इमारत मेरी है Shobha Rastogi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इमारत मेरी है

1 - निकाह

‘शाकिर जब पैले पेल आया तो गोरा- गबरू था | भारी बाजुओं में अलग ही कसाव था |’ अलीगढ के मदार गेट की बदनाम गली की नरगिस के चेहरे पर खुश्बू के छींटें पड़ रहे थे | पान का बीड़ा दबाती सारुन की भौं सिकुड़ी ‘ अब न रहा बो कसाब का ?’ हाल ही बुझी, धुंआ छोड़ती मोम्बत्ती सी हिली नरगिस ‘कसाव कुछ बेदम सा होता जा रहा है | केई दफ़ा थूक में खून आ जाए है |’ नर्गिस के मुंह पर तिर्यक रेखा से खिंचाव आ गया था | ‘ हैं ? अये कैंसर बैंसर तो ना है ?’ ‘ न न ऐसा तो कुछ बताया न उसने | अबके आए तो तुम नज़र भर देखियो | उसके निचले होठ पे जले का गहरा घाव है |’‘किसने जला दिया उसका होठ ? कहीं और भी जाबे है का ?’ ‘ अमां कौन जलाएगा | बाजा बजाबे है केई घंटे बेरोक | बाजा रहबे पीतल को | बजाबत रहने से पीतल गरम है जाए और लगे शाकिर कौ होठ जलाने | अब करे भी का | दिन में कैइ घटा परेक्टिस फ़िर रत दो तीन सिफ़्तन में ब्याह बाजा | यंई बरब्बर गली के बादशाह बैंड में बाजा बजाबे है |’ महबूब का दुख नर्गिस के चेहरे पर पुता हुआ था | ‘ ‘ तुझे तो न होगा कुछ?’ ‘ अए अब मुझे क्या होगा ?’ ‘ अब ऐसी नादान भी न है | जब वो जले होठों से तुझे चूमता होगा तो क्या तुझे इन्फ़ैक्सन न होगा ?’ ‘ अरे तुम भी क्या ले बैठी | अल्ल्लह मियां का शुकर कर कि जब वो ऐसा करता होगा उसे कितनी तकलीफ़ होती होगी | फ़िर भी कभी मुझे चूमे बिना नहीं रहता | ‘ ‘अच्छा और तो कुछ न है उसे ?’ ‘ हं आपा, बता रा था पैले कहीं और ढ़ोल भी बजाया करता त| हाथ देखियो उसके | अल्लाह कसम ठेठ भरी पड़ी है दोनों हाथों में |’ ‘ तेरे बदन पे चुभते न होंगे क्या ?’ ‘ उसका दुख चुभे है मुझे | ऊपर से मुआ दिन भर बीढी – गुट्खा चबाता रहे सो अलग |’ ‘ अरी, पान तो तेरे मुंह को भी न छोड़े कभी | एक बात तो बता | तुझे का गाहकन की कमी है जो इस बीमारी को गले लगाय है |’ ‘ नहीं आपा, हर रात अंधेरा गाहक बन्के आए है | पर देवे तो स्याही ही है न | शाकिर रात का उजला धब्बा है और इस सफ़ैद दाग में मुझे धूल धूसरित रोशनी नज़र आए है |’ नरगिस का चेहरा नर्गिसी हो गया था | ‘ पर तुझे एक बात कहे देती हू कि तू शाकिर से दूर ही रै | जाने कब उसकी बिमारी तेरे गले पड़ जाए |’ ‘ आपा, अब तो ये बीमारी गले पड़ गैइ ही जानो |’ उसके लफ़्जों से उस रोग की बून्दें टपक रहीं थीं |

