वैदेही Brajesh Prasad द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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वैदेही

वैदेही,

मैं जब कभी कुछ लिखने बैठता हूँ तो बस इक तेरा ही ख्याल मेरे मन के खाली कमरे में धीरे से आकर बैठ जाता है | टटोलता हूँ मन को तो बस तेरे ही मौजूदगी का एहसास होता है और फिर तुम्हारे चले जाने के बाद की ख़ामोशी का | सोचता हूँ तुम मुझसे हो या मैं तुमसे, पता नहीं. सच कहूँ तो मैं ये बात तुमसे कभी नही कह पाया की तुम ही हो मेरी लिखने की प्रेरणा, ऐसा महसूस होता है की मेरे हर लिखे हुए शब्द तुम्हारी इबादत करते है तुम्हे याद करते है. मेरे लिखे हर लफ्ज़, हर शब्द और मेरी हर सोच बस तुम्हारी ही मौजूदगी का एहसास पाकर ऐसे खिल उठते है जैसे कई बरसो के पतझड़ के बाद बसंत आया हो. मेरा हर जर्रा जर्रा फूलों के भांति महक उठता है. कभी कभी सोचता हूँ तुम न होती तो क्या मेरे ये लफ्ज़ मेरे शब्द कभी पुरे हो पाते| शायद नही! इसका एहसास है मुझे|

पर तुम भी ये कभी मत सोचना की ये मेरे शब्द ये मेरी सोच मेरी ज़िंदगी में तुम्हारी जगह ले पाएगी. ये महज मेरे तुम्हे याद करने का जरिया है तुम्हारी चाहत मुझ में तब भी थी आज भी है| तुम्हे पता है! मैं जब भी खिड़की के बाहर से झांक रहे उसे चाँद को देखता हूँ तो मेरे मन में बस यही ख्याल आता है की जैसे चाँद हर वक़्त चाहता है की रात उसे अपने बांहों में लिए रहे| वैसी ही चाहत मेरे ज़ेहन में उठती है तुम्हे अपने बाहों में लिए रहूँ | पर वक़्त नही! ये वक़्त भी बड़ा बेमुरवत है न जाने क्या दुश्मनी इसकी मुझसे. मैं ये तो नही जानता बस इतना जानता हूँ.

चाँद भले ही रात की बाहों से मुट्ठी में बंद फिसलते रेत की तरह फिसल जाता है लेकिन उसकी आँखों में हमेशा एक सुकून रहता है अपने रात से दोबारा मिलने की| बस मैं वही चाँद हूँ, तुमसे मिलने को बेकरार, बहुत बेकरार, तुम्हारी बाहों में आने के लिए|

याद है न तुम्हे वो दिन, जब मैंने तुम्हे आखिरी बार देखा था जब तुम मुझे छोड़ने आई थी, हरे रंग की सलवार पहने, उपर से हरे रंग का दुपट्टा| अच्छी लग रही थी तुम| जाते वक़्त मैं उस चेहरे को अपनी आँखों में बसा लेना चाहता था.. उस वक़्त उस एक पल से मुझे प्यार और नफरत दोनों सी हो गई थी. प्यार तुम्हे देखकर और नफरत उस पल से जो मुझे तुमसे अलग कर रहे थे| तुम तो न आई पर तुम्हारी यादें मेरे साथ साथ चल दिए थे एक हमसफ़र की तरह| मानो जैसे कहती हो तुम तन्हा होकर भी अकेले नही हो| मुझे मेरी मंजिल का रास्ता बताती चल पड़ी थी किसी पेशेवर गाइड की तरह|

बस तुम्हारी यादों के सहारे मेरी मंजिल और मेरे रास्ते और आसान होते गए, सच कहूँ, मेरे कलम मेरे शब्द सब बौने है तुम्हारे आगे.. इनकी इतनी हैसियत ही नही है जो तुम्हारी यादों और बातों को शब्दों में बाँध सके.....आज बस यही रुकुंगा...क्योंकि तुम्हारी यादें ही मेरी जमापूंजी है तुम्हारी यादों को किश्तों में जीना अच्छा लगता है...................

तुम्हारा नीरव

वैदेही को नीरव से दूर हुए आज पुरे तीन साल गुजर गए है वैदेही के पास अब नीरव की कुछ बीते यादें रह गई थी और कुछ गिने चुने चंद खत...इन बीते सालों में खतों के एक एक शब्दों पर वैदेही ने कई अनगिनत आंसुओं के मोती सजाए थे इन खतों को ऐसे संभाल कर रखा जैसे कोई अपने जेवर संभालता है.......मगर बीतते वक़्त के साथ खतों में लिखे शब्द भी धीरे धीरे उसका साथ छोड़ने लगे थे चंद धुंधले शब्द ही बाकी रह गए थे खतों में.... और अगले ख़त के इंतज़ार में वैदेही का इंतज़ार और लम्बा हो चला था.............

वैदेही! वैदेही! ......

अचानक आई आवाज़ से पुराने ख्यालों में उलझे वैदेही का ध्यान टूटा. आवाज़ वैदेही की माँ की थी....वैदेही सारे बिखरे खतों को जल्दी जल्दी समेटने लगी | सारे समेटे हुए खतों को संदूकों में रखकर वैदेही अभी आगे बढ़ी ही थी की उसकी नजर दरवाज़े के सामने खड़ी माँ पर गई| वैदेही मन में हिचक लिए दबे कदमो से आगे बढ़ी की तभी उसकी माँ ने कहा

“बेटा वैदेही, कमरे की ये क्या हालत बना रखी है पूरा कमरा अस्त व्यस्त पड़ा है ऐसे रखता है कोई अपना कमरा! तुम्हारा ये बचपना कब जाएगा ” |

“अब तुम कोई छोटी बच्ची तो नही हो”!

माँ के चेहरे पर गुस्से का भाव था. कोने में चुपचाप खड़ी वैदेही माँ की सारी बात सुनती रही......

“अब ऐसे चुप क्यों खड़ी हो”....!

माँ के सवालों के जवाब में वैदेही इससे आगे कुछ बोल पाती | तभी एक बार फिर माँ की आवाज़ बीच की ख़ामोशी को चीरती हुई वैदेही की कानों में गूंज गई.............

“और ये क्या तुम अभी तक तैयार नही हुई. पता है न तुम्हे, आज लड़केवाले आनेवाले है तुम्हे देखने. बताया था न तुम्हे | ये तीसरी बार है जब कोई लड़के वाले देखने आ रहे है तुम्हे, इस बार मुझे कोई और गडबडी नही चाहिए| फटाफट ये कमरा ठीक करो और जल्दी से तैयार हो जाओ लड़के वाले कभी भी आते होंगे”...

माँ की बातें सुनकर वैदेही ने धीरे से सिर को हिला के हाँ में हामी भर दी.....

माँ कमरे से जा चुकी थी मगर वैदेही अब भी वही खड़ी थी उसकी नजर एक बार फिर उसी खतों के संदूक पर थे मगर कुछ सवालों के साथ.....सवाल थे उसके आँखों में..

“क्या मुझे यूँही उम्रभर तुम्हारा इंतज़ार करना पड़ेगा” ? “क्या युंही धीरे धीरे घुटना है मुझे” ?... कब तक तुम्हारे इंतज़ार में मैं अपने माँ बाबूजी को दुःख देते रहूंगी ? अब नही सहा जाता मुझसे ....

नीरव के इंतज़ार का दर्द वैदेही के आँखों से बह निकले थे..............

शेष अगले भाग में.....