मन चंगा तो sushil yadav द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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मन चंगा तो

मन चंगा तो ...

एक बार संत रैदास के पास उसका दुखी मित्र आया, कहने लगा आज गंगा में स्नान करते समय उसका सोने की अंगूठी गिर गई | लाख ढूढने पर मिल नहीं सकी | संत रैदास ने पास में रखे कठौते (काष्ट के बड़े भगोने, जिसमे चमड़े को भिगो कर काम किया जाता था ) को उठा लाये, उसमे पानी भरा और अपने आगन्तुक मित्र से बोला, चलो अपने हाथ को डुबाओ | मित्र की अंगूठी उस कठौते में थोड़ी देर हाथ घुमाने पर मिल गई | अब ये चमत्कार संत का था, कठौते का था, या चंगे मन का था, कहा नहीं जा सकता मगर तब से, ये कहावत जारी है “मन चंगा तो कठौते में गंगा”

आदमी के मन में अगर कहीं खोट नहीं है, असीमित आत्मसंतोष है, तो सीमित साधनों में भी उसे सब कुछ उपलब्ध हो सकता है | पाप धोने के लिए गंगा जाना जरुरी है, ये हिन्दू के अलावा किसी दूसरे मजहब में प्रचारित नहीं दीख पड़ती |

कठौते से, गंगा में खोए सोने का मिल जाना वास्तविकता के आसपास यूँ भी हो सकता है कि, संत-सखा को सोने से ज्यादा कीमती, रैदास के उपदेश लगे हों .....? वो उसी पे संतोष कर लौट गया हो .......पता नहीं......?

कई बार यूँ भी होता है की हम जिस चीज को गंवा बैठते हैं उससे ज्यादा हमें उस पर बोल-वचन सुनने को मिल जाते हैं | जो चला गया...... वापस कब आता है....? ’आत्मा’ या ‘चीज’ के संबंध में सामान रूप से लागू हो जाता है | आदमी अपने धैर्य को मर्यादा में रहने की सीख यहीं से देना शुरू कर देता है |

सब्र की बाँध को टूटने से बचाने के लिए जरुरी है हम किसी संत की शरण में यदा-कदा झांक लें |

शहर के, ’मर्यादा- बार’ में अपने बगल की टेबल से पहले पेग का प्रवचन, एक इकानामिस्ट चतुर्वेदी की तरफ से जारी था | बगल में तीन चार नव-सिखिया, बिल्डर, वकील, नेता लेखक जमे बैठे थे | अपना उनसे केजुअल हाय-हेलो जैसा था| आमने-सामने पीने- पिलाने में दोनों पार्टी को कोई परहेज नहीं था |

वे दूसरे पेग में देश की सोचने पे उतारू हो गए | यार इस दिल्ली को बचाओ .....?

मफलर भाई क्या चाहता है आखिर ....?

दिल्ली के ‘कठौते’ पर काबिज हो गया है |

पूरी दिल्ली खंगाल लिया, पता नहीं इनका क्या खोया है जो मिल नहीं रहा .....?

बेचारी जनता ने ६७ रत्नों से जडित कुर्सी से दी, इतनी इनायत कभी किसी पर नहीं की ....?

जनाब और दिखाओ ....और दिखाओ की रटी लगाए बैठे हैं.......?बिल्डर ने सिप लेते हुए कहा, .....है खुछ और दिखाने को नेता जी, क्या कहते हो ....?

नेता ने, ‘बाबा जी का ठुल्लू’ वाला मुह बना कर, अपने ‘चखने’ पर बिजी हो गये |

वकील ने इकानामिस्ट से पूछा, ये एल जी और केंद्र से काहे टकरा रहे हैं ......?

जनता से जो वादा किये उधर धियान काहे नहीं दे रहे बताव ....?

इकानामिस्ट ने अपनी बुजुर्गियत झाड़ते हुए कहा, तुम लोगों को पालिटिक्स अभी सीखनी पड़ेगी | जनता से वादे निभाने के अपने दिन अलग से आते हैं | ये नहीं कि वादों के एजेंडे वाली कापी, शुरू-दिन से खोल बैठें | तुम लोगों ने एक्जाम तो खूब दिए होंगे, जुलाई से कभी पढने बैठ जाते थे क्या ....,? पढाई की तैय्यारी तभी होती है न .... जब एक्जाम के डेट सामने आ जाएँ | ये लोग भी तब कर लेगे|

ये लोग और किस पावर की बात कर रहे हैं .....? ट्रांसफर, पोस्टिंग, पुलिस पर कंट्रोल .....? लेखक ने सोचा तीसरी लेने के पहले उसे कुछ कह लेना चाहिए, वो जानता है...., दमदार वार्ता उसी की रहने वाली है ....| वो प्रबुद्ध है .....पिए-बिन पिए हरदम निचोड़ वाली बात कहता है ....

भाई सा ....देखो ये ‘पावर’ ‘कुत्ती’ चीज है, कुत्ती समझते हैं ना .... अच्छे-अच्छो का दिमाग खराब कर देती है| चुन के आ गए ,रुतबा नहीं है .....क्या ख़ाक कर लेंगे .....?

लेखक द्वारा भाई सा, को ‘भैसा’ बनाने में,दो ढाई पेग की ‘लिमिटेड’ जरूरत होती है| हाँ तो मैं क्या कह रहा था ‘भैसा’.... पावर न हो तो क्या अंडे छिल्वाओगे .....६७ लोगो के लीडर से ?

दो ,इनको भी मौक़ा, करें ट्रांसफर ,बिठाए अपना आदमी ........’जरिया’ खुलने का ‘नजरिया’ साफ जब तक नहीं दिखेगा ये खंभा नोच डालेंगे ....?

ओय, राइटर महराज, ये ‘जरिया’, ’नजरिया’ क्या लगा रखा है, तू खुल के बोल नहीं पा रहा है आखिर चाहता क्या है बोलना ....,बिल्डर बोतल उसकी गिलास के मुहाने रख देता है .......| अरे यार मरवाओगे क्या ....चढ़ जायेगी .....|

चढती है तो चढ़ जाने दो राइटर जी, पीने का मजा ही क्या, जब दिल की बात दिल में रह जाए ......? बोल क्या जरिया चाहिए, ट्रांसफर, पोस्टिंग, पोलिस दहशत ....क्या लेगा दिल्ली के लिए ....? वे दिल्ली के मास्टर-प्लान बनाने में जुटे थे ......

मुझे लगा, इनकी बातों का कुतुबमीनार अब-तब कहीं मुझ पर जोरो से न आन गिरे ....|

..मैं वेटर को आवाज देता हूँ, ऐ सुनो .....बिल ले आओ फटाफट ......

.न जाने बियर मुझे एकाएक कसैला क्यों लगने लगा ......|


सुशील यादव