परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग29 - प्रह्लाद के समीप इन्द्र का अध्ययन Praveen kumrawat द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग29 - प्रह्लाद के समीप इन्द्र का अध्ययन

[याचक इन्द्र को प्रह्लाद का शील-भिक्षादान, शील की महिमा]
दैत्यषि प्रह्लाद जिस प्रकार सभी सद्गुणों के समूह थे, उसी प्रकार उनमें सर्व सम्पत्तियों और समस्त गुणों का आधारभूत शील भी पर्याप्त था। उनके शील-स्वभाव तथा उनकी शील-परायगता से सारा संसार उनके वशीभूत था और वे त्रैलोक्य के स्वामी थे। उनके ऐश्वर्य को देख मनुष्यों की कौन कहे, देवगण भी ललचाते थे। जिस प्रकार दैत्यराज हिरण्यकशिपु के समय अधर्मपूर्ण अत्याचार के बल से सारे दिक्पाल और देवराज इन्द्र उसके आज्ञानुवर्ती और कठिन कारागार के बन्दी थे उस प्रकार तो नहीं, किन्तु धर्मपूर्ण सुशीलता के द्वारा दैत्यर्षि प्रह्लाद के समय केवल दिक्पाल और देवराज इन्द्र ही नहीं, प्रत्युत सारे संसार के मनुज, दनुज और देवतागण उनके शील-स्वभाव के कठिन बन्धन में बँधे हुए मानों इस उक्ति को चरितार्थ कर रहे थे कि- 'बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत्।' अर्थात् संसार में बन्धन तो अनेक प्रकार के हैं, किन्तु प्रेमरूपी रस्सी का बन्धन कुछ और ही है। वह सबसे बड़ा है। प्रह्लादजी के शासन काल में यद्यपि देवताओं को स्वरूपतः कोई कष्ट नहीं था उनके यज्ञादि सम्बन्धी अधिकार छीने नहीं गये थे और न उनमें से किसी को पदच्युत किया गया था, फिर भी सारे संसार में परम भागवत प्रह्लाद, सम्राट् के समान ही नहीं, देवताओं के समान नहीं प्रत्युत उन सबसे बढ़कर अपने आराध्यदेव के समान पूजे जाते थे। ऐसा महत्त्व और ऐसी प्रतिष्ठा देवराज इन्द्र को कब सहन होने लगी और यह सब कुछ देख-सुनकर भी इन्द्रदेव कब चुप रहने लगे?
देवराज इन्द्र के हृदय में दैत्यर्षि प्रह्लाद का महत्त्व शूल के समान साल रहा था और उसके मिटाने के लिये वे प्रत्यक्ष नहीं, किन्तु गुप्तरूप से तरह-तरह के उपाय सोच रहे थे। एक दिन इसी अभिप्राय से देवराज इन्द्र अपने आचार्य महर्षि बृहस्पति के पास गये। अपने गुरुवर के चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम किया और हाथ जोड़ कर कहा, “हे भगवन्! मैं आपकी सेवा में श्रेय जानने की इच्छा से आया हूँ। कृपया आप मुझे अपने उपदेशामृत द्वारा श्रेय-कल्याण का मार्ग बतलाइये।” देवराज इन्द्र की बातें सुन, बृहस्पतिजी परम कल्याणकारी एवं मोक्षोपयोगी ज्ञान का प्रतिपादन करने लगे। बृहस्पतिजी ने कहा “संसार में सभी प्राणियों के लिये मुक्ति का मार्ग ही सबसे अधिक श्रेय है। परन्तु इन्द्र के मन में तो दूसरी ही बात थी, अतः गुरुवर की बातें सुनकर इन्द्र ने कहा “हे भगवन्! इस पारलौकिक मोक्ष से भी अधिक कल्याणदायक लौकिक और पारलौकिक दोनों के लिये कोई दूसरा मंगलमय मार्ग है अथवा नहीं ? देवराज के प्रश्न को सुन और उनके हार्दिक भावों को जान कर बृहस्पतिजी ने कहा “हे सुरराज ! इस विषय का विशेष प्रतिपादन महर्षि शुक्राचार्य ही कर सकते हैं, अतएव आप उन्हीं के पास जाइये। उनके उपदेश से आपको सन्तोष होगा और आपका मङ्गल होगा।”
