यही उचित प्रतीत हुआ कि बेटी अपने जीवन में जो कुछ करना चाहती है, करने दिया जाए । अर्थात उसको उसकी रुचि के अनुसार राजनीति में सक्रिय होने पर प्रतिबंध न लगाया जाए । मालती के आग्रह पर कुछ दिन पश्चात् मिश्र जी ने अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए एक सामाजिक कार्यक्रम के बड़े मंच से घोषणा कर दी कि उनकी बेटी रितिका सक्रिय राजनीति में प्रवेश करने जा रही है । उन्होंने न केवल घोषणा की बल्कि रितिका को उस बड़े मंच से संभाषण करने का अवसर भी दिया । किंतु, रितिका के भाषण से मिश्र जी की स्मृति में बार-बार वह दृश्य उपस्थित होकर उन्हें व्यथित कर रहा था, जब मंच पर मालती के वक्तव्य के समक्ष उनका संभाषण फीका पड़ जाता था और उन्हें अपमान का कड़वा घूँट पीकर मौन रहना पड़ता था ।

ओजपूर्ण वाणी में दिया गया रितिका का वक्तव्य इतना प्रभावशाली था कि आयोजन स्थल श्रोताओं की तालियों से गूँज उठा । पाँच मिनट तक तालियाँ निरंतर बजती रही । चूँकि उस समय अतीत की भयाक्रांत स्मृतियों में डूबी हुई मिश्रा जी की आँखें मंच पर संभाषण करती हुई रितिका को मालती के रूप में देख रही थी, इसलिए बेटी के प्रथम वक्तव्य का प्रथम प्रभाव देखकर मिश्रा जी के ललाट पर चिंता की रेखाएँ और पसीने की बूंदे उभर आयी थी । उनके चेहरे पर बेटी की सफलता के लिए न तो प्रसन्नता का भाव था न ही होंठों पर प्रशंसा और प्रोत्साहन का एक भी शब्द था ।

क्षण-भर के लिए रितिका की दृष्टि श्रोताओं से हटकर अपने पिता पर स्थिर हो गयी । उनके हाथों से तालियांँ बज रही थी, किंतु चेहरे पर विचित्र-सी बेचैनी थी । पिता के इस व्यवहार से रितिका को बहुत आश्चर्य नहीं हुआ था । न ही वह उनके इस व्यवहार से बहुत अधिक आहत हुई थी । परंतु, पिता के प्रति जो श्रद्धा और विश्वास वह बचपन से आज तक अमूल्य निधि के रूप में उसके हृदय में संचित था, यथार्थ की धूप पड़ते ही वह ओस की बूंदों के समान तिरोहित हो चुका था ।

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