उस रात शाकिर ने तीन शिफ़्टें बजाईं | फ़टे फ़फ़ोले से लसीला पानी सूख चुका था | लगातार बजाने से उसका हिस्सा गहरा काला हो गया था, बिल्कुल उस घनियारे बादल की तरह जो चौमासे मे लगता है कभी रीतेगा ही नहि | कभी सफ़ेदी ओढेगा ही नहि | हां, लाल पानी का पतनारा जरूर बार बार छूट निकलता | वह उसे हर दफ़ा उबकाए रुमाल से पौंछता | रुमाल फ़िर यहाँ वहाँ से भर भर जाता | एसी हालत मे उसे ठौर मिला नर्गिस के दर | और नर्गिस जैसे बैठी थी इसी आस पे दोनो जहां लुटाने | हाथों हाथ लिया उसे | ‘ हाय दैया, इत्ता बजाने की कै जरुअत थी भला’ | ‘ थी नर्गिस, तुम भी नही समझोगी क्या, तुम और हम तो रोज की कमाने खाने वाले हैं | इसी रोजी के आसरे तो फ़सल के खात्मे पे शहर आया था |’ ‘हाँ, बो तो ठीक है शाकिर मियां पर कुछ अपना हाल तो देखो |’ फ़िर गुफ़्तगू आबाद हो गई शमा की रोशनी में |

