परम भागवत प्रह्लाद जी

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भारतवर्ष के ही नहीं, सारे संसार के इतिहास में सबसे अधिक प्रसिद्ध एवं सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वंश यदि कोई माना जा सकता है, तो वह हमारे चरित्रनायक परमभागवत दैत्यर्षि प्रहलाद का ही वंश है। सृष्टि के आदि से आजतक न जाने कितने वंशों का विस्तार पुराणों और इतिहासों में वर्णित है किन्तु जिस वंश में हमारे चरित्रनायक का आविर्भाव हुआ है, उसकी कुछ और ही बात है। इस वंश के समान महत्त्व रखने वाला अब तक कोई दूसरा वंश नहीं हुआ और विश्वास है कि भविष्य में भी ऐसा कोई वंश कदाचित् न हो। जिस वंश के मूलपुरुष नारायण के नाभि-कमल से उत्पन्न जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी के पौत्र और महर्षि' मरीचि' के सुपुत्र स्थावर-जंगम सभी प्रकार की सृष्टियों के जन्मदाता ऋषिराज 'कश्यप' हों, उस वंश के महत्त्व की तुलना करनेवाला संसार में कौन वंश हो सकता है? क्या ऐसे प्रशंसित वंश के परिचय की भी आवश्यकता है? फिर भी आज हम इस वंश का परिचय देने के लिये जो प्रयत्न करते हैं, क्या यह अनावश्यक अथवा व्यर्थ है ? नहीं इस वंश का परिचय देना परम आवश्यक और उपादेय है।

Full Novel

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परम भागवत प्रह्लाद जी - वंश परिचय

भारतवर्ष के ही नहीं, सारे संसार के इतिहास में सबसे अधिक प्रसिद्ध एवं सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वंश यदि कोई जा सकता है, तो वह हमारे चरित्रनायक परमभागवत दैत्यर्षि प्रहलाद का ही वंश है। सृष्टि के आदि से आजतक न जाने कितने वंशों का विस्तार पुराणों और इतिहासों में वर्णित है किन्तु जिस वंश में हमारे चरित्रनायक का आविर्भाव हुआ है, उसकी कुछ और ही बात है। इस वंश के समान महत्त्व रखने वाला अब तक कोई दूसरा वंश नहीं हुआ और विश्वास है कि भविष्य में भी ऐसा कोई वंश कदाचित् न हो। जिस वंश के मूलपुरुष नारायण के ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लादजी -भाग2 - आविर्भाव का समय

स्वजनवचनपुष्टयै निर्जराणां सुतुष्टयैदितितनयविरुष्टयै दाससङ्कष्टमुष्टयै।झटिति नृहरिवेषं स्तम्भमालम्ब्य भेजेस भवतु जगदीशः श्रीनिवासो मुदे नः॥संसार के विशेषकर भारतवर्ष के गौरवस्वरूप, धार्मिक जगत् सबसे बड़े आदर्श और आस्तिक आकाश के षोडशकलापूर्ण चन्द्रमा के समान, हमारे नायक प्रह्लाद को कौन नहीं जानता ?जिनके चरित्र को पढ़कर सांसारिक बन्धन से मुक्ति पाना एक सरल काम प्रतीत होने लगता है, कराल काल की महिमा एक तुच्छ-सी वस्तु प्रतीत होने लगती है और दृढ़ता एवं निश्चयात्मिका बुद्धि का प्रकाश स्पष्ट दिखलायी ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लादजी -भाग3 - पूर्वजन्म की कथा

[ पूर्वजन्म की कथा ]सृष्टि के आरम्भकाल की कथा है कि, ब्रह्माजी के मानसपुत्र योगिराज सनक आदि चारों भाई, समय भगवद्भक्ति के समुद्र में गोते लगाते हुए तीनों लोक और चौदहों भुवन में भ्रमण करते हुए, आनन्दकन्द भगवान् लक्ष्मीनारायण की लीलामय अपार शोभासमन्विता ‘वैकुण्ठपुरी' में जा पहुँचे। यद्यपि वैकुण्ठपुरी की शोभा और सुषमा का वर्णन पुराणों और पाञ्चरात्र ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है, तथापि उसकी शोभा एवं सुषमा वर्णनातीत है। उसकी न तो तुलना हो सकती है और न उसके अलौकिक विषयों का वर्णन लौकिक शब्दों में किया ही जा सकता है। अतः वैकुण्ठपुरी की शोभा एवं ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लादजी -भाग4 - हिरण्यकशिपु का वृत्तान्त

