चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 36 Jayshankar Prasad द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 36

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as Matrubharti.

Matrubharti has exclusive digital publishing rights of this book.

Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.

Matrubharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.


(सिन्धु-तट पर्णकुटीर। चाणक्य और कात्यायन)

चाणक्यः कात्यायन, सो नहीं हो सकता! मैं अब मंत्रित्व नहींग्रहण करने का। तुम यदि किसी प्रकार मेरा रहस्य खोल दोगे, तो मगधका अनिष्ट ही करोगे।

कात्यायनः तब मैं क्या करूँ? चाणक्य, मुझे तो अब इस राज-काज में पड़ना अच्छा नहीं लगता।

चाणक्यः जब तक गांधारा का उपद्रव है, तब तक तुम्हें बाध्यहोकर करना पड़ेगा। बताओ, नया समाचार क्या है?

कात्यायनः राक्षस सिल्यूकस की कन्या को पढ़ाने के लिये वहींरहता है और यह सारा कुचक्र उसी का है! वह इन दिनों वाल्हीक कीओर गया है। मैं अपना वार्तिक पूरा कर चुका, इसीलिए मगध सेअवकाश लेकर आया था। चाणक्य, अब मैं मगध जाना चाहता हूँ। यवनशिविर में अब मेरा जाना असम्भव है।

चाणक्यः जितना शीघ्र हो सके, मगध पहुँचो। मैं सिंहरण कोठीक रखता हूँ। तुम चन्द्रगुप्त को भेजो। सावधान, उसे न मालूम हो किमैं यहाँ हूँ! अवसर पर मैं स्वयं उपस्थित हो जाऊँगा। देखो, शकटार औरतुम्हारे भरोसे मगध रहा है! कात्यायन, यदि सुवासिनी को भेजते तो कार्यमें आशातीत सफलता होती। समझे?

कात्यायनः (हँसकर) यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई कि तुम...सुवासिनी अच्छा... विष्णुगुप्त! गार्हस्थ्य जीवन कितना सुन्दर है!

चाणक्यः मूर्ख हो, अब हम-तुम साथ ही ब्याह करेंगे।

कात्यायनः मैं? मुझे नहीं... मरी गृहिणी तो है।

चाणक्यः (हँसकर) एक ब्याह और सही। अच्छा बताओ, कामकहाँ तक हुआ?

कात्यायनः (पत्र देता हुआ) हाँ, यह लो, यवन शिविर का विवरणहै। परन्तु, विष्णुगुप्त, एक बात कहे बिना न रह सकूँगा। यह यवन-बालासिर से पैर तक आर्य संस्कृति में पगी है। उसका अनिष्ट?

चाणक्यः (हँसकर) कात्यायन, तुम सच्चे ब्राह्मण हो! यह करुणाऔर सौहार्द का उद्रेक ऐसे ही हृदयों में होता है। परन्तु मैं निष्ठुर!हृदयहीन! मुझे तो केवल अपने हाथों खड़ा किये हुए एक साम्राज्य कादृश्य देख लेना है।

कात्यायनः फिर भी चाणक्य, उसका सरस मुख-मण्डल! उसलक्ष्मी का अमंगल!

चाणक्यः (हँसकर) तुम पागल तो नहीं हो गये हो?

कात्यायनः तुम हँसो मत चाणक्य! तुम्हारा हँसना तुम्हारे क्रोध सेभी भयानक है। प्रतिज्ञा करो कि उसका अनिष्ट न करूँगा। बोलो।

चाणक्यः कात्यायन! अलक्षेन्द्र कितने विकट परिश्रम से भारतवर्षके बाहर किया गया - यह तुम भूल गये? अभी है कितने दिनों कीबात। अब इस सिल्यूकस को क्या हुआ जो चला आया! तुम नहीं जानतेकात्यायन, इसी सिल्यूकस ने चन्द्रगुप्त की रक्षा की थी, नियति अब उन्हींदोनों को एक-दूसरे के विपक्ष में खड्‌ग खींचे हुए खड़ा कर रही है!

कात्यायनः कैसे आश्चर्य की बात है!

