दस गज़लें Hindustan द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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दस गज़लें

ग़ज़ल

चाँद बोला चाँदनी, चौथा पहर होने को है.

चल समेटें बिस्तरे वक्ते सहर होने को है.

चल यहाँ से दूर चलते हैं सनम माहे-जबीं.

इस जमीं पर अब न अपना तो गुजर होने को है.

है रिजर्वेशन अजल, हर सम्त जिसकी चाह है.

ऐसा लगता है कि किस्सा मुख़्तसर होने को है.

गर सियासत ने न समझा दर्द जनता का तो फिर.

हाथ में हर एक के तेगो-तबर होने को है.

जो निहायत ही मलाहत से फ़साहत जानता.

ना सराहत की उसे कोई कसर होने को है.

है शिकायत , कीजिये लेकिन हिदायत है सुनो.

जो कबाहत की किसी ने तो खतर होने को है.

पा निजामत की नियामत जो सखावत छोड़ दे.

वो मलामत ओ बगावत की नजर होने को है.

शान 'हिन्दुस्तान' की कोई मिटा सकता नहीं.

सरफ़रोशों की न जब कोई कसर होने को है.

गंगा धर शर्मा 'हिंदुस्तान'

अजमेर (राजस्थान)

ग़ज़ल

आज तिरंगे को देखा तो जख़्म पुराने याद आये
जलियाँ वाला याद आया तोपों के निशाने याद आये

हर और तबाही बरपा थी जुल्म ढहाया जाता था
हुस्न के हाथों आशिक के ख़्वाब मिटाने याद आये

अपने पीछे दौड़ रहे उस बालक को जब देखा तो
तुम याद आये और तुम्हारे साथ ज़माने याद आये

फूटी कौड़ी भी ना दूँगा जब भी कोई कहता है
कौरव-पांडव वाले तब ही सब अफ़साने याद आये

टपटप टपके थे आँसू तब 'हिन्दोस्ताँ ' की आँखों से
अपनों के हाथों अपनों के क़त्ल कराने याद आये

गंगा धर शर्मा 'हिंदुस्तान'

अजमेर (राजस्थान)

ग़ज़ल

मक्कार चोर धूर्त तथा बदचलन तमाम ।
क्यों कर न कीजिये अब जेरे कफ़न तमाम।।

दाढ़ी बचा रही क़िबला अंजुमन तमाम।
हाथों में थाम उस्तरे फिरते बुजन तमाम।।

घोड़ा खड़ा हुआ है हुजूर देखिये जनाब।
कस-कर के जीन बैठ गये हैं विजन तमाम।।

पागल हो बादशाह वजीरों की क्या मजाल।
खामोश ताकता हाँ बेचारा वतन तमाम।।

सूरत बड़ी भयानक आँखें थी ख़ौफ़नाक।
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम।।

'हिन्दोस्ताँ' के नाम से जाना मैं जाऊँगा।
लिख्खा है भाग में मेरे सुन ले वतन तमाम।।

गंगा धर शर्मा 'हिंदुस्तान'

अजमेर (राजस्थान)

ग़ज़ल

शमशीर हाथ में हो ओ तमाम तक न पहुंचे ।
बुजदिल बड़ी सियासत जो नियाम तक न पहुंचे।।


सतसंग की परीक्षा जिस ने भी पास कर ली ।
मुमकिन नहीं कि फिर वो घनश्याम तक न पहुंचे।।


शिकवा करूँ मैं कैसे कि जवाब क्यों न आया।
गुमनाम सारे खत थे गुलफाम तक न पहुंचे ।।


अब रोक दे ओ मालिक सब गर्दिशें खला की ।
ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे ।।


जब ओखली में पूरा सर ही फंसा दिया तो ।
मुगदर से क्यों कहें कि अंजाम तक न पहुंचे ।।


'हिन्दोस्तां' भी या रब कब तक बचा सकेगा ।
जो ये तार तार खेमे ख़य्याम तक न पहुंचे ।।

गंगा धर शर्मा 'हिंदुस्तान'

अजमेर (राजस्थान)

ग़ज़ल

बज़्म में गीत गाता हुआ कौन है.
लूटता यूँ दिलों को भला कौन है.

कह रहे हैं परम-आत्मा कौन है.
देखना भाइयों जा-ब-जा कौन है.

सोचिये आसमाँ को करीबे उफ़क.
इस जमीं की तरफ खींचता कौन है .

देखना सिर्फ है सर उठे हैं कई.
जुल्म की बन्दिशें तोड़ता कौन है.

राज-रावण में सच बात पर लात है.
खींच लीजे जुबाँ , बोलता कौन है.

दौर आरक्षणों का चलन में है अब.
काबिलोंको भला पूछता कौन है.

उर्वरा हो जमीं उसपे बादल घना.
बीज है फूटता, रोकता कौन है.

खानदानी है जो ऊंचे कुल से जुड़ा.
मुफलिसी में है वो , मानता कौन है.

