चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 35 Jayshankar Prasad द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 35

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(प्रभात-राज-मन्दिर का एक प्रान्त)

चन्द्रगुप्तः (अकेले टहलता हुआ) चतुर सेवक के समान संसारको जगा कर अन्धकार हट गया। रजनी की निस्तब्धता काकली से चंचलहो उठी है। नीला आकाश स्वच्छ होने लगा है, या निद्रा-क्लान्त निशा,उषा की शुभ्र चादर ओढ़ कर नींद की गोद में लेटने चली है। यहजागरण का अवसर है। जागरण का अर्थ है कर्मक्षेत्र में अवतीर्ण होना।और कर्मक्षेत्र क्या है? जीवन-संग्राम! किन्तु भीषण संघर्ष करके भी मैंकुछ नहीं हूँ। मेरी सपा एक कठपुतली सी है। तो फिर... मेरे पिता,मेरी माता, इनका तो सम्मान आवश्यक था। वे चले गये, मैं देखता हूँकि नागरिक तो क्या, मेरे आत्मीय भी आनन्द मनाने से वंचित किये गये।यह परतंत्रता कब तक चलेगी? प्रतिहारी!

प्रतिहारीः (प्रवेश करके) जय हो देव!

चन्द्रगुप्तः आर्य चाणक्य को शीघ्र लिवा लाओ!

(प्रतिहारी का प्रस्थान)

चन्द्रगुप्तः (टहलते हुए) प्रतिकार आवश्यक है।

(चाणक्य का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः आर्य, प्रणाम।

चाणक्यः कल्याण हो आयुष्मन, आज तुम्हारा प्रणाम भारी-सा है!

चन्द्रगुप्तः मैं कुछ पूछना चाहता हूँ।

चाणक्यः यह तो मैं पहले ही से समझता था! तो तुम अपनेस्वागत के लिए लड़कों के सदृश्य रूठे हो?

चन्द्रगुप्तः नहीं आर्य, मेरे माता-पिता - मैं जानता हूँ कि उन्हेंकिसने निर्वासित किया?

चाणक्यः जान जाओगे तो उसका वध करोगे! क्यों?

(हँसता है।)

चन्द्रगुप्तः हँसिए मत! गुरुदेव! आपकी मर्यादा रखनी चाहिए,यह मैं जानता हूँ। परन्तु वे मेरे माता-पिता थे, यह आपको भी जाननाचाहिए।

चाणक्यः तभी तो मैंने उन्हें उपयुक्त अवसर दिया। अब उन्हेंआवश्यकता थी शान्ति की, उन्होंने वानप्रस्थाश्रम ग्रहण किया है। इसमें खेदकरने की कौन बात है?

चाणक्यः यह अक्षुण्ण अधिकार आप कैसे भोग रहे हैं? केवलसाम्राज्य का ही नहीं, देखता हूँ, आप मेरे कुटुम्ब का भी नियंत्रण अपनेहाथों में रखना चाहते हैं।

चाणक्यः चन्द्रगुप्त! मैं ब्राह्मण हूँ! मेरा साम्राज्य करुणा का था,मेरा धर्म प्रेम का था। आनन्द-समुद्र में शान्ति-द्वीप का अधिवासी ब्राह्मणमैं, चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र मेरे दीप थे, अनन्त आकाश वितान था, शस्यश्यामलाकोमला विश्वम्भरा मेरी शय्या थी। बौद्धिक विनोद कर्म था, सन्तोष धनथा। उस अपनी, ब्राह्मण की, जन्म-भूमि को छोड़कर कहाँ आ गया!

सौहार्द के स्थान पर कुचक्र, फूलों के प्रतिनिधि काँटे, प्रेम के स्थान मेंभय। ज्ञानामृत के परिवर्तन में कुमंत्रणा। पतन और कहाँ तक हो सकताहै! ले लो मौर्य चन्द्रगुप्त! अपना अधिकार, छीन लो। यह मेरा पुनर्जन्महोगा। मेरा जीवन राजनीतिक कुचक्रों से कुत्सित और कलंकित हो उठाहै। किसी छायाचित्र, किसी काल्पनिक महत्व के पीछे भ्रमपूर्ण अनुसंधानकरता दौड़ रहा हूँ! शान्ति खो गयी, स्वरूप विस्मृत हो गया? जान गया,मैं कहाँ और कितने नीचे हूँ।

(प्रस्थान)

चन्द्रगुप्तः जाने दो। (दीर्घ निश्वास लेकर) तो क्या मैं असमर्थहूँ? ऊँह, सब हो जायगा।

सिंहरणः (प्रवेश करके) सम्राट्‌ की जय हो! कुछ विद्रोही औरषड्‌यन्त्रकारी पकड़े गये हैं। एक बड़ी दुखद घटना भी हो गयी है!

चन्द्रगुप्तः (चौंककर) क्या?

सिंहरणः मालविका की हत्या... (गद्‌गद्‌ कंठ से) आपकापरिच्छद पहन कर वह आप ही की शय्या पर लेटी थी।

चन्द्रगुप्तः तो क्या, उसने इसीलिए मेरे शयन का प्रबन्ध दूसरेप्रकोष्ठ में किया! आह! मालविका!

सिंहरणः आर्य चाणक्य की सूचना पाकर नायक पूरे गुल्म केसाथ राज-मन्दिर की रक्षा के लिए प्रस्तुत था। एक छोटा-सा युद्ध होकरवे हत्यारे पकड़े गये। परन्तु उनका नेता राक्षस निकल भागा ।

चन्द्रगुप्तः क्या! राक्षस उनका नेता था?

सिंहरणः हाँ सम्राट्‌! गुरुदेव बुलाये जायँ!

चन्द्रगुप्तः वही तो नहीं हो सकता, वे चले गये। कदाचित्‌ नलौटेंगे।

सिंहरणः ऐसा क्यों? क्या आपने कुछ कह दिया?

चन्द्रगुप्तः हाँ सिंहरण! मैंने अपने माता-पिता के चले जाने काकारण पूछा था।

सिंहरणः (निःश्वास लेकर) तो नियति कुछ अदृष्ट का सृजन कररही है! सम्राट्‌, मैं गुरुदेव को खोजने जाता हूँ!

चन्द्रगुप्तः (विरक्ति से) जाओ, ठीक है - अधिक हर्ष, अधिकउन्नति के बाद ही तो अधिक दुःख और पतन की बारी आती है!

(सिंहरण का प्रस्थान)

चन्द्रगुप्तः पिता गये, माता गयी, गुरुदेव गये, कन्धे-से-कन्धाभिड़ाकर प्राण देने वाला चिर-सहचर सिंहरण गया! तो भी चन्द्रगुप्त कोरहना पड़ेगा, और रहेगा, परन्तु मालविका! आह, वह स्वर्गीय कुसुम!

(चिन्तित भाव से प्रस्थान)