[गर्भ और जन्म]जिस समय महर्षि कश्यप की अदिति आदि अन्यान्य सभी धर्मपत्नियों में आदित्य आदि देवताओं की उत्पत्ति हो थी और उनके प्रताप से सारा जगत् उनका ही अनुचर हो रहा था, उस समय जैसा कि हम पहले कह आये हैं चाक्षुष नामक छठवाँ मन्वन्तर था और उसके अन्तर्गत था सत्ययुग। भगवद इच्छा बड़ी प्रबल है। युग और मन्वन्तर उसके अनुचर हैं। इसलिये सत्ययुग में और महर्षि कश्यप-जैसे परम तपस्वी महर्षि के आश्रम में भी सत्ययुग के अनुरूप नहीं, कलियुग के अनुरूप घटना घट गयी। भगवान् के पार्षदों को 'जय' और 'विजय' को— ब्रह्मशाप हो चुका था और वे ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लादजी -भाग5 - भ्रातृ वध

जिस समय सारे जगत् में तीनों लोक और चौदहों भुवन में देवताओं की तूती बोल रही थी, देवराज इन्द्र आधिपत्य व्याप्त था और असुरों का आश्रयदाता कोई नहीं था उसी समय भगवान् की माया की प्रेरणा से देवराज इन्द्र को अभिमान हुआ और उनका विवेक और उनकी बुद्धि अभिमान के वशीभूत होकर अविवेकिनी बन बैठी। जिस हृदय में अभिमान का आवेश हो जाता है, उस हृदय में शील टिक नहीं सकता और जिस हृदय में शील नहीं होता, उसको सत्य, धर्म, लक्ष्मी आदि सद्गुण-पूर्ण समस्त ऐश्वर्य परित्याग कर देते हैं। इसी कारण से अभिमानी देवराज इन्द्र को राज-लक्ष्मी उनके ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लादजी -भाग6 - भ्रातृ-वध से व्याकुलता

[तपोभूमि की यात्रा]जब से हिरण्याक्ष को वाराह भगवान् ने मारा, तब से हिरण्यकश्यपु का चित्त कभी शान्त नहीं रहा। वह राजकाज करता था, खाता-पीता था और यथा-शक्ति सभी कार्य करता था, तथापि चिन्तितभाव से,निश्चिन्त होकर नहीं। उसको रात-दिन यही चिन्ता घेरे रहती थी कि हम अपने भाई का बदला कैसे लें? और विष्णु भगवान् तथा उनके नाम निशान को संसार से कैसे मिटा दें? उसने अपने राज्य में आज्ञा दे रखी थी कि, हमारे राज्य में कोई विष्णु की पूजा न करे। उनके मन्दिर न बनवावे और जो मन्दिर कहीं भी हों, उनको नष्ट-भ्रष्ट करके उनके स्थान में भगवान् ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लादजी -भाग7 - प्रह्लाद गर्भ में

[पुनः तपस्या और देवताओं में हलचल]रानी कयाधू गर्भवती हैं, इस समाचार को सुनकर दैत्यराज ने अपने आचार्यचरण शुक्राचार्यजी से की कि आप इस बालक के यथोचित पुंसवनादि संस्कार यथा समय करावें और मेरे लिये कोई ऐसा यात्रा का सुन्दर मुहूर्त बतलावें कि जिससे मैं सफलता के साथ लौट कर आ सकूँ। दैत्यराज की प्रार्थना सुनकर दैत्याचार्य चुप रह गये। आचार्यचरण के मौनावलम्बन को देखकर दैत्यराज ने कहा कि “भगवन्! आप मौन क्यों हो रहे हैं? मैंने जो प्रार्थना की है उसके सम्बन्ध में आपने कुछ आज्ञा नहीं दी ?शुक्राचार्य– “दैत्यराज! हम चुप इस कारण हो गये कि आपने न ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लादजी -भाग8 - देवताओं का हिरण्यपुर पर आक्रमण

