ट्रेन लेट होगी Rajan Dwivedi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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ट्रेन लेट होगी

ट्रेन लेट होगी

प्लेटफॉर्म के एसी वोटिंग रूम में मैं अपनी पत्नी चारू और दो बच्चों मोही और प्रियम के साथ बैठा हूँ| रात के लगभग ११ बजे है| ट्रेन आने में अभी ढाई घंटे बाकी है| मुझे लग रहा है कि हम लोग बहुत जल्दी पहुँच गए हैं| पर कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था| मौसम प्रतिकूल है| मुझे प्रतीक्षा करना बहुत खल रहा है| ढाई घंटे ढाई बरस या फिर कई जन्म जैसे लग रहा है|

क्रिसमस की छुट्टियों में बच्चों ने बाहर घुमा लाने की जिद की| पत्नी ने भी दलील दी कि बच्चे पूरा साल तो इन्ही दो कमरों की कैद में गुजार देते है| इन्हें कोई खुला वातावरण मिलता ही नहीं| आज कल तो पार्क में भी भेजते डर लगता है| क्या करें माहौल ही ऐसा है| बच्चों के साथ अपराध इनदिनों कितना बढ़ गया है| मनोरंजन के नाम पर टीवी और कम्पूटर के अतिरिक्त और क्या है इनके पास? थोडा ठहर कर वह फिर कहने लगी कि उसे पता है की बाहर आना-जाना आसान नहीं है... सौ तरह के खर्चे होते हैं फिर मेरा ऑफिस भी तो है| छुट्टी कहाँ है मेरे पास| पर बच्चों का बड़ा मन है की वो कही घूमने जाएँ| प्रियम तो अभी छोटा है, वह डिमांडिंग नहीं है पर मोही कह रही थी कि उसकी कक्षा के अधिकतर बच्चे कहीं न कहीं जा रहे हैं| फिर उसने आग्रह भरे स्वर में कहा कि क्यों न कुछ दिन के लिए आप हमें माँ के पास छोड़ आयें... बच्चों का घूमना भी हो जायेगा और मुझे भी माँ के पास रहने का मौका मिल जायेगा| वैसे भी इन दिनों माँ की तबियत ठीक नहीं रहती, पापा का कितनी बार फ़ोन आया है कि आ के मिल जाओ... उनकी बात भी रह जाएगी|

मुझे भी उसकी बातें ठीक लगीं| एक सामान्य परिवार में बच्चों के घूमने के लिए ननिहाल से अच्छी जगह भला और कौन सी होती है? और अगर ननिहाल दिल्ली में हो तो कहना ही क्या| मुझे तो बस आने-जाने के टिकट की व्यस्था ही करनी थी बाकी लालकिला और कुतुबमीनार घुमाना सब तो नाना-नानी के मत्थे ही जाना था| मैं सहर्ष तैयार हो गया|

सबसे बड़ी समस्या टिकट की थी| दिल्ली का टिकट मिलना वैसे भी मुश्किल रहता है फिर यह तो छुट्टियों का समय था| सभी गाड़ियाँ खचाखच भरीं थीं| बड़ी कठिनाई से इस स्पेशल ट्रेन में कन्फर्म सीट मिली| ट्रेन के छूटने का समय रात में डेढ़ बजे का है और अधिक रात में स्टेशन की ओर आना रिस्की है इसीलिए हम लोग लगभग साढ़े दस बजे ही यहाँ पहुँच गए और तभी से प्रतीक्षारत हैं|