दोपहर की धूप सेकती नरगिस के चेहरे से खुश्गवार बयार बह बह रही थी | सारून की बूढी आन्खों ने कुछ समझा और कुछ जायजा लिया | ‘ कै बात है नर्गिस, आज तो…|’ ‘आपा, हम निकाह करने की सोच रे हैं | तुम तो साथ दोगी न ?’ ‘ ब्याह और बैस्या ? काहे इत्ते खन मजाक करे है बुढिया से ?’ ‘ आपा, एक बात तो बता | रंडी कौन होबे ?’ ‘ एक औरत जाय कई मरद भोगे, बो |’ ‘तो एक मरद ब्याहने पे भी सायद भौतेरी औरत रंडी हुंगी |’ ‘ का बक रई ए ?’ ‘सोले आने सच्च कै रइ ऊं | भुगत भोगी ऊं | बचपने में रईस बाप की छोरी ई | एक अंकल आए करते | मैं पांचेक साल की रई हुंगी | पापा और बे दोनो जने बैठते | काजू खाते | दारू पीते | मां सज सजा के बैठतीं | बारी बारी से मां पापा और अंकल के पास जाती | फ़िर वे पापा के पीछे भी आन लगे | मां ने बुरो मानो तो पापा ने फ़टकारो मां कू ‘ मेरा यार है वो | मेरी फ़ैक्ट्री में बाको पैसा लगा है | जादा सती साबित्री बनने की जरुअत न है | ‘ मां के साथ हि साथ मैं भी अंकल की गिरफ़्त मे आबे लगी | मेरे लए भोत सुंदर सुंदर गुड़िया लाते | मोय देते | कहते – तुम जैसी खूब्सूरत है ये भी’ | उनके रेशमी बालन पे हाथ फ़िराते – कहते – ‘कितने साफ़्ट बाल हैं न इनके |’ यकायक उनके कपड़े उघाड़ देते | ‘अंदर से भी इतनी ही सौफ़्ट है बिल्कुल तुम्हारे जैसी | फ़िर मेरे भी कपड़े उघड़ने लगे | मैं भी उन खूब्सूरत गुड़ियों की नाईं नर्म, चिकनी, रेशमी हो गई | अंकल की खुरदरी हथेलियां मेरी नदी सी फ़िसलती त्वचा पर नाव बन लहराने लगी थीं | उनकी आन्खन के लाल डोरे मेरी नदिया में हिचकोले लेते इससे पहले मेरी मां को यह कतई गवारा न भयो | कैइ दफ़ा की तरहा उस बार भी जैसे ही उन्होने मेरी फ़्रौक उघाड़कर नीचे का कपड़ा खीन्चा कि मां आपे मे न रही | ‘बस्स अप्नी तईं सब सहन किया मैने | मेरी बेटी को छुआ भी तो…’ ‘ मिनट के अंदर मां बेटी को बाहर कर दूंगा | मेरी बदौलत घर है और तू इसमे है | तेरा पति दिवालिया है | भिखारी है |’ और मुझे छोड़ मां पर बुरी बीती | मां पापा को कहती तो उनकी बीरता मां पर ही उतरती | शराब के नसे मे बे मां के होठन कू अपने होठन मे लील लेते | मां के सब्द टीस में तरमतर वापस हो दिल के खड्ड में जमा हेते जाते | पति के हाथन के नीचे उसकी हाथन की नसें, टांगन के नीचे उसकी टांगें सिसक भी न पाती | कराहती रहतीं बेआवाज | उनकी टांगन के बीच का हथौड़ा उसकी कोमल सुरंग में बेतहाशा चोटें करता जब तक वह खूनमखून न हो जाती | फ़िर अपने फ़ुंफ़ुकारते घमंड को वही टपकता छोड़ विजइ मुद्रा मे सूरबीर सम विस्राम करता | और माँ बैचेन,कुटी पिटी, लालम्लाल, रोती कलपती अपने अंदर के दरद को संकरी गली में ही दबाए रहती | जमा करती रहती उसकी टूटन, थकन और नफ़रत |’ ‘ तो…तू यहाँ तक ?’ एक दिन माँ से बर्दास्त न हुआ | अंकल ने माँ की जिंदा गुड़िया को बिस्तर पे डाल दिया | गुड़िया रोती रही पर वो हैवान उसे उघाड़ने में लगा रहा | मां ने पीतल की मूर्ति उठा दे मारी उस राक्षस के सिर पे | वो वहीं ढेर | माँ भाग निकली मुझे गोद में छुपा |’ ‘ हाय, अल्ल्ला, तूने तो रुला ही दिया | फ़िर खाँ पहुँची तुम ?’ ‘ कहाँ पहुँचना था आपा | जब घर का मरद ई बेगैरत निकला तो बाहर वालों का तो तुम जानो ईयो | ट्रेन मे एक एन जी ओ वाला मिला | वो हमे ले गया | मुझे थोड़ा पढ़ाया | बेच दिया | और मैं आ गई इहां |’ ‘ तेरी मां ?’ ‘ माँ…’ टीस उठी नर्गिस | ‘ माँ तो उसी लम्हा सदमे में आ गई जिस पल अपनी बारह साल की बेटी को एन जी ओ वाले के बिस्तर में देखा |’ ‘अब बताओ, घर बाहर औरत है कहीं की | दोनों ही मरदन के हैं | जमीन आसमान कछु औरत कौ ना है एक इन्च भी न | मिले तो धरती की झुलसाने बाली आग और आकास की चीरने वाली तूफ़ानी हवा |’ ‘ सई कै रैई ए | सुकून तो सिरफ़ आदमिन के रजिस्टर मे ही लिखो है | औरत को पन्ना तो आग में ई सुवाहा है | औरत को पूरो लबादो दरद से ही सिलो है |’ आह छोड़ती बोली,’ तो तू हिन्दुआनी ए |’ ‘अरे आपा,’ ठठाकर हँसी नरगिस ‘जात और औरत की ? जो मरद रखे उसे बोई उसकी जात, उसका धरम | न रखे तो रंडी | अब रंडियाँ भी कोई हिन्दू मुसलमान हुआ करें ? रतजगे से पैले आज तक पूछी किसी ने हमारी जात ? औरत है – येई जात भोत ए हमारी | जेई चइए मरदन कू |’ बात का सिरा दूसरी तरफ़ मोड़ते हुए आपा बोली | ‘ पर तू तो कै रइ कि शाकिर का घर बार है , जोरू है |’ ‘ हां, आपा, सब था | साल दर साल फ़सल खराब होती रही | कर्जा अलग | खेती के लिए खाद, बीज, पानी के लिए कर्जा ले रखा था |’ ‘अए ऐसे क्या फ़क्कड़ था निरा |’ ‘ उसके अब्बू की पुरानी करजदारी थी | तुम तो जानो हो सूद्खोरन कू | सूद पे सूद , सूद पे सूद | और बैंक में भी चक्कर सूद पे चक्कर सूद | मूल तो निरा वहीं कै वहीं पड़ा रै है गोबर के चौथ सा | बस्स आई साल फ़सल ऐसी बिगड़ी कि कर्जा उठने में ही न आया | सब बिक गया | अब्बू अम्मी तो पैले ई अल्ला मियाँ ने बुला लिए | किसानी कर्जे ने उसका खेत, घर, जमीन सब बेच दिया | बो जब यहाँ था उसकी जोरू बीमार पड़ी | घर मे दाना तक न था | मुंह से खून की उलटी हुई | ढेर खून और काम तमाम | इसे खबर लगी तो लुट चुका था | सिर पीट पीट मर लिया | अबकी बार पगलाया सा आया था इधर | दिल भर न सका इसका | इसकी आँखों की वीरानी ने मेरे दिल में समंदर भर दिया | ज्वार आया और हमें एक कर उठ गया | अब वो चाह्ता है कि शादी… |’ ‘ रहोगे कहाँ ? चकला नही चलाएगी तो इहाँ कहाँ ठौर है ?’ ‘याँ न आपा, अनाथालय ए | वहीं काम करिंगे और रिंगे | बात कर ली है उसने |’

