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चंद्रगुप्त - द्वितीय अंक - 16

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(स्थल - बंदीगृह, घायल सिंहरण और अलका)

अलकाः अब तो चल फिर सकोगे?

सिंहरणः हाँ अलका, परन्तु बन्दीगृह में चलना-फिरना व्यर्थ है।

अलकाः नहीं मालव, बहुत शीघ्र स्वस्थ होने की चेष्टा करो।

तुम्हारी आवश्यकता है।

सिंहरणः क्या?

अलकाः सिकन्दर की सेना रावी पार हो रही है। पंचनंद से संधिहो गयी, अब यवन लोग निश्चित होकर आगे बढ़ना चाहते हैं। आर्यचाणक्य का एक चर यह संदेश सुना गया है।

सिंहरणः कैसे?

अलकाः क्षपणक-वेश में गीत गाता हुआ भीख माँगता आता था,उसने संकेत से अपना तात्पर्य कह सुनाया।

सिंहरणः तो क्या आर्य चाणक्य जानते हैं कि मैं यहाँ बन्दी हूँ?

अलकाः हाँ, आर्य चाणक्य इधर की सब घटनाओं को जानते हैं।

सिंहरणः तब तो मालव पर शीघ्र ही आक्रमण होगा।

अलकाः कोई डरने की बात नहीं, क्योंकि चन्द्रगुप्त को साथलेकर आर्य ने वहाँ पर एक बड़ा भारी कार्य किया है। क्षुद्रकों और मालवोंमें संधि हो गयी है। चन्द्रगुप्त को उनकी सम्मिलित सेना का सेनापतिबनाने का उद्योग हो रहा है।

सिंहरणः (उठकर) तब तो अलका, मुझे शीघ्र पहुँचना चाहिए।

अलकाः परन्तु तुम बन्दी हो।

सिंहरणः जिस तरह हो सके अलका, मुझे पहुँचाओ।

अलकाः (कुछ सोचने लगती है) तुम जानते हो कि मैं क्योंबन्दिनी हूँ?

सिंहरणः क्यों?

अलकाः आम्भीक से पर्वतेश्वर सी संधि हो गयी है और स्वयंसिकन्दर ने विरोध मिटाने के लिए पर्वतेश्वर की भगिनी से आम्भीक काब्याह कर दिया है, परन्तु आमभीक ने यह जानकर भी कि मैं यहाँ बन्दिनीहूँ, मुझे छुड़ाने का प्रयत्न नहीं किया। उसकी भीतरी इच्छा थी, किपर्वतेश्वर की कई रानियों में से एक मैं भी हो जाऊँ, परन्तु मैंने अस्वीकारकर दिया।

सिंहरणः अलका, तब क्या करना होगा?

अलकाः यदि मैं पर्वतेश्वर से ब्याह करना स्वीकार करूँ, तोसंभव है तुमको छुड़ा दूँ।

सिंहरणः मैं... अलका। मुझसे पूछती हो।

अलकाः दूसरा उपाय क्या है?

सिंहरणः मेरा सिर घूम रहा है, अलका। तुम पर्वतेश्वर कीप्रणयिनी बनोगी! अच्छा होता कि इसके पहले ही मैं न रह जाता।

अलकाः क्यों मालव, इसमें तुम्हारी कुछ हानि है?

सिंहरणः कठिन परीक्षा न लो अलका! मैं बड़ा दुर्बल हूँ। मैंनेजीवन और मरण में तुम्हारा संग न छोड़ने का प्रण किया है।

अलकाः मालव, देश की स्वतंत्रता तुम्हारी आशा में है।

सिंहरणः और तुम पंचनंद की अधीश्वरी बनने की आशा में...तब मुझे रणभूमि में प्राण देने की आज्ञा दो।

अलकाः (हँसती हुई) चिढ़ गये। आर्य चाणक्य की आज्ञा है किथोड़ी देर पंचनंद का सूत्र-संचालन करने के लिए मैं यहाँ की रानी बनजाऊँ।

सिंहरणः यह भी कोई हँसी है!