चाणक्यः परन्तु इससे क्या? वह तो होकर रहेगा, जिसे मैंने स्थिरकर लिया है! वर्तमान भारत की नियति मेरे हृद पर जलद-पटल मेंबिजली के समान नाच उठती है! फिर मैं क्या करूँ?

कात्यायनः तुम निष्ठुर हो।

चाणक्यः अच्छा, तुम सदय होकर एक बात कर सकोगे? बोलो!चन्द्रगुप्त और उस यवन-बाला के परिणय में आचार्य बनोगे?

कात्यायनः क्या कह रहे हो? यह हँसी!

चाणक्यः यही तै तुम्हारी दया की परीक्षा - देखूँ तुम क्या करतेहो! क्या इसमें यवन-बाला का अमंगल है?

कात्यायनः (सोचकर) मंगल है, मैं प्रस्तूत हूँ।

चाणक्यः (हँसकर) तब तुम निश्चय ही एक सहृदय व्यक्ति हो।

कात्यायनः अच्छा तो मैं जाता हूँ।

चाणक्यः हाँ जाओ। स्मरम रखना, हम लोगों के जीवन में यहअन्तिम संघर्ष है। मुझे आज आम्भीक से मिलना है। यह लोलुप राजा,देखूँ, क्या करता है।

(कात्यायन का प्रस्थान - चर का प्रवेश)

चरः महामात्य की जय हो!

चाणक्यः इस समय जय की बड़ी आवश्यकता है। आम्भीक कोयदि जय कर सका, तो सर्वत्र जय है। बोलो, आम्भीक ने क्या कहा?

चरः वे स्वयं आ रहे हैं।

चाणक्यः आने दो, तुम जाओ।

(चर का प्रस्थान, आम्भीक का प्रवेश)

आम्भीकः प्रणाम, ब्राह्मण देवता!

चाणक्यः कल्याण हो। राजन्‌, तुम्हें भय तो नहीं लगता? में एकदुर्नाम मनुष्य हूँ!

आम्भीकः नहीं आर्य, आप कैसी बात कहते हैं!

चाणक्यः तो ठीक है, इसी तक्षशिला के मठ में एक दिन मैंनेकहा था - ‘सो कैसे होगा अविश्वासी क्षत्रिय! तभी तो म्लेच्छ लोगसाम्राज्य बना रहे हैं और आर्य-जाति पतन के कगार पर खड़ी एक धक्केकी राह देख रही है!’

आम्भीकः स्मरण है।

चाणक्यः तुम्हारी भूल ने कितना कुत्सित दृश्य दिखाया - इसेभी सम्भवतः तुम न भूले होगे।

आम्भीकः नहीं।

चाणक्यः तुम जानते हो कि चन्द्रगुप्त ने दक्षिणापथ के स्वर्णगिरिसे पंचनद तक, सौराष्ट्र से बंग तक एक महान्‌ साम्राज्य स्थापित कियाहै। यह साम्राज्य मगध का नहीं है, यह आर्य साम्राज्य है। उपरापथ केसब प्रमुख गणतंत्र मालव, क्षुद्रक और यौधेय आदि सिंहरण के नेतृत्व मेंइस साम्राज्य के अंग हैं। केवल तुम्हीं इससे अलग हो। इस द्वितीय यवन-आक्रमण से तुम भारत के द्वार की रक्षा कर लोगे, या पहले ही के समानउत्कोच लेकर, द्वार खोलकर, सब झंझटों से अलग हो जाना चाहते हो?

आम्भीकः आर्य, वही त्रुटि बार-बार न होगी।

चाणक्यः तब साम्राज्य झेलम-तट की रक्षा करेगा। सिन्धु घाटीका भार तुम्हारे ऊपर रहा।

आम्भीकः अकेले मैं यवनों का आक्रमण रोकने में असमर्थ हूँ।

चाणक्यः फिर उपाय क्या है?

(नेपथ्य से जयघोष। आम्भीक चकित होकर देखने लगता है।)

चाणक्यः क्या है, सुन रहे हो?