स्वार्थवश देवराज इन्द्र दैत्यों के आचार्य महर्षि शुक्राचार्यजी के पास गये और साष्टाङ्ग प्रणाम कर बैठ गये। शुक्राचार्य के पूछने पर इन्द्र ने अपना अभिप्राय प्रकट किया। महर्षि शुक्राचार्य त्रिकालज्ञ थे। उन्होंने भावी को जानकर अपने शिष्य एवं प्रिय प्रह्लाद के विरुद्ध किसी प्रकार का उपदेश देना उचित नहीं समझा और उनसे कहा “हे देवराज! जिस विषय को आप जानना चाहते हैं, उस विषय का विशेष ज्ञान दैत्यर्षि प्रह्लाद को है, अतएव आप उन्हीं के पास जाइये। वे आपका मनोरथ पूर्ण करेंगे।” आशीर्वाद के समान शुक्राचार्य के वचन को सुनकर देवराज इन्द्र ब्राह्मण के वेष में प्रह्लादजी के पास गये।
ब्राह्मण के वेष में इन्द्र को देख प्रह्लादजी ने सादर
प्रणाम कर यथोचित शिष्टाचार किया और पूछा कि “हे द्विजवर! आपका शुभागमन कैसे हुआ और क्या आज्ञा है?” ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने कहा “राजन्! मैं आपको न केवल सम्राट् किन्तु एक आदर्श पुरुष तथा लोक और शास्त्र का ज्ञाता एवं इहलौकिक तथा पारलौकिक कल्याण के मार्ग का तत्त्वज्ञ समझता हूँ, अतएव आप मुझे उत्तम आचरणीय विषय के उपदेश की भिक्षा दें यही मेरी प्रार्थना है।” ब्राह्मण के वचनों को सुन, प्रह्लादजी ने शासन सम्बन्धी कार्यों की अधिकता के कारण अवकाशाभाव की बात कही, किन्तु ब्राह्मण के यह कहने पर कि, “जब आपको अवकाश मिलेगा और जितना हो समय मिलेगा तभी और उतना ही उपदेश देने की कृपा कीजियेगा“' प्रह्लादजी ने ब्राह्मण की प्रार्थना स्वीकार कर ली और उसी समय उसको ज्ञानतत्त्व की शिक्षा दी। ब्राह्मण ने शिष्यधर्म का ऐसा सुन्दर पालन और प्रदर्शन किया कि, दैत्यर्षि प्रह्लाद का हृदय उसके प्रति बहुत ही सहानुभूति पूर्ण हो गया।
दैत्यर्षि प्रह्लाद को प्रसन्न देखकर, विप्रवेषधारी देवराज इन्द्र ने सुअवसर देख उनसे पूछा “हे त्रैलोक्यनाथ! हे अरिदमन! आपने किस प्रकार तीनों लोक के राज्य को प्राप्त किया है? हे धर्मज्ञ! जिस अलौकिक गुण के द्वारा, जिस अजेय शक्ति के द्वारा आपने इतना बड़ा प्रभुत्व प्राप्त किया है, कृपया उसका वर्णन कीजिये।” विप्र के वचनों को सुनकर प्रह्लादजी ने कहा
“हे विप्र! मैं अपने प्रभुत्व का वास्तविक कारण तो स्वयं भी नहीं जानता किन्तु जिस आचरण से मुझे प्रभुत्व प्राप्त करने में सहायता मिली है, आपसे मैं उसका वर्णन करता हूँ। मैंने ब्राह्मणों के प्रति हृदय में सदा आदर रखा है और अपने को राजा समझकर कभी ब्राह्मणों की निन्दा नहीं की है। ब्राह्मण लोग अपने तर्क-वितर्क के द्वारा शुद्ध हृदय से मुझे शुक्राचार्य की नीति का व्याख्यान सुनाते हैं। और उसके अनुसार मुझे चलने के लिये नियन्त्रित करते हैं। मैं ब्राह्मणों के उपदेशानुसार शुक्रनीति के ही अनुसार चलता हूँ, ब्राह्मणों की सदा सेवा करता हूँ और कभी भूल कर भी ब्राह्मणों की निन्दा नहीं करता। मैं क्रोध को जीते हुए हूँ, इन्द्रियों को वश में रखता हूँ। जिस प्रकार मधुमक्खियाँ अपने छत्ते में यत्न के साथ मधु इकट्ठा करती हैं उसी प्रकार ब्राह्मण लोग जो वस्तुतः शासक हैं, मेरे ज्ञान वृक्ष को अपने उपदेशामृत द्वारा सिंचन करते हैं। वे मुझे धर्मात्मा, जितेन्द्रिय, जितक्रोध जानकर ही मेरा इस