अलकाः बन्दी! जाओ सो रहो, मैं आज्ञा देती हूँ।

(सिंहरण का प्रस्थान)

अलकाः सुन्दर निश्छल हृदय, तुमसे हँसी करना भी अन्याय है।परन्तु व्यथा को दबाना पड़ेगा। सिंहरण को मालव भेजने के िए प्रणयके साथ अत्याचार करना होगा।

(गाती है)

प्रथम यौवन - मदिरा से मप, प्रेम करने की थी परवाह

और किसको देना है हृदय, चीन्हने की न तनिक थी चाह।

बेंच डाला था हृदय अमोल, आज वह माँग रहा था दाम,

वेदना मिली तुला पर तोल, उसे लोभी ने ली बेकाम।

उड़ रही है हृत्पथ में धूल, आ रहे हो तुम बे-परवाह,

करूँ क्या दृग-जल से छिड़काव, बनाऊँ मैं यह बिछलन राह।

सँभलते धीरे-धीरे चलो, इसी मिस तुमको लगे विलम्ब,

सफल हो जीवन की सब साध, मिले आशा को कुछ अवलम्ब

विश्व की सुषमाओं का स्रोत, बह चलेगा आँखों की राह,

और दुर्लभ होगी पहचान, रूप-रत्नाकर भरा अथाह।

(पर्वतेश्वर का प्रवेश)

पर्वतेश्वरः सुन्दरी अलका, तुम कब तक यहाँ रहोगी?

अलकाः यह बन्दी बनाने वाले की इच्छा पर निर्भर करता है।

पर्वतेश्वर - तुम्हें कौन बन्दी कहता है? यह तुम्हारा अन्याय है,अलका! चलो सुसज्जित राजभवन तुम्हारी प्रत्याशा में है।

अलकाः नहीं पौरव, मं राजभवनों से डरती हूँ, क्योंकि उनकेलोभ से मनुष्य आजीवन मानसिक कारावास भोगता है।

पर्वतेश्वरः अशका तात्पर्य?

अलकाः कोमल शय्या पर लेटे रहने की प्रत्याशा में स्वतंत्रता काभी विसर्जन करना पड़ता है, यही उन विलासपूर्ण राजभवनों का प्रलोभन है।

पर्वतेश्वरः व्यंग न करो अलका। पर्वतेश्वर ने जो कुछ किया है,वह भारत का एक-एक बच्चा जानता है। परन्तु दैव प्रतिकूल हो, तबक्या किया जाय?

अलकाः मैं मानती हूँ, परन्तु आपकी आत्मा इसे मानने के लिएप्रस्तुत न होगी। हम लोग जो आपके लिए, देश के लिए, प्राण देने कोप्रस्तुत थे, केवल यवनों को प्रसन्न करने के लिए बन्दी किये गये!

पर्वतेश्वरः बन्दी कैसे?

अलकाः बन्दी नहीं तो और क्या? सिंहरण, जो आपके साथ युद्धकरते घायल हुआ है, आज तक वह क्यों रोका गया? पंचनंद-नरेश,आपका न्याय अत्यन्त सुन्दर है न!

पर्वतेश्वरः कौन कहता है सिंहरण बन्दी है? उस वीर की मैंप्रतिष्ठा करता हूँ अलका, परन्तु उससे द्वंद्व-युद्ध किया चाहता हूँ।

अलकाः क्यों?

पर्वतेश्वरः क्योंकि अलका के दो प्रेमी नहीं हो सकते।

अलकाः महाराज, यदि भूपालों का-सा व्यवहार न माँगकर आपसिकन्दर से द्वंद्व-युद्ध माँगते, तो अलका को विचार करने का अवसरमिलता।

पर्वतेश्वरः यदि मैं सिकन्दर का विपक्षी बन जाऊँ तो तुम मुझेप्यार करोगी अलका? सच कहो।

अलकाः तब विचार करूँगी, पर वैसी संभावना नहीं।

पर्वतेश्वरः क्या प्रमाण चाहती हो अलका?

अलकाः सिंहरण के देश पर यवनों का आक्रमण होने वाला है,वहाँ तुम्हारी सेना यवनों की सहायक न बने, और सिंहरण अपनी, मालवकी रक्षा के लिए मुक्त किया जाय।

पर्वतेश्वरः मुझे स्वीकार है।

अलकाः तो मैं भी राजभवन में चलने के लिए प्रस्तुत हूँ, परन्तुएक नियम पर!

पर्वतेश्वरः वह क्या?

अलकाः यही कि सिकन्दर के भारत में रहने तक मैं स्वतंत्ररहूँगी। पंचनंदनरेश, यह दस्यु-दल बरसाती बाढ़ के समान निकल जायगा,विश्वास रखिए।

पर्वतेश्वरः सच कहती हो अलका! अच्छा, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ,तुम जैसा कहोगी, वही होगा! सिंहरण के लिए रथ आवेगा और तुम्हारेलिए शिविका। देखो भूलना मत।

(चिंतित भाव से प्रस्थान)

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