[महारानी कयाधू का हरण]देवराज इन्द्र, हिरण्यकशिपु की दशा देखकर जब अपने स्थान पर पहुँचे तब उन्होंने अपने मन्त्रिवर्ग को और उनसे परामर्श किया। सभी लोग एकमत हुए कि इस समय जबकि हिरण्यकशिपु तपस्या के कारण निर्जीव-सा हो रहा है, हम लोग यदि उसकी राजधानी 'हिरण्यपुर' पर आक्रमण करें, तो अपने नैसर्गिक शत्रु 'असुर समुदाय' को सदा के लिये नष्ट-भ्रष्ट कर सारे संसार में अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकते हैं। पहले तो उस मृतप्राय हिरण्यकशिपु के लौटने की आशा नहीं, फिर वह लौटेगा भी, तो निःसहाय होने के कारण उससे हम लोगों को कोई भय नही होगा। ऐसी मन्त्रणा कर ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लादजी -भाग9 - महारानी का कयाधू को महर्षि नारद का महोपदेश

[गर्भस्थ प्रह्लाद को ज्ञानप्राप्ति]एक दिन जब कि, गर्भस्थ प्रह्लाद अधिक चैतन्य हो चुके थे और पूर्वजन्म के प्रभाव से श्रवणादि विषयों का यथेष्ट ज्ञान प्राप्त हो चुका था, तब महर्षि नारदजी ने एकान्त में महारानी कयाधू को सम्बोधित करके बहाने से, गर्भस्थ बालक प्रह्लाद को ज्ञान का मर्म सुनाया था। महर्षि नारदजी ने जो महोपदेश दिया था वह संक्षेप में इस प्रकार था —महर्षि नारद– “बेटी कयाधू! मानवजीवन क्षणभंगुर है। अतएव इस शरीर को स्थायी समझ किसी धार्मिक कार्य को टालते हुए व्यर्थ कालक्षेप (समय बिताना) करना भूल है। बालकपन से ही जो भगवान् लक्ष्मीनारायण की अनन्य भक्ति अथवा ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग10 - हिरण्यकशिपु को वर प्राप्ति

[प्रह्लाद का आविर्भाव, देवताओं में खलबली]धीरे-धीरे दैत्यराज हिरण्यकशिपु की तपस्या पूरी हुई और उसके समीप दक्ष, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु अपने मानस पुत्रों के सहित जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी जा पहुँचे। (पद्मपुराण उत्तरखण्ड अध्याय ९३ के अनुसार हिरण्यकशिपु ने शिवजी के पञ्चाक्षर मन्त्र का जप किया था और शिवजी ने ही वर प्रदान किया था, किन्तु अधिकांश पुराणों में ब्रह्माजी के द्वारा वरप्राप्ति की कथा है। सम्भवतः शिवजी के वरदान की कथा कल्पान्तर की कथा है।) हिरण्यकशिपु का शरीर हड्डियों की ठठरीमात्र रह गया था और उसके ऊपर भी दीमक लग गये थे। ब्रह्माजी ने कहा, “हे कश्यपनन्दन! तुम्हारी तपस्या पूरी हो ...और पढ़े

11

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग11 - प्रह्लाद का बालचरित्र

[भक्ति का भाव]प्रह्लाद के शारीरिक सौन्दर्य, अपूर्व तेज और विचित्र बालचरित्र की महिमा धीरे-धीरे सारे नगर ही में नहीं, सारे साम्राज्य में कही और सुनी जाने लगी। उनकी शैशवकालीन मधुर हँसी, उनका मचलना और उनकी तोतली बोली के अस्फुट शब्दों एवं भावों को देखने और सुनने के लिये केवल दास-दासी, पुरजन-परिजन, सगे-सम्बन्धी ही नहीं, प्रत्युत अगणित प्रजाजन भी लालायित रहते और अपने आनन्द का सर्वोत्तम साधन समझते थे। दैत्य, दानव, असुर-वृन्द तथा उनकी प्रजाओं के न जाने कितने लोग यहाँ तक कि देवतागण भी वेष बदलकर उन परमभागवत के अपूर्व दर्शन के लिये जाते और दर्शन पाकर अपने आपको ...और पढ़े