आम्भीकः समझ में नहीं आया। (नेपथ्य की ओर देखकर) वहएक स्त्री आगे-आगे कुछ गाती हुई आ रही है और उसके साथ बड़ी-सी भीड़ (कोलाहल समीप होता है।)

चाणक्यः आओ हम लोग हट कर देखएं (दोनों अलग छिप जातेहैं।)

(आर्य-पताका लिये अलका का गाते हुए, भीड़ के साथ प्रवेश)

अलकाः तक्षशिला के वीर नागरिको! एक बार, अभी-अभीसम्राट्‌ चन्द्रगुप्त ने इसका उद्धार किया था, आर्यावर्त-प्यारा देश-ग्रीकों कीविजय-लालसा से पुनः पद-दलित होने जा रहा है। तब तुम्हारा शासकतटस्थ रहने का ढोंग करके पुण्यभूमि को परतंत्रता की श्रृंखला पहनाने कादृश्य राजमहल के झरोखों से देखेगा। तुम्हारा राजा कायर है, और तुम?

नागरिकः हम लोग उसका परिणाम देख चुके हैं माँ! हम लोगप्रस्तुत हैं।

अलकाः यही तो - (समवेत स्वर से गायन)

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से

प्रबुद्ध शुद्ध भारती-

स्वयं प्रथा समुज्ज्वला

स्वतन्त्रता पुकारती-

अमर्त्य वीरपुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञा सोच लो,

प्रशस्त पुण्य पंथ है - बढ़े चलो बढ़े चलो।

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ,

विकीर्ण दिव्य दाह-सी।

सपूत मातृभूमि के-

रुको न शूर साहसी!

अराति सैन्य सिन्धू में-सुवाडवाग्नि-से जलो,

प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो।

(सब का प्रस्थान)

आम्भीकः यह अलका है। तक्षशिला में उपेजना फैलाती हुई -यह अलका!

चाणक्यः हाँ आम्भीक! तुम उसे बन्दी बनाओ, मुँह बन्द करो।

आम्भीकः (कुछ सोचकर) असम्भव! मैं भी साम्राज्य मेंसम्मिलित होऊँगा।

चाणक्यः यह मैं कैसे कहूँ? मेरी लक्ष्मी-अलका ने आर्यगौरव केलिए क्या-क्या कष्ट नहीं उठाये। वह भी तो इसी वंश की बालिका है।फिर तुम तो पुरुष हो, तुम्हीं सोचकर देखो।आम्भीकः व्यर्थ का अभिमान अब मुझे देश के कल्याण में बाधकन सिद्ध कर सकेगा। आर्य चाणक्य, मैं आर्य-साम्राज्य के बाहर नहीं हूँ।

चाणक्यः तब तक्षशिला-दुर्ग पर मगध-सेना अधिकार करेगी। यहतुम सहन करोगे?

(आम्भीक सिर निचा करके विचारता है।)

चाणक्यः क्षत्रिय! कह देना और बात है, करना और।

आम्भीकः (आवेश में) हार चुका ही हूँ, पराधीन हो ही चुकाहूँ। अब स्वदेश के अधीन होने में उससे अधिक कलंक तो मुझे लगेगानहीं, आर्य चाणक्य!

चाणक्यः तो इस गांधार और पंचनद का शासन - सूत्र होगाअलका के हाथ में और तक्षशिला होगी उसकी राजधानी, बोलो, स्वीकारहै?

आम्भीकः अलका?

चाणक्यः हाँ, अलका। और सिंहर इस महाप्रदेश के शासक होंगे।

आम्भीकः सब स्वीकार है, ब्राह्मण! मैं केवल एक बार यवनोंके सम्मुख अपना कलंक धोने का अवसर चाहता हूँ। रम-क्षेत्र में एकसैनिक होना चाहता हूँ। और कुछ नहीं।

चाणक्यः तुम्हारा अभीष्ट पूर्ण हो!

(संकेत करता है - सिंहरण और अलका का प्रवेश)

अलकाः भाई! आम्भीक!

आम्भीकः बहन! अलका! तू छोटी है, पर मेरी श्रद्धा का आधारहै। मैं भूल करता था बहन! तक्षशिला के लिए अलका पर्याप्त है,आम्भीक की आवश्यकता न थी!