‘सैन करो न , आपा’ कोर्ट का रजिस्टर आगे करते हुए नर्गिस की आँखें चमक रही थीं |

‘ हं हां ‘ आपा की निगाहों में वेश्या और बैन्ड बाजे वाले का जोड़ा झिलमिला रहा था |

***

2 - उसका कमरा

आदि का कमरा खोल दिया है अदिति ने | कमरा माने अस्तव्यस्तता की लंबी फ़ेहरिस्त | उफ़ कहाँ बैठे ? एक इंच जगह भी ठीक नहीं | खड़ी रहती है कुछ पल | सिकुड़ी भौहें तीखी निगाहों के मुआयने में कुछ भी पास नहीं सब कुछ फ़ेल | टोटल फ़ेल | एक अंक भी नहीं | शून्य शून्य शून्य |

आधा घंटे पहले ही तो आदि ने वाट्स एप पर मैसेज किया था | अर्जेंट मीटिंग है | दो – तीन घंटे बाद पहुँच जाएगा | श्यामल संध्या के आवरण में मदमाती खुशियों के कालीन पर कदम रखती आई थी किन्तु… मूड का ज्योग्राफ़िया ही बिगड़ गया | चलो, अब आ ही गई है तो करे प्रतीक्षा | उसका अपना कमरा … सलीके से व्यवस्थित | एक एक चीज करीने से | देखते ही मन कमल खिल जाए और आदि …| आदि के खुले दिल से प्रभावित हुई थी और उसके कमरे का तंग हाल ? उफ़्… गहरी साँस ली | गद्दी खिसकी कुर्सी पर बैठ गई उसे ठीक करते हुए | नज़र पड़ी सामने बुक शेल्फ़ के स्टैण्ड पर | खिलखिला रहा था आदि | बढ़ी और उठा लिया फ़्रेम | निहारती रही | न जाने किस पल में उस बेजान तस्वीर की रोशन धूप में पिघलती गई | ठीक आदि के होठों पर अपने सुर्ख, गर्म लव रख दिए | अधरों के मध्य से हवा फ़ुसफ़ुसाई – आई लव यू | बांहों में समेट उसे यथास्थान सहेजा | बेड पर सिकुड़ी चादर की एक एक सलवट को देखती रही | उसे ठीक करने के खयाल से उठाने ही लगी थी कि आदि के बदन की गंध दबाए सलवटों ने उसे खींच लिया अपने आगोश में | हर सल में आदि का अहसास तरंगित था | सारी सल अपने उपर मथने लगी | रगड़ने लगी | आदि के स्पर्श से गहराने लगी | सलवटें उसके अस्तित्व पर बिखर गईं और वह आदि के अहसास में सिमट गई | चादर के सल पूरी रात रंगीनियाँ बिखेरते रहे | हर सल आदि की देह बन गई | सल सल को भींच दिया उसने खुद से | महसूसी आदि की बांहें अपने चारों ओर कसी कसी | मुचड़ गई चादर नितांत | स्याह अँधेरे से लिपट लिपट निशा जीती रही रात को |