12

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग12 - बालक प्रह्लाद को माता की शिक्षा

[भक्ति की प्रबलता]जब से राजोद्यान में माता के साथ बालक प्रह्लाद की भक्ति-विषयिणी बातें हुई, तब से प्रह्लाद की की धारा और भी अधिक वेग से प्रवाहित होने लगी, इससे माता कयाधू की चिन्ता दिनों दिन बढ़ने लगी। बालक प्रह्लाद संसार में जो कुछ देखते अथवा सुनते थे सभी में अपने हृदयेश्वर भगवान् हरि ही की भावना करने लगते थे और इसी आवेश में वे कभी उछल पड़ते, कभी नाच उठते और कभी-कभी गाने अथवा रोने लगते थे। दिनों दिन उनकी दशा लोगों को पागलों जैसी प्रतीत होने लगी और उनकी इस दशा की चर्चा चारों ओर होने लगी। ...और पढ़े

13

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग13 - प्रह्लाद की दीनबन्धुता

[पिता से सत्याग्रह]क ओर बालक प्रह्लाद की अव्यभिचारिणी भक्ति रात-दिन उनको भगवान् विष्णु की ओर खींचती थी, दूसरी ओर के अन्तःकरण की अटूट शत्रुता विष्णु के न पाने से प्रत्येक क्षण बड़ी तेजी से बढ़ रही थी। दोनों ही पिता-पुत्र रात-दिन भगवान् के ध्यान में लगे रहते थे और दोनों ही के हृदय से एक क्षण के लिये भी भगवान् विष्णु बाहर नहीं जाने पाते थे। हाँ, दोनों में एक अन्तर था और वह यह कि पिता शत्रुभाव से उनकी चिन्ता में था और पुत्र भक्तिभाव से! हिरण्यकश्यपु ने देखा कि विष्णु का साधारण रीति से हमें मिलना सम्भव ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग14 - प्रह्लाद की शिक्षा

[गुरुकुल वास]प्राचीन भारतवर्ष में विद्या का इतना अधिक प्रचार और महत्त्व था कि प्रत्येक मनुष्य के लिये उसका प्राप्त अत्यन्त आवश्यक समझा जाता था। साधारण श्रेणी के प्रजाजनों को छोड़ शेष सभी द्विजातियों के बालक उपनयन संस्कार होने के साथ-ही-साथ शिक्षा प्राप्त करने को अपने-अपने गुरुकुलों के लिये प्रस्थान करते थे। गुरुकुलों में विद्या प्राप्त करने के पश्चात् उनका समावर्तन-संस्कार होता था तब वे लौट कर गृहस्थाश्रम के नियमानुसार अपना योगक्षेम करते थे। गुरुकुलों में विद्यार्थियों को उनके वर्ण, उनकी कुल-परम्परा, रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार साङ्गोपाङ्ग (समस्त, संपूर्ण) वैदिक शिक्षा के साथ-ही-साथ, शस्त्रास्त्र शिक्षा, मल्लविद्या की शिक्षा तथा ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग15 - प्रह्लाद की प्रतिभा

[स्वल्पकाल में ही ज्ञान प्राप्ति] महाराज शुक्राचार्य के सुपुत्र षण्ड और अमर्क यद्यपि बड़े योग्य विद्वान् थे, शास्त्र में लोक व्यवहार में भी बड़े निपुण थे और दैत्यराज की राजसभा के वे राजपण्डित भी थे, तथापि उनकी बुद्धि क्रूर और उनका हृदय कठोर था। असुरों के संसर्ग, उनके अन्न-जल के प्रभाव और असुर बालकों को आसुरी शिक्षा देते-देते वे इतने निर्दय हो गये थे कि जो एक विद्वान् के लिये, शुक्राचार्य के पुत्रों के लिये तथा अध्यापक जैसे पवित्र पद के लिये सर्वथा कलंक की बात थी। एक ओर उग्र और क्रूर प्रकृति के अध्यापक थे, जो बात-बात में ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग16 - हिरण्यकशिपु का कड़ा शासन

