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यात्रा, मदारी, सँपेरे और साँप

यात्रा मदारी सपेरे और साँप

बलराम अग्रवाल

हरिद्वार जाने के लिए शर्मा दिल्ली के प्लेटफॉर्म पर खड़ा था। तभी उसने देखा कि उसकी कालोनी में सड़क बुहारने वाली युवती भी वहाँ खड़ी है। पिछले साल ही उसका ब्याह हुआ था। दूर से ही, उसकी अनुभवी आँखों ने अनुमान लगाया कि वह तीन-चार माह का गर्भ भी पाले हुए है। वह लपककर उसके नजदीक पहुँचा और बोला, “अरी नीलम! कहाँ जाने को यहाँ खड़ी है?”

“नमस्ते अंकल जी!” नीलम बोली, “हरद्वार तक जाऊँगी।”

“कोच नम्बर क्या है?”

“रिजर्वेशन नहीं है, ” उसने कहा, “जनरल में जाऊँगी।”

“जनरल में?” उसकी हालत के मद्देनजर आश्चर्य व्यक्त करते हुए शर्मा लगभग डाँटते हुए बोला, “पागल हुई है क्या? बिना रिजर्वेशन के ही स्लीपर कोच का टिकट ले लेती।”

शर्मा जानता था कि इस एक्सप्रेस के जनरल कम्पार्टमेंट में अच्छा-भला नौजवान भी एकाएक आराम से नहीं चढ़ पाता है। ऐसे में, पहली बार माँ बनने जा रही यह युवती कहीं नुकसान न करा बैठे। नीलम उसके इशारे को समझ गई और शरमाकर चुप रह गई।

“एक काम कर, ” उसे दिलासा देता वह बोला, “इस ट्रेन में जनरल के दो डिब्बे पीछे लगते हैं। चल, पीछे चलते हैं।”

अपनी बात कहकर शर्मा ट्रेन के आने वाली दिशा में चल पड़ा और चलते-चलते ही बोला, “ट्रेन के आते ही उतरने-चढ़ने वालों में घनी धक्का-मुक्की होती है। तू उस वक्त अलग खड़ी रहना। मैं पहले जाकर तेरे लिए जगह रोक लूँगा। तू आराम से आना। गाड़ी यहाँ दस मिनट रुकती है, घबराना मत।”

“जी अंकल जी।” नीलम ने कहा और उसके पीछे-पीछे चल दी। कालोनी में काम करने के चलते उसको पता था कि शर्मा जी इन दिनों अपने बैंक की मेरठ शाखा के मैनेजर हैं। वे सुबह की ट्रेन से रोजाना मेरठ जाते हैं और शाम की ट्रेन से घर लौटते हैं। इसलिए उसका यहाँ मिल जाना उसे अप्रत्याशित नहीं लगा।

इस बीच ट्रेन के शीघ्र ही प्लेटफार्म पर आने की उद्घोषणा की जाने लगी थी। उसे सुनकर नीलम ने अपनी चाल कुछ तेज कर दी और वह शर्मा के बराबर जा पहुँची।

“दौड़ मत लगा, आराम से चल।” उसको तेज चलता देखकर शर्मा बोला, “अभी तो बस अनाउन्समेंट हुआ है, गाड़ी आने में देर लगेगी।”

यह सुनकर नीलम ने चैन की साँस ली और चाल को सामान्य कर लिया।

“अकेली ही जा रही है?” शर्मा ने पूछा।

“नहीं, ” वह बोली, “छोटी चाची हैं मेरे साथ।”

शर्मा ने सिर घुमाकर देखा—नीलम से दो कदम पीछे 40-45 साल की एक और युवती भी चली आ रही थी।

“किस काम से जा रही हो?”

“चाची के भाई वहाँ एस॰डी॰एम॰ हैं। पिछले दिनों दिल्ली आए थे तो उन्होंने कहा किसी शनिवार-इतवार को आ जाओ… हरिद्वार और ॠषिकेश दोनों जगह घुमा दूँगा।”

“तो माँ को भी साथ ले जाती हाथों-हाथ।” शर्मा ने सुझाव दिया।

“सब एक-साथ नहीं जा सकते।”

“क्यों?”