मौसम में ठंढ सुबह से ही थी पर रात में और भी बढ़ गयी है| वोटिंगरूम पुराने ढंग का निर्मित है परन्तु पर्याप्त बड़ा है| कमरे में भी काफी ठंढ है और गर्मी पहुँचाने की कोई व्यवस्था नहीं है| बार- बार आते-जाते लोग दरवाजा खुला छोड़ देते है जिससे कुहरा तेजी से अंदर घुस जाता है| मैंने चारों ओर निगाह घुमाई कमरे में चार स्प्लिट एसी लगे है पर वो शायद गर्मी में काम आते होंगे| थकान, नींद और ठंढ के कारण बच्चे परेशान हो रहे है| मोही ने पूँछा कि पापा हम लोग कितना इन्तजार करेंगे आखिर ट्रेन कब आएगी? मैंने आँख दिखाई तो वह खामोश होकर अपनी माँ से लिपट गयी| प्रियम भी ठिनठिना कर बाहर जाने की जिद करने लगा| मैंने समझाया कि बाहर बड़ी ठंढ है पर वह नहीं माना तो उसे लेकर बाहर आना ही पड़ा| अंदर की अपेक्षा बाहर भीड़ अधिक है| प्लेटफॉर्म पर घना कुहरा है| थोड़ी दूर देखना भी कठिन हो रहा है| चाय की भट्ठी से निकलने वाला धुवाँ भी ऊपर न जाकर वहीँ फैलता जा रहा है और कुहरे में साफ़ दिखाई दे रहा है| प्लेटफॉर्म पर बनने वाले समोसों, पूड़ी, सब्जी, और विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों की मिश्रित की गंध यहां फैली हुई है| मुझे चाय पीने की इच्छा होने लगी है पर हवा तेज चल रही है... प्रियम को ठंढ लग सकती है इसलिए मै फिर भीतर चला आया| चारू भी परेशान है| मैं उससे भी चाय के लिए पूछता हूँ पर वह मना कर देती है| चारू अक्सर किसी भी चीज के लिए मना कर देती है| उसे बाहर का बना सामान अच्छा ही नहीं लगता| मैं सोचता हूँ कि उसे इस सर्दी में कम से कम चाय के लिए मना नहीं करना चाहिए था| मैं प्रियम को गोद में लिए बैठ जाता हूँ|

कमरे में लगी चार-पांच टियुबलाइट्स से पर्याप्त प्रकाश नहीं है| यहाँ लगी बाबा-आदम के ज़माने की घड़ी टिक-टिक की आवाज से नीरवता को भंग कर रही है| मैं बरबस उस पुरानी घड़ी को देखने लगता हूँ| पर अधिक देर नहीं| घड़ी से हट कर मेरी निगाह दीवार पर टिक जाती है| दीवार पर लगा रंग पुराना पड़ गया है, थोड़ी सीलन भी उतर आई है जिससे उसमे कई आकृतियाँ सी उभर आई है| स्वयं को व्यस्त रखने के लिए मैं उनमे कुछ पहचानने की असफल कोशिश करने लगा पर जल्दी ही ऊब गया | अनाउंसमेंट की कुछ आवाज़ आ रही है जिसे मैने अनसुना कर दिया|

मैंने कमरे में चारों ओर नज़र दौड़ाई| हमारे आलावा लगभग दस-बारह लोग और हैं| दरवाजे के पास बैठा आदमी कुछ बीमार लग रहा है| उसने मंकीकैप पहनी है और मोटे ऊनी चादर में दुबका हुआ है| उसके साथ एक मोटी सी पर बेहद गोरी औरत भी है जो शायद उसकी पत्नी है| उसने भी शाल ओढ़ रखी है| मुझे लगा कि अपनी जवानी में वह काफी खूबसूरत दिखती रही होगी| कुछ लोग कुर्सी पर बैठे-बैठे सो रहे है| उनके बगल एक दूसरी औरत के गोद का बच्चा रोने लगा है वह उसे चुप कराने की कोशिश में है| पर बच्चे से अधिक तो वह खुद ही शोर मचा रही है| लगता है वह अकेली है| बच्चे को सीट पर लिटा कर अपने बैग से स्टील की थरमस में रखे दूध को बच्चे की दूध की बोतल में उड़ेल रही है| बच्चा और जोर-जोर से रोने लगा है| कमरे के सभी लोग उसे देखने लगे हैं| सोने वालों की नींद में व्यवधान उत्पन्न हुआ... पर सबकी नही| एक महाशय अभी भी खर्राटे मार रहे हैं| कोई युवा जोड़ा एक ही शाल में दुबका है| वो अस्पष्ट शब्दों में बात कर रहे है| चेहरे पर प्रसन्नता है| एक बुजुर्ग यूरिनल का दरवाजा खुला छोड़ आया है शायद... अचानक बदबू आने लगी है| यहाँ बैठना भी मुश्किल हो रहा है| बाहर से ट्रेन की सीटी और ख़ट-पट की आवाज लगातार आ रही है| कहीं मेरी ट्रेन तो नहीं, मैं घड़ी देखता हूँ| उसमे तो अभी भी बहुत टाइम है| झुंझलाहट होने लगी है प्रतीक्षा करते-करते| लगता है कि आज डेढ़ बजेंगे ही नहीं| उफ्फ.. अब प्रतीक्षा नहीं होती| मोही बैठे-बैठे सो रही है उसने अपना सर माँ के बाजू पर टिका रखा है| चारू भी ऊंघ रही है| मैं बाहर जाना चाहता हूँ पर प्रियम गोद में है... सो गया है| मुझे फिर चाय पीने का मन हो आया है| मै बच्चे को चारू के पास सीट पर लिटा कर बाहर निकल आया|