[देवताओं में घबड़ाहट, विष्णुभगवान् द्वारा आश्वासन-प्रदान]प्रह्लाद पुनः गुरुकुल में अध्ययन करने लगे और इधर दैत्यराज कठोर शासन करने लगा। तो दैत्यराज हिरण्यकशिपु के हृदय से भगवान विष्णु का वैरभाव एक क्षण के लिये भी दूर नहीं होता था, किन्तु जब से प्रह्लादजी के मुख से उसने भगवान विष्णु की स्तुति सुनी तब से तो मानों उसके वैराग्नि में घी की आहुति पड़ गयी। उसने अपने असुर अधिकारियों द्वारा सर्वत्र बड़े जोरों से उत्पात मचा दिया। देवताओं की तो जो दुरवस्था की सो की ही, उन मनुष्यों की भी नाक में दम कर दी, जिन पर नाममात्र को भी विष्णुपक्षी ...और पढ़े

17

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग17 - प्रह्लाद का पुनः गुरुकुलवास

[आचार्य का कठोर शासन]प्रह्लाद जी गुरुकुल में इस बार बड़ी निगरानी के साथ रक्खे गये। उनके आचार्य साम, दाम भेद की नीति से उनको अपने वश में करने की चेष्टा करने लगे। बीच-बीच में दण्ड का भी भय दिखलाने लगे। जो प्रह्लाद संसार में किसी भी प्राणी के चित्त को किसी प्रकार से भी दुखाना नहीं चाहते थे, वे भला अपने गुरुवरों के तथा अपने जन्मदाता पिता के चित्त को दुखाना कैसे उचित समझते? अतएव वे बारम्बार इस बात की चेष्टा करने लगे कि, मेरी हरिभक्ति का दुःख गुरुओं को तथा पिताजी को न होने पाए। इसी अभिप्राय से ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग18 - दैत्य-बालकों से प्रह्लाद की बातचीत

[प्रह्लाद का सहपाठी बालकों को ज्ञानोपदेश] प्रह्लाद पुनः अपना पाठ पढ़ने लगे, गुरु-पुत्रों ने उनको शुक्रनीति के तत्त्वों को भाँति पढ़ाया और अर्थ, धर्म तथा काम इन त्रिवर्गों को समझाया। साथ ही आचार्य-पुत्रों ने शिवपरत्व के न जाने कितने दार्शनिक सिद्धान्तों की शिक्षा दी और धीरे-धीरे उनको यह विश्वास होने लगा कि अब प्रह्लाद ठीक रास्ते पर आ गये हैं, विष्णुभक्ति का भूत उनके ऊपर से उतर गया है। क्योंकि अब प्रह्लादजी उनके सामने हरिकीर्तन करना उचित न समझ उनकी अनुपस्थिति में ही सब कुछ करते थे। उनकी पाठशाला के वे सब छात्र भी अब प्रह्लाद के अनुगामी बन ...और पढ़े

19

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग19 - प्रह्लाद का पुनः राजसभा में प्रवेश

प्रथम बार का आक्रमण, पुरोहितों की प्रार्थना पर मुक्ति]कुछ समय के पश्चात् दैत्यराज ने अपना दूत भेज कर गुरुपुत्रों साथ ब्रह्मचारी प्रह्लाद को बुलवाया और बड़े प्रेम के साथ उनको अपनी गोद में बिठा कर पूछा “बेटा! इतने दिन हो गये तुमने जो विद्या का सार अपने आचार्य चरणों से प्राप्त किया हो, उसको हमें सुनाओ। बेटा प्रह्लाद! तुम्हारे गुरु तुम्हारी बड़ी प्रशंसा करते हैं और तुम्हारी माता तो तुम्हारे समान देव बालकों के ज्ञान को भी नहीं मानती। इस प्रकार हम बारम्बार दूसरों से तुम्हारी प्रशंसा सुनते रहे हैं, आज स्वयं तुम्हारे ही मुख से ज्ञान-चर्चा सुनना चाहते ...और पढ़े

20

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग20 - दैत्य-बालकों को प्रह्लाद का उपदेश

