इमारत मेरी है Shobha Rastogi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इमारत मेरी है

1 - इमारत मेरी है

पापा, आपको नहला धुलाकर नए कपड़े पहना दिए हैं | लकड़ी की सीढ़ीनुमा चीज पर लिटाया गया है जिसे शायद अर्थी कह्ते हैं | माँ को उलाहने दिए जा रहे हैँ |

‘दैया रे, कैसी महरारू है ? एक आंसू न गिरा |’

ताई फ़ुसफ़ुसाई-‘इसका तो मन्चीन्हा हो गया | मेरे देवर का साथ भाया ही कब था इसे ?’ पापा, अब आपकी देह पर माँ की चूड़ियाँ, बिछुए, बिन्दी, सिन्दूर रख दिए हैं | यन्त्रवत माँ सब किए जा रही हैं | उनकी सूनी आँखों में नंगे जंगल की धूल भरी आँधी है जिसके ह्रदय मेघ की किन्चित बून्दों को तो आपने ही कबका सुखा दिया था | बस माँ तो हमारे प्रति अपने फ़र्ज़ों की जंग जीतने में आठों याम रफ़्तार पकड़ने लगी थी | आपकी छोटी सी किराने की दुकान से घर निर्वाह असंभव सा था | उसपर आप दादा के बड़े कुनबे के प्रति श्रवणत्व अदा करने में ताउम्र लगे रहे | पतित्व और पितात्व एक पोटली में समेट माँ को ही थमा बैठे थे | हम दोनों भाई बहन आपके स्नेह छाँव की पिपास में सूखते जाते | और पाते कि वो छतरी ताई के बच्चों पर टँगी है | दोस्त संग जयपुर गए तो लौटे दो चूड़ी डिब्बी लेकर | एक माँ और दूसरी ताई की | माँ की आँखों में सवालों का सैलाब उठ आया था |‘तो सुनता क्या, बस बीबी के लिए ?’

‘ चूड़ी पत्नी का ही हक़ है |’ मां के कहते ही झन्नाटेदार थप्पड़ ने सुखा दिया सैलाब | माँ के हिस्से की चूड़ियाँ उछलकर घूमी और छन्न से टूटे सीमेंट के अधेड़ फ़र्श पर ढ़ेर हो गईं | ताई की ड़िब्बी संकोच सहित उन तक पहुंच गई थी |

पूरे कुनबे का घर चलाना आपके फ़र्ज़ की अहम जरूरत थी | दुकान की आमदनी कौन जाने जब सबकी आवश्यकताएं समय से पूरी हो जातीं | वाहवाही की वर्षा में आप खूब नहाते | उसी चमक के पीछे छा रही कर्ज़ की गर्द किसी आंख को धुसरित न करती | दादा ताऊ की तिजोरी का तौल और आपके कर्ज़ बढ़ते ग्राफ़ पर समानान्तर थे | मां, हम और आप जीने की सीमा रेखा पर भी ठिठके ही खड़े थे | घने अंधेरों में माँ के बगलगीर होने पर भी आप के मस्तिष्क तंतु उधार – ब्याज के गणित में ही उलझ उलझ जाते | माँ का शरीर तो थाली पर से रोटी उठा लेने भर तक का साधन होता | उन नितांत अपनेपन के क्षणों की भी माँ सुखभागी नहीं होती जिनपर उनका केवल उनका अधिकार होता | मुहर भर लग जाती | सिग्नेचर तो कभी हुए ही नहीं | आपको भी कया मिला पापा? क्यों आपने हमारी - अपनी ऐसी कहानी लिख दी जो दूर से देखने पर बड़ा भला सा राग सुनाती | नज़दीक से हम सब लहूलुहान थे बिना एक भी लाल बून्द के चुए |

घर कुनबे के सभी झगड़ों में आपकी शीर्षस्थ भूमिका आपको अपने बच्चों से विलगाती रही | माँ मूक बनी रही | कभी माँगा नहीं तो आपने या परिवार ने कुछ दिया भी नहीं | कुनबे के झंझटों को समय, धन से आप सिलटाते रहे तो तन से माँ | पैसा, वक़्त पर हमारे नाम की खुरची सी परत भी आपने उनकी भेंट चढ़ा दी | माँ को आपके ढेर कर्ज़े का अहसास हो गया था | लिहाजा माँ ने नौकरी कर ली | घर के तमाम कार्य जो माँ द्वारा ही पूर्णता पाते उन पर प्रश्न चिन्ह लग गया | आप अपनी पतली हालत देख रहे थे | सो मां को सहमति दे दी | यह क्या… माँ का भी सारा धन उसी रास्ते जाने लगा | तिस पर दोहरा दबाब |

‘नौकरी करती है तो क्या चूतर चाटोगे ?’