बाहर कोहरे के कारण किसी ट्रेन के देरी से चलने की सूचना लाउडस्पीकर पर प्रसारित हो रही है मैंने उस ट्रेन का नंबर सुनने की कोशिश की पर असफल रहा| मुझे लगा कि कहीं मेरी ट्रेन भी लेट न हो जाये| प्लेटफॉर्म पर अजीब सा शोरगुल है; रहता ही है| यहाँ बहुत ठंढ है| हवा कपड़ों के भीतर घुस कर हांड कंपा रही है| एक बूढा लगातार खांस रहा है| उसके पास पर्याप्त गरम कपडे भी नहीं है| देखता हूँ ऐसे बहुत से लोग है प्लेटफॉर्म पर| कुछ लोग चाय की भट्ठी के पास भी खिसक आये हैं, जिन्हें चायवाला भगा रहा है| ठंढ से मेरे हाथ जम रहे हैं इन्हें गर्म करने के लिए आपस में रगड़ता हूँ| मैं बरबस चाय के ठेले के पास चला आया... चाय बन रही है| भट्ठी से हाथ सेंकने की कोशिश करता हूँ| जल्दी ही चाय मिल जाती है| गर्म कुल्हड़ हाथ में लेने से राहत मिलती है| चाय की चुस्कियों के साथ ही देर तक कुल्हड़ से हाथ सेकने का प्रयास करता हूँ| ठेले पर चाय पीने वालों की अच्छी-खासी भीड़ जमा हो गयी है| कईयों ने मुफ्लर या कनटोप पहन रखा है पर मेरा सर नग्न है| कान सुन्न हुआ जाता है, नाक ठंढ से लाल हो गयी है| मै वापस मुड़ गया|

ट्रेन की खटर-पटर और सीटी तेज हो गयी है... कोई ट्रेन आ रही है| पटरियों पर बहुत धुंधला सा सिग्नल का लाल बिम्ब दिख रहा है| आनाउन्समेंट हो रहा है| कुली ट्रेन की ओर लपकने लगे| अपने-अपने कंबलो में दुबके लोग ट्रेन पकड़ने के लिए बाहर निकलने लगे| प्लेटफॉर्म पर अचानक हलचल बढ़ गयी| मैं वापस वेटिंगरूम में चला आया|