[नगर में घर-घर हरि कीर्तन, कयाधू माता की चिन्ता और पिता का क्रोध]विद्यालय में पहुँच कर प्रह्लाद ने अपना फिर आरम्भ कर दिया। नगरभर में, विशेषकर विद्यार्थियों और बालकों में प्रह्लाद के प्रति बड़ी ही सहानुभूति तथा भक्ति दिखलायी देने लगी। गुरुवरों के सामने, ज्यों ही प्रह्लादजी पिता के यहाँ से छुटकारा पाकर विद्यालय में पहुँचे, त्यों ही सभी छात्रों ने आनन्द-ध्वनि की और उनका जय-जयकार मनाया। एक दिन गुरुजी अपने नित्यकर्म में लगे हुए थे, इधर विद्यार्थियों ने आकर प्रह्लादजी को चारों ओर से घेर लिया। कुछ विद्यार्थियों ने कहा कि “राजकुमार! अब आप अपने पिताजी से हठ ...और पढ़े

21

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग21 - विद्यालय में कृत्या की उत्पत्ति

[प्रह्लाद की दयालुता राजसभा में तीसरी बार प्रह्लाद का बुलावा]दैत्यराज की आज्ञा पाते ही आचार्य पुत्रों ने प्रह्लाद को पास बुलाकर उनसे कहा “हे आयुष्मन्! तुम त्रिलोकी में विख्यात ब्रह्माजी के कुल में उत्पन्न हुए हो और दैत्यराज हिरण्यकशिपुके पुत्र हो। तुम्हें देवता अनन्त भगवान अथवा और भी किसी से क्या प्रयोजन है? तुम्हारे पिता तुम्हारे तथा सम्पूर्ण लोकों के आश्रय हैं और तुम भी ऐसे ही होगे। इसलिये तुम यह विपक्ष की स्तुति करना छोड़ दो। तुम्हारे पिता सब प्रकार प्रशंसनीय है और वे ही समस्त गुरुओं में परम गुरु हैं। अतः तुम उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण ...और पढ़े

22

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग22 - भक्तवत्सल भगवान् का दर्शन

[प्रह्लाद को वरदान, चतुर्थ बार राजसभा में प्रह्लाद की परीक्षा, प्रह्लाद के प्रति पिता का प्रेम]प्रह्लादजी इस बार गुरुकुल राजनीति की शिक्षा पाने लगे और उनके सहपाठी दैत्यबालक भगवद्भक्ति के रहस्यों की शिक्षा में लीन होने लगे। गुरुओं को राजकुमार की बुद्धि प्रखरता देख, बड़ी प्रसन्नता हुई। उन लोगों ने समझा कि अब ये राजनीति के चक्कर में पड़कर भक्ति-भावना को भूल गये हैं। जब-जब गुरुवरों ने प्रह्लाद की परीक्षा ली तब-तब उन्हें राजनीति में पूरा पण्डित पाया। अतएव षण्ड और अमर्क अब फूले नहीं समाते थे। उन लोगों ने समझा कि इस बार राजकुमार के पिताजी से हमको ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग23 -प्रह्लाद का व्याख्यान

[भगवान् श्रीनृसिंह का अवतार, दैत्यराज का वध]यत्पादपद्ममवनम्य महाघमोऽपि पापं विहाय व्रजति स्वमनोऽभिलाषम्।तं सर्वदेवमुकुटेडितपादपीठं श्रीमन्नृसिंहमनिशं मनसा स्मरामि॥अर्थात्– जिनके चरण-कमल को करके महानीच प्राणी भी सकल पापों को छोड़ अपने मनोरथ को प्राप्त होते हैं, उन, सब देवों के मुकुट से पूजित चरणारविन्द वाले भगवान् श्रीनृसिंहजी महाराज को मैं सदा स्मरण करता हूँ। प्रह्लादजी का समावर्तन-संस्कार अभी नहीं हुआ था, अतएव शिक्षालाभ करने पर भी अभी वे गुरुजी के आश्रम में निवास करते तथा पठन-पाठन के व्यसन में ही लगे रहते थे। एक दिन गुरुजी की अनुपस्थिति में प्रह्लादजी के सहपाठी दैत्यबालकों ने उनसे पूछा कि “राजकुमार! आपके मारने के लिये ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग24 - प्रह्लादजी और देवताओं के द्वारा भगवान् की स्तुतियाँ