“ऑफिस में लिखकर देना पड़ा है कि मेरी एवज में कालोनी को वो बुहार देंगी। इसी शर्त पर छुट्टी मिली है दो दिन की। परसों इतवार है ही।”

“हूँ…” शर्मा के गले से निकला। प्लेटफार्म के आखिरी सिरे से कुछ पहले वह रुक गया। पीछे आ रहीं नीलम और उसकी चाची भी वहाँ पहुँचकर रुक गईं। उनके वहाँ पहुँच जाने के कुछ देर बाद ही गाड़ी आती दिखाई देने लगी। प्लेटफार्म पर इधर-उधर घूम रहे यात्री एकजुट-से होने लगे। भीड़ एकाएक घनीभूत हो गयी।

“मेरी बात समझ गई न?” इंजन को नजदीक आता देख शर्मा ने मुस्तैद आवाज में पूछा।

“हाँ अंकल जी।” नीलम ने करारेपन से जवाब दिया और शर्मा के निर्देश के मद्देनजर जहाँ थी, वहीं खड़ी रही।

प्लेटफार्म पर आकर जैसे-जैसे ट्रेन की गति धीमी हुई, वैसे-वैसे पुरुष यात्री उसके और नजदीक सरकने लगे। जैसे ही वह रुकने को हुई, लोग कम्पार्टमेंट्स का हैंडिल पकड़कर लटक-से गए और अन्दर घुसने की कोशिश करने लगे। उधर, ट्रेन से उतरने वाली सवारियों का जोर तो इधर सीट घेरने की उतावली में चढ़ने वालों का। न कोई चढ़ पा रहा था और न ही आराम से उतर पा रहा था। दिल्ली जैसे रेलवे प्लेटफार्म पर भी ऐसा जंगलीपन! इस हालत में ‘असभ्य नगर’ भी इस महानगर के लिए छोटी उपमा है।

भीड़-भाड़ और आपाधापी से दूर खड़ी नीलम और उसकी चाची ने देखा कि शर्मा बड़ी फुर्ती के साथ एक जनरल कम्पार्टमेंट में चढ़ गया था। चढ़ने वाले जब कम लोग रह गये तो वे भी जा चढ़ीं और भीड़ को चीरती हुई शर्मा की ओर बढ़ने लगीं। ट्रेन के उस डिब्बे में इतनी ज्यादा भीड़ उमड़ आई थी कि पहले-से बैठी सवारियों को असुविधा होना लाजिमी था। शर्मा जहाँ जाकर रुका, वहाँ लम्बी वाली आधी बर्थ के बीचों-बीच 65-70 साल के एक गोरे-चिट्टे सज्जन पालथी लगाकर विराजमान थे। सफेद झक सूती परिधान। माथे पर लाल चन्दन का दीपक की लौ जैसी आकृति का तिलक। चेहरे पर आसपास के सभी लोगों से अलग व्यक्तित्व वाला होने का दर्प। बर्थ के दायीं ओर का हिस्सा लम्बा-सा एक बैग रखकर घेरा हुआ था। दायें हाथ की कलाई में फँसा रखी पीले रंग के रेशमी कपड़े की थैली में रुद्राक्ष की माला घुमाते वह ऐसे बैठे थे जैसे उनके आसपास कोई-और उपस्थित ही न हो। बायीं ओर वाली शेष आधी पर आठ से बारह साल उम्र के तीन बच्चे बैठे थे।

वहाँ खड़ी भीड़ में सबसे आगे शर्मा था। एक सवारी के बैठने लायक जगह देखकर वह जैसे ही उस बर्थ की ओर बढ़ा, तिलकधारी की बायीं भुजा आसन्न खतरे से चौकस भुजंग-सी हवा में खड़ी हो गयी, जीभ लपलपाती हुई। उसकी ओर से शर्मा को यह दूर ही खड़ा रहने का मौन संकेत था। वह जहाँ का तहाँ रुक गया। इतनी देर में नीलम और उसकी चाची भी वहाँ तक पहुँच चुकी थीं।