अलकाः भाई, क्या कहते हो!

आम्भीकः मैं देशद्रोही हूँ। नीच हूँ। अधम हूँ। तून गांधार केराजवंश का मुख उज्ज्वल किया है। राज्यासन के योग्य तू ही है।

अलकाः भाई! अब भी तुम्हारा भ्रम नहीं गया! राज्य किसी कानहीं है, सुशासन का है! जन्मभूमि के भक्तों में आज जागरण है। देखतेनहीं, प्राच्य में सूर्योदय हुआ है! स्वयं सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त तक इस महानआर्य-साम्राज्य के सेवक हैं। स्वतंत्रता के युद्ध में सैनिक और सेनापति काभेद नहीं। जिसकी खड्‌ग-प्रभा में विजय का आलोक चमकेगा, वहीवरेण्य है। उसी की पूजा होगी। भाई! तक्षशिला मेरी नहीं और तुम्हारीभी नहीं, तक्षशिला आर्यावर्त का एक भू-भाग है, वह आर्यावर्त की होकरही रहे, इसके लिए मर मिटो। फिर उसके कणों में तुम्हारा ही नाम अंकितहोगा। मेरे पिता स्वर्ग में इन्द्र से प्रतिस्पर्धा करेंगे। वहाँ की अप्सराएँविजयमाला लेकर खड़ी होंगी, सूर्यमण्डल मार्ग बनेगा और उज्ज्वलआलोक से मण्डित होकर गांधार राजकुल अमर हो जायगा!

चाणक्यः साधु! अलके, साधु!

आम्भीकः (खड्‌ग खींचकर) खड्‌ग की शपथ - मैं कर्तव्य सेच्युत न होऊँगा!

सिंहरणः (उसे आलिंगन करके) मित्र आम्भीक! मनुष्य साधारण

धर्मा पशु है, विचारशील होने से मनुष्य होता है और निःस्वार्थ कर्म करनेसे वही देवता भी हो सकता है।

(आम्भीक का प्रस्थान)

सिंहरणः अलका, सम्राट्‌ किस मानसिक वेदना में दिन बितातेहोंगे?

अलकाः वे वीर हैं मालव, उन्हें विश्वास है कि मेरा कुछ कार्यहै, उसकी साधना के लिए प्रकृति, अदृष्ट, दैव या ईश्वर, कुछ-न-कुछअवलम्बन जुटा ही देगा! सहायक चाहे आर्य चाणक्य हों या मालव!

सिंहरणः अलका, उस प्रचण्ड पराक्रम को मैं जानता हूँ। परन्तुमैं यह भी जानता हूँ कि सम्राट्‌ मनुष्य हैं। अपने से बार-बार सहायताकरने के लिए कहने में, मानव-स्वभाव विद्रोह करने लगता है। यह सौहार्दऔर विश्वास का सुन्दर अभिमान है। उस समय मन चाहे अभिनय करताहो संघर्ष से बचने का, किन्तु जीवन अपना संग्राम अन्ध होकर लड़ताहै। कहता है - अपने को बचाऊँगा नहीं, जो मेरे मित्र हों, आवें औरअपना प्रमाण दें।

(दोनों का प्रस्थान)

(सुवासिनी का प्रवेश)

चाणक्यः सुवासिनी, तुम यहाँ कैसे?

सुवासिनीः सम्राट्‌ को अभी तक आपका पता नहीं, पिताजी नेइसीलिए मुझे भेजा है। उन्हों ने कहा - जिस खेल को आरम्भ कियाहै, उसका पूर्ण और सफल अन्त करना चाहिए।

चाणक्यः क्यों करें सुवासिनी, तुम राक्षस के साथ सुखी जीवनबिताओगी, यदि इतनी भी मुझे आशा होती... वह तो यवन-सेनानी है, औरतुम मगध की मन्त्रि-कन्या! क्या उससे परिणय कर सकोगी?

सुवासिनीः (निःश्वास लेकर) राक्षस से! नहीं, असम्भव! चाणक्यतुम इतने निर्दय हो!