[भक्तवात्सल्य रस का चमत्कार]भगवान् ने देखा कि प्रिय बालक प्रह्लाद चरणों पर पड़ा साष्टाङ्ग प्रणाम कर रहा है किन्तु प्रभाव से उसकी वाणी रुक रही है, वह भयभीत नहीं, किन्तु आनन्दमुग्ध हो रहा हैं, अतएव उन्होंने उसको अपने भक्तभयहारी भुजदण्डों से उठा कर अपनी गोद में बैठा लिया और कालरूपी सर्प के भय से भीत चित्तवाले लोगों को अभय प्रदान करने वाला अपना करकमल वे प्रह्लाद के सिर पर फेरने लगे। भगवान् का कोप शान्त हुआ और उनके हृदय में दया की बाढ़-सी आ गयी। भगवान् के करकमलों का मधुर स्पर्श होते ही प्रह्लाद की सारी किंकर्त्तव्यविमूढ़ता जाती रही, ...और पढ़े

25

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग25- प्रह्लाद का गार्हस्थ्यजीवन

[पिता का साम्परायिक कर्म, विवाहोत्सव और राज्याभिषेकोत्सव]भगवान् के अन्तर्धान हो जाने पर ब्रह्मादि देवतागण भी अपने-अपने स्थान को चले और सुरराज इन्द्र तथा सब के सब दिकपाल प्रह्लाद के प्रति स्नेहमयी कृतज्ञता प्रकट करते हुए अपने-अपने पदों पर जा विराजे। इधर ये लोग अपने-अपने स्थानों को गये और उधर महर्षि शुक्राचार्य तथा अन्यान्य ऋषि-मुनि-गण और प्रह्लादजी के दोनों गुरु षण्ड एवं अमर्क भी दैत्यराज का वध सुन कर वहाँ जा पहुँचे। दैत्यराज के साम्परायिक कर्म की तैयारी होने लगी और विधवा राजमाता कयाधू अपने प्राणपति के वियोग में व्याकुल हो पति के शव के साथ सती होने को तैयार ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग26-दैत्यर्षि प्रह्लाद का शासन

[महर्षि शुक्राचार्य की नीति-शिक्षा, महर्षि नारदजी का उपदेश]राजसिंहासन पर बैठने के साथ ही दैत्यर्षि प्रह्लाद ने जिस संयम और के साथ शासनसूत्र को चलाया, वह परमभागवत प्रह्लाद के अनुरूप ही था। दैत्यर्षि के सिंहासनासीन होते ही सारे भूमण्डल में फिर एक बार सुखद साम्राज्य के प्रभाव से सत्ययुग ने अपना सत्ययुगी रूप धारण कर लिया। परलोकवासी हिरण्यकशिपु के आतंकपूर्ण शासनकाल में सारी प्रजा में विशेषकर शान्तिप्रिय वैष्णव जनता में जितना ही अधिक भय, कष्ट, अशान्ति एवं विपत्तियाँ छायी हुई थीं, उतना ही अधिक अभय, सुख, शान्ति और सम्पत्ति दैत्यर्षि प्रह्लाद के राजत्वकाल में चारों ओर दिखलायी देने लगीं।सुशासन की ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग27- प्रह्लाद की तत्त्वजिज्ञासा

[महर्षि अजगर और दैत्यर्षि का संवाद] दैत्यर्षि प्रह्लाद बड़े ही तत्त्वजिज्ञासु थे उनकी सभा में विद्वानों का खासा संग्रह इसके सिवा समय-समय पर वे स्वयं भी ऋषियों के आश्रमों में जाकर तत्त्वोपदेश सुनते और अपनी शङ्काओं का निराकरण कराते थे। साधु-संग स्वाभाविक ही उन्हें बहुत प्रिय था। एक दिन दैत्यर्षि प्रह्लाद कुछ तत्त्वोपदेश सुनने के उद्देश्य से तपोभूमि की ओर जा रहे थे कि मार्ग में ही 'महर्षि अजगर' मिल गये। महर्षि अजगर को देख दैत्यर्षि वहीं ठहर गये और सादर प्रणाम कर उनसे पूछने लगे 'हे ब्रह्मन्! आपको देखने से मालूम होता है कि आप तपोनिष्ठ योग्य विद्वान् ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग28- सम्राट् प्रह्लाद की न्यायप्रियता