“जा बेटी, तू बैठ जा।” खाली सीट की ओर इशारा करके शर्मा ने नीलम से कहा।

उसके ऐसा कहते ही तिलकधारी की भुजा ने पुन: वही कमाल दिखाया। सीट की ओर बढ़ने को उत्सुक नीलम के कदम भी जहाँ के तहाँ रुक गये। किसी तीसरे की तो फिर हिम्मत ही न हुई कि उस भद्र पुरुष की ओर बढ़े। परिधान और पूजा-पाठ की मुद्रा का सम्मान इस देश के समूचे मानस में प्राकृतिक रूप से समाया हुआ है। उस पर, रंग गोरा और उम्र बढ़ी हुई हो तो बात ही क्या है। पीछे से बढ़ते भीड़ के दबाव को सहन न कर पाने के कारण शर्मा को एक कदम आगे बढ़ा लेना पड़ा। उसके घुटने अब बर्थ पर रखे तिलकधारी के बैग से सट गये थे।

“पूरी बैंच को घेरकर बैठा है… औरतों-बच्चों की तरफ भी कुछ देख ले ताऊ।” बहुत पीछे खड़े किसी ने गुहार लगाई।

“कब्जे का युग है भाई, ” उसकी बात पर कोई दूसरा बोला, “बाबाओं का, साहूकारों का, नेताओं का—जहाँ कब्जा हो गया, वो उनका उनकी औलाद का।”

ट्रेन प्लेटफार्म से खिसकने लगी। धीरे-धीरे उसने गति भी पकड़ ली।

“इतने साल हो गये देश को आजाद हुए, ” कम्पार्टमेंट में दूसरी ओर सीटें हथियाने की और न हथियाने देने की चिख-चिख खत्म होने के बाद माहौल कुछ शान्त-सा हुआ तो शर्मा ने एकाएक अपने-आप से ही बोलना शुरू कर दिया, “सरकार ने खूब जोर लगा लिए छुआछूत मिटाने को, लेकिन बाल्मीकियों को लोग आज भी गज-भर दूर ही रखते हैं!”

यह सुनना था कि माला घुमा रहे तिलकधारी ने उसके घुटनों से सट रहे अपने बैग को पीछे खिसका दिया; फिर भी तसल्ली न हुई तो दायीं ओर से उठाकर उसे बायीं ओर रख लिया। बैग वाली जगह के खाली होते ही शर्मा बिना देर किए सीट पर बैठ गया। उसके बैठते ही तिलकधारी ने अपनी देह को भी कुछ और सिकोड़ लिया और उससे दूरी बनाकर बैठ गया। जगह बनती देख शर्मा बायीं ओर को कुछ-और खिसक गया और अपने दायीं ओर वाली जगह की ओर इशारा करके नीलम से बोला, “तू इधर आजा।”

खड़े रहकर सफर करने में नीलम को खासी असुविधा होने लगी थी। उसके बुलाते ही वह तुरन्त वहाँ जाकर बैठ गयी। वह बैठी तो उसे कुछ-और खुलापन देने की गरज से शर्मा अपने बायीं ओर खिसक गया। वह खिसका तो अपनी देह को उस ‘बाल्मीकि’ की देह से बचाने की कोशिश में तिलकधारी भी खिसका; और कुछ देर बाद वह जब पुन: खिसका तो उसने अपने बायीं ओर देखा। खिसकने को अब बालभर भी जगह उधर बची नहीं थी, सो वह सीट छोड़कर खड़ा हो गया। वह खड़ा हुआ तो शर्मा पूरी तरह से बच्चों की ओर खिसक गया और भीड़ में खड़ी नीलम की चाची से बोला, “आप भी बैठ जाइए बहन जी…’’ फिर, थक-हारकर कम्पार्टमेंट के फर्श पर ही पसर गए एक दीन-हीन-से बुजुर्ग की ओर इशारा करके कहा, “और उस ताऊ को भी बुला लीजिए!”

उन तीन बालकों समेत उस सीट पर इस तरह सात लोग बैठ गये।

‘शर्मा जी तो बहुत तगड़े मदारी हैं!’ यह सब देखकर प्रफुल्लितमना नीलम सोचने लगी—‘बिना डुगडुगी बजाए ही ऐसी भीड़भरी ट्रेन में भी चार लोगों के बैठने लायक जगह निकाल ली!!’