प्रकार शासन करते हैं। मैं उन ब्राह्मणों द्वारा वाङ्मय शास्त्रों के मुख्य विद्यारस को ग्रहण कर अपनी जाति के बीच नक्षत्रमण्डली के मध्य चन्द्रमा के समान शोभायमान हो रहा हूँ। आचार्य के कहे हुए शास्त्र के अनुसार कार्य करने में प्रवृत्त हो जाना ही पृथ्वी में अमृतस्वरूप है और वही ज्ञानोपदेश वस्तुतः मनुष्य का नेत्रस्वरूप है। इस समय अधिक कुछ न कह कर मैं तुमसे केवल यही कहूँगा कि इहलौकिक और पारलौकिक श्रेय कल्याण प्राप्ति करने का एकमात्र उपाय है 'शील' और शीलप्राप्ति का उपाय है—
अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।
अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत्प्रशस्यते॥
यदन्येषां हितं न स्यादात्मनः कर्म पौरुषम्।
अपत्रपेत वा येन न तत्कुर्यात्कथञ्चन॥
तत्तत्कर्म तथा कुर्यााद्येन श्लाघ्येत संसदि।
अर्थात् “किसी प्राणी के प्रति द्रोह न रखना। मन, वचन
और कर्म से कभी किसी का अनिष्ट न चाहना, सबके प्रति कृपापूर्ण दृष्टि रखना तथा दानशील होना। ये तीन गुण शील के समस्त गुणों में श्रेष्ठ हैं। अपना कोई काम अथवा पुरुषार्थ जो दूसरे लोगों के लिये हितकर न हो और जिससे दूसरों के सामने लज्जित होना पड़े उसे कभी भी न करे। हे विप्र! सदा ऐसे कार्य करने चाहिए जिनसे सभाओं में भले आदमियों के बीच बड़ाई प्राप्त हो और लोग अच्छा मानें।” विप्र की शिष्य-धर्मनिष्ठा से प्रसन्न होकर प्रह्लादजी ने और भी कहा, और कहा क्या, मानो भावी ने ही उनके मुख से कहलवा दिया।–
“हे विप्रवर! तुमने मेरे साथ यथोचित गुरु-शिष्य-भाव को निवाहा है। अतएव मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम इस समय जो कुछ माँगना चाहो, माँग लो। मैं तुमको मनोवाञ्छित 'वर' देने के लिये तैयार हूँ। इसमें सन्देह नहीं।”
प्रह्लादजी के वचनों को सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन बड़े ही प्रसन्न हुए और उनसे कहा “हे दैत्यर्षि! आपकी प्रशंसा मैं कहाँ तक करूँ, आपके समान उदार, दानी संसार में कोई नहीं है। राजन्! यदि आप मेरी इच्छा के अनुसार 'वर' देना चाहते हैं, तो कृपया दीजिये, मैंने अपने मन में वर माँग लिया है।” प्रह्लादजी ने कहाा “एवमस्तु”। वरदान प्राप्त करने पर विप्रवेषधारी इन्द्र ने कहा कि “हे दैत्येश्वर! मेरी इच्छा आपके शील लेने की है। कृपया आप मुझे अपना शील दीजिये।” प्रह्लादजी के हृदय में इस वर याचना से भय उत्पन्न हुआ। वे इसका कारण नहीं जान सके और यह देख कि याचक साधारण ब्राह्मण नहीं, कोई तेजस्वी पुरुष है, बड़े विस्मय को प्राप्त हुए, किन्तु वे वचन दे चुके थे, अतः वर देना स्वीकार कर लिया। परन्तु इससे उनके मुखमण्डल पर विषाद की रेखा खिंच गयी। ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र सफलमनोरथ होकर चले गये।
सम्राट् प्रह्लाद को चिन्ताशील देख सारी राजसभा में सन्नाटा-सा छा रहा है। चारों ओर नीरव उदासीनता छा रही है। इसी बीच में दैत्यर्षि प्रहलाद के शरीर से तेजोमय विग्रहयुक्त एक महापुरुष छाया के रूप में प्रकट हुआ। उस तेजोमय महाकाय पुरुष से प्रह्लादजी ने कहा कि “आप कौन हैं और हमारे शरीर को परित्याग करके कहाँ जा रहे हैं?” वह बोला, “हे राजन्!