[स्वयंवरा केशिनी कन्या के लिये विरोचन और सुधन्वा का विवाद, ब्राह्मण महत्त्व वर्णन]सम्राट् प्रह्लाद की भगवद्भक्ति और धर्मपरायणता तो ही है, किन्तु उनकी न्यायशीलता भी किसी न्यायशील सम्राट् से कम न थी। प्रत्युत उनके समान न्यायशील शासक किसी इतिहास में कदाचित् ही कोई मिलेगा। राजा में सत्य की बड़ी भारी आवश्यकता होती है। सत्यहीन शासक का कोई मित्र नहीं होता और उसके सपरिकर परिवार का सर्वनाश हो जाता है । जिस प्रकार लाठी लेकर चरवाहे अपने पशुओं की रक्षा करते हैं, उस प्रकार किसी पर प्रसन्न होकर देवता लोग उसकी रक्षा नहीं करते, बल्कि वे जिसकी रक्षा करना चाहते ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग29 - प्रह्लाद के समीप इन्द्र का अध्ययन

[याचक इन्द्र को प्रह्लाद का शील-भिक्षादान, शील की महिमा]दैत्यषि प्रह्लाद जिस प्रकार सभी सद्गुणों के समूह थे, उसी प्रकार सर्व सम्पत्तियों और समस्त गुणों का आधारभूत शील भी पर्याप्त था। उनके शील-स्वभाव तथा उनकी शील-परायगता से सारा संसार उनके वशीभूत था और वे त्रैलोक्य के स्वामी थे। उनके ऐश्वर्य को देख मनुष्यों की कौन कहे, देवगण भी ललचाते थे। जिस प्रकार दैत्यराज हिरण्यकशिपु के समय अधर्मपूर्ण अत्याचार के बल से सारे दिक्पाल और देवराज इन्द्र उसके आज्ञानुवर्ती और कठिन कारागार के बन्दी थे उस प्रकार तो नहीं, किन्तु धर्मपूर्ण सुशीलता के द्वारा दैत्यर्षि प्रह्लाद के समय केवल दिक्पाल और ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग30 - तपस्वी प्रह्लाद और इन्द्र का संवाद

[इन्द्र द्वारा पुनः राज्यप्राप्ति, विरोचन को राज्य-समर्पण] जिस समय छल से देवराज इन्द्र ने सत्यव्रत प्रह्लाद के ऐश्वर्य को किया था, जिस समय कपट विप्रवेष बना कर इन्द्र ने दैत्यर्षि प्रह्लाद के शील की याचना करके उनको ठगा था और जिस समय तीनों लोक के अधीश्वर परम भागवत प्रह्लाद को क्षणभर में भिखारी बना दिया था, उस समय का दृश्य लौकिक दृष्टि से बड़ा ही करुणापूर्ण था। इन्द्र द्वारा प्रह्लाद के इस प्रकार छले जाने की तुलना हम राजा बलि के वामनभगवान् द्वारा छले जाने से नहीं कर सकते। इसमें सन्देह नहीं कि, इन्द्र और भगवान् वामन एक ही ...और पढ़े

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग31 -दैत्यर्षि प्रह्लाद का अन्तिम जीवन

दैत्यर्षि प्रह्लाद का अन्तिम जीवन[पौत्र को तत्त्वोपदेश तथा उनको बन्धन से छुड़ाना, प्रह्लाद चरित्र का माहात्म्य]दैत्यर्षि प्रह्लाद की रुचि राज-काज में नहीं रह गयी थी, वे उदासीन-भाव से इसी प्रतीक्षा में राज-काज करते थे कि अपने किस उत्तराधिकारी को राजभार सौंपें जो प्रजारञ्जन में निपुण हो। प्रह्लाद के हृदय में यह भी एक खटकने की बात थी कि वे अपने चाचा हिरण्याक्ष के पुत्रों को भी राज्य का अधिकारी समझते थे और अपने पुत्र गवेष्ठि तथा विरोचन को भी शासनसूत्र के चलाने के योग्य समझते थे; किन्तु वे इस चिन्ता में रहते थे कि उनके बारम्बार उपदेश देने एवं ...और पढ़े

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