तिलकधारी ने देखा कि ‘बाल्मीकि’ उसके बैग पर कोहनी टिकाकर आराम की मुद्रा में आ गया था। आग्नेय नेत्रों से देखते हुए उसने बिना कुछ बोले उसकी कोहनी के नीचे से बैग को खींचा और ऊपर की बर्थ पर रखे सामान पर टिका दिया। उसका पूरा ध्यान अब इस बात पर था कि खिड़की के रास्ते आ रहे हवा के तेज झोंकों की वजह से उनकी धवल धोती या कुर्ते का किनारा इस आदमी के कपड़ों से न छू जाए। डिब्बे के हिलने-डुलने से होने वाली डगमगाहट से बचने के लिए उसे दोनों हाथों से ऊपर वाली बर्थ को जकड़कर खड़ा होना पड़ रहा था, सो माला फेरना बन्द हो चुका था। असुविधापूर्वक खड़े होने की वजह से टाँगें दुखने लगी थीं; इसलिए कभी वह दायीं टाँग पर शरीर का बोझ डालता और कभी बायीं टाँग पर।

‘तीन सँपोले पहले ही खिड़की के रास्ते आने वाली हवा को दूषित कर रहे थे, और अब यह नागराज! पता नहीं कहाँ जाकर उतरेगा कम्बख्त?’ — ‘बाल्मीकि’ की ओर देखता हुआ वह मन ही मन सोचने लगा — हरिद्वार तक ही न झेलना पड़ जाए इसका दंश!

एक या सवा घंटे बाद, गाड़ी ने परतापुर स्टेशन को क्रॉस किया। शर्मा एकाएक तिलकधारी से बोला, “टाँगें बदलने का आपका अन्तराल लगातार कम हो रहा है महाराज। खड़े-खड़े काफी थक गये हैं शायद। आपको औरों का कष्ट नजर नहीं आ रहा था, लेकिन आपका कष्ट मैं देख पा रहा हूँ।”

उसकी इस बात पर तिलकधारी ने पुन: आग्नेय दृष्टि से उसकी ओर देखा।

“छुआछूत मानने की आपकी आदत को भगवान बनाए रखे।” उस अग्नि को और-ईंधन देता शर्मा बोला, “उसने आज कई कमजोर यात्रियों को सीट दिला दी। ध्यान से देखिए—आपका बैग ऊपर वाली बर्थ पर टिक जाने भर से दो मासूम औरतों और एक लाचार बूढ़े को सीट मिल गई। रही बात मेरी, सो मैं न तो बैग की जगह पर बैठा हूँ और न आपकी। इसे तो आपने बच्चों से दूरी बनाए रखने के लिए खाली छोड़ा हुआ था—नो मैन्स लैंड।” इतना कहकर वह सीट से उठ खड़ा हुआ और पूछने लगा, “अच्छा, ईमानदारी से बताइए महाराज, कि आप सच में जाप कर रहे थे या बैंच घेरे रखने की नीयत से भगत होने का नाटक कर रहे थे?”

उसके इस सवाल पर तिलकधारी गरदन तानकर किंग कोबरा की तरह खड़ा हो गया—फन को पूरा फैलाकर। चेहरे पर कलौंस उतर आई। नथुनों से निकलकर फुफकार जैसी उसकी गर्म साँसें शर्मा के चेहरे से टकराने लगी, लेकिन वह विचलित नहीं हुआ। मुस्कुराते हुए उसने कमीज की ऊपरी जेब से निकालकर अपना पहचान-पत्र उसके फन के आगे कर दिया। बोला, “यह देखिए—मेरा ऑफिशियल आई-कार्ड। नाम पढ़िए—सुधाकर शर्मा।…और यह रहा पैदाइशी ब्राह्मण होने का प्रमाण पत्र…।” यों कहते हुए उसने अपने गिरेबान में हाथ डाला और जनेऊ खींचकर क्रोध से सुलग रही आँखों के आगे तान दिया। नाम और जनेऊ देखकर तिलकधारी ठगा-सा उसकी ओर देखता रह गया, लेकिन अब कर क्या सकता था! बहस में न उलझकर, खाली हुई जगह पर टिकने को वह जैसे ही तैयार हुआ शर्मा तुरन्त बोल उठा, “लेकिन यह जो लड़की बैठी है न महाराज, यह दलित जाति की है…सफाई कर्मचारी।”