चाणक्यः (हँसकर) सुवासिनी! वह स्वप्न टूट गया - इस विजनबालुका-सिन्धु मं एक सुधा की लहर दौड़ पड़ी थी, किन्तु तुम्हारे एकभू-भंग ने उसे लौटा दिया! मैं कंगाल हूँ (ठहरकर) सुवासिनी! मैं तुम्हेंदण्ड दूँगा। चाणक्य की नीति में अपराधों के दण्ड से कोई मुक्त नहीं।

सुवासिनीः क्षमा करो विष्णुगुप्त।

चाणक्यः असम्भव है। तुम्हें राक्षस से ब्याह करना ही होगा, इसीमें हमारा-तुम्हारा और मगध का कल्याण है।

सुवासिनीः निष्ठुर! निर्दय!!

चाणक्यः (हँसकर) तुम्हें अभिनय भी करना पड़ेगा। उसमें समस्तसञ्चित कौशल का प्रदर्शन करना होगा। सुवासिनी, तुम्हें बन्दिनी बन करग्रीक-शिविर में राक्षस और राजकुमारी के पास पहुँचना होगा - राक्षसको देशभक्त बनाने के लिए और राजकुामरी की पूर्वस्मृति में आहुति देनेके लिए। कार्नेलिया चन्द्रगुप्त से परिणीता होकर सुखी हो सकेगी कि नहीं,इनकी परीक्षा करनी होगी।

(सुवासिनी सिर पकड़ कर बैठ जाती है।)

चाणक्यः (उसके सिर पर हाथ रखकर) सुवासिनी! तुम्हारा प्रणय,स्त्री और पुरुष के रूप में केवल राक्षस से अंकुरित हुआ, और शैशवका वह सब, केवल हृदय की स्निग्धता थी। आज किसी कारण से राक्षसका प्रणय द्वेष में बदल रहा है, परन्तु काल पाकर वह अंकुर हरा-भराऔर सफल हो सकता है! चाणक्य यह नहीं मानता कि कुछ असम्भवहै। तुम राक्षस से प्रेम करके सुखी हो सकती हो, क्रमशः उस प्रेम कासच्चा विकास हो सकता है। और मैं, अभ्यास करके तुमसे उदासीन होसकता हूँ, यही मेरे लिए अच्छा होगा। मानवहृदय में यह भाव-सृष्टि तोहुआ ही करती है। यही हृदय का रहस्य है, तब हम लोग जिस सृष्टिमें स्वतंत्र हों, समें परवशता क्यों मानें? मैं क्रूर हूँ, केवल वर्तमान केलिए, भविष्य के सुख और शान्ति के लिए, परिणाम के लिए नहीं। श्रेयके लिए, मनुष्य को सब त्याग करना चाहिए, सुवासिनी! जाओ!

सुवासिनीः (दीनता से चाणक्य का मुँह देखती है।) तो विष्णुगुप्त,तुम इतना बड़ा त्याग करोगे। अपने हाथों बनाया हुआ, इतने बड़े साम्राज्यका शासन हृदय की आकांक्षा के साथ अपने प्रतिद्वन्द्वी को सौंप दोगे! औरसो भी मेरे लिए!

चाणक्यः (घबड़ाकर) मैं बड़ा विलम्ब कर रहा हूँ। सुवासिनी,आर्य दाण्ड्यायन के आश्रम में पहुँचने के लिए मैं पथ भूल गया हूँ।मेघ के समान मुक्त वर्षा-सा जीवन-दान, सूर्य के समान अबाध आलोकविकीर्ण करना, सागर के समान कामना, नदियों को पचाते हुए सीमा केबाहर न जाना, यही तो ब्राह्मण का आदर्श है। मुझे चन्द्रगुप्त को मेघमुक्तचन्द्र देख कर, इस रंग-मंच से हट जाना है।

सुवासिनीः महापुरुष! मैं नमस्कार करती हूँ। विष्णुगुप्त, तुम्हारीबहन तुमसे आशीर्वाद की भिखारिन है। (चरण पकड़ती है।)

चाणक्यः सुखी रहो। (सजल नेत्र से उसके सिर पर हाथ फेरतेहुए)

(प्रस्थान)