हुक्मरानों बिना दहशती में भला.
तालिबे इल्म को ठेलता कौन है.

क़त्ल के बाद मुर्दा फक़त लाश है.
नाम दे के दलित बेचता कौन है.

जो खिलौने मिले तो उछलता हुआ .
फूल सा मुस्कुराता हुआ कौन है.

देखिये ये सियासत की जादूगरी.
कर रहा कौन है , झेलता कौन है.

गोर में सो रहा हूँ बड़ा फ़ैल कर
हूँ मैं वाहिद यहाँ ,दूसरा कौन है

देख हिन्दोस्तान आप ही से कहे
है सभी तो मेरे अलहदा कौन है

गंगा धर शर्मा 'हिंदुस्तान'

अजमेर (राजस्थान)

ग़ज़ल

ये मस्त हुश्न तेरा ,कोई जलजला ही लगे.
मुझको तो आशिकों की , अब क़ज़ा ही लगे.


कि बढ़ रहा है दमा और घुट रही साँस भी
दवा बेअसर ,दुआ किजिए कि दुआ ही लगे


किसने किया था सौदा, अस्मत का देश की
गुलामी कि वजह कौन थे, सच पता ही लगे


बैसाखियाँ किसी को चलना, सिखाती नहीं
है चला रहा जो सबको , वो होंसला ही लगे


'हिन्दुस्तान' को देखे तो कहे दुनिया बरबस
कामयाबियों का ये कोई सिलसिला ही लगे

गंगा धर शर्मा 'हिंदुस्तान'

अजमेर (राजस्थान)

ग़ज़ल

जो जहाँ भी जहाँ से उठता है .
तो ज़नाजा वहाँ से उठता है .

बात पूरी नहीं करी तो फिर.
अक्द तेरी जबां से उठता है.

आब ही तो है जान मोती की .
भाव उसका वहाँ से उठता है.

कश्तियाँ डूब डूब जाती हैं.
यह बवंडर कहाँ से उठता है .

बस्तियां खाक ही न हो जाये.
ये धुँआ सा कहाँ से उठता है.

आग से खेलता भला क्यां है.
ये पतंगा कहाँ से उठता है.

इल्म तो 'हिन्दुस्तान' से आया .
शोर सारे जहाँ से उठता है.

गंगा धर शर्मा 'हिंदुस्तान'

अजमेर (राजस्थान)

ग़ज़ल

चाहे तो पीर -पयंबर-कि कलंदर देखो
मौत से छूट सके ना, कि सिकंदर देखो
.
ये कातिल नर्म बाहें हैं हमारे यार की
सिमट के इनमें खुद ही न जाए मर देखो.
.
दीखता है अँधेरा ही अँधेरा हर तरफ
जुल्फ-ए- यार लगता गई बिखर देखो
.
कोई ताकत यकीन से बढ़कर नहीं होती
है अगर यकीं तो तैरा के पत्थर देखो
.
अजमेर तो है मरकज कढ़ी-कचौरी का
खाई नहीं कभी तो अब खा कर देखो
.
राम को राह नहीं देकर के क्या मिला
पानी पानी हुआ जाता है समंदर देखो
.
'हिन्दुस्तान' का लिक्खा तारीख ही समझो
लिख के नहीं मिटाता कभी अक्षर देखो

गंगा धर शर्मा 'हिंदुस्तान'

अजमेर (राजस्थान)

ग़ज़ल

कहने को घरोंदें हैं पर अपने नहीं होते
आजाद परिंदों के घर अपने नहीं होते
.
जो पाग कोई बांधे तो सोच-समझ लेना
पगड़ी जो पराई हो सर अपने नहीं होते
.
था ठीक अँधेरों का ना होना यकीनन ही
ख्वाबों से भरे दीदे गर अपने नहीं होते
.
गर माल है खीसे में तो खल्क तुम्हारा है
खाली भर होने से घर अपने नहीं होते
.
श्री कृष्ण की बंशी में साँसें सब राधा की
बंशी के कलेजे में स्वर अपने नहीं होते
.
'हिन्दुस्तान' की गजलें बेसार रहीं होती
जज्बात भरे उनमें गर अपने नहीं होते

गंगा धर शर्मा 'हिंदुस्तान'

अजमेर (राजस्थान)

ग़ज़ल

चीज अपनी थी छुपा ली गयी है.....
चिरागों से लौ चुरा ली गयी है....

डालकर झोली में फ़क़ीर की एक सिक्का...
दुआएँ करोड़ों की उठा ली गयी है .....

सहर होगी मगर पहले जैसी नहीं...
रोशनी नई कुछ मंगा ली गई है....

शेर को धमकियाँ गीदड़ों से मिली है...
आरक्षण की मदिरा चढ़ा ली गयी है....

'हिंदुस्तान' तो प्यार का फलसफा है...
कहानी थी इतनी, सुना ली गयी है....

गंगा धर शर्मा 'हिंदुस्तान'

अजमेर (राजस्थान)