खड़े रहकर यात्रा करने के कारण तिलकधारी बहुत ज्यादा थक चुका था। शारीरिक थकान के अलावा, शर्मा के झाँसे ने भी खासा हताहत कर दिया था। उसे लगने लगा था कि बैठने को तुरन्त जगह नहीं मिली तो वह फर्श पर गिर जाएगा; इसलिए शर्मा की बात को अनसुना कर वह फक्क-से बची-खुची जगह में फँस गया।

‘अपनी ही जाति का होने के बावजूद विरुद्ध आचरण कर रहा है हरामखोर’—सीट पाकर वह ‘बाल्मीकि’ के बारे में सोचने लगा—‘पढ़-लिखकर भ्रष्ट हो गया है। जप-माला-छापा-तिलक से चिढ़ने वालों की जमात में शामिल होकर बेहद चालाक और हिंसक जीव बन गया है। सुखपूर्वक यात्रा सम्पन्न करनी है धर्मानन्द, तो इसके दाँव-पेंचों से बचा रहने में ही भलाई है।’

“यकीन मानिए महाराज, ” शर्मा ने जानबूझकर चुटकी ली, “भंगन है वो। मेरी ही कालोनी में झाड़ू लगाती है।”

“है तो हुआ करे।” मन में निर्धारित नवीन योजना के अनुरूप तिलकधारी हाथ नचाकर बोला, “नहाना तो हरद्वार जाकर वैसे भी है ही।”

उसका यह—‘फिलहाल सुख भोगो’ टाइप का जवाब सुनते ही खड़े हुए अन्य यात्री हल्के-से हँसे-मुस्कराए बिना न रह सके।

“तू अपना आई-कार्ड साथ लाई है न?” शर्मा ने नीलम से पूछा।

“नहीं अंकल जी।” नीलम धीरे-से बोली।

“धत्। लाई होती तो इन्हें हरिद्वार तक उल्टा लटकाए रखने के काम आता।” तिलकधारी की ओर देखते हुए उसने नीलम को डाँटा।

“अब चुप कर।” यह सुनकर अपने-आप को रोकते-रोकते भी तिलकधारी इतनी जोर से शर्मा पर चिल्लाया कि बराबर में बैठी नीलम तो डरकर उछल-सी पड़ी। “बार-बार थोड़े ही आता रहूँगा तेरे झाँसे में!” वह आगे बोला और असुविधापूर्ण ढंग से नीलम के बदन से सटा-सटा ही रेशम की थैली में पड़ी माला घुमाने लगा। ट्रेन मेरठ सिटी स्टेशन के दायरे में प्रविष्ट हो चुकी थी और वहाँ उतरने वाली सवारियाँ गेट की ओर बढ़ चली थीं। प्लेटफार्म पर ट्रेन के रुकते ही, कम्पार्टमेंट के गेट पर एक बार पुन: दिल्ली रेलवे स्टेशन जैसा ‘जंगली’ दृश्य बन चुका था।

शर्मा मेरठ सिटी स्टेशन पर उतरने वाली सवारियों में जुड़ चुका था, उसने कोई उत्तर नहीं दिया। लोग मंथर गति से आगे बढ़ रहे थे। तभी, लाइन से निकलकर एक युवक तिलकधारी के नजदीक आया और उसके दोनों कन्धों पर हाथ टिकाकर बोला, “झाँसा कोई दूसरा नहीं दे रहा ताऊ, खुद आप ही देते आ रहे हैं अपने-आप को! सुधार लो… सुधार लो खुद को। इस यात्रा में बहुत तरह के मदारी और सपेरे चलते हैं। आप को तो सीट से उठाने का छोटा-सा ही करिश्मा दिखाया, अपनी पर आ जाएँ तो फूक मारकर पूरा साँप ही गायब कर देते हैं।” फिर सीधा खड़ा होकर शर्मा की ओर इशारा करके बोला, “शुक्र मनाओ कि उसे तरस आ गया आपके बुढ़ापे पर। हम तो रोज ही देखते हैं उसका खेल। बहुत तगड़ा सपेरा है वो। ऐसा भी मन्त्र मार सकता था कि आप हठयोग की मुद्रा में जाते हरिद्वार तक!!!”

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