मानसिक अशांति और उपवास Rajan Dwivedi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मानसिक अशांति और उपवास

वसुधा से बहस के बाद विनय बहुत ही उद्विग्न था । वह चुपचाप अपने कमरे में चला गया । बहुत देर तक इस बारे में सोचता रहा। आखिर क्या गलती है उसकी यदि वसुधा को अभी तक कोई नौकरी नहीं मिली। ये व्यवस्था ही ऐसी है जहां बिना जुगाड़ के नौकरी हाथ कहाँ आती है और आज का सबसे बड़ा जुगाड़ है पैसा वो भी थोड़ा नही ज्यादा और उस पर वजन भी चाहिए यानी किसी बड़े आदमी की सिफारिश और जाहिर है कि सिफारिश मुफ्त तो होगी नही । सिफारिश का दाम अलग। एड़िया घिस जाती है चक्कर लगाते -लगाते। सुनते है कि चार-पांच लाख की घूस तो चपरासी के लिए लगती है । और वसुधा को तो डिग्री कॉलेज की प्रोफेसरी चाहिए जहां 20 लाख की मांग है ये किसी साधारण कमाई वाले व्यक्ति के बस की बात कहां । पूरी व्यवस्था ही भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है, और क्यों न हो भ्रष्टाचार, आबादी तो कहीं रुकने का नाम ही नही ले रही। एक-एक पद के लिए हजारों लोग लाइन में लगे है अब सबको नौकरी मिले भी तो कैसे। पर इसका अर्थ ये नही की नौकरी सिर्फ योग्य और प्रतिभाशाली लोगों को ही मिलती है उसके लिए सबसे बड़ी योग्यता है जुगाड़ और पैसा। पैसे वाले पैसों के जोर पर फ़र्ज़ी डिग्रियां खरीदते है फिर उसके सहारे नौकरी और वसुधा के जैसे न जाने कितने ही युवा उच्चशिक्षा प्राप्त करने के बाद भी इस भ्रष्ट व्यवस्था के चलते बेरोजगार है और अपनी किस्मत को कोस रहे है। वह खुद भी अपनी योग्यतानुरूप नौकरी कहाँ पा सका है और दूसरी ओर नेता-मंत्री-अफसर अब अपने-अपनों को ही फिट करने में लगे है। वसुधा का तो जैसे विश्वास ही उठ गया है इस सब से । कितनी मेहनत से इतनी डिग्रियां हासिल की नेट, पीएचडी सब पर किस काम की। जबकि कितने ही अयोग्य लोग अपनी ऊंची पहुँच के चलते नौकरी कर रहे है। जब कभी भी ये मुद्दा छिड़ जाता तो पूरा माहौल बिगड़ जाता । विनय बहुत दुखी था वसुधा के दुख को देखकर। अचानक उसके मन मे ख्याल आया कि क्यो न पूरा ममला देवी माँ के सुपुर्द किया जाए शायद कुछ शांति मिले। अगले दिन से ही शारदीय नवरात्रि प्रारम्भ हो रहा था। यद्यपि देवी-देवताओं में उसकी श्रद्धा मात्र दो अगरबत्तियों तक ही सीमित थी, मंदिर वगैरह तक आना जाना बहुत ही कम होता था। पर वसुधा का ईश्वर पर बड़ा विश्वास था । वह धर्म-कर्म वाली महिला थी। विवाह के बाद सारे कठिन से कठिन व्रत भी पूरे नियम से करती आई थी। कितने ही निर्जल व्रत में जल चौबीस घंटे बाद ही ग्रहण करती थी जबकि उसी के घर की दूसरी औरतें रात 12 बजे तक पानी पी लेती थी। हिंदुओं में शारदीय नवरात्रि का बड़ा महत्त्व है, कहते है माता अपने भक्तों की सभी मनोकामनाये पूरी करती है। विनय ने निश्चय किया कि इस नवरात्रि में वह नौ दिन का व्रत रखेगा, मानसिक शांति और पत्नी की मनोकामना की पूर्ति के लिए।

