चन्द्रगुप्त
जयशंकर प्रसाद
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(मालव दुर्ग का भीतरी भाग, एक शून्य परकोटा)
मालविकाः अलका, इधर तो कोई भी सैनिक नहीं हैं। यदि शत्रुइधर से आवे तब?
अलकाः दुर्ग ध्वंस करने के लिए यंत्र लगाये जा चुके हैं, परन्तुमालव-सेना अभी सुख की नींद सो रही है। सिंहरण को दुर्ग की भीतरीरक्षा का भार दे कर चन्द्रगुप्त नदी-तट से यवन-सेना के पृष्ठ भाग परआक्रमण करेंगे। आज ही युद्ध का अन्तिम निर्णय है। जिस स्थान परयवन-सेना को ले आना अभीष्ट था, वहाँ तक पहुँच गयी है।
मालविकाः अच्छा, चलो, कुछ नवीन आहत आ गये हैं, उनकीसेवा का प्रबन्ध करना है।
अलकाः (देखकर) मालविका! मेरे पास धनुष है और कटार है।इस आपपि-काल में एक आयुध अपने पास रखना चाहिए। तू कटारअपने पास रख ले।
मालविकाः मैं डरती हूँ, घृणा करती हूँ। रक्त की प्यासी छुरी
अलग करो, अलका, मैंने सेवा का व्रत लिया है।
अलकाः प्राणों के भय से घृणा करती हो क्या?
मालविकाः प्राण तो धरोहर है, जिसका होगा वही लेगा, मुझेभयों से इसकी रक्षा करने की आवश्यकता नहीं। मैं जाती हूँ।
अलकाः अच्छी बात है, जा। परन्तु सिंहरण को शीघ्र ही भेजदे। यहाँ जब तक कोई न आ जाय, मैं नहीं हट सकती।
(मालविका का प्रस्थान)
अलकाः सन्ध्या का नीरव निर्जन प्रदेश है। बैठूँ। (अकस्मात्बाहर से हल्का होता है, युद्ध-शब्द) क्या चन्द्रगुप्त ने आक्रमण कर दिया?परन्तु यह स्थान... बड़ा ही अरक्षित है। (उठती है) अरे! वह कौन है?कोई यवन-सैनिक है क्या? तो सावधान हो जाऊँ?
(धनुष चढ़ाकर तीर मारती है। यवन-सैनिक का पतन। दूसराफिर ऊपर आता है, उसे भी मारती है, तीसरी बार स्वयं सिकन्दर ऊपरआता है। तीर का वार बचाकर दुर्ग में कूदता है और अलका को पकड़नाचाहता है। सहसा सिंहरण का प्रवेश, युद्ध)
सिंहरणः (तलवार चलाते हुए) तुमको स्वयं इतना साहस नहींकरना चाहिए सिकन्दर! तुम्हारा प्राण बहुमूल्य है।
सिकन्दरः केवल सेनाओं को आज्ञा देना नहीं जानता। बचा अपनेको! (भाले का वार)
(सिंहरण इस फुरती से बरछे को ढाल पर लेता है वह सिकन्दरके हाथ से छूट जाता है। यवनराज विवश होकर तलवार चलाता है, किन्तुसिंहरण के भयानक प्रत्याघात से घायल होकर गिरता है। तीन यवन-सैनिककूदकर आते हैं, इधर से मालव-सैनिक पहुँचते हैं।)
सिंहरणः यवन! दुस्साहस न करो। तुम्हारे सम्राट् की अवस्थाशोचनीय है ले जाओ, इनकी शुश्रूषा करो।
यवनः दुर्ग-द्वार टूटता है और अभी हमारे वीर सैनिक इस दुर्गको मटियामेट करते हैं।
सिंहरणः पीछे चन्द्रगुप्त की सेना है मूर्ख! इस दुर्ग में आकरतुम सब बन्दी होगे। ले जाओ, सिकन्दर को उठा ले जाओ, जब तकऔर मालवों को यह न विदित हो जाय कि यही वह सिकन्दर है।
मालव-सैनिकः सेनापति, रक्त का बदला! इस नृशंस ने निरीहजनता का अकारण वध किया है। प्रतिशोध?
सिंहरणः ठहरो, मालव वीरों! ठहरो। यह भी एक प्रतिशोध है।यह भारत के ऊपर एक ऋण था। पर्वतेश्वर के प्रति उदारता दिखाने कायह प्रत्युपर है। यवन! जाओ, शीघ्र जाओ!
(तीनों यवन सिकन्दर को लेकर जाते हैं, घबराया हुआ एकसैनिक आता है।)
सिंहरणः क्या है?
सैनिकः दुर्ग-द्वार टूट गया, यवन-सेना भीतर आ रही है।
सिंहरणः कुछ चिन्ता नहीं। दृढ़ रहो। समस्त मालव-सेना से कहदो कि सिंहरण तुम्हारे साथ मरेगा। (अलका से) तुम मालविका को साथलेकर अन्तःपुर की स्त्रियों को भूगर्भ-द्वार से रक्षित स्थान पर ले जाओ।अलका! मालव के ध्वंस पर ही आर्यों का यशो-मन्दिर ऊँचा खड़ा होसकेगा। जाओ।
(अलका का प्रस्थान। यवन-सैनिकों का प्रवेश, दूसरी ओर सेचन्द्रगुप्त का प्रवेश और युद्ध। एक यवन-सैनिक दौड़ता हुआ आता है।)
यवनः सेनापति सिल्यूकस। क्षुद्रकों की सेना भी पीछे आ गयीहै। बाहर की सेना को उन लोगों ने उलझा रक्खा है।
चन्द्रगुप्तः यवन सेनापति, मार्ग चाहते हो या युद्ध? मुझ परकृतज्ञता का बोझ है। तुम्हारा जीवन!
सिल्यूकसः (कुछ सोचने लगा) हम दोनों के लिए प्रस्तुत हैं।किन्तु...
चन्द्रगुप्तः शान्ति! मार्ग दो! जाओ सेनापति! सिकन्दर का जीवनबच जाय तो फिर आक्रमण करना।
(यवन-सेना का प्रस्थान। चन्द्रगुप्त का जय-घोष)