ताई की बात से आपको लगा कि घर बाहर दोनों सम्हालना माँ की नैतिक जिम्मेदारी है | ‘सभी औरतें करती हैं ‘ कहकर अपना पल्लू झाड़ लिया | तथाकथित उन सभी की सहूलियत को पलट्कर भी न देखा | मां खामोशी ओढे सब करती रही | बुआ चाचाओं की शादी के बाद मां खल्लास | तन और धन दोनों से | हमारे बढ़ते कद को भी माँ भांप रही थीं | आपकी नज़र इधर भी झपकी ही रही |

समय ने सबके चूल्हे न्यारे कर दिए | आपके कर्तव्य वहीं बंधे रहे | हमारी जरूरी जरूरतों को भी समय न मिला कभी | हां, मां के शब्द भारी हो गए थे | थोड़ा बहुत हमारे लिए बचाए धन पर भी आपका अहं कुंड्ली मार देता | पिता भाई के सामने आपकी खुद्दारी और बीबी के सामने दबंग मर्द | बीबी की एकेक चीज पर उसका हक़ | चाहे वो तार तार कर दे उसकी इज्जत | उसकी भावनाओं की रुई बिन सिलवट लिए पड़े रहती | कोरा कोरा ही रह जाता वह कोना | यूनिवर्सिटी में मेरा एड्मिशन कराने की तुलना मे आपने अपने बड़े भाई के परिवार को वक़्त देना ज्यादा मुनासिब समझा | आपके हिसाब से मेरा भविष्य बनाना आपकी नही माँ की जिम्मेदारी थी | माँ हमे समझाती – बेटा अपना सूरज खुद उगाना पड़ता है | इनके सहारे रही तो तेरा भविष्य चौपट |’ ‘और आप जो इतनी भाग दौड़ ?’ मेरे प्रश्न पर बाँहों में भर लेतीं मुझे— ‘तुम दोनो ही तो मंझधार में नैया हो मेरी | जीना क्या है तुमसे ही तो जाना है | तुम्हारा सुख मेरी गर्वानुभूति है बेटा |’ भाई की विदेश में नौकरी लगी | उसकी पसंद की लड़की से कोर्ट मैरिज करा माँ ने उसे पराए देश भेज दिया |

‘ जा बेटा, जी ले अपनी जिंदगी |’ पीछे का अंधड़ माँ के हिस्से आया था |

‘ क्या तेरी ही औलाद है वो ? पर बिरादरी की छोरी से उसकी शादी करा खानदान की नाक कटवा दी |’

‘ तुम्हारे पिताजी कभी उस लड़की को न अपनाते |’

‘ तो बेइज्जती कराते समाज में ?’

‘ कभी जानी तुमने अपने बच्चों की खुशी ? इसलिए…’ उठ गया आपका हाथ माँ पर | दूसरा भी हरकत करे उससे पहले थाम लिया माँ ने |

‘ बस्स , अपनी तंईं सब झेला मैनें | मेरे बच्चों की खुशी के रास्ते में आए तो …’ और झटक दिया था आपका हाथ | आप देखते रह गए थे चेहरा जिस पर सिर्फ़ माँ लिखा था |

अपने परिवारों में व्यस्त थे सभी | आपको अब भी सबकी चिंता थी | नहिं थी तो माँ की , मेरी | माँ आपके लिए धनार्जन व घरेलू कार्यों को अंजाम देने तक का जरिया थीं | आपको अनेक बीमारियों ने घेर लिया था | पैरों में छाले फ़टे रहते | रात माँ मालिश करती दवा लगातीं | अल्लसुबह इन्हीं जख्मों से ताई के हज़ार हज़ार कार्य कर रहे होते | दौड़ दौड़ कर जाते | टूट टूट कर आते | मोम का पिघलना पिघलते ही जाना माँ के हिस्से आया था | आप ठंडा, पत्थर ही बने रहे | तरल उष्ण मोम माँ के अवचेतन , चेतन पर फ़क्क से छाले बनाता जाता | पुराने छालों की भीड़ में वे सटते जाते | यह गर्म लावा आपको कभी द्रवित न कर पाता | कभी करने की कोशिश भी होती तो छालों को छीलकर आप असहनीय पीड़ा को दूर तक फ़ैलाव देते | आपका काम माँ की देह से महज़ रस निचोड़ लेना होता | आम चूसकर गुठली-छुक्कल फ़ेंक देना भर |

‘सब तैयारी हो गई है । आप नहा लो तो कंजक जीम लें |’’

‘अभी भाभी घर देर है | पहले उनको पीछे हमारो |’

‘ सुबह से लगी हूँ इसमें तो पहले- बाद की कोई बात ना है |’

‘ दुर्गा आरती से पहले उतारूँ तेरी आरती ?’ माँ खौलती रही | माँ के दिल के कोने कोने में आपकी नफ़रत की कँटीली घास थी | फ़िर भी झाडू से बिस्तर तक सभी कामों को सिलसिलेवार तरतीबी से अंजाम देती रही | उनके स्नेह की हूक को आपने कभी सहलाया भी नहीं | आपने अपने प्रति नफ़रत के अंधे बीहडों में घुसा दिया था उन्हें | वे टटोलती रहिं आपकी परछाईं जो गलती से भी मिली तो जून की लू सी |

मेरे विवाह उपरांत मेरे व पीयूष की जिद के बाद भी वे हमारे साथ नहीं आईं | आपसे बंधी जो थीं | तमाम उम्र आपने माँ को सुख की ताप न लगने दी | किन्तु आज एक अच्छा काम किया | उन्हें आज़ाद करके | मैं अपने साथ ले जा रही हूँ उन्हें | उनकी निस्तेज आँखों में पुन: रोशनी फ़ूट पड़ेगी जब वे मेरे बच्चों के साथ खेलेंगी | फ़र्ज़ और हक़ दोनों आ गिरे हैं बेटी की झोली में | टूटती दीवार की एक एक ईंट पर स्नेह का प्लास्टर लगाऊँगी | पूरी इमारत मेरी है |

शोभा रस्तोगी-