कुछ और लोग भी यहाँ आ गए है| भीड़ बढ़ने से कमरा पहले की अपेक्षा गर्म लग रहा है|

अचानक कमरे का दरवाजा खुला| आधुनिक परिधान में सुसज्जित एक आकर्षक युवती भीतर आने का प्रयास करती है| उसके बाएं कंधे पर एक बैग है और दाहिने हाथ से वह अपनी स्ट्रोली खींच रही है जो स्प्रिंग वाले दरवाजे में फंस गयी है| थोड़ी कोशिश के बाद वह पूरी तरह अंदर आ गयी| वह वाकई खूबसूरत है| ऊंचा कद, गोरा रंग, आँख में काजल, होंठ पर डार्क कलर की लिपस्टिक| बाल व्यवस्थित है पर एक लट गाल पर झूल रही है या शायद जान कर झुलाई गयी है| उसने फ्लोरल प्रिंट वाली लॉन्ग स्कर्ट और एक कुर्तीनुमा टॉप पहन रखा है और ऊपर से एक शाल लपेट रखी है जो भीतर आने की हडबडी में दायें कंधे से सरक कर हाथों में झूल गयी है| मैं उसकी ओर देखने लगा सोचता हूँ, उस मरीज के साथ वाली वह मोटी औरत इससे अधिक गोरी है| कल्पना करता हूँ कि अपनी जवानी के दिनों में वह इससे अधिक आकर्षक रही होगी| इस बीच उसने चारों ओर नजर घुमाई पर कोई सीट खाली नहीं दिखी| मै उसके सामान और परिधान को देख रहा हूँ| रात के साढ़े बारह बज रहे है और वह इस समय भी एकदम तरोताजा लग रही है जैसे अभी शावर लेके आ रही हो. मैं उसकी ओर देख ही रहा था कि वह बढ़कर मेरी ओर आई और मुस्कुरा कर बच्चे को गोद में उठा लेने का आग्रह किया ताकि वह बैठ सके| मैंने कोई प्रतिवाद किये बिना प्रियम को चारू की गोद में देकर उसके लिए सीट रिक्त कर दिया जिसमे वह आराम से समा गयी| उसके सेंट की तीखी खुशबू मेरी नाक में भर गई| बैठते ही उसने ट्रेन के बारे में दरयाफ्त की फिर जैसे खुद से कहा कि अभी तो एक घंटा है| मेरी उत्सुकता बढ़ गयी| मैंने उसके गंतव्य स्थल के बारे में पूछा मुझे जान कर अच्छा लगा की वह भी उसी ट्रेन से दिल्ली जाने वाली है जिससे हम जाने वाले है| मन में आया कि उसका कोच और सीट नम्बर भी पूछ लूँ पर चुप रह गया| जब उसने जाना कि हम भी दिल्ली जा रहे हैं तो उसने ख़ुशी जाहिर की| उसने बताया कि वह पहली बार वहां जा रही है पूरे एक सप्ताह के लिए| वह बहुत बातूनी लगी| बातों-बातों में उसने बताया की वह यहाँ एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती है और किसी प्रशिक्षण के लिए दिल्ली जा रही है| उसकी आवाज खनकदार है| मुझे लगा कि उसके आने से माहौल में ताजगी आ गयी है... ऊब मिट गयी है| वह मुझे पत्नी और बच्चों के साथ देखकर आश्वस्त दिखी| उसने कहा कि वह दिल्ली में किसी को नहीं जानती और मुझे दिल्ली में मिलने और साथ में भ्रमण का निमंत्रण दिया| पर मै तो पत्नी-बच्चों को छोड़कर वापस लौटने वाला हूँ| सोचने लगा कि मुझे कुछ दिन वहां रुकना चाहिए| पर कैसे? मै सोच में पड़ गया कि यदि मै हफ्ते भर की चिकित्सा अवकाश ले लूं तो कैसा रहेगा? मेरी नज़र उसके हाथों पर पड़ी, देखा कि दाहिने हाथ में कोई बढ़िया स्मार्टफोन है और उसके बाएं हाथ की कलाई में एक महंगी और खूबसूरत घड़ी है इस हाथ के नाखून भी लम्बे है जिनपर उसने दो रंगों की डिज़ाइन वाली नेलपेंट लगायी है| मन में आया कि उसके चेहरे को गौर से देखूं कि उसकी लिपस्टिक भी नेलपेंट से मैचिंग है या नहीं? पर यह अशिष्टता होती| उसके पैरों को देखना चाहा पर वह सीट के नीचे मुड़े हुए हैं| तभी बाहर ट्रेन की सीटी सुनाई पड़ती है| वह अपनी घड़ी देखते हुए कहती है, ‘कहीं यह अपनी ट्रेन तो नहीं’? मै सोचता हूँ कि काश ऐसा न हो| मन ही मन स्वयं से कहता हूँ, नहीं ऐसा नहीं हो सकता... कोहरा घना है ट्रेन जरूर लेट होगी|

समाप्त

राजन द्विवेदी