अगले दिन सुबह वह चार बजे तड़के ही उठकर नहा-धोकर पूजा-पाठ में लग गया। घंटी की ध्वनि से पत्नी की आंख खुली तो उसने आश्चर्य से पूंछा, ’आज बड़ी जल्दी उठ गए, और ये सुबह-सुबह पूजा क्यों’? और फिर जैसे कुछ याद करते हुए,’ओह्ह .. आज से तो नवरात्रि शुरू है अच्छा किया आपने दीपक जला दिया सुबह -सुबह’। अपनी अगरबत्तियो वाली पूजा सम्पन्न करके विनय ने अपने नौ दिन के व्रत के संकल्प के विषय मे बताया । वसुधा ने कहा, ‘मजाक है क्या ? कोई तैयारी नही है.. नौ दिन का व्रत ऐसे ही हो जाता है क्या ? बहुत से प्रबंध करने होते है । कलश स्थापना हुआ नही है । फलहार की कोई व्यवस्था नही है । रात तक तो कोई प्रोग्राम नही था ऐसा .. अचानक क्यो?’ पर जब विनय ने अपना संकल्प दोहराया तो उसने कहा,’ ठीक है फिर मैं क्यों बाधा बनूं... मैं भी रह जाती हूँ .. पर एक बार पंडित जी से बात तो कर लीजिए।‘ विनय ने अपने पारिवारिक पुरोहित पंडित छोटू शास्त्री से फोन पर बताया। पंडित जी ने कहा,’ सुंदर... अति सुंदर। अति उत्तम विचार है ... समझिए स्वयम माता जी ने आपको इस सत्कार्य हेतु प्रेरित किया है। मैं घर आकर संकल्प ले लूंगा और आपको नियम धर्म के विषय मे भी समझा दूंगा।‘ फिर पंडित जी ने घर आकर ‘क्या नहीं करना है’ के विषय में विस्तृत जानकारी दी । इस बात पर विशेष बल दिया कि इन दिनों मांस, मदिरा और मैथुन से दूर रहना है। महँगाई का हवाला देते हुए संकल्प के नाम पर 1000 रुपये झटक लिए। विनय ने व्रत संबंधी वस्तुओं की व्यवस्था कर दी और व्रत प्रारम्भ हो गया। सुबह मूंगफली-मखाना और आलूचाट का नाश्ता फिर दोपहर में साबूदाना की तहरी फिर ताजे फल , कुछ ड्राई फ्रूट्स और रात में कुट्टू के आटे की पूरी आलू-टमाटर या लौकी की सब्जी, मखाने या लौकी की खीर के साथ साथ एक गिलास दूध। फलहार के नाम पर इतना कुछ खाना-पीना हो गया कि रात में देर तक डकार आती रही। रात में वसुधा ने पूँछा,’ सुबह क्या फलहार करेंगे.. कुछ बताएं तो इसी समय व्यवस्था कर लूँ’. ‘अरे यार कुछ भी बना देना’, विनय ने कहा, ‘ वैसे भी ये तुम्हारा डिपार्टमेंट है।‘ और डकारते हुए बोला,’ये आलू -वालू खाने से गला जल रहा है .... और व्रत में दवा भी नही खा सकता.... हद है,‘ और उठकर चहलकदमी करने बाहर चला गया।

वसुधा पर दो बच्चों को संभालने के साथ पूरे घर की जिम्मेदारी पहले से ही थी । इस व्रत ने उसका काम और भी बढ़ा दिया । पहले बच्चों का नाश्ता पानी फिर फलाहार और घर के दूसरे सारे काम सुबह-शाम दिया-बत्ती-आरती अलग, फलस्वरूप वह और भी खीझ गयी। जैसे -तैसे दिन कट रहे थे पर जिस सुकून की तलाश थी वह अभी भी गायब था। फिर अष्टमी आ गयी । पंडित जी की सलाह के अनुसार मन्दिर में माता के दर्शन करना था। दोनों ने सुबह ही मंदिर जाने का तय किया। पर मन्दिर में श्रद्धालुओं की ऐसी भीड़ थी कि लोग एक दूसरे की कोई परवाह नहीं कर रहे थे। सभी को दर्शन की जल्दी पड़ी थी। विनय ने अनुभव किया कि यहाँ भगदड़ जैसी स्थिति कितनी भयावह हो सकती थी। हर भीड़-भाड़ वाली जगह का हाल यही हाल है सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं होता। वहाँ महिला और पुरुष हेतु अलग-अलग लम्बी-लम्बी कतारें थी। कतार में अधिकतर निम्वर्ग की ग्रामीण महिलाएं थी बहुत मामूली कपड़ों और चांदी के आभूषणों में। कुछेक के गोद में बच्चे भी थे जो देर से लाइन में लगे होने के कारण ऊब गए थे और रो भी रहे थे। कुछ श्रद्धालुओं के धूलधूसरित पैरों और कपड़ों को देखकर ऐसा लग रहा था कि उन्होंने अपने गाँव से मंदिर तक का रास्ता पैदल ही तय किया होगा। उच्चवर्गीय और संभ्रांत समझे जाने वाले लोग इक्का-दुक्का ही थे । विनय सोच में पड़ गया कि ईश श्रद्धा या डर अब गरीबों तक ही सिमट गया है क्या? अमीरों को तो इहलोक और परलोक किसी का डर नहीं । हर जगह पैसे की तूती बोलती है यहां तक कि मंदिरों तक मे भी उनके लिए विशेष दर्शन की व्यवस्था है। कहीं माँ के दरबार मे भी उन्हीं की तो नहीं सुनी जाती नहीं तो इतने गुनाह करके भी ये कैसे बच निकलते है? और दूसरी ओर ये लोग है जो इतना पूजा-पाठ, व्रत नियम-धरम से करने के बाद भी दो जून की रोटी के लिए भी संघर्ष करते है। इन्हीं विचारों के बीच धीरे-धीरे लाइन में सरकते हुए लगभग चार घंटे की कड़ी मशक्कत और धक्का-मुक्की के बाद वो दर्शन करने में सफल हो सके। पर विनय की पैर में चोट लग गयी थी और वह लंगड़ाते हुए घर वापस आया। अगले दिन नवमी थी जिसमे हवन कराने और नौ कन्यायों को खिलाने का आदेश था। बिनय ‘व्रत का खाना’ खाकर ऊब गया था। उसे थोड़ी राहत थी कि कल से सामान्य दिनचर्या पुनः लौट आएगी।

नवमी के दिन सुबह ही दोनो पंडित जी के बताए मंदिर पर पहुंच गए। एक छोटा सा मंदिर। लगभग 25 फुट लंबाई और 15 फुट चौड़ाई का मुख्य मंदिर जिसमे माता जी पिण्ड रूप में विराजमान थी इसके सामने एक छोटा सा बरामदा था जिसमे बड़ी सी दानपेटी लगाई गई थी। प्रदक्षिणा पथ नहीं था, लोग अपने स्थान पर ही गोल-गोल घूमकर प्रदक्षिणा कर रहे थे। परंतु मंदिर में उपस्थित भक्तों की भीड़ इसकी ख्याति बता रही थी। सालभर उपेक्षित रहने वाला यह मंदिर नवरात्रि में भक्तों से भरा रहता है। मंदिर का पुजारी पूरे परिवार सहित व्यवस्था के नाम पर चढ़ावे पर कब्जा के लिए जमा था। उनके मन मे शायद ही कोई श्रद्धा रही हो। शरीर रगड़ते हुए किसी तरह मंदिर में पहुंच कर वसुधा अगरबत्ती जलाने लगी .. वहीं कोई दूसरी लड़की अगरबत्ती घुमाती हुई होंठो में कुछ बुदबुदा रही थी । व्यवस्था में लगी एक लड़की ने तंज कसा,’जल्दी करो कहीं देवी जी सच में प्रकट न हो जाएं।‘ तभी उन्ही में से एक लड़का बोला,’अगरबत्ती बाहर जलाये यहाँ न जलाये।‘ तीसरी आवाज आई,’ए माई! जल्दी करो जल्दी करो.. अभी बहुत लोग हैं लाइन में’। इन लोगों की माँ ने मुख्य पुजारी के रूप में मोर्चा संभाल रखा था जो चढ़ावे में आने वाले पैसों और फल व मिठाइयों को शीघ्रता से एक झोले में एकत्र कर रही थी। इस भीड़-भाड़ और कोलाहल में देवी माँ में ध्यान लगाना संभव ही नहीं था सो जल्दी से प्रसाद वगैरह चढ़ा कर बाहर निकल आये । बाहर आने पर विनय को याद आया कि माँ से तो कुछ मांगा ही नही तो उसने वहीं से हाथ जोड़कर मन ही मन कहा ,’कल्याण करो माँ’’। अब तक वसुधा भी पसीना-पसीना होकर बाहर आ गयी थी। अब हवन कराना था। मंदिर के बाहर हवन कुंड बना था। छुटभैय्ये पंडितो ने उसे चारों ओर से घेर रखा था और अपने – अपने यजमानो का हवन सम्पन्न कर रहे थे। विनय ने देखा वहां पंडित छोटू शास्त्री तो थे ही नहीं। तभी वसुधा ने संकेत किया कि उन्होंने अपना आसान उस हवन कुंड से थोड़ा हटकर लगा रखा था। इसका क्या कारण था ये तो पता नहीं.. हो सकता है उन छुटभय्यों के साथ बैठने में अपना अपमान समझते रहे हों या फिर उन पण्डितों ने ही उन्हें स्थान न दिया हो या फिर उन लोगों ने पहले पहुँच कर अपनी जगह छका ली हो। छोटू पंडित हवनार्थियो की भीड़ से घिरे थे । विनय ने उन्हें प्रणाम किया और संकेत से ही हवन सम्पन्न कराने की प्रार्थना की। पंडित जी अपने कार्य मे लगे रहे। वो जल्दी-जल्दी सबको निपटा रहे थे। तभी किसी ने चरण स्पर्श किया .. पंडित जी को व्यवधान हुआ उन्होंने चिढ़कर कहा,’जल्दी समान भेजो ... अधिक टाइम नहीं है’। ‘पर आपने तो 10 बजे का समय दिया था जिसमे एक घंटा बाकी है’,उसने प्रतिवाद किया। पंडित जी और चिढ़ गए बोले,’अभी जो कह रहा हूँ वो सुनो... और भी काम है मुझे ...इंतजार करने की फुरसत नही है।‘ इस बीच जिस औरत का हवन सम्पन्न हुआ था उसने दक्षिणा स्वरूप सौ रुपये दिये जिसपर पंडित जी अपना क्रोध न छुपा सके और अधिक दक्षिणा की मांग करने लगे। वो बोले ये सौ-पचास वाले पंडित दूसरे है वो हजार-पाँचसौ से नीचे बात नही करते। शायद ये संदेश वहां प्रतीक्षारत अन्य लोगों के लिए भी था। फिर दो-तीन लोगों की हवन सामग्री एक मे ही मिला कर सामूहिक हवन कराने लगे । दूसरे पंडितो के यजमानों के कारण वो हवनकुंड तक पहुंच नही पा रहे थे तो उन्होंने वहीं खड़े-खड़े ही आहूति हवनकुंड में फेंकना प्रारम्भ कर दिया । विनय और वसुधा ये सब देख रहे थे । अगला नम्बर उन्ही का था। पंडित जी ने कपूर जलाया, अगरबत्ती जलाने की कोशिश की पर माचिस बुझ जा रही थी झुंझलाकर बोले ,’साला माचिस भी नकली है’ दो-चार प्रयास के बाद जब अगरबत्ती जली तो वो बोल पड़े,’लो जल गई... लाओ बहू फल-मीठा सब इस थाली में रखो‘ और दूसरी थाली में हवन सामग्री तैयार करने लगे। इस बार उन्होंने उठने का भी कष्ट नहीं किया बोले,’बेटा तुम बहू के साथ वहीं से आहूति डालो मैं मंत्र बोलता हूँ।‘ विनय-वसुधा ने स्वाहा-स्वाहा बोलकर हवन सामग्री हवन कुंड के हवाले की, पता नहीं पंडित जी ने मंत्र बोला भी या नहीं। अचानक विनय की निगाह पास ही उतारे अपनी सैंडल की ओर गयी जिसे आती-जाती महिलाएं बेरहमी से रौंद रही थीं। उसका मन अपनी सैंडल को बचाने के लिए मचल उठा। उसने जल्दी से आरती लिया दक्षिणा के 251रुपये दिए जिसे पंडित जी ने थोड़ा नाक-भौं सिकोड़कर रख लिया। पंडित जी ने दोनों को प्रसाद के रूप में उनके चढ़ाए पेड़ों और फल में से ही दो पेड़े और केले दिए शेष अपने झोले में पलट लिए। दोनो ने उन्हें प्रणाम किया और विदा ली। सहसा पंडित जी ने जैसे कुछ याद करते हुए कहा, ’बहू! सीधा(दान में दिया जाने वाला अनाज आदि) लाई हो?’ वसुधा ने हाँ में सर हिलाया और झोले से सीधा निकाल कर उनके हवाले कर दिया । पंडित जी पुनः बोले,’कन्या भोज अवश्य करा देना’। पास ही कन्याओं का पूरा झुंड था । जो बड़े प्रोफेसनल अंदाज में पूड़ी, हलवा, केला, पेड़ा, बताशा समेट रही थी । दक्षिणा के लिए तो टूटी पड़ रही थी बल्कि हाथ से छीन लेना चाह रही थी। इस काम मे कुछेक स्त्रियां जो संभवतः उनकी माएं रही होंगी, उनकी सहायता कर रही थी। इन्ही के बगल में ही एक मेज लगाकर चंदे की रसीद लिए कुछ युवक ‘जय माता दी’ वाला लाल अंगौछा डाले विराजमान थे । उन्होंने इनका रास्ता रोक लिया और पहले से ही छापे हुए 251 और 151 रुपये वाली रसीदें में से कोई भी अपनी श्रद्धा से खरीदने के लिए विवश करने लगे ताकि इस मंदिर का विस्तार कराया जा सके। इन सबसे पीछा छुड़ाकर दोनो ने अपने घर की ओर प्रस्थान किया । दोनो रास्ते भर यही सोचते रहे कि किस प्रकार इन लोगों ने भक्तों की आस्था को अपना धंधा बना लिया है। इनकी निगाह सिर्फ भक्तों की जेब पर ही रहती है वो उससे अधिक से अधिक वसूल लेना चाहते है। वो बहुत छुब्ध थे। घर पहुंचने पर बच्चों ने कहा ,’मम्मी कितनी देर लगा दी आप लोगों ने... बड़ी भूख लगी है’। वसुधा ने समय देखा सचमुच तीन घंटे बीत गए थे। विनय बोला ,’ छूट्टी मिला इस व्रत से’ अब कुछ खाने को मिलेगा?’ वसुधा ने किचेन की ओर जाते हुए उत्तर दिया,’अभी नही शाम को... चलूँ देखूँ बच्चों के लिए कोई इंतजाम करूँ’।

किचेन से खटपट की आवाज के साथ ही वसुधा की आवाज भी आ रही थी... ये पंडितों ने तो लूट का धंधा बना लिया है.... इससे बढिया हवन तो हम घर पर ही कर लेते ... पूरा ध्यान केवल दक्षिणा पर ही लगा था .... इतनी भीड़ में भी सीधा लेना याद था ... कह रही थी ... मुहल्ले की कन्याओं को घर बुलाकर खिला दें ... पर मेरी कोई सुने तब न.. अभी कलश हटाना है । थोडी तेज आवाज आयी, ‘सुनते है... इसे किसी नदी में सिरवाना होगा’ । विनय ने उद्विग्न मन से कहा ,’ठीक है... कल लेता जाऊंगा ।‘

समाप्त।।