मैं शील हूँ, आपने मुझको परित्याग किया है। अतएव जाता हूँ और जिस अपने निकटस्थ शिष्य को आपने दिया है अब मैं उसी के शरीर में निवास करूँगा।” इतना कहकर वह तेजोमय शरीरधारी शील अन्तर्धान हो गया और जाकर देवराज के शरीर में प्रविष्ट हुआ। शील के चले जाने पर उसी प्रकार का तेजोमय पुरुष प्रह्लादजी के शरीर से फिर छाया के समान प्रकट हुआ । प्रह्लादजी के पूछने पर उसने कहा कि मैं धर्म हूँ, हे राजन्! मैं शील का अनुगामी हूँ। जहाँ शील नहीं रहता वहाँ मैं नहीं रह सकता। अतएव आपका शील जहाँ गया है उसी आपके शिष्य द्विजवर के पास मैं भी जाऊँगा।” इतना कहकर वह धर्म की मूर्ति भी अन्तर्धान हो गयी।
जैसे ही धर्म की मूर्ति अन्तर्धान हुई वैसे ही उसी प्रकार की किन्तु उससे भी अधिक तेजोयुक्त तीसरी मूर्ति प्रकट हुई और प्रह्लादजी के पूछने पर उसने भी उत्तर दिया कि “हे राजन्! मैं सत्य हूँ। आपके शरीर को धर्म ने परित्याग कर दिया है। अतएव मैं भी आपके शरीर में नहीं रह सकता। क्योंकि मैं वहीं रहता हूँ, जहाँ धर्म का निवास होता है। अब मैं भी धर्म के साथ उसी द्विजवर के शरीर में जाकर वास करूंगा।” इतना कहकर सत्य भी धर्म का अनुगामी हुआ। सत्य के अन्तर्धान होने पर प्रह्लादजी के शरीर से उसी प्रकार की तेजोमयी एक चौथी मूर्ति प्रकट हुई जो देखने में बड़ी ही बलशालिनी प्रतीत होती थी। पूछने पर उसने कहा “हे प्रह्लाद! मैं वृत्त हूँ, जहाँ सत्य रहता है वहीं मैं भी रहता हूँ।” वृत्त के सत्यानुगामी होने पर, प्रह्लादजी के शरीर से एक महाशब्द हुआ, जिसने पूछने पर कहा “मैं बल हूँ। वृत्त जहाँ जाता है, मैं भी वहीं गमन किया करता हूँ।” इतना कहकर बल भी वृत्त का अनुगामी हो गया। अन्त में प्रह्लादजी के शरीर से एक तेजोमयी देवी प्रकट हुई, प्रह्लादजी के पूछने पर उसने कहा कि “सत्य पराक्रमी वीरवर दैत्यराज! मैं श्री हूँ और सदा तुम्हारे शरीर में निवास करती थी। इस समय तुम्हारे शरीर से बल चला गया है। अतएव मैं भी जाती हूँ। क्योंकि मैं सदा बल की ही अनुगामिनी हुआ करती हूँ।” श्रीजी के ऐसे वचन सुनकर, प्रह्लादजी के हृदय में एक प्रकार का भय-सा उत्पन्न हुआ और उन्होंने उस तेजोमयी मूर्ति से पूछा कि “हे कमलालये! तुम्हीं सत्यव्रतधारिणी तीन लोक की परमेश्वरी देवी हो, तुम मुझको छोड़कर कहाँ जा रही हो? तुम सर्वज्ञ और जगज्जननी हो, क्या तुम मुझको यह बतलाने की कृपा करोगी कि, वे द्विजवर जिन्होंने शिष्यत्व ग्रहण कर मुझसे शील की भिक्षा माँगी थी, कौन थे?”
लक्ष्मी— “हे राजन् ! जो द्विजवर के वेष में तुम्हारे निकट शिक्षित हुए थे, वे देवराज इन्द्र हैं। तीनों लोक में तुम्हारा जो कुछ ऐश्वर्य था उन्होंने शील के रूप में उस सबको तुमसे माँग लिया है। हे धर्मज्ञ! तुमने शील के सहारे ही तीनों लोक को वश में किया था, सुरराज ने इस मर्म को जानकर तुम्हारे उस शील को वर याचना के रूप में हरण किया है। हे महाबुद्धिमान् प्रह्लाद! सारे ऐश्वर्य का मूल शील ही है। धर्म, सत्य, वृत्त, बल और मैं सभी शील ही के अधीन हैं। जहाँ शील नहीं, वहाँ हम लोगों का निवास कभी हो ही नहीं सकता।” इस प्रकार शील, धर्म, सत्य, वृत्त, बल और लक्ष्मी सबके सब दैत्यर्षि प्रह्लाद से अलग हो गये। अब दैत्यर्षि प्रह्लाद का सारा विषाद मिट गया और वे उदासीन भाव से निर्जन सघन वन में जाकर परम पुनीत नैमिषारण्य के समीप अपने आराध्यदेव भगवान् विष्णु का प्रेमपूर्वक चिन्तन करने लगे। उन्होंने इस घटना को भगवान् का आशीर्वाद समझा और भगवान् के चरणों में चित्त लगाकर आनन्दमग्न होकर रहने लगे।