सुनहरी भोर खिड़की से कूदी तो सलवट छूट गई | घुस गई बाथरूम में | टब में आदि का नहाया पानी सो रहा था | झगीला | दूधिया | उसकी गंध ने बाँहें फ़ैला दीं | और वह झट्पट कपड़े फ़ेंक उतर गई उस में | उस थोड़े पानी को काफ़ी देर चिमटाए रही | आदि की गर्माहट ठंडे जल में भी उसे सेक रही थी | छपक छपक छपछपाती रही तन में छिपे मन के कोर कोर को | टावल रॉड से लटके तौलिए से रगड़ने लगी रेशम बदन | तौलिए के लिए नया अह्सास | कहाँ खुरदुरा मर्दाना जिस्म और कहाँ मक्खन सी फ़िसलती देह | आदि की रग रग को पौंछता तौलिया अब अदिति की हर रग पर निगाहबान था | तौलिए के रेशे आदि की अंगुलियों में बदल गए थे | उसे अपने में लपेट तौलिया ड्रेसिंग पर आ गया | पाउडर का ढक्कन अनलॉक था | नफ़ासत से हाथ वहीं बढ़े जहाँ आदि के हाथों की छाप थी | छिड़क दिया आदि की तरह खुल्ले बदन पर , ठीक बीचों बीच सीने के | अरे यह तो मैन्स है | तो … आज वह भी मैन्… अनावृत देह पर बिखरा पाउडर… भरी उभरी गोलाइयों पर गोल गोल गोल फ़ैलने लगा आदि की हथेलियों से जो न जाने कब से अदिति के हाथों को छोड़ चुकी थी | ओह मैन्स परफ़्यूम …हाथ वहीं लगे जहां आदि छूता था | खुला ढक्कन …शू शू शू …स्प्रे में आदि की महक | अपनी हथेलियों को चूमती रही वह अशेष पल आदि के स्पर्श के सम्मोहन में | परफ़्यूम सदा से नापसंद थी उसे किन्तु आज … वो भी मैन्स | आदि के हेयर ब्रश से बाल बनाए | वार्ड रॉब से उसी की जीन्स शर्ट में पैक किया खुद को | बेतरह आदि की गिरफ़्त में | आदि की शर्ट ने उसके समूचे अस्तित्व का आलिंगन किया और वह उसके होने में सिमट गई |

नेह सने नेत्रों ने सेन्टर टेबल पर पड़े झूठे ग्रीन टी कप को ठीक आदि के अधर छुई जगह से प्यार किया और शेष बची कुछ बूंदों का प्रेम पान | ऐश ट्रे में पड़ी अधजली सिगरेट को आदियाना अंदाज मे लपक कर उठाया और उसी पॉइंट पर जहाँ आदि के लव जीवंत थे, प्यार की थपकी दी होठों के बीच दबाकर | पहली दफ़ा कश खींचा | अधजली बुझी सिगरेट कश | प्यार से लबालब |

आदि की खुश्बू में भीगी उसने फ़ोन उठा समय देखा | ओह उसे भी दस बजे ऑफ़िस जॉइन करना है | अभी एक घंटा शेष है | फ़ोन पर मैसेज था—सॉरी जान, होल नाइट आई कान्ट कम ड्यू टू वैरी अर्जेन्ट मीटिंग | ओह तो कल रात ही संदेश आ चुका था | पर रात तो उसे आदि की सलवटों ने…। आदि की उपस्थिति से कमरा अभी भी भरा भरा था | और वह भी | चादर, तौलिया, बाथटब, ऐश ट्रे, परफ़्यूम, पाउडर, सब नफ़ासत से व्यवस्थित किये | हँसती तस्वीर को बोसा दे रूम लौक किया | अपनी हाजिरी दर्ज़ करा निकल ली उसके कमरे से बाहर |

  